राज़ (संदीप कुमार तिवारी)

01-09-2020

राज़ (संदीप कुमार तिवारी)

संदीप कुमार तिवारी 'बेघर’ (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

एक राज़ जो मेरे दिल में दफ़न है
सबसे कह दूँ कि तुमसे गिला करूँ?
बस अब बहुत हो चुकीं बेकार की बातें,  
तू मुझे भूल जा मैं भी ना तुम्हें मिला करूँ।
 
देख  ये वक़्त  ज़रूर  बीत जाएगा 
जो जगा है तेरा ज़मीर, सो जाएगा
ओ मग़रूर! अब तू याद किसे आयेगी? 
ओ मग़रूर! अब तुम्हें कौन याद आएगा?  
मुहब्बत का सौदा इतना आसां भी नहीं,
मेरा नाम लेकर ज़माना तुझे सताएगा ।
 
मेरे  लिए  तू  इबादत  हो  गई  थी
तेरी हरकतों की आदत हो गई थी
तू ही  बता अब मैं क्या करूँ? 
एक राज़ जो मेरे दिल में दफ़न है
सबसे कह दूँ कि तुमसे गिला करूँ?
 
दिल ख़ाली और मन सूना था।
तेरे ख़्वाब का झालर बुना था।
तब मेरे लिए ब्रह्मांड घूमा था–
जब तूने पहली बार चूमा था।
एक बात कहूँ! तेरे जाने के बाद-
अकेले कमरे में मैं देर तक झूमा था।
 
मन बना, तेरे पहलू में खो जाऊँ। 
तुझमें खोकर, मैं तेरा हो जाऊँ।
उफ़्फ़ ! ये आह का मैं क्या करूँ? 
एक राज़ जो मेरे दिल में दफ़न है
सबसे कह दूँ कि तुमसे गिला करूँ?
 
मिलना, बिछड़ना ख़ैर, ये सब तो रीत है!
पर हम शौक़िया बिछड़ें क्या यही प्रीत है? 
हारकर जीतना  बेशक सही है लेकिन,
मैं जीत के तुम्हें हारा ये कैसी जीत है?
ज़िंदगी के थपेड़ों ने तुम्हें दूर किया,
मैं जो दुहरा ना सका तू वही गीत है।
 
अपना दिल मैंने ख़ुद ही तोड़ दिया। 
तुम्हें छोड़ा औ’ दुनिया को छोड़ दिया।
कम्बख़्त पर उस 'राज़' का मैं क्या करूँ?
एक राज़ जो मेरे दिल में दफ़न है
सबसे कह दूँ कि तुमसे गिला करूँ?

✍️संदीप कुमार तिवारी

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