नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)
(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )प्राक्कथन
नंदिनी साहू की प्रतिनिधि कहानियाँ शीर्षक वाले इस कहानी-संकलन में प्रेम, आधुनिकता और वैचारिक साहस का अनोखा मिश्रण देखने को मिलता है। यहाँ एक तरफ़ समाज में मौजूद आत्मीय रिश्तों की प्रेरणादायी व्याख्या है, वहाँ दूसरी तरफ़ हिंदुस्तानी परिवेश में उभर रहे स्त्रीवादी सोच की गरिमा का महत्त्वपूर्ण बखान है। ज़ाहिर है कि इस सोच का ताल्लुक़ उस कश्मकश से है जिसने पिछले दशकों में हमारे वर्तमान जीवन पर अपनी छाप छोड़ी है।
इस संकलन की ज़्यादातर कहानियाँ मैंने अँग्रेज़ी मूल में पढ़ी हैं और ज़ाहिर है कि उनकी तपिश का अपना अंदाज़ है। मूल पाठ की निजी तल्ख़ी और ताज़गी होती है, और उसका संप्रेषण अन्य भाषा में मुमकिन नहीं है। लेकिन जिस लगन और समझ से दिनेश कुमार माली ने इन कहानियों का हिंदी अनुवाद किया है, वह क़ाबिले तारीफ़ है। वर्णनों और संवादों को हिंदी का लहज़ा देने में ये अनुवाद पूरी तरह क़ामयाब हुए हैं। साथ ही, अनुवाद में अर्थ-लय को सफलता से पेश किया गया है।
इस किताब में सम्मिलित कहानियाँ वास्तविक परिवेश का नक़्शा गहराई से उभारती हैं और सामाजिक-भौगोलिक विवरणों से मदद लेते हुए आत्मकथा की शैली अर्जित करती हैं। गहरे स्तर पर ये कहानियाँ आत्मकथात्मक हैं भी। नंदिनी प्रायः अपने निजस्व का पाठक से साझा करने की क़ायल हैं भी। मसलन, उन्हें अगर एक साथ पढ़ा जाए तो वहाँ रचनाकार के भावना-संसार का समुचित जायज़ा मिलता है, जिसमें बेबसी, पीड़ा, अकेलेपन और उनसे उबरने की पुख़्ता कोशिश मिलती है। कथा-वस्तु को इस शक्ल में पेश करना आसान नहीं है, क्योंकि भावनाओं को जानबूझकर ओढ़ा नहीं जा सकता, उन्हें सिर्फ़ अवचेतन के स्तर पर व्यक्त किया जा सकता है। नंदिनी ने यह कार्य बख़ूबी किया है। यह ज़रूर है कि लेखिका ने वैचारिक साहस के बल पर इन रचनाओं को दूर तक प्रामाणिक बनाया है, जो कल्पनाशीलता के बल पर मुमकिन हुआ है। वर्णनों में कल्पना की उड़ान से व्यापकता और विस्तार मिला है। फिर, रचनाओं में लाग-लपेट नहीं है। वहाँ खास तौर से इशारा करने और सुझाने से बचा गया है ताकि पाठक चाहे तो उसे स्वीकार करे, या फिर सिरे से ख़ारिज कर दे। इससे कहानियों में वैचारिक खुलापन साफ़ दिखलाई पड़ता है।
इस कहानी संकलन की “बिल्कुल अलग कहानी” शीर्षक रचना को उपन्यासिका, या कम-अज़-कम लंबी कहानी कहना सही होगा, क्योंकि उसका फैलाव सामान्य छोटी कथा से अलग क़िस्म का है। यह ख़ास तौर से कथारूप को दिमाग़ में रखते हुए कहा जा सकता है, जिसमें ज़िंदगी का बड़ा सच केंद्र में होता है, और जिसे प्रस्तुत करने के लिए सामान्य घटना या लेखकीय विमर्श का सहारा लेना शायद उपयोगी साबित न हो, बल्कि किन्हीं बड़े सवालों से रूबरू होना ज़रूरी लगे। कहानी के शीर्षक में इस्तेमाल “बिल्कुल अलग” यही इंगित करता है। सवाल उठता है कि “बिल्कुल अलग कहानी” का केंद्रीय सच क्या है? हम देखते हैं कि वहाँ एक शिक्षित और बेहद संवेदनशील नारी की स्थितियों का वर्णन है, जो अपनी ज़िंदगी के शुरूआती दौर में विवाह के बरक्स पारिवारिक हिंसा का शिकार होती है, और बाद में उस स्थिति से उबर कर अपनी शर्तों पर जीवन जीने का फ़ैसला करती है। जहाँ उसकी संवेदनशीलता रचनात्मक लेखन के माध्यम से व्यक्त होती है, वहीं उसकी बौद्धिक क्षमता अकादमिक सफलता की ऊँचाइयाँ छूती है। उस सिलसिले में गरिमामयी और आकर्षक माधवी श्रीवास्तव अकेलेपन और सामाजिक अस्वीकार से जूझती हुई एक समझदार और परिपक्व पुरुष के संपर्क में आती है। यह उसके लिए सुकून और संतोष का क्षण है। वहाँ भी वह हर अनुभूति को अपने चारित्रिक बल से सहज नैतिक अर्थवत्ता प्रदान करती है और व्यवहार के नए मानदंड गढ़ती है। कहानी में माधवी के क्षण-क्षण बदलते मनोभावों से पाठक का सामना क्रमशः होता है।
कथा-रूप के नज़रिए से बात करें तो इस कहानी के विस्तार का सीधा रिश्ता वाचक की समझ और मूल्य व्यवस्था से जुड़ता है। दिलचस्प है कि माधवी श्रीवास्तव की कहानी पाठक को उसके प्रेमी पुरुष के माध्यम से मिलती है। यह पेंच कहानी को अतिरिक्त सार्थक बनाता है। इससे माधवी के चरित्र की सूक्ष्मता पूरी संश्लिष्टता से उजागर होती है। प्रेमी का लेन्स कहानी में अपनी तरफ़ से भी काफ़ी कुछ जोड़ता है। प्रेमी की सहभागिता और संलग्नता मानवीय संबंधों को आधुनिक रवैये से लैस करती है।
आगे देखें कि “जंगली धारा” कहानी का न सिर्फ़ अंदाज़ अलग क़िस्म का है बल्कि वहाँ मौजूद जीवन पक्ष भी छोटे शहर के मामूली शिक्षा वाले परिवार से सम्बन्ध रखता है। उसमें ख़ास क़िस्म की मासूमियत नज़र आती है जिसके चलते कहानी के माहौल में मध्यमवर्गीय कुंठाएँ और वर्जनाएं देखने को मिलती हैं। उसमें जिस पात्र का अतिरिक्त प्रभाव है वह निम्न वर्ग से आता है। लेखक ने पात्र से अतिरिक्त अंतर बनाए रखकर छोटी उम्र की लड़की का काइयाँपन और उसकी दमित इच्छाओं को उकेरा है और सार्थक रूप में उसे सामाजिक मान्यता दी है। इस कहानी में बीजू पटनायक और नवीन पटनायक के इस्तेमाल से वर्ग भेद का सच बख़ूबी उभरा है। इस रचना को चरित्र-प्रधान कहानी कहा जा सकता है जिसमें चलकर नंदिनी सामाजिक आलोचना और वर्गभेद का पूरा आख्यान गढ़ती हैं। यहाँ प्रतिबिंबित राजनीतिक नज़रिया आत्मकथा के विमर्श को व्यक्तिगत संदर्भ से बाहर मनोविज्ञान और प्रकृति से जोड़ता है।
“छाया-प्रतिच्छाया” में संघर्ष का बयान कई स्तरों पर चलता है। यह कहानी संकलन की साहसिक और चुनौतीपूर्ण रचनाओं में से एक है। इसमें समलैंगिक रिश्ते को परत-दर-परत दिखलाया गया है। लेखिका जानबूझकर स्वयं को हाशिये पर रखती है और दूसरे नारी पात्र को उभरने का मौक़ा देती है। इससे रचनाकार को समाज की नक़ली और बोझिल प्राथमिकताओं पर चोट करने में मदद मिलती है। हम पाते हैं कि कहानी का विस्तार अनेक छिपे-अनछिपे जीवन पक्षों को सामने लाने में मदद करता है। मसलन, केंद्रीय पात्र सुनी के पीछे आर्थिक और राजनीतिक अनैतिकता का पूरा जाल फैला है, और किसी भी तरह वहाँ नारी पात्रों का विस्तार मुमकिन नहीं है। नंदिनी आमतौर पर त्रासदिक रवैये से बचती हैं, लेकिन जिस तरह विषय को समझा और प्रस्तुत किया गया है उसके चलते “छाया-प्रतिच्छाया” में त्रासदी की कोई गुंजाइश नहीं बचती है।
इस संकलन की शायद सबसे ख़ूबसूरत कहानी “पहला प्रेम पत्र” है। इस कहानी की मासूमियत अनुमान से परे है, और वहाँ प्रेम का पूरा प्रसंग सामाजिक विवेक पर आधारित है। रचनाकार की कल्पना में उभरने वाली नायिका केवल पढ़ाई की तैयारी और क़ामयाबी में मशग़ूल किशोरी है जो दैहिक इच्छा और भावना से नावाक़िफ़ है। यह ज़रूर है कि वह अपने से उम्र में काफ़ी बड़े अध्यापक के आकर्षण को पहचानती है और उसकी उपस्थिति में ख़ुश रहती है, बावजूद इसके कि अध्यापक और छात्रा की रुचियों में कोई मेल नहीं है। अध्यापक अपने भविष्य की तस्वीर बैंकिंग या विज्ञान के उच्च अध्ययन में देखता है जबकि छात्रा का मन साहित्य में रमता है। लेकिन बावजूद इसके दोनों की आपसी निकटता निर्बाध विकसित होती है। यह सिलसिला लंबा चलता है। कमउम्र नायिका की सामान्य भावना के विपरीत विज्ञान का अध्यापक प्यार से लबरेज़ है। इसका पता किशोरी को तब चलता है जब एक दिन अध्यापक उसे पाँच सौ पन्नों का प्रेमपत्र थमाता है। इस पुलिंदे में उसकी सूक्ष्म भावनाएँ डायरी की शक्ल में दर्ज़ हैं। काल के नज़रिए से कहानी लंबे अंतराल के बाद स्पष्ट होती है जब छात्रा ज़िंदगी के थपेड़े झेलती हुई पूरे प्रसंग का नए सिरे से जायज़ा लेती है।
जैसा कि अगली रचनाओं के “क्वारेंटीन” और “पोस्ट क्वारेंटीन” शीर्षकों से ज़ाहिर है, वे एक ही बड़ी कहानी के दो हिस्से हैं। उनके पात्र समान हैं और उनकी अंदरूनी और बाहरी बनावट भी एक-जैसी है। यह फ़र्क यद्यपि उनमें है कि उनके आख्याता (नैरेटर) अलग हैं। पहली कहानी जोयिता के शब्दों में है और दूसरी जयंत के शब्दों में। फिर निकट से ग़ौर करें तो पाते हैं कि दोनों का मरकज़ जोयिता है, याने जिस क्रम को पाठक ग्रहण करता है वह सिर्फ़ जोयिता के व्यवहार और रवैये के इर्द-गिर्द घूमता है। यह चीज़ कहानी को स्त्रीवादी बनाती है, सटीक और बेबाक लहज़े में। दोनों कहानियों में चिंतनशील और साहसिक नारी की तस्वीर मिलती है। देखें कि कोरोना काल से जुड़ा क्वारेंटीन इस रचना का मज़मून नहीं है, बल्कि रचना के स्तर पर वह मज़मून मौजूदा नज़ारे के पीछे की ज़मीन है जिससे कहानी के मूल सवालों को वास्तविक शक्ल मिलती है। साथ ही, लेखक ने नारी और पुरुष पात्रों को विपरीत स्थिति में रखा है, जिससे उनके रास्ते टकराते हैं और उनके माध्यम से समाज के परस्पर विरोधी मत एक-साथ सामने आ जाते हैं। जहाँ जयंत आत्मकेंद्रित और सीमित सोच से ग्रस्त व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है, वहाँ जोयिता अपने चिंतन के फैलाव में आधुनिक तर्क का मानवीय पक्ष विकसित करती है। वह ऐसी वैचारिक क्षमता का प्रतीक बनती है जो पुरुष-प्रधान रवैये की ख़ामियों पर चोट करने में सक्षम है। यह न सिर्फ़ तब होता है जब जोयिता को अपनी बात कहने का अवसर मिलता है, बल्कि तब भी जब जयंत अपनी तरफ़ से जायती पर टिप्पणी करता है। दोनों कहानियों का यह सशक्त सिलसिला है और अपने दायरे में वह परंपरा और आधुनिकता के टकराव को खींच लेता है। नंदिनी इस टकराव को दिखलाने में रू-रियायत नहीं करती, बल्कि अपनी तरफ़ से आधुनिकता के अंदाज़ को अतिरिक्त जगह देती है। कहा जा सकता है कि यह लेखकीय ज़ोर सहज ही परंपरा और आधुनिकता को प्रतिबद्धता के नज़दीक ला खड़ा करता है।
“परमेश्वर की पत्नी होने के नाते” शीर्षक कहानी गहरे जज़्बात को अपने केंद्र में लिए है, हालांकि जल्द ही वह अपने वक़्त के समाज का दस्तावेज़ भी बन जाती है। उसका शीर्षक ही बतलाता है कि वहाँ एकतरफ़ा नज़रिया न होकर एक ख़ास शख़्स का सवालों से घिरा बयान है। वह यह भी देख लेता है कि सामने उभर रहा परिवेश मूल्यों के स्तर पर कमज़ोर हो रहा है। इस कहानी का रूप निबंध के क़रीब है। उसमें आदर्शों से प्रेरित ऐसे व्यक्ति की तस्वीर है जो धीरे-धीरे अपनी अंदरूनी मासूमियत को बचाने का फ़ैसला लेता है। इस कारण वह माहौल के दूसरे लोगों से अनायास ऊपर उठ जाता है। इस नाते वह समाज के लिए ज़रूरी नियमों का वाहक भी बनता है। इस पात्र का आयाम मिथकीय है, वह किसी बने-बनाए ढर्रे से बलपूर्वक हटता हुआ अपनी लीक पर क़ायम रहता है। इस कोशिश में उसका एकमात्र विकल्प अपने बचपन में लौट जाना है जो असल में व्यापक मनुष्यता की शुरूआत और उसकी धुरी है।
संकलन की बाक़ी कहानियों की तुलना में “वैकल्पिक पुरुष” शीर्षक कहानी नाटकीय है और उसका विमर्श हर पात्र के संवाद के साथ बदलता है। इस कहानी में भी नंदिनी अपनी उपस्थिति सहज ही दर्ज़ अवश्य कराती हैं ताकि संकलन की सामग्री का तारतम्य बना रहे। इस कारण लेखन, अध्यापन और अकादमिक पक्षों पर यहाँ भी सरल अथवा विकट टिप्पणियाँ लगातार की जाती हैं। जो चीज़ इस कहानी को बाक़ी कहानियों से जोड़ती है, वह है समाज के प्रति लेखकीय रवैया। नंदिनी का रवैया प्रचलित व्यवहार की मूल्य-विहीनता का पर्दाफ़ाश करता है। कहानी के अंत में लेखिका द्वारा स्वार्थी अध्यापक को मिलने वाली लताड़ इसका उदाहरण है। इस किताब की यह अकेली कहानी है जहाँ लेखिका पूरे आलोचकीय तेवर के साथ अपना मत व्यक्त करती है। कहा जा सकता है कि शीर्षक के रूप में “वैकल्पिक पुरुष” कई अर्थों में वर्तमान माहौल के सच को सामने लाती है और शायद इस कारण बाक़ी कहानियों का द्वंद्व अनायास इस कहानी में उजागर होता है।
“आक्टोपस” कहानी में नंदिनी एक बार फिर विमर्श का रचनात्मक इस्तेमाल करती हैं, और स्त्री पात्र को पुरुष आख्याता के माध्यम से सामने लाती हैं। इससे अर्थवत्ता का नया आयाम जुड़ता है और कथा में अभिव्यक्ति का अतिशय गंभीर स्तर विकसित होता है। आख्याता और उसके माध्यम से पाठक तक पहुँचने वाले चुने हुए अन्य पात्र का सच मिल कर समाज के बड़े कैनवस को पकड़ता है। “आक्टोपस” शीर्षक में उसी सच का विस्तार देखने को मिलता है। इस रचना की कशमकश के दायरे में नारीवादी सोच की विकटता उस चीज़ में नज़र आने लगती है जहाँ पुरुष द्वारा सामाजिक समानता को अपनाना मध्यवर्गीय उदारता से आगे नहीं जा सकता। कहानी का अंत स्पष्ट करता है कि नारी व्यवहार और सोच की असलियत को ग्रहण करना वर्तमान हालात में मुश्किल है। वह टुकड़ों में नज़र आ सकता है, लेकिन सम्पूर्णता में शायद नहीं।
इस संकलन की आख़िरी कहानी का शीर्षक “लोरी की प्रतिध्वनि” है। किसी भी तरह इस शीर्षक की भाषा या उसके वर्णन बाक़ी कहानियों की भाषा या उनके वर्णनों से मेल नहीं खाते। उसे आसानी से इस संकलन की अनमेल कहानी कहा जा सकता है। इसे बाक़ी कहानियों का प्रतिरूप भी कह सकते हैं जिसमें ऐसे ऐतिहासिक क़स्बे की झलक है, जहाँ रचनाकार ने अपना बचपन बिताया। इस झलक को रोमेंटिक कहें, तब यह ज़ेहन में आता है कि कई दशकों पहले ओडिशा के जीवन में रूढ़ियों और परंपराओं के बावजूद सरलता, स्नेह और अपनत्व के रिश्ते मौजूद थे। उस कालखंड और वर्तमान के बीच की दूरी दिखलाने के लिए नंदिनी ने यहाँ ऐसे नारी पात्र की कल्पना की है, जो अतीत में विदेश चली गई और अब युवा बेटी के साथ अपना गाँव देने के लिए लौटी है। नए संदर्भ में पुरातन का प्रतीक क़स्बे में रह रही वह बूढ़ी औरत है, जिसे पारंपरिक परिवेश ने अथाह प्यार और सुरक्षा दी थी। कहानी के सभी प्रसंग त्रासद हैं और मिलकर वे रचनाकार की मानवीय ललक और आसक्ति का बयान करते हैं।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि प्रोफ़ेसर नंदिनी साहू की अँग्रेज़ी कहानियों के इस अनुवाद का हिन्दी जगत में भरपूर स्वागत होगा और उनकी कहानियाँ नरीवादिता के नए-नए विमर्श को जन्म देगी।
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ—
प्रोफ़ेसर आनंद प्रकाश
हंस राज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रोफ़ेसर आनंद प्रकाश, पीएच.डी., हंस राज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अपनी सेवानिवृत्ति तक अँग्रेज़ी साहित्य का अध्यापन कार्य करते थे। आपने साहित्यिक सिद्धांतों और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों पर गहन व्यापक लेखन किया है। आपके प्रकाशनों में वुदरिंग हाइट्स: ऐन इंटरप्रिटेशन, मार्क्सिस्ट लिटरेरी थ्योरी मुक्तिबोध: अवर टाइम के अतिरिक्त कविताओं, लघु कथाओं, नाटकों, लघु निबंधों आदि विधाओं में द्विभाषीय रचनात्मक लेखन शामिल है। जॉर्ज लुकास के उपन्यास के सिद्धांत का हिंदी में अनुवाद के अतिरिक्त जर्नल ऑफ़ ड्रामा स्टडीज़, और जर्नल ऑफ़ लिटरेचर स्टडीज़ जैसी पत्रिकाओं तथा उन्नीसवीं सदी के विचार, आधुनिक भारतीय विचार और साहित्यिक सिद्धांत के दृष्टिकोण: मार्क्सवाद (वर्ल्डव्यू, दिल्ली), शेक्सपियर में सबल्टर्न्स: ए पोस्टकोलोनियल रिव्यू (द शेक्सपियर एसोसिएशन, 2011) और वीमेन इन शेक्सपियर: ए पोस्ट-फेमिनिस्ट रिव्यू (चिरायु, 2014) आदि प्रमुख संपादित पुस्तकें हैं।
प्रोफ़ेसर नंदिनी साहू समकालीन भारतीय अँग्रेज़ी साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने विश्व भारती, शांतिनिकेतन के अँग्रेजी प्रोफ़ेसर स्वर्गीय प्रोफ़ेसर निरंजन मोहंती के मार्गदर्शन में अँग्रेज़ी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। आप अंतरराष्ट्रीय ख्याति-लब्ध अँग्रेजी भाषा की कवयित्री होने के साथ-साथ प्रबुद्ध सर्जनशील लेखिका हैं। आपकी रचनाएँ भारत, यू.एस.ए., यू.के., अफ़्रीका और पाकिस्तान में व्यापक रूप से पढ़ी जाती हैं। प्रो. साहू ने भारत और विदेशों में विभिन्न विषयों पर शोधपत्र प्रस्तुत किए हैं। आपको अँग्रेज़ी साहित्य में तीन स्वर्ण पदकों से नवाजा गया हैं। अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता की पुरस्कार विजेता होने के साथ-साथ शिक्षा रत्न पुरस्कार, पोयसिस पुरस्कार-2015, बौद्ध क्रिएटिव राइटर्स अवार्ड और भारत में अँग्रेज़ी अध्ययन में अभूतपूर्व योगदान के लिए भारत के उपराष्ट्रपति के कर-कमलों द्वारा स्वर्ण पदक से भी पुरस्कृत किया गया हैं।
नई दिल्ली से प्रकाशित ‘द वॉयस’, ‘द साइलेंस (कविता-संग्रह) ’, ‘द पोस्ट कॉलोनियल स्पेस: द सेल्फ़ एंड द नेशन’, ‘सिल्वर पोएम्स ऑन माय लिप्स (कविता-संग्रह) ’, ‘फॉकलोर एंड अल्टरनेटिव मॉडर्निटीज (भाग-1) ’, ‘फॉकलोर एंड अल्टरनेटिव मॉडर्निटीज (भाग-2) ’, ‘सुकमा एंड अदर पोएम्स’, ‘सुवर्णरेखा’, ‘सीता (दीर्घ कविता) ’, ‘डायनेमिक्स ऑफ़ चिल्ड्रेन लिटरेचर’ आदि शीर्षक वाली बीस अँग्रेजी पुस्तकों की आप लेखिका और संपादक हैं। अमेज़न बेस्ट सेलर 2022 से सम्मानित संप्रति लेखिका इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय [इग्नू], नई दिल्ली अँग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर हैं।
डॉ. साहू ने इग्नू के लिए लोकगीत और सांस्कृतिक अध्ययन, बाल-साहित्य और अमेरिकी साहित्य पर अकादमिक कार्यक्रम/पाठ्यक्रम तैयार किए हैं। आपके शोध के विषयों में भारतीय साहित्य, नए साहित्य, लोककथा और संस्कृति अध्ययन, अमेरिकी साहित्य, बाल-साहित्य एवं महत्त्वपूर्ण सिद्धांत शामिल हैं। अँग्रेजी की द्विवार्षिक समीक्षा पत्रिका ‘इंटरडिस्सिप्लिनेरी जर्नल ऑफ़ लिटरेचर एंड लेंग्वेज’ और ‘पैनोरमा लिटेरेरिया’की मुख्य-संपादक/संस्थापक-संपादक हैं।
www.kavinandini.blogspot.in
पता:
प्रो. नंदिनी साहू
प्रोफ़ेसर (अँग्रेज़ी), एसओएच, इग्नू
नई दिल्ली-110068, भारत।
ई-मेल: kavinandini@gmail.com
मोबाइल: 09811991539
विषय सूची
लेखक की कृतियाँ
अनुवादक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
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- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
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- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
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- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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