किन्तु मैं हारा नहीं
संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’बह चला जब हिम से मैं पर्वतों को चीर कर,
राह में फिर रूप कितने थे मुझे धरने पड़े।
झरना, नदी, सिंधु बना मंज़िल की अपनी चाह में,
जंगल, पहाड़, चट्टान से थे मुझे लड़ने पड़े।
कभी भी ख़ाली मुश्किलों से थी मेरी धारा नहीं!
किन्तु मैं हारा नहीं।
कभी मैं गिरता शिव की जटाओं से सवाल बन।
कभी मैं गिरता आँख से दुःख की घटा विशाल बन।
है चाह तुझको भी यहाँ कुछ बन दिखाने का अगर,
बनने की अभिलाषा है तो मेरी तरह मिसाल बन।
बेस्वाद हूँ जग में यहाँ किसी को मैं प्यारा नहीं!
किन्तु मैं हारा नहीं।
गिरता हूँ जब बूँद बन अंबर से वसुंधरा पे मैं।
फिरता हूँ कभी खेत, छप्पर, पेड़ और धरा पे मैं।
निश्चय नहीं कोई चाह हूँ मैं दिशाहीन संवेदना,
चलना है बस चलता ही हूँ हर हाल में धरा पे मैं।
दर-दर भटकता मैं रहा डेरा कहीं डारा नहीं!
किन्तु मैं हारा नहीं।
हर रंग को समेटकर हर रंग में ढल जाऊँ मैं।
दुःख हो या कि सुख मुझे हर हाल में मुस्काऊँ मैं।
पानी हूँ मैं मुझको समझ हर ज़िंदगी का सार हूँ,
जग में हूँ मैं तेरे लिये तुझको जीना सिखलाऊँ मैं।
माना कि मैं हूँ यहाँ किसी आँख का तारा नहीं!
किन्तु मैं हारा नहीं।
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