नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)
(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )क्वारेंटाइन
हर रात जोयिता सोने से पहले ही सोचती थी कि वह औरत क्यों हँसती है, आहें भरती है, चिल्लाती है, ख़ुशियाँ मनाती है, जबकि क्वारेंटाइन के दौरान पूरी दुनिया अलग-थलग कुष्ठालय बनती जा रही है। कोरोना वायरस ही केवल चर्चा का विषय है, आजकल कोई भी इसके अलावा बात ही नहीं करता, बहुत बड़े अवसाद का माहौल बनता जा रहा है, लोगों को बेसब्री से इंतज़ार है कि कब यह अनिश्चितता ख़त्म होगी और सामान्य जीवन फिर से अपनी पटरी पर लौट आएगा।
हँसमुख शीला, लगभग पैतीस साल की रही होगी, वह जोयिता की पड़ोसन, मधु की बहू और आदर्श की पत्नी थी।
ऐसा नहीं था कि जोयिता के जीवन में कुछ दिक़्क़तें थी जिससे वह दूसरों की ज़िन्दगी में दख़लअंदाज़ी करती। उसका जयंत के साथ दोस्ती का रिश्ता था, जो आदर्श का बड़ा भाई था—कुँवारा, देखने में सुंदर, दुबला-पतला। जयंत के साथ वह अपने सुख-दुख बाँटा करती थी फोन पर। दिन में एक-दो घंटे उससे मिल भी लेती थी और जब वह पास वाले मकान में रहने लगा था तो उसकी कमी खलने लगी थी, मगर उससे मिल नहीं पाती थी क्योंकि उस घर में जयंत की माँ मधु का दबदबा था, घर में उसकी ही चलती थी। बेटे को हर चीज़ का अपनी माँ को उत्तर देना होता था, यहाँ तक कि पड़ोसियों से मिलने की वजह भी और सबसे ख़राब बात यह थी कि जयंत भी उसे ठीक समझता था कि माँ बेटे के ऐसे सम्बन्ध ख़राब नहीं है। इस प्रकार जन्म से ही जयंत अपनी माँ की गिरफ़्त में क्वारेंटाइन था। फ़िलहाल कभी-कभी जोयिता के साथ छुपकर कहीं चला जाता था।
कोरोना, कर्फ़्यू और लॉक-डाउन के पहले जयंत और जोयिता सप्ताह के अंत में कहीं घूमने जाते थे, अपनी गुप्त बैठकों का लुफ्त उठाते थे। जयंत की अपनी माँ से बहाना बनाकर झूठ बोलने पर वे आपस में हँसते थे। बहुत ही अच्छे दिन कट रहे थे उनके! टीन-एजरों की तरह छुप-छुपकर मिलना, साथ-साथ घूमना-फिरना, ख़रीददारी करना, होटलों में डिनर, हाथ में हाथ पकड़कर फ़िल्में देखना, फिर अँधेरा पाकर एक-दूसरे के गाल पर चुंबन लगाना, भोजन का पहला ग्रास एक-दूसरे को खिलाना की हठ करना, सड़कों और बाज़ारों पर हाथ पकड़कर चलना-क्या कुछ नहीं होता था उन दिनों, उनके बीच में! घर लौटकर जयंत माँ के सामने कुछ दलीलें देता था कि उसकी पड़ोसन जोयिता मैम के साथ कुछ अर्जेंट मीटिंग थी। मधु मान जाती थी क्योंकि वह जानती थी कि जोयिता उद्योगशील महिला है और उसके साथ काम करने से उसके बेटे को कुछ लाभ ही होगा। इसलिए वह किसी दिन एक-दो घंटे जोयिता से मुलाक़ात करने की अनुमति दे देती थी। जयंत और जोयिता उन घंटों का भरपूर आनंद उठाते थे। जयंत किसी व्यापारिक काम का बहाना बनाकर अपना लैपटॉप लेकर जोयिता के पास चला जाता था। जोयिता उसके मनपसंद का नाश्ता बनाकर और उसके पसंदीदा रेशमी कपड़े पहनकर बेसब्री से उसका इंतज़ार करती। इन मेल-मुलाक़ातों के पीछे जोयिता ने कुछ सपने भी सँजोए रखे थे। कई घंटों तक जोयिता को अपने कार्यालय के काम के साथ-साथ अकादमिक काम भी करने पड़ते थे, उसे अपने दोस्तों के साथ कहीं भी जाना अच्छा नहीं लगता था, बहुत मनुहार के बाद भी। काम के दिनों में शाम को जयंत के साथ कुछ घंटे गुज़ारने में अच्छा लगता था और सप्ताह के अंत में उनके रोमांच के दिन। जयंत ही उसकी दुनिया थी।
यह सब क्वारेंटाइन के पहले की कहानी थी। जोयिता मूलतः पश्चिम बंगाल की रहने वाली थी और मुंबई में जयंत के पड़ोस में रहती थी। अपना कैरियर बनाने के लिए उसे अकेले रहना ज़्यादा पसंद था। वह स्वावलंबी थी, आत्म-निर्भर थी, अच्छी तनख़्वाह उसे मिल रही थी और उसे कार्य-स्थल पर सारी सुविधाएँ उपलब्ध हो जाती थीं। अपनी भावनात्मक पूर्णता के लिए उसे जयंत की आवश्यकता थी, वह उसे प्यार करती थी क्योंकि उसकी वजह से वह पूर्ण महिला बनी थी और इसके अतिरिक्त, वह अच्छा इंसान भी था, जयंत बच्चे की तरह था, जो हमेशा उसके सामने समर्पण के लिए तैयार रहता था, आभार-पूर्वक उसके हाथों का बना भोजन ग्रहण करता था, छोटी-सी मदद के लिए भी उसकी प्रशंसा करता था, उसके द्वारा लाए गए छोटे-से उपहारों के लिए धन्यवाद देना नहीं भूलता था, वह भी अपनी फ़ैशनेबल लेडी के लिए सरप्राइज़ गिफ़्ट लाता था, उसे दिल से प्यार करता था। वे दोनों एक-दूसरे के लिए बने हुए थे।
कभी-कभी वह अपने छोटे भाई और भाभी, आदर्श और शीला के बारे में जोयिता से बातें करता था। उनकी शादी को पाँच साल हो गए थे, मगर उनके कोई संतान नहीं हुई थी। मधु चाहती थी उनके घर कोई बच्चा हो। शीला को व्यस्त रखने के लिए घर में बच्चा ज़रूरी था। अँधेरी गोरेगांव इलाक़े की किसी कंपनी में शीला दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर काम करती थी, वह लोकल ट्रेनों से बोरीवली से अँधेरी आना-जाना करती थी। उसके लिए उसे सुबह जल्दी घर छोड़ना पड़ता था और शाम को वह साढ़े सात बजे घर पहुँचती थी। ऑफ़िस में काम करने के बाद उसे घर के भी काम-काज करने पड़ते थे, जैसे बर्तन माँजना और घर के सभी लोगों के कपड़े धोना आदि। मधु सोचती थी कि जब पहले से ही घर में बहू काम कर रही है तो नौकरानी रखने की क्या ज़रूरत है?
जोयिता को कभी-कभी लगता था, शीला रहस्यमयी जीवन जी रही है। उसके सोने का कमरा उसके कमरे से सटा हुआ था, दोनों के बीच में केवल एक पतली दीवार बनी हुई थी। नहीं चाह कर भी, जोयिता को आदर्श और शीला के क्रियाकलापों की आवाज़ और बातचीत सुनाई पड़ती थी। आदर्श ठिगना, काला-कूबड़ा और गंजा था, वह सामान्य आदमी की तरह दिखता था, जबकि शीला चार फ़ीट से ज़्यादा लंबी, सपाट छाती वाली और उसके गोल चेहरे पर पिंपल साफ़ दिखाई देते थे। वह बिना कंघी किए हुए हमेशा बाल खुले रखती थी, मगर सजी-धजी और बिना मेकअप के कभी रह नहीं पाती थी। शायद वह आदर्श के साथ हर रात उन्मुक्त सेक्स करना चाहती थी, उसके आह भरने की चीत्कार से ऐसा लगता था कि कहीं उसे ‘सेक्स-मेनिया’ नहीं हो गया हो। वे लोग देर रात पोर्न फ़िल्में देखा करते थे। जोयिता कल्पना करती थी कि वह अपने सेक्स-जीवन को बेहतर करने का प्रयास कर रहे हैं, मगर उन्हें क़ामयाबी नहीं मिल रही है। शायद यही कारण होगा, जिसकी वजह से शीला के व्यक्तित्व में ग़ुस्सा, विषाद और बात-बात पर लड़ाई करने की प्रवृत्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। उस ठिगनी सपाट वक्ष वाली महिला की तरफ़ न तो किसी का ध्यान जाता था और न ही कोई उसकी तारीफ़ करता था। इसके अलावा, दिहाड़ी मज़दूरी का काम, सुबह-शाम घर के काम-काज और पूरे सप्ताह व्यस्त रहने के कारण उसकी किसी चीज़ या व्यक्ति में दिलचस्पी नहीं थी।
उसके ख़ुश रहने का एकमात्र राज़ था—उसके जेठ जी। वह उनका बहुत ध्यान रखती थी। वह उन्हें चाय नाश्ता और भोजन परोसने समय दीर्घ साँसें लेती थी, जोयिता ने यह नज़ारा कई बार देखा था अपनी आँखों से, जन्मदिन के अवसर पर, छत पर, सीढ़ियों पर या किसी भोज पर।
सप्ताहांत में जब भी जोयिता और जयंत बाहर से आते थे, जयंत नज़दीक वाले बाज़ार में उतर जाता था ताकि मधु उनके बारे में कुछ पता न चल सके। जोयिता अपनी कार पीछे घुमा कर पार्किंग में खड़ी कर देती थी ताकि वह दूसरे माले में अपने अपार्टमेंट में अकेली जा सके। शीला दरवाज़े के पास भागकर आती थी और जोयिता को घूर-घूरकर देखती थी। फिर वह पीछे मुड़कर देखने लगती थी कि कहीं जयंत भी उसके साथ तो नहीं आया है। जयंत को नहीं पाकर वह दुखी होने लगती थी। वह दरवाज़े पर इंतज़ार करती थी जब तक कि जयंत घर नहीं आ जाए, नहीं तो दोनों मधु और शीला हॉल में बैठकर उसका इंतज़ार करने लगते थे। जोयिता को यह सब बहुत ख़राब लगता था। जयंत और उसके चाचा-चाची को छोड़कर सारा परिवार अजीब शंकालु लोग थे। उनके घर में किसी की भी कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नाम नहीं था। उन्हें मानवाधिकार, राय देने की स्वतंत्रता, अपनी शर्तों पर जीवन जीने के तरीक़ों के बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी। जोयिता ने अपने निजी समय में जयंत को इस बारे में समझाने का बहुत प्रयास किया, मगर वह विफल रही। जयंत की धारणा थी कि अगर कोई तुम्हारा पेट पाल रहा है तो उसका तुम्हारी ज़िन्दगी और तुम्हारी स्वतंत्रता पर पूरा अधिकार है। वह इस बात को मानने के लिए क़तई तैयार नहीं था कि कोई भी माता बेटे के लिए कभी भी कुमाता हो सकती है और यह भी, कि माँ को अपने बेटों के लिए भाग्य विधाता बनने का कोई हक़ नहीं है।
जयंत की शादी नहीं हुई थी, वह जोयिता से चुपके-चुपके मिलना पसंद करता था। मधु और घर के बड़े बुज़ुर्गों को उसके कुँवारा रहने के पीछे उसकी मर्दानगी पर संदेह होने लगता था। जोयिता अपनी हँसी रोक नहीं पाती थी। मन ही मन कहती थी, “मूर्खो! कम से कम मुझसे पूछना चाहिए।” वह जयंत को समर्पण भाव से प्यार करती थी और चुपचाप उसका ध्यान रखती थी। शादी के बारे में सोच नहीं पा रही थी। अगर जयंत की जीवन-शैली कुछ अलग होती तो भी वह कुछ इस बारे में सोचती। मगर जयंत के साथ शादी होने से उसके जीवन में जटिलता आने की सम्भावना थी। मधु और उसका परिवार भी जयंत के साथ-साथ कहानी का हिस्सा बन जाते। वह अपने जीवन को जटिल बनाना नहीं चाहती थी। जयंत की प्रेमिका अंतरंग मित्र, साथी, विश्वास-पात्र बनाना ही पर्याप्त था उसके लिए, कम से कम कुछ समय के लिए ही सही।
कभी-कभी जोयिता को भी मन ही मन संदेह होने लगता था और वह सोचती रहती थी।” क्या हम-एक दूसरे के लिए ठीक हैं? क्या यह सम्बन्ध संतोषजनक है? जिस दिन मधु को हमारे सम्बन्ध के बारे में पता चलेगा, वह तुम्हें घर में क़ैद कर लेगी। मुझसे मिलने के लिए तुम उससे लड़ भी नहीं पाओगे।”
उस दिन जयंत दुखी हो गया और रात को उसने मेल किया, “प्रियतमा, अगर तुम्हारे और मेरे परिवार के बीच किसी को चुनना होगा तो मैं केवल तुम्हारा ही चयन करूँगा।” उससे जोयिता को कुछ समय के लिए भले ही राहत मिली, मगर उसे ‘चयन’ शब्द से परेशानी होने लगी थी। फिर उसे मधु पर दया आने लगी, ग़रीब स्त्री, उसका लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड जयंत ने उसकी तुलना में किसी और को चुनने का वायदा किया है। ऐसा ही होता है जब कोई माँ ज़्यादा ही अपना अधिकार जताने लगती है।”
मगर जोयिता को शीला का जयंत के प्रति झुकाव पसंद नहीं आ रहा था क्योंकि वे दोनों एक ही छत के नीचे रहते थे। शीला मधु के सामने जोयिता की शिकायत करने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ती थी। उसने मधु को अच्छी तरह समझा दिया था कि जोयिता मैडम ऊँचे ख़ानदान की होने के कारण बहुत ही शक्तिशाली महिला है।
“आज तक उसका हमारे परिवार के साथ ठीक रिश्ता है, मगर जिस दिन वह हमसे नाराज़ हो जाएगी तो हम सभी को सलाखों के पीछे भेजकर ही रहेगी, मम्मी जी।”
मधु मूर्ख महिला थी और उसने आसानी से अपनी बहू की बातों का विश्वास कर लिया। इसके बाद उसने जयंत को मधु से मिलने के लिए कुछ दिनों तक रोका। उसकी माँ की अज्ञानता को लेकर फोन पर उनका झगड़ा होता था। झगड़ों के दौरान हो या ऐसी भी, जयंत की एक विचित्र आदत थी कि वह अपना मोबाइल कई दिनों तक नहीं देखता था, सारे फोन कॉल को नज़र-अंदाज़ कर देता था।
जयंत के साथ बातचीत नहीं होने से जोयिता बेचैन हो जाती थी, लेकिन उसके पास-पड़ोस के दरवाज़े की घंटी बजाने की कोई सुविधा नहीं थी। उसने जयंत को वचन दिया था कि वह कभी भी उसके घर में प्रवेश नहीं करेगी, जैसा कि वह चाहता था। जोयिता गोदरेज हिल्स खड़कपाड़ा या थाने वेस्ट के अम्मू नगर में घर ख़रीदने की योजना बना रही थी, जिसमें जयंत के लिए एक रूम ख़ाली रखा जाएगा, जब भी वह चाहेगा, वहाँ ठहर सकता है। जयंत अपने सपने के घर के बारे में सुनकर उत्तेजना से भर उठता था।
मगर जयंत को जोयिता के क्रोध और छोटी-मोटी चीज़ों पर नाराज़ होना पसंद नहीं आता था, जबकि जोयिता को जयंत में स्वाभिमान और समय के पाबंदी की कमी, और वचनबद्धता का अभाव अच्छा नहीं लगता। इन्हीं चीज़ों को लेकर दोनों के बीच में तगड़ी बहस चलती रहती थी। मगर हर लड़ाई-झगड़े के बाद जयंत को अपनी माँ को समझाने के लिए मशक़्क़त करनी पड़ती थी कि जोयिता ही उसका कैरियर बनाने में मदद कर सकती है और उसे उसके पास जाना ही पड़ेगा। मधु जैसी अवसरवादी महिला लालच में आ जाती थी और वह फिर से उसे अपनी पड़ोसन जोयिता मैडम से मिलने की इजाज़त दे देती थी। जोयिता को ‘इजाज़त’ शब्द से बड़ी परेशानी होती थी। कैसे और क्यों किसी दूसरे के व्यक्तिगत मामले में कैरियर को लेकर ‘इजाज़त देने या नहीं देने’ का सवाल उठता है? अपने पसंदीदा इंसान के मिलने पर भी रोक? बड़े लोगों को अपने अनुजों को सुविधा मुहैया करानी चाहिए, प्रोत्साहन देना चाहिए, उनका संबल बढ़ाना चाहिए और मदद करनी चाहिए, मगर ‘इजाज़त’ किस चीज़ की?
जब सात दिन के बाद जयंत उससे मिलने आया तो जोयिता का मूड ख़राब हो गया और उसे अपनी माँ की गोद में सोने वाला कहकर डाँटने लगी। मगर जयंत को ग़ुस्सा नहीं आया, वह समझ गया कि जोयिता उसे बुरी तरह से मिस कर रही है। उसने माफ़ी माँगी, अपना अपराध स्वीकार किया और उसके बहते आँसुओं को पोंछा, अपने नज़दीक खींचा। वह दूर जाना चाह रही थी, मगर जयंत ने उसे अपनी बाँहों में भरकर ललाट पर चुंबन कस दिया, जो पहले से ही उसके स्पर्श से सुन्न हो गया था। उसके बाद वह उसके बाल, कंधा पीठ और आँखों के इर्द-गिर्द सहलाने लगा और थोड़े समय बाद उसके सारे शरीर पर ताबड़-तोड़ चुंबनों की झड़ी लगा दी। फिर रुककर उसके कानों में धीरे-धीरे मधुरता से फुसफुसाने लगा, इस बार भी जोयिता पहले की तरह पिघल गई। उसका मधुर-प्रेम जोयिता पर काम कर गया, उसकी संवेदनशीलता और सादगी जोयिता को पहले से ही आश्चर्यचकित करती थी।
भले ही, उसके सम्बन्ध घर में जटिल थे, मगर जोयिता के साथ सीधा-सादा ईमानदार बँधन था। वास्तव में, उसके परिवार में सारे सम्बन्ध जटिल ही थे। शीला ख़ुद अपनी सास से नफ़रत करती थी, फिर उसके सामने अच्छे बनने का बहाना करती थी। एक बार शीला ने जोयिता मैडम के दरवाज़े की कॉल बेल बजाने की हिम्मत जुटाई। जोयिता चकित रह गई, फिर भी उसके साथ अच्छे ढंग से पेश आई और उसे पीने के लिए जूस भी दिया और पूछा कि वह उसकी क्या मदद कर सकती है? शीला कहने लगी, “मैडम, क्या आप मुझे अपने ऑफ़िस में कोई काम दे सकती हो? मेरा कार्यस्थल बहुत दूर है और मैं इतना दूर आना-जाना करके बहुत थक जाती हूँ।”
“तुम्हारी योग्यता क्या है, शीला?”
“मैंने ग्रेजुएशन किया है।”
“कौन से विषय में?”
“सिंपल ग्रेजुएशन, बी.ए. जनरल, ऑनर्स नहीं“
जोयिता का ऑफ़िस हाई प्रोफ़ाइल था, उसके ऑफ़िस के चपरासी भी ग्रेजुएट थे। फिर भी बातचीत नम्रता-पूर्वक आगे बढ़ाते हुए कहने लगी, “मेरी बात मानो, पहले पोस्ट-ग्रेजुएशन कर लो और मुझे अपना रिज़्यूम भेजना। मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि कुछ न कुछ मदद करूँगी।”
“मगर मैडम, इस घर में और पढ़ाई करने की कोई जगह नहीं है। मेरी सास मुझसे बहुत काम करवाती है, ऑफ़िस का काम पूरा होने के बाद भी। वह कहती है घर के कपड़े और बर्तन नौकरों से नहीं धुलवाने चाहिए और घर में मुझे ही सब-कुछ करना पड़ता है।”
जोयिता ने सोचा कि इस विषय पर उसे कुछ भी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। केवल उसने कहा, “फिर भी, तुम्हें कैसे भी कर पोस्ट ग्रेजुएट करनी ही चाहिए। मैं तुम्हारे लिए जॉब खोजने में अवश्य मदद करूँगी।”
शीला निराश हो गई कि जोयिता ने उसे जॉब नहीं दिया, जबकि जयंत के पास मिलकर अच्छा-ख़ासा कारोबार कर रही थी, वह भी मधु की सहमति से। शीला को यह सोचकर ग़ुस्सा आ रहा था कि जो कैरियर उसका होना चाहिए था, वह कैरियर जयंत का होगा। वह यह सोचकर दुखी हो रही थी कि अब जयंत जोयिता के नज़दीक होता चला जाएगा। अपनी सास को जयंत और जोयिता के बारे में इधर-उधर की कहकर अपनी भड़ास निकालने लगी। उन्हें अब और ज़्यादा सतर्क रहना पड़ रहा था। शीला और मधु के कारण उन दोनों के बीच में तकरार होना शुरू हो गई। फिर भी दोनों शाम होते-होते अपनी समस्या का समाधान कर लेते थे। प्रेम की हमेशा विजय होती है, जोयिता और जयंत मज़बूत बँधन में बँध चुके थे। यह सारी बातें भी क्वारेंटाइन से पहले की थी।
जनवरी से पहले ऐसी स्वास्थ्य संबंधी समस्या के बारे में किसी ने नहीं सुना होगा। नया कोरोना वायरस (कोविड-19) विश्व के हर देश में फैल चुका था, जो साल की शुरूआत में पहली बार चीन में पैदा हुआ था। लाखों लोग संक्रमित हुए और लाखों लोग काल–कवलित। वुहान के एक ‘वेट मार्केट’ को कोरोना वायरस की जन्म-स्थली माना जाता है, जहाँ जीवित और मरे हुए जानवरों के साथ-साथ मछलियाँ और चिड़ियाँ भी बेची जाती थीं। ऐसे बाज़ारों के जानवरों से मानवों में वायरस संक्रमण का ख़तरा सबसे अधिक होता है क्योंकि वहाँ साफ़-सफ़ाई रखना बहुत मुश्किल है, जहाँ जीवित जानवरों का खुले-आम क़त्ल किया जाता हो। और वो भी, वे जानवर एक-दूसरे के नज़दीक हो, जहाँ से बीमारी एक जीव-जंतु से दूसरे में और फिर उनसे मनुष्यों में प्रवेश करती है। मार्च 2020 को कोरोना वायरस का पहला केस मुंबई में आया और देखते-देखते महीने के अंत तक तो भारत के सभी राज्यों में फैल गया। युद्ध जैसी पर परिस्थितियाँ बन गई थी, सरकार ने मार्च के मध्य में कर्फ़्यू की घोषणा की और ऑफ़िस, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, मॉल, थिएटर, मार्केट, फ़्लाइट, मेट्रो, बसें—सब कुछ बंद; केवल आपातकालीन सेवाओं को छोड़कर। लॉक-डाउन महीनों तक चला और टीवी पर ख़बरें देखना हृदय-विदारक था। प्रतिदिन नए-नए कोरोना वायरस संक्रमण के केस और प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की मृत्यु। सच में, अप्रैल महीना सबसे ज़्यादा निर्दयी महीना था। मुंबई के कस्तूरबा गाँधी अस्पताल राज्य का एक अधिकृत ’आइसोलेशन सेंटर' था, जो कि जोयिता के घर से ज़्यादा दूर नहीं था। कोरोना वायरस संक्रमण के संदिग्ध लोगों को अस्पताल में भर्ती होते जोयिता अपने बालकनी से देखती थी और बार-बार एंबुलेंस की आवाज़, रोगियों को शीघ्रता से अस्पताल ले जाना, मास्क पहने हुए और पूरी तरह से ढके हुए हेल्पलाइन वालों से मरीज़ के सगे-संबंधी द्वारा बातचीत और रोगियों का क्रंदन; सब-कुछ जोयिता को गहरे अवसाद में धकेल रहा था। एंबुलेंस में जाने का मतलब युद्ध में जाने के बराबर था-जहाँ से लौटकर ज़िन्दा आना मुश्किल था। सभी के अधरों पर एक ही शब्द थ—'घर पर रहो, सुरक्षित रहो'। घर से अनावश्यक रूप से बाहर जाने का मतलब पुलिस के डंडों को निमंत्रण देना था।
क्वारेंटाइन के दौरान हर जगह अवसाद का माहौल फैला हुआ था। सगे-संबंधी और दोस्त एक-दूसरे को मिल नहीं पा रहे थे और लोग उस भविष्य का इंतज़ार कर रहे थे, हो सकता है जो कभी नहीं आएगा। यह ऐसा ही था जैसे सैमुअल ब्रैकेट के उपन्यास ‘वेटिंग फ़ॉर गोड़ो' के पात्रों की हालत। कुछ संवेदनशील लोग ज़रूरतमंदों की आर्थिक सहायता कर रहे थे, तो कुछ प्रवासी श्रमिकों को खाना पहुँचा रहे थे। जोयिता भी मदद करने वालों के ग्रुप में शामिल हो गई। उसका हृदय बेघर लोगों को देखकर टूट गया था, वह व्यग्र हो रही थी। समाज के लिए कुछ काम आने हेतु हर दिन में तीस भूखे लोगों के लिए पैकेट तैयार कर रही थी। बड़ा कठिन समय था उसके लिए। कई महीनों तक, मनुष्य घरों में क़ैद थे और जानवर बेधड़क सड़कों पर घूम रहे थे। जबकि होना चाहिए था उलटा, किसकी नज़र लग गई थी इस दुनिया को!!
जोयिता आशावादी थी, उसे विश्वास था कि दुख की यह घड़ी भी पार हो जाएगी। क्वारेंटाइन के दौरान, शीला ने अपने आदतों के अनुरूप खेल खेलना शुरू कर दिया और उसने मधु को समझाया कि वह जयंत को जोयिता से मिलने के लिए रोके, यहाँ तक कि वह घर से एक क़दम भी बाहर नहीं रखे। जयंत ने जोयिता को फोन पर कहा कि मम्मी ने सभी को घर से पर रहने के लिए कह रही है, इसलिए कुछ दिनों तक हमारा मिलना-जुलना बंद। अकेलेपन का यह समय भी आख़िर पार हो जाएगा।
जोयिता नहीं मिलने पर भी ख़ुश थी क्योंकि वे दोनों फोन से संपर्क में थे। वे इधर-उधर की बातें करते थे, जोयिता उसे मददगारों के समूह और उनकी गतिविधियों के बारे में बताती रहती थी। वह उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता की तारीफ़ करता था, मगर सामाजिक दूरी का पालन करते हुए, जैसाकि मम्मी ने निर्देश दिया था। जोयिता प्रवासी श्रमिकों के लिए खाना बनाने और ऑफ़िस की ऑनलाइन मीटिंगों में हमेशा व्यस्त रहती थी। अवसाद से बचने के लिए वह अपना दृष्टिकोण सकारात्मक रखना चाहती थी।
क्वारेंटाइन रातों के दौरान भी शीला का बिस्तर देर रात तक सक्रिय रहता था। तेज़ संगीत, पॉर्न मूवी, उद्दंड हँसी और ओर्गेसम की कराह। दूसरे शब्दों में-क्वारेंटाइन की यह अवधि शीला के लिए पिकनिक का समय था, दुनिया की महामारी से बेख़बर। आदर्श की आवाज़ तेज़ नहीं थी। उन रातों में जोयिता अपने कानों को रुई के फ़ाहे डालकर बंद कर देती थी। टूटी-फूटी नींद आती थी उसे। उसने जयंत को फोन पर इसकी शिकायत भी की, मगर कुछ फ़ायदा नहीं हुआ।
एक सुबह, लगभग आठ बज रहे होंगे, पास-पड़ोस में शोरगुल हो रहा था। मधु ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थी, पूरा परिवार जोयिता के शयन-कक्ष के पास यानी शीला के बेडरूम में आया हुआ था। जोयिता ने जयंत को फोन लगाकर पूछना चाहा कि माजरा क्या है? मगर फोन अनुत्तरित, जयंत अपनी आदत से मजबूर। क्या मधु ने उसका फोन ले लिया? क्या उसने हमारे फोटोग्राफ देख लिए?
मन में तरह-तरह के संदेह पैदा हो रहे थे कि तभी दोपहर को बारह बजे के आस-पास जयंत का फोन आया। वह बाथरूम में घुसकर दबी-दबी आवाज़ में बोल रहा था,
“जोयिता सॉरी, मैं तुम्हारा फोन नहीं उठा पाया। कुछ प्रॉब्लम हुई है।”
“ क्या हुआ?”
“शीला, मेरी भाभी, सुबह से ग़ायब है।”
“क्या कह रहे हो? मेरा मतलब, क्वारेंटाइन के साथ वह कहाँ गई होगी? क्या तुमने पुलिस को ख़बर की?”
“नहीं-नहीं, पुलिस को बात मत करो। मम्मी हमें मार डालेगी। शीला वापस आ जाएगी, वह अपनी सहेली के घर गई होगी।”
“क्वारेंटाइन के समय? किसी को बिना बताए? क्या हुआ अकेली अपनी सहेली के घर जाती है? क्या तुमने उसकी सहेलियों को फोन लगाया है?”
“अच्छा बाद में बात करते हैं। जल्दी से फोन लगाता हूँ।”
पूरे दिन पास में निस्तब्धता छाई हुई थी। जोयिता अति संवेदनशील थी। वह की चिंता कर रही थी। कुछ गड़बड़ हो गया तो? यह मुंबई है। और ये लोग तो पुलिस तक को ख़बर नहीं करेंगे।
रात को नौ बजे के आस-पास सीढ़ियों के पास कुछ आवाज़ आई। जोयिता मुख्य दरवाज़े के ‘पीप-होल’ से झाँकने के लिए भाग कर गई। उसने देखा कि शीला बबलू के साथ आ रही है। कपड़े आयरन करने वाला भूरी आँखों वाला, बबलू धोबी बिल्डिंग के सामने वाली दुकान में कपड़े धोकर इस्तरी करने वाला-जिसे जोयिता ने पहले भी इस बिल्डिंग की तरफ़ घूरते हुए देखा था, कुछ रहस्यमयी मक़सद से। शीला ख़ुश नज़र आ रही थी, मगर थकी हुई थी। उसके चेहरे पर संतोषजनक मुस्कान थी, उसके कपड़े बिखरे हुए थे और बाल भी। वह घर के भीतर शान्ति से प्रवेश कर रही थी, मधु की गालियों पर ध्यान दिए बग़ैर। बबलू ने बताया कि मुझे समुद्र के किनारे शीलाजी मिली और मैं उन्हें घर ले आया। समुद्र किनारे? क्वारेंटाइन के समय? वह पूरे दिन भर वहाँ रही?
उस रात जोयिता को दीवार के उस तरफ़ से चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। उसे लग रहा था, घर में मार-पीट भी हो रही है। मधु अपनी बहू को भद्दी-भद्दी गालियाँ दे रही थी। मगर शीला चुपचाप, अपनी दुनिया में खोई हुई।
पूरी तरह निस्तब्ध! दो सप्ताह तक पूरी तरह लॉक डाउन। कोई व्यवधान नहीं, शोरगुल नहीं देर रात की फ़िल्में नहीं, खिसियाने की आवाज़ नहीं, शीला की कराह नहीं। जीवन अपनी रफ़्तार से गुज़र रहा था। जोयिता और जयंत नियमित एक-दूसरे से चैटिंग करते थे, जब भी वह शीला के बारे में पूछती तो जयंत टाल देता था।
जयंत कहता था, “मेरा भाई और मेरी माँ उसके साथ है। हमें चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है।” जोयिता भी सोचने लगी कि किसी भी पराए मामले में हस्तक्षेप करना भी उचित नहीं है। लगभग पंद्रह दिन बाद जयंत उसके पास आया, मधु ने उसे आने की अनुमति दे दी थी, क्योंकि उसने बिज़नेस के लंबित काम-काज के बारे में कहकर समझा दिया था। एक-दो दिन बाद, एक शाम को जयंत जोयिता के घर पर बैठकर चाय की चुस्की ले रहा था। मधु ने उसे फोन पर तुरंत घर आने के लिए कहा।
“सब ठीक तो है?” जोयिता ने पूछा।
“माँ कह रही है कि शीला गंभीर है, इसलिए एंबुलेंस बुलानी पड़ेगी। आदर्श के हाथ-पांव काँप रहे हैं, इसलिए मुझे जाना पड़ेगा।”
“मगर तुमने तो मुझे कभी नहीं कहा कि वह बीमार है।”
“हाँ, सप्ताह से उसे बुख़ार है। माँ उसका देखभाल कर रही है। तुम्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।”
“क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूँ?”
“नहीं नहीं! डरने की बात नहीं है, हमारे घर मत आइए।”
“यह कहकर जयंत तेज़ी से चला गया, अपने मोबाइल को जोयिता के डाइनिंग टेबल पर छोड़कर, जैसा कि अक़्सर होता था।
लगभग डेढ़ घंटे के बाद, रात को दस बजे के आस-पास कस्तूरबा गाँधी अस्पताल से एंबुलेंस आई। उसमें से कुछ लोग नीचे उतरे और स्ट्रेचर पर शीला को सुलाकर एंबुलेंस में डाल दिया। वह ज़ोर-ज़ोर से खाँस रही थी, उसकी छाती में दर्द हो रहा था। उन्होंने केवल शीला को अपने साथ लिया और कोई साथ में नहीं था। प्यार और सहानुभूति का कोई मानवीय स्पर्श तक नहीं था, केवल प्रोफ़ेशनल डॉक्टर अंतरिक्ष-यात्रियों की तरह परिधान पहने हुए इधर-उधर जाते हुए नज़र आ रहे थे। शायद मधु अपने बेटों को सुरक्षित रखना चाहती थी, इसलिए शीला को अकेले अस्पताल भेज दिया। सब-कुछ बहुत जल्दी में हुआ। शीला के शरीर की प्रत्येक कोशिका जीवन बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी, मगर अंत में वायरस की ही विजय हुई। मधु जानती थी कि दूषित होना एक अपराध है और शीला को यह दंड मिलना ही चाहिए। मधु सोच रही थी कि इस बिल्डिंग में कोई उन्हें नहीं देख रहा है, जबकि जोयिता की आँसुओं भरी आँखें दरवाज़े के ‘पीप-होल’ से सब-कुछ नज़ारा साफ़-साफ़ देख रही थी।
जोयिता को उल्टी होने जैसा लग रहा था और साथ में सर-दर्द भी। अपनी साँसें थामे वह जयंत को फोन लगाने लगी, जबकि फोन दूसरे कमरे के डाइनिंग टेबल पर बजने लगा। पता नहीं उसे क्या हुआ, उसने उसका फोन अनलॉक किया, और देखा तो सौ से ज़्यादा व्हाट्सएप मैसेज आए हुए थे। विगत कई दिनों से जयंत चैटिंग कर रहा था उसके और शीला के एक मेडिकल कंसलटेंट के साथ-यह कहकर कि मेरे रिश्तेदार को बुख़ार आया है। मेडिकल कंसलटेंट ने उसे सलाह दी थी कि कुछ और लक्षण दिखने पर जाँच करवा लें। जयंत ने लिखा था, “मैं घर में पूछकर आपको बताता हूँ। मैं आपको फोन करूँगा अगर रोगी में चार लक्षण जैसे आपने बताएँ हैं, पाए जाते हैं तो“
जोयिता ने मैसेज बॉक्स में नीचे जाते-जाते देखा कि शीला ने जयंत को कुछ मैसेज भेजे हुए थे, सुबह घर से भागने से पहले, लगभग दो सप्ताह पहले के। मैसेज हमेशा की तरह अभी तक नहीं पढ़े गए थे। जोयिता जयंत की कई दिनों तक मैसेज नहीं पढ़ने की पुरानी आदत से ख़फ़ा रहती थी।
“प्रिय जयंत, मैं तुम्हें भैया नहीं कहूँगी। और ज़्यादा बहाने नहीं बना सकती हूँ। आदर्श मेरे लिए योग्य आदमी नहीं है, मुझे तो संदेह हो रहा है कि वह मर्द भी है या नहीं। मैं अपनी जवानी व्यर्थ में उस पर बर्बाद कर रही हूँ। मैं इस शादी से क्वारेंटाइन हो गई हूँ, न कि कोविड-19 के कारण। मगर यह आजीवन का क्वारेंटाइन मुझे निस्संदेह मार डालेगा। तुम कुँवारे हो, मर्द हो और मैं तुम्हें ख़ुश कर सकती हूँ। हमें अपने आपको बर्बाद नहीं करना चाहिए, आओ साथ-साथ जीवन का कुछ मज़ा लें। मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। मैं अपनी सहेली के घर जा रही हूँ, समुद्र के किनारे। उसने मुझे अपने घर की चाबियाँ दी है, अब वह वहाँ नहीं है। पता नीचे लिख रही हूँ। मैं अपना मोबाइल घर पर छोड़ कर जा रही हूँ। मुझे फोन मत करना, सीधे वहाँ पहुँच जाना। मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगी। कृपया मुझे निराश मत करना।”
दूसरे मैसेज में समुद्र किनारे वाले अपार्टमेंट का दिया हुआ था, जहाँ से बबलू धोबी ने दो सप्ताह पहले उसे रात को घर पहुँचाया था।
जोयिता का मस्तिष्क शून्य हो गया और आँखें आँसुओं से छलक उठी थीं।
<< पीछे : पहला प्रेम-पत्र आगे : पोस्ट क्वारेंटाइन >>विषय सूची
लेखक की कृतियाँ
अनुवादक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
-
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज