कुछ दुबके जज़ बात का ग़म है

01-07-2023

कुछ दुबके जज़ बात का ग़म है

संदीप कुमार तिवारी 'बेघर’ (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

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कुछ दुबके जज़ बात का ग़म है।
ना जाने किस बात का ग़म है।
 
ये जो आई ही नहीं अब तक,
बस मुझको उस रात का ग़म।
 
रोटी का ग़म है किसी को तो,
कुछ भूखों को भात का ग़म है।
 
हिंदू मुस्लिम का नहीं साहब,
कुछ है तो बस जात का ग़म है।
 
उन्हें ग़म है देश की, मुझको,
य्हाँ बिगड़े हालात का ग़म है।
 
बाहर से हम जीत कर खुश हैं,
बस अंदर के मात का ग़म है।
 
क्या सीतम है साथ में रहकर,
उसको मेरे साथ का ग़म है।

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