नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ

नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ  (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
लोरी की प्रतिध्वनि

प्रेम की अनेक कहानियाँ हैं। लेकिन कुछ ऐसी प्रेम कहानियाँ भी हैं, सूक्ष्म तौर पर वे प्रेम-कहानियाँ नहीं हैं, जहाँ कोई सामान्य इंसान प्यार पाकर कितना असामान्य हो जाता है। प्रेम और लोरी-क्या वे वस्तुतः समानांतर शब्द नहीं हैं? शिक्षक और आराधना-क्या वे पर्यायवाची नहीं हैं? 

मैं पिछले दस वर्षों से संयुक्त राज्य अमेरिका में रह रही थी और अब जहाँ मैं पिछले दो वर्षों से अपनी बेटी के साथ भारत में रहती हूँ, कुछ साल पहले कभी जंगल हुआ करता था। दल-दल, काला-काला पानी। जहाँ कोई नहीं जानता था, गोपालपुर समुंदर के पास, एक छोटा-सा गाँव क़स्बे में तब्दील हो जाएगा। ओड़िशा के ब्रह्मपुर विश्वविद्यालय में काम करते समय मैं हर दिन दस किलोमीटर गाड़ी चलाती हूँ, और अपनी बेटी नीरा को रास्ते में पड़ने वाले अपने पब्लिक स्कूल में छोड़ देती हूँ। मैंने यहाँ रहने का फ़ैसला किया है, क्योंकि मैं हमेशा नीले रंग को देखते हुए जीवन जीना चाहती थी। अब यह जगह धीरे-धीरे एक बंदरगाह में बदल रही है, भुवनेश्वर और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के हज़ारों इंजीनियर हर दिन इस क्षेत्र में आते हैं। यह फूलों का शहर बनता जा रहा है। मेरी बेटी ने “अहे दयामय विश्व बिहारी” के स्थान पर विलियम ब्लैक और शेली के गीत सीखे हैं और उसकी मिस ने अपनी दादी माँ को बदल दिया है। शिक्षिका मिस श्रुति पालो अपने आपको, जो मिस पॉल के रूप में बुलाया जाना पसंद करती हैं, ओड़िया प्यार से बोलती हैं, जैसे कैटरीना कैफ़ हिंदी बोलती हैं, अपनी कहानियाँ बताती हैं। वह उसे रथ यात्रा को ‘कार फेस्टिवल’ के रूप में परिचित करवाती है। वह उन्हें कभी-कभी भ्रमण पर ले जाती है और भगवान जगन्नाथ, कैंचमाली, लकड़ी के घोड़े, जूट बैग, पिपिली की कैनोपियों को दिखाती है, और उन्हें बताती है, “बच्चो देखो! हमारी प्राचीन संस्कृति।” 

नीरा शाम को ‘हमारे गाँव’ विषय पर मुझे अपना पैराग्राफ पढ़कर सुनाती है—जहाँ गाँवों को इस दुनिया से बाहर दिखाया गया है, जहाँ अजीब जीव रहते थे और जीवन भी अजीब है। जहाँ लोग और गायें एक साथ सँकरी गलियों में चलती हैं, लोग दिन में तीन बार चावल खाते थे, महिलाएँ साड़ी के अलावा कुछ भी नहीं पहनती हैं, बच्चों के पास कहानियाँ सुनने के अलावा शायद ही कोई होमवर्क या क्लासवर्क होता है, वे गुणा-भाग की तालिकाएँ एक गाने के रूप में याद करते हैं। इस गर्मी की छुट्टी में मैं नीरा को अपने गाँव ले गई, क्योंकि उसे ‘हमारा ग्रामीण ओड़िशा’ पर अपने समाज शास्त्र की पढ़ाई के लिए एक परियोजना कार्य तैयार करना था। हम उस जगह पर गए जहाँ मेरे विधुर पिता और उसकी विधवा माँ के साथ रहते थे, ब्रह्मपुर से लगभग 200 किलोमीटर दूर। 

मेरी दादी अस्सी साल की है, लेकिन अभी भी वह दिमाग़ से तेज़ है, भले ही उसका शरीर साथ नहीं देता है। दादी ने नीरा को अपने बचपन और अपने गाँव की कहानियाँ सुनाईं। नीरा को लगा कि वह कोई भूत-कहानी है, काल्पनिक। परदादी, बूढ़ीमाँ, झूठ बोलती थी। महानगर में रहने वाली लड़की कैसे मान सकती थी कि अतीत में हमारा जीवन कविता की तरह सुंदर था? 

जब हम बच्चे थे तब जीवन कविता की तरह था। सुबह-सुबह मैला ढोने वाली महिला सड़कों पर झाड़ू लगाती है। दूध दोहने वाले अपने उपयोग में आने जितना दूध निकालने के बाद गोमाता अपने थनों से बचे हुए दूध को बछड़ों को पिलाने के लिए छोड़ देते थे। हम टिन के डब्बों में भरे जा रहे ईंधन कोयले की धात्विक ध्वनि सुनकर उठ जाते थे। एक डब्बा 50 पैसे का मिलता था, जो एक सप्ताह चल जाता था, रसोई ईंधन के रूप में। माँ ध्यान से देखती थी, ऐसा न हो कि कहीं कोयला-वाला धोखा दे जाए। लेकिन क्या किसी ने किसी को धोखा दिया? पाटा मौसी कुएँ के पास राख से बर्तनों को रगड़कर साफ़ करती थी। हमारी दैनिक पूजा के लिए फूल देने वाली बूढ़ी औरत फूलबूढ़ी और पाटा मौसी के बीच हमेशा लड़ाई चलती थी, क्योंकि पाटा मौसी को उस बूढ़ी औरत की तुलना में सस्ते में ताज़ा फूल मिल जाते थे। सुदामा भाई अपनी भैंस को कुएँ के पास नहलाता था, जो नीरा को उसकी माँ के कार वाशर की याद दिलाता है। आँगन के पिछवाड़े में गोबर का पानी छिड़कती माँ, ऑल इंडिया रेडियो सुनते हुए चाय की चुस्की लेते पिता। ”आकाशा-वाणी। गौरंगा चरण रथ द्वारा समाचार बुलेटिन।” मदन चोरी के फूलों को लेकर मंदिर जा रहा है, मंत्रों का जाप करते हुए; ओशी की माँ किसी को डाँट रही है, शायद अपनी बहू को। हमारे पड़ोसी का नाम चेयरमैन दिगल था। गाँव वाले अपने बच्चों को अजीबोग़रीब नाम देते थे। नाम वाचक संज्ञा वास्तव में इस अर्थ में मायने रखती थी कि जो कुछ भी क़ीमती है—उदाहरण के लिए मिट्टी का तेल—वही संभावित नाम रखा जाएगा। सम्मानजनक स्थिति या नौकरी देखकर भी संभावित नाम रखे जाते थे। इस तरह, कई ग्रामीणों ने अपने बच्चों को अजीब-अजीब नाम दिए, जैसे कि चेयरेमैन नायक, केरोसिन प्रधान, अमिताभ बच्चन दिगल, प्रेसीडेंट नायक, धमेंद्र नायक या हेमा मालिनी प्रधान। 

सुबह-सुबह उठकर मैं और राजू भैया कुएँ के पास बैठकर उनींदे अपने दाँतों को ब्रश कर रहे थे। चेयरमैन दिगल की माँ का कुएँ में पानी भरने आ रही थी। दादी हमारे स्नान के लिए ताज़े ठंडे पानी की बाल्टी में गर्म पानी मिला रही थी, फिर मेरे लंबे बालों में लाल रिबन से फूलों की आकृति जैसी चोटी गूँथती थी। मेरी दो बड़ी बहनें घर पर थीं, हर समय रुमाल या खिड़की के पर्दों पर कढ़ाई करती थीं, शादी का इंतज़ार कर रही थीं। मैं और राजू हाटापाड़ा यूपी स्कूल की कक्षा प्रथम और द्वितीय में पढ़ते थे। स्कूल दूर से गोदाम की तरह लग रहा था। 

पाढ़ी सर ऐसे शिक्षक थे, जो अपने बालों पर इतना तेल लगाते थे कि उनके पूरे माथे पर मुँहासे निकल गए थे। सबिता दीदी (हमारे स्कूलों में, शिक्षकों को दीदी के रूप में संबोधित किया जाता था, भले ही वे साठ साल की थीं!), युवा और सुंदर थी, मैं सामने वाली पंक्ति में बैठकर उनकी साड़ी पकड़ती थी, जब वह ब्लैक बोर्ड पर लिख रही होती थी। हमारे गणित के शिक्षक साहू सर के कठोर अनुशासन में हमें मौत नज़र आने लगती थी। सौ में से जितने भी कम अंक आते, उतने डंडे खाने के लिए हमें तैयार रहना पड़ता था और फिर वास्तव में सभी विषयों की एकमात्र शिक्षक बूढ़ी दीदी मेरी पसंदीदा शिक्षक थी। 

मुझे अभी भी नहीं पता है कि उसका वास्तविक नाम क्या है। उस समय सभी उसे बूढ़ी दीदी के नाम से बुलाते थे, हो सकता है वह सभी शिक्षकों में उम्र में बड़ी होगी। 

हम सुबह 7 बजे स्कूल पहुँचते थे और “आहे दयामय विश्व बिहारी, घेना दयाबाहि मोरो गुहारी” की प्रार्थना करते थे। कुछ शरारती लड़के उसकी जगह “तम बरिडे सागा कियारी, तुमे केते खुमटी खूँटी खाऊंचा, आमे मागिले टिके ना दाउचा” पंक्ति गाते थे, (जिसका अर्थ होता है, आप अपने पिछवाड़े में पालक, साग-सब्जी उगाती हो, और हमारे माँगने पर हमें कुछ भी नहीं देती हो) और मैं हँसने लगती थी। गणित के शिक्षक साहू सर मुझे घूरते थे, तो मैं बूढ़ी दीदी की गोद छिप जाती थी। 

उसके बाद कक्षाएँ शुरू होतीं थीं। पहली कक्षा का कभी भी कोई रूम नहीं था, एक बरामदे में खुले थिएटर की तरह एक काले बोर्ड और बीच में एक कुर्सी के साथ कक्षा शुरू होती थी। बूढ़ी दीदी थोड़ी देर के लिए उस पर बैठकर फिर नीचे उतर जाती थी और फ़र्श पर हमारे साथ बैठ कर हमारी नाक पोंछते हुए, हमारे सिर से जूँ निकालते हुए, हमें कहानियाँ सुनाते हुए, गाने गाते हुए, हमारे नोट बुक्स पर लिखकर हमें वर्णमाला सिखाते हुए, हमें चिढ़ाने के लिए तरह-तरह के चेहरे बनाते हुए, हमें भूख लगने पर खिलाती थी जंगली जामुन, जो घर पर वर्जित थे; और यहाँ तक कि हमें नींद आने पर अपनी गोद में सुलाने के लिए वह लोरी भी गाती थी; सुबह 7 बजे से दोपहर 1 बजे तक वह हमारे साथ रहती थी। 

बूढ़ी दीदी मेरी जानकारी में सबसे ख़ूबसूरत महिला थी। मुझे नहीं पता, वह हमेशा क्यों केवल एक सफ़ेद साड़ी ही पहनती थी, हल्की सफ़ेद या धूसर। मेरी माँ और दादी के पास बहुत सारी साड़ियाँ थीं, पिताजी साल में तीन बार उनके लिए नई साड़ियाँ ख़रीदते थे। मेरे पिता गाँव के सरपंच थे और हमारा गुज़ारा काफ़ी अच्छी तरह से हो रहा था। मैं अपनी कुछ साड़ियाँ बूढ़ी दीदी को उपहार देना चाहती थी। यहाँ तक कि मैंने उनसे एक बार पूछा, क्या मैं उसे घर से कुछ साड़ियाँ लाकर दे सकती हूँ? पर उन्होंने कहा, नहीं, कभी चोरी नहीं करनी चाहिए। कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए। खाने से पहले और बाद में अपने हाथों को धोएँ। अपने माता-पिता के पैर छूएँ। किसी से ईर्ष्या न करें। अच्छा करो, अच्छे बनो। वह जो कुछ भी कहती थी, मेरे लिए वेद की तरह होता था। वह वास्तव में ग्राम्य सादगी का प्रतिनिधित्व करती थी। वह हम बच्चों के लिए एक माँ से अधिक थी। 

हाज़री लेते समय, यहाँ तक कि बिना देखे हम सभी की उपस्थिति लगा देती थी। क्योंकि हम उनकी कक्षा में कभी अनुपस्थित नहीं रहते थे। 

उसका चेहरे पर दिव्य तेज था, विच्छेदित विशेषताओं के साथ—सपाट नाक, चेहरे पर झुर्रियाँ, असमान दाँत और उज्ज्वल आँखें—वह मेरी नज़रों में बहुत सुंदर थी। उनके पास माँ का वात्सल्य था, प्यार की सुगंध लिए। वह नरम हृदय की थी। वह सबसे अच्छी शिक्षक थी, हमें संख्या, वर्णमाला, संगीत, सब-कुछ, सारे विषयों को सिखाया। हमने कभी भी परियोजनाएँ तैयार नहीं कीं, हमारे पास कोई छुट्टी में होमवर्क नहीं मिलता था, कोई अध्ययन पर्यटन नहीं होते थे, कोई इकाई परीक्षण नहीं होता था, कोई सेमेस्टर नहीं होता था, लेकिन हमारा प्रशिक्षण दीर्घकालिक और मस्तिष्क-आधारित रहता था। जो कुछ भी उन्होंने हमें सिखाया था, आज भी वह मेरे दिमाग़ में अंकित है, मेरी हार्ड डिस्क में स्थायी रूप से सहेजा हुआ। 

वह न केवल हमें सिखाती थी। वह हमें जीवन के लिए तैयार कर रही थी। हमने उनसे पवित्रता, उदारता, ईमानदारी, सच्चाई और सहानुभूति सीखी। हमने उनसे प्यार के अक्षर सीखे। 

सर्दियों की सुबह के दौरान, हेडमास्टर श्री वेलेंटाइन प्रधान, एक और व्यक्ति ने, हमें नीचे आकर धूप में बैठने के लिए कहा, क्योंकि कक्षा-प्रथम का बरामदा बहुत ठंडा था। ऐसे ही एक मौक़े पर, मैं अपने स्कूल बैग को खुला छोड़कर खेतों में चली गई क्योंकि हमारे स्कूल में कोई वॉशरूम नहीं था, नीरा के लिए यह आश्चर्य की बात थी। उस दौरान बूढ़ी कुछ दूसरे कार्यों में व्यस्त थीं, अन्य बच्चे खेल रहे थे। तभी एक गाय वहाँ घुस गई, जहाँ हमारे बैग रखे गए थे और मेरी गणित की कॉपी का लगभग आधा हिस्सा खा लिया! 

“हे भगवान! आज माँ मुझे खा जाएगी। अब मैं क्या करूँ?” मैं रोने लगी। 

यह देखकर बूढ़ी दीदी ने मुझे अपने बाएँ हाथ से अपनी गोद में उठा लिया। जब मैं पहली कक्षा में थी, तब मैं शायद ही कभी पंद्रह किलो की रही हूँगी। (मगर मेरी नीरा कक्षा V में पढ़ती थी तो उसका वज़न पचास किलो था, आख़िरकार पिज़्ज़ा, बर्गर, फ़्रैंच फ्राइज़ खाने वाले आरामतलबी बच्ची है!) 

वह मेरा सिर थपथपाते हुए चेहरा पोंछकर कहने लगी, “माँ, रोओ मत,” वह हमें प्यार से माँ कहती थी, “मैं अपनी कॉपी से तुम्हारे कॉपी की नक़ल करूँ दूँगी, ठीक है?” 

वास्तव में ऐसा ही किया, रातों-रात। क्या वह घर पर अकेली थी? क्या उसके घर में कोई और काम नहीं था? मेरी माँ और दादी हर समय खाना पकाने, वड़ी बनाने, अचार बनाने या घर की सफ़ाई करने में व्यस्त रहती थीं। स्कूल में उन्हें बिल्कुल समय नहीं मिलता था, उनकी कक्षा में साठ शरारती बच्चों हमेशा उन्हें पागल बना देते थे। 

कई सालों बाद, जब मैं बड़ी हुई, अपनी वार्षिक छुट्टी के दौरान मैं उनसे मिलने गई, पहली बार उन्होंने मुझे बताया कि वह अपर्णा है, न केवल बूढ़ी दीदी, और जब वह मुश्किल से पंद्रह साल की थी तो उसकी शादी हो गई; उसके दो बच्चे भी हुए, फिर एक दिन उसके पति ने दूसरे धर्म परिवर्तन कर बच्चों के साथ इंग्लैंड चला गया, उसे पीछे अकेले छोड़कर, क्योंकि उसकी किसी दूसरी सुंदर महिला से मुलाक़ात हो गई, जिसके भाइयों ने उसकी विदेश यात्रा और विदेश में नौकरी का बंदोबस्त किया था। वह अकेली हो गई थी। वह अपने बच्चों को हमारे अंदर देखने की कोशिश करती थी, निःस्वार्थ भाव से हमारी देखभाल करते हुए उन्होंने अपने जीवन को एक नया अर्थ दिया। उसने सुना था कि उसके बच्चे विवाहित होकर लंदन में बस गए थे, अब उसके पोते-पोतियाँ थीं। लेकिन मैंने उसकी आँखों में कभी आँसू नहीं देखे थे। हमेशा एक मुस्कान, चेहरे पर वात्सल्य भाव, स्वर्गिक धैर्य, आत्मविश्वास। इस वजह से वह सबसे प्यारी, सबसे सुंदर महिला बन गई। 

बूढ़ी दीदी सुबह बहुत जल्दी हमारे हाटापाड़ा यूपी स्कूल पहुँच जाती थीं, अन्य शिक्षकों से कम से कम आधे घंटे पहले। क्योंकि वह ग़रीब बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन का ध्यान रखती थी। सरकार ने ग़रीबी रेखा से नीचे के बच्चों के लिए दलिया से बने मध्याह्न भोजन की योजना बनाई थी। बूढ़ी दीदी इसे पूरी सावधानी से पकाती थीं, क्योंकि उन्हें लगता था कि सरकारी रसोइये बहुत लापरवाह होते हैं, कभी भी भोजन की स्वच्छता और स्वाद की परवाह नहीं करते हैं। जब तक हम स्कूल पहुँचते, तब तक ताज़ा पके हुए दलिया उपमा की ख़ुश्बू हवा में तैरती होती। मेरी लार टपकनी शुरू हो जाती थी और बेसब्री से सुबह 9 बजे टिफ़िन ब्रेक का इंतज़ार करती थी और चुपचाप ग़रीब बच्चों की पंक्ति में घुसकर दलिया खाने बैठ जाती थी। मैं कभी भी पराँठे और फूलगोभी की सब्ज़ी नहीं खाना चाहती थी, जिसे मेरी दादी मेरे और राजू के लिए बनाकर दो अलग-अलग बक्से में पैक कर देती थी। मैं उसे किसी और बच्चे को दे देती थी। बूढ़ी दीदी हमेशा इस बात को नोटिस करती थी। 

“ऐसा मत करो, माँ। आपके माता-पिता को यह पसंद नहीं आएगा। यह भोजन आपके लिए नहीं है।”

”दीदी क्यों? यह बहुत स्वादिष्ट है।”

“क्या स्वादिष्ट हैं? केवल नमक के साथ उबला हुआ दलिया?” 

अब जब भी मैं नीरा के लिए दूध, चीनी और ड्राई फ्रूट्स से दलिया पकाती हूँ तो मुझे बूढ़ी दीदी के दलिया की वह सुगंध नहीं मिलती। लेकिन यह मुझे घर की याद दिलाती है, निश्चित रूप से। 

पहली कक्षा पास हो गई थी और मुझे अन्य शिक्षकों के साथ एक और चार साल तक उसी स्कूल में पढ़ना पड़ा। लेकिन बूढ़ी दीदी की कमी हमेशा खलती रही थी। मैं अपनी कक्षा शुरू होने से कुछ समय पहले चली जाती थी, फिर पूरे टिफ़िन ब्रेक, फिर से छुट्टी के समय बूढ़ी दीदी के साथ। उनके साथ बातें करना, उन्हें छूना, उनके कंधे पर झुकना, इधर-उधर भागना आदि शरारतों को देखकर वह मेरी पीठ थपथपाने की कोशिश करती। 

समय सार्वभौमिक सत्य है, मृत्यु की तरह निश्चित और अनवरत। दिन से रात, रात से दिन, अटूट परिशुद्धता के साथ, समय-चक्र चलता जाता है। यह दूसरी बात है, समय सारे स्तरों पर संतुलन करता है। समय बहुत बड़ा समतलक है—मगर बूढ़ी दीदी जैसे के लोगों के लिए पूरी तरह अभौतिक। 
 
इस साल मैं नीरा के साथ अपने गाँव पहुँची, जिसे शायद आज भी गाँव कहा जा सकता है। नीरा मेरे पिता और दादी के साथ बातों में मशग़ूल हो गई, वह अपने सामाजिक अध्ययन परियोजना कार्य के लिए उनसे ग्रामीण जीवन के बारे में विवरण इकट्ठा कर रही थी, और सचमुच में वे उन्हें लाड़-प्यार से बता रहे थे। 

मैं बूढ़ी दीदी को मिलना चाहती थी। मेरे पिता ने बताया कि उनकी तबीयत बहुत ख़राब है। मैं उनकी झोपड़ी में भाग कर गई और देखा कि वह अपने बिस्तर पर लेटी हुई ख़ुद से बात कर रही थी। 

“नीनू, तुम आई हो माँ? मुझे पता था कि तुम आओगी।” 

वह कह ही रही थी कि एक ठिगना काले रंग का बुज़ुर्ग व्यक्ति एक महिला के साथ वहाँ आया, वह महिला उम्र में मुझसे थोड़ी बड़ी होगी। लेकिन उसकी मेरे साथ आश्चर्यजनक समानता थी! वह उसकी बेटी थी और वह आदमी बेटी का बाप, बूढ़ी दीदी का पति, जो वर्षों पहले उन्हें छोड़कर चला गया था। 

क्या वह मुझसे इतना प्यार इसलिए करती थी क्योंकि मैं उसकी बेटी से मिलती-जुलती थी? लेकिन नहीं, वह हर बच्चे से प्यार करती थी! घबराकर, बूढ़ी दीदी ने इधर-उधर देखा, कुछ खोज रही थी, मगर नहीं मिला। एक ख़ाली पानी का जग और एक उलटा हुआ गिलास मेज़ पर रखा हुआ था और उन्होंने इसे भरने का भी कष्ट नहीं किया था। 

मुझे अचानक असहज लगने लगा। उन्हें यह ख़ुशख़बरी सुनाने का उत्साह कि मैं नीरा के साथ तीन साल के लिए फ़ैलोशिप पर अमेरिका वापस जा रही हूँ, ख़त्म हो गया। मैंने पूरा जून महीना गाँव में बिताने का फ़ैसला किया था, नीरा को ग्रामीण भारत समझाने के लिए, और अपने पिता, दादी और बूढ़ी दीदी के साथ कुछ अच्छा समय गुज़रने के लिए। हमारे टिकट जुलाई के पहले सप्ताह में बुक किए गए थे। 

इतने सालों के बाद ये लोग क्यों आए हैं? वे कब आए? बूढ़ी दीदी इतनी परेशान क्यों लग रही है? वह मेरे दोनों हाथों को पकड़कर कुछ फुसफुसाते-फुसफुसाते रोने लगी। उसकी आहें और सिसकियों से आँगन भर गया और मेरा चेहरा धूमिल हो गया। वह मेरी छाती पर झुक गई जैसे मैं कभी पहली कक्षा में उस पर झुकती थी। फिर ख़ुद अपने आँसू पोंछते हुए बोलने लगी, “नीनू, ये मेरा पति और मेरी बेटी है। देखो, वह तुम्हारी तरह दिखती ज़रूर है! लेकिन नहीं! वह तुम्हारे जैसी नहीं है। उसने कभी भी इस बूढ़ी औरत से प्यार नहीं किया।” 
आगे कहने लगी, “सेवानिवृत्ति के बाद हेडमास्टर चाहते थे कि मैं बच्चों के छात्रावास की अधीक्षक बनूँ। हाटापाड़ा यूपी स्कूल में अब एक छोटा-सा हॉस्टल भी है। लेकिन मैंने मना कर दिया। मैं इस घर में जीना और मरना चाहती थी, जहाँ मैं वर्षों पहले दुलहन के रूप में आई थी। अब ये लोग मुझे इस घर को ख़ाली करने के लिए कह रहे हैं क्योंकि वे इस सम्पत्ति को बेचकर वापस जाना चाहते हैं। उन्हें पैसों की ज़रूरत है। मैं तुम्हें देखकर मरना चाहती थी माँ! मुझे पता था कि तुम आकर मुझे गोपालपुर ले जाओगी। कम से कम मैं अपने जीवन के अंतिम कुछ दिनों को शान्ति से बिता सकूँ। वे मुझे आज ही वृद्धाश्रम में शिफ़्ट होने के लिए कह रहे हैं। उनके काग़ज़ात तैयार हैं।”

वह व्यग्र होकर बोल रही थी, जो उस बुज़ुर्ग महिला के हृदय के लिए अच्छा नहीं था। मैंने उनके पति और बेटी को उस कमरे से बाहर जाने के लिए कहा। शान्ति से अपना सिर मेरी गोद में रखकर सोने की कोशिश करने लगी। जैसे कि यह उसकी आख़िरी नींद होगी। मैं उसके लिए घर से दलिया लेकर आई थी। मैंने कुछ चम्मच खिलाने की कोशिश की, मगर उनके मुँह से तरल भोजन बाहर निकल आया। 

मैं शायद उनके लिए एक लोरी गुनगुनाने लगी, हैरान थी मेरे शब्दों में मेरे बचपन की उसी लोरी को गूँज प्रतिध्वनित हो रही थी, जो कभी वह हमारे लिए गाती थी। निस्तब्ध निर्वाक होकर कुछ क्षण के लिए उन्होंने अपनी आँखें खोलीं और मुझे घूरने लगी, जैसे कि मैं कोई महान उपदेशक थी। 

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