एक ऐसा बंधन जो बंधन ना लगे

01-08-2023

एक ऐसा बंधन जो बंधन ना लगे

रीता तिवारी 'रीत' (अंक: 234, अगस्त प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

सूरज अपनी अरुणिमा के साथ क्षितिज में समाने वाला था, चिड़िया चहचहाती हुई अपने नीड़ की ओर झुंड में चली जा रही थी। हवा अपनी मध्यम गति से निरंतर बढ़ती चली जा रही थी, पर पंखुड़ी के हृदय का शोर था जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। अजीब सी चुभन और कसक उसके हृदय में समुद्र की लहरों की तरह अनजाने ही उठ रही थी। 

तभी रेलगाड़ी की गति भी धीरे-धीरे थमने लगी। पंखुड़ी को लगा कि स्टेशन आ गया। 

चाय वाले की आवाज़ उसके कानों में टकराई, “मैडम चाय चाहिए।” 

और इन्हीं शब्दों के साथ पंखुड़ी का ध्यान भंग हुआ। उसने चाय वाले को पैसे देकर चाय ली और चाय की चुस्की के साथ प्रेम की प्रेम भरी यादों में खो गई। पैरों में बिछिया, हाथों में मेहँदी, माँग में सिंदूर और सोलह सिंगार के साथ वह पहली बार प्रेम के साथ सात फेरे लेकर विवाह बंधन में बँधी। पंखुड़ी के लिए वह उसके जीवन का सबसे अविस्मरणीय पल था। वह बहुत ही घबराई हुई थी कि ना जाने कैसा ससुराल होगा? मैं वहाँ पर रह पाऊँगी या नहीं, पर जब वह पहली बार प्रेम से मिली तो उसका यह डर समाप्त हो गया। प्रेम तो बहुत ही सुलझे हुए इंसान हैं। उन्हें सारी बातें बहुत ही आसानी से समझानी आती हैं। 

उनके साथ बातें करते हुए पंखुड़ी का सारा समय कैसे कट जाता था, पता ही नहीं चलता था। जब भी पंखुड़ी को माँ पापा की याद आती, प्रेम एक पल के अंदर उसे अपनी बातों में इस प्रकार उलझा देते कि वह हँसे बिना ख़ुद को रोक नहीं पाती थी। 

ऐसा जीवन साथी पाकर पंखुड़ी बहुत ही ख़ुश थी, और अपने आप को सबसे भाग्यशाली मानती थी। पति ही नहीं उनका पूरा परिवार ही प्रेम और सौहार्द से परिपूर्ण था। सास, देवर और जेठानी से भरा-पूरा उसका घर-संसार उसे स्वर्ग की अनुभूति देता था। सबके बीच में बहुत ही प्रेम था। उसकी सास तो उस पर जान लुटाती थी। समय बीतते ही वह ख़ुशी का पल भी आ गया जब वह पहली बार माँ बनने वाली थी। उसे आज भी वह दिन याद था जब प्रेम ने पहली बार उसके मुँह से यह बात सुनी, तो कितना ख़ुश हुए थे, और उसे अपनी गोद में उठाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की थी। सास ने भी उस पर प्यार ही लुटाना शुरू कर दिया। 

पंखुरी भी बहुत ख़ुश थी फिर अंकुर उसकी गोद में आया। उसका पूरा जीवन ख़ुशियों से भर गया। पति प्रेम और अंकुर के साथ उसका जीवन सुखद बीत रहा था। रेलगाड़ी ने फिर से गति पकड़नी शुरू कर दी और पंखुड़ी फिर से यादों में खो गई। पहली बार वह अपने ससुराल से मायके जा रही थी, अपने बेटे अंकुर के साथ। उसे मायके जाने की बड़ी ही ख़ुशी थी सुबह से ही वह तैयारियों में लगी थी। और प्रेम उसे रह-रह कर छेड़ रहे थे। 

पंखुड़ी दिल्ली से रेल गाड़ी से अपने मायके जा रही थी जो कि गाँव में था। अपना सफ़र पूरा करके वह गाँव तो आ गई, पर यह क्या! आज उसे यह घर सूना-सूना क्यों लग रहा है? ऐसा लग रहा था कि यह घर उसका नहीं है। इस घर में उसका कोई वुजूद नहीं है। उसे यहाँ पर कुछ ख़ालीपन का अनुभव हो रहा था। वह सोचने लगी, ‘शादी से पहले मैं कितने नख़रे कर रही थी। पापा मैं शादी नहीं करूँगी। पता नहीं वह लड़का कैसा होगा? मैं आपके साथ रहूँगी। मैं कहीं नहीं जा रही।’ और पापा ने बड़े ही प्यार से समझाया था, ‘बेटी यह रिश्ता सबसे अनमोल रिश्ता होता है। एक दिन देखना तुम ख़ुद ही मुझसे बोलोगी। तब मैं तुमसे पूछूँगा।’ 

तब मुझे पापा की यह बात मज़ाक़ लगी, लेकिन आज प्रेम के प्यार ने मेरी पूरी ज़िन्दगी बदल दी। आज मुझे समझ में आया शादी एक ऐसा बंधन है, जो बंधन ही नहीं लगता और प्रेम जैसा जीवनसाथी पाने के लिए तो अगर सौ बार जन्म लेना पड़े और इस बंधन में बँधना पड़े तो मैं सौ बार इस बंधन में बँधना चाहूँगी। 

किसी तरह से एक सप्ताह मायके में रहने के बाद उसके जाने का समय आ गया और वह अपने ससुराल वापस जा रही थी। यादों के भँवर से बाहर निकलकर वह सोचने लगी कि, ‘अभी सात ही दिन तो हुए हैं प्रेम से बिछड़ कर फिर उनसे मिलने की इतनी जल्दी क्यों हो रही है? मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं उनसे एक पल भी दूर नहीं रह सकती। कल तक तो मुझे विवाह एक बंधन लग रहा था, मुझे उससे घुटन सी हो रही थी, पर आज वह मेरी कमज़ोरी कैसे बन गया? यह कैसा बंधन है? जो बंधन होकर भी बंधन नहीं लगता।’ 

रात के दस बज गए थे। रेलगाड़ी अपने गंतव्य तक पहुँच चुकी थी। तारों के सुंदर प्रकाश और दिल्ली की सड़कों की सुंदर रोशनी में चेहरे पर हँसी के भाव लिए, मुस्कुराते हुए प्रेम स्टेशन पर पंखुड़ी का इंतज़ार कर रहे थे। रेलगाड़ी से उतरते ही उन्होंने मुस्कुराते हुए पंखुड़ी का स्वागत किया और पंखुड़ी को छेड़ते हुए बोले, “क्यों मैडम! मायका अच्छा नहीं लगा क्या? यह चेहरा उतरा-उतरा हुआ क्यों है?”

पंखुड़ी सब कुछ भूल कर प्रेम के गले लग गई। आज पंखुड़ी को एहसास हुआ कि कुछ ऐसे अनमोल रिश्ते होते हैं, जिसमें जाने से पहले हम हज़ार अच्छी बुरी कल्पनाएँ करते हैं, लेकिन उसे पाने के बाद हम उनमें खो से जाते हैं। सिर्फ़ कल्पनाओं के आधार हम किसी रिश्ते का आकलन नहीं कर सकते। रिश्तों को समझने के लिए उसके साथ जीना पड़ता है और पति पत्नी का रिश्ता तो एक दूसरे के साथ जीने और समर्पण का नाम है, जो प्यार और विश्वास पर टिका होता है। वह प्यार से बाँधा गया बंधन जो बंधन होकर भी बंधन नहीं लगता। आज पंखुड़ी को सही मायनों में उसका प्रेम मिल गया था। 

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