कुछ लोग बदले और आब-ओ-हवा

01-10-2023

कुछ लोग बदले और आब-ओ-हवा

संदीप कुमार तिवारी 'बेघर’ (अंक: 238, अक्टूबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

कोई दम तक ज़िंदगी निकले 
हादसों को तो चैन मिला। 
साँस जैसे रुक सी गयी 
जाँ निकली तो क्या हुआ? 
वक़्त के साथ हम भी बदले, 
कुछ लोग बदले और आब-ओ-हवा। 
 
उसकी फ़ितरत में बेवफ़ाई नहीं
और वो औरत पराई नहीं 
दिये का क़ुसूर कुछ भी नहीं
दिये में रौशनाई नहीं
साफ़ इनकार से घबराती है
रौशनी अँधेरों से क़तराती है
उसकी हैसियत के हम नहीं
बस कहती नहीं, सकुचाती है। 
यही कि उसे अब मेरी ज़रूरत नहीं
और ज़रूरत भी हो तो क्या हुआ? 
वक़्त के साथ हम भी बदले, 
कुछ लोग बदले और आब-ओ-हवा। 
 
कोई मख़मल कोई बबूल पे सोया है
वही काटता है जो बोया है। 
मैं ऐसे जाऊँ कभी लौट के न आऊँ
उसे पता चले क्या खोया है। 
सिलसिला कि अब ये ख़त्म
हो कुछ ख़्वाब कुछ सपनों का
चलो अच्छा है पहचान हुई 
वक़्त आने पे अपनों का। 
नए दौर के व्यपारिक जीवन 
में ज़जबाती होना मना सा है। 
प्रेम और प्यार मुहब्बत बस
पत्थर को पूजना सा है। 
पर और नहीं बस एक हद तक 
पूजा गया तो पूजा गया। 
वक़्त के साथ हम भी बदले, 
कुछ लोग बदले और आब-ओ-हवा। 

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