नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)
(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )वैकल्पिक पौरुष
हमें वास्तव में ग़ुस्सा आ रहा था, दूसरे शब्दों में ज़्यादा असहज लग रहा था, अधेड़ उम्र की दंपती के हालचाल देखकर।
उस शाम को डॉ. हरिहर पंडा और उनकी धर्मपत्नी मेरे घर में मेहमान के रूप में आए थे, साथ में ओड़िशा से उनके दो मित्र डॉ. मानस और डॉ. शुभ्रा। सविता को छोड़कर सभी एक कॉन्फ़्रेंस में शरीक होने के लिए दिल्ली आए थे। मानस और शुभ्रा मेरे पुराने दोस्त थे, मैंने उन्हें कॉन्फ़्रेंस ख़त्म होने के बाद अपने घर शाम के भोजन पर आमंत्रित किया था। हरिहर और सविता भी साथ आए थे बिना बुलाए मेहमान बनकर यद्यपि यह मुझे बिल्कुल भी नहीं अखर रहा था क्योंकि भुवनेश्वर से चारों एक साथ दिल्ली आए थे। मैंने उनके लिए यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में तीन रूम बुक कर लिए थे—एक दंपती के लिए तथा दो उन लोगों के लिए।
सविता के पास दिन में कुछ काम नहीं था जब उसके पति तथा उनके मित्र कॉन्फ़्रेंस में व्यस्त हो जाते थे, बल्कि वह ज़्यादा ही अपने पति के भोजन, दवाई आदि को लेकर चिंतित हो जाती थी। वह छोटी-छोटी चीज़ों की चिंता करने लगती थी कि दिन में उसके पति कैसे कपड़े पहने या कितनी चाय पीए? आज सिर पर कौन-सा तेल लगाया? अगर सिर पर ज़्यादा पानी डालने से कहीं सर्दी पकड़ ली तो? सप्ताह में एक से अधिक बार चिकन खाना चाहिए या नहीं? अगर उसका पेट ख़राब हो गया तो? मोबाइल पर ज़्यादा बात तो नहीं कर रहे हैं? उन्हें कहीं माइग्रेन न हो जाए, इसलिए अभी उन्हें फोन स्विच ऑफ़ कर देना चाहिए। इतना ज़्यादा आज बाहर क्यों घूम रहे हैं? बाहर में तेज़ हवा चल रही है।
बच्चे बड़े हो गए थे, अपने-अपने काम में लग गये थे। पचास वर्षीय पत्नी का सारा ध्यान अपने साठ वर्षीय पति की ओर था और बातचीत के मुद्दों में वही घिसी-पिटी रोज़मर्रा की बातें, प्यार, ख़ुशी, चिंता, सब-कुछ एक तरफ़।
एक दो दिनों से हम देख रहे थे कि सविता हरिहर का कुछ ज़्यादा ही ध्यान रख रही थी। शुरू-शुरू में हमें यह स्वाभाविक लग रहा था।
मेरे मित्र मानस बुद्धिमान, संवेदनशील लेखक होने के साथ-साथ मेरे दिल के क़रीब भी थे। शुभ्रा सुंदर तेज़-तर्रार और बहुत बोलने वाली भद्र महिला थी।
उस शाम को मैंने उनका हँसी-मज़ाक करने वाले मेरे टीनएजर होशियार पुत्र सोनू से परिचय करवाया। उसके आतिथ्य से वे लोग ख़ुश हो गए थे। मैंने उनके लिए तरह-तरह के व्यंजन बनाए, जो उन्हें बहुत पसंद आए। हम ओडिशा के बारे में बातचीत कर रहे थे, बीच-बीच में मानस अपनी नई कहानियों के बारे में भी बता रहा था। वह जानता था कि मुझे उसकी कहानियाँ पसंद आती हैं, इसलिए वह चाहता था कि मैं उन्हें ध्यानपूर्वक सुनूँ और मैं भी जानबूझकर उसकी तरफ़ ज़्यादा ही ध्यान दे रही थी। शुभ्रा, मानस के साथ मेरी मित्रता के बारे में सारी जानकारी इकट्ठा करने में रुचि ले रही थी, जैसे हम कब और कहाँ मिले? हम एक दूसरे के साथ इस तरह कैसे घुल-मिल गए थे, जबकि ओडिशा में उसका ख़ुशहाल परिवार है और ऐसा भी नहीं कि मैं उसकी कोई प्रेमिका या और कुछ थी। वह इस विशेष बंधन को समझने का प्रयास कर रही थी।
हरिहर मेरा ध्यान उसकी तरफ़ खींचने के लिए बहुत कोशिश कर रहा था, आख़िर मैं उसकी होस्टेस थी, वह इर्द-गिर्द की सारी चीज़ों पर अपनी बिन माँगे राय दे रहा था, अपनी उपलब्धियों के बारे में बता रहा था और दिल्ली में मेरी शानदार ज़िन्दगी की खुलेमन से तारीफ़ कर रहा था। बीच-बीच में मेरे खाने की तारीफ़ करना बिलकुल नहीं भूल रहा था और मुझे हर बार उन्हें विनीत भाव से धन्यवाद देना पड़ रहा था। कुल मिलाकर एक सुहानी शाम थी वह।
उन सारी चीज़ों से परे हम सभी को भूलकर सविता अपने कामों में लगी हुई थी हरिहर की प्लेट में क्या खाना परोसा जा रहा है, किसी मिठाई को ज़्यादा खाने पर आँखें तरेर रही थी, खाने के बाद कॉफ़ी पीने के लिए हाथ से इशारा कर मना कर रही थी। उसने तो यहाँ तक पूछ भी लिया कि खाने से पहले हाथ धोए या नहीं।
मैंने कहा, “मैडम, आप आराम से खाइए सर अपना काम कर लेंगे। अगर उन्हें कोई ज़रूरत पड़ी तो मैं देख लूँगी।”
मेरे मेहमान थे, इसलिए मेरा कर्तव्य भी था।
“नहीं, नहीं! अगर मैं नहीं परोसूँगी तो वे कैसे खा लेंगे? मैं बाद में खाऊँगी और वैसे मैंने गेस्ट हाउस में भरपेट नाश्ता कर लिया है, जब आप लोग कॉन्फ़्रेंस में गए हुए थे।”
शुभ्रा अपनी हँसी रोक नहीं सकी उसे हँसता देखकर सभी हँसने लगे। वह कहने लगी, “अरे सविता मैडम! क्या तुम सर का हर समय इतना ख़्याल रखती हो? क्या वह पालतू जानवर है?”
अविश्वसनीय! लाइलाज शुभ्रा!!
मैं भी अपनी हँसी रोक नहीं सकी और न ही मानस और सोनू भी। हँसी नहीं रुकने के कारण आचार लाने के बहाने मैं रसोई में चली गई। रसोई में मुझे शेक्सपीयर की लैडी मैकबेथ याद आने लगी। वह कह रही थी, “अनसेक्स मी टुडे” उसका यह वाक्य मर्दानगी और पुरुषों की शक्ति के विरुद्ध था। क्या यह उसका नारीवाद था?
क्या सविता की अति चेतना भी व्यतिक्रम नारीवाद का प्रतीक थी? किस नाटक की महारानी थी!
कुछ समय बाद मैं उनके पास गई उनका घरेलू नाटक देखने की ख़्वाहिश से। मैं इसे स्वीकार करती हूँ।
डॉ. हरिहर ऐसोसिएशट प्रोफ़ेसर थे और उनका प्रोफ़ेसर में प्रमोशन भी होने वाला था, उन्हें सच में ‘पालतू जानवर’ की उपाधि पसंद नहीं आई। वह अकेले बात रखना चाहते थे।
तब तक सविता खाना खाने लगी थी, अपने पति को खाना खिलाने की तृप्ति के बाद प्रसन्न मन से।
अपना गला खंखारते हुए मेरी तरफ़ देखकर शुभ्रा से आँखें बचाते हुए कहने लगे, “मैडम, सविता जैसी प्यार करने वाली और ध्यान रखने वाली बहुत कम ही पत्नियाँ होती है। वह मेरी हर चीज़ का ध्यान रखती है। सुबह से शाम चौबीस घंटे-सात दिन, वह मेरे साथ रहती है। वह घर का ध्यान रखती है, बच्चों का ध्यान रखती है और मेरा भी। वह रसोई करती है मेरी बिखरी किताबों को समेटती है, स्टडी टेबल को ठीक करती है, मेरे कपड़ों पर इस्त्री करती है, मुझे खाना परोसती है। क्या कुछ नहीं करती? हर चीज़ के लिए मुझे उस पर निर्भर रहना पड़ता है। सच में, हर छोटी-मोटी चीज़ के लिए भी।”
सविता के होंठों पर एक दीर्घ मुस्कान खिल उठी।
“मैं उन्हें कपड़े भी पहनाती हूँ। नहीं तो यह मूर्ख आदमी नंगे बदन ही यूनिवर्सिटी चला जाएगा—हमेशा अन्यमनस्क रहता है,” दंभ भरी आवाज़ में सविता ने गर्जना की।
“क्या . . .!!”
शुभ्रा को विश्वास नहीं हो रहा था।
डिनर टेबल पर वह कुछ और आचार तलाशने लगी।
“इसका मतलब सविता मैडम क्या वास्तव में आप उनको कुर्सी पर अर्द्ध-नग्न बैठाकर यूनिवर्सिटी जाने से पहले उनका शृंगार करती हो? हर दिन?”
“हाँ बिल्कुल। मैं हर सुबह उन्हें स्नान भी कराती हूँ। हमेशा से मैं करती आ रही हूँ।”
चुपके से मैंने हरिहर की ओर देखा। वह भीतर ही भीतर परेशानी अनुभव कर रहे थे। मगर अपने चेहरे पर ऐसे कोई हाव-भाव प्रकट नहीं होने दे रहे थे मोनालिसा की तस्वीर की तरह। मुझे नहीं मालूम प्रताड़ना के उस क्षण पर वह वास्तव में क्या सोच रहे होंगे।
सविता उठ खड़ी हुई, जल्दी-जल्दी अपने हाथ धोकर, पति के पास आ गई तथा अपने दुपट्टे से उसका मुँह पोंछने लगी, गंजे सिर थोड़े-थोड़े उगे हुए बालों के गुच्छे को सँवारने लगी, उसके शर्ट का कॉलर ठीक करने लगी और उनके पास एकदम चिपक कर बैठ गई, जो हम सभी को असहज लग रहा था।
सोनू ने बड़े मज़ाकिया अंदाज़ में कहा, “वाह! अंकल और आंटी! आप दोनों एकदम जवान दिख रहे हो बॉलीवुड की किसी फ़िल्म के हीरो-हीरोइन की तरह।”
यह कहकर वह खाने के टेबल से उठकर अपने स्टडी रूम में चला गया। मुझे बहुत राहत मिली। मैं नहीं चाहती थी कि सविता और हरिहर का फ़ैमिली ड्रामा और वह देखे और न ही उन पर वह अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करे।
मुझे अंतर्द्वन्द में फँसा देखकर मानस ने विषयांतर किया, “ख़ैर, छोड़ो! हरिहर भाई और भाभी को। हम कुछ नया सोचते हैं।
“क्या सप्ताहांत में हम आगरा, मथुरा और वृन्दावन घूमने जाएँगे? सोमवार की सुबह हमारी फ़्लाइट है, इसलिए शनिवार, रविवार मैडम और सोनू के साथ गुज़ारते हैं। हम एक बड़ी कैब किराए पर ले लेंगे।”
मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया।
मगर शुभ्रा और सविता कहाँ रुकने वाली थी?
“सविता मैडम! बहुत अच्छा लगा आपने अपने पति की इतनी ज़्यादा सहायता की! अगर मेरे पति तुम्हारा उदाहरण देख लेंगे तो तुरंत मुझे तलाक़ दे देंगे। हाँ, हाँ! और क्या हरिहर सर के लिए करने जा रही हो?”
सविता के अहम जगाने के लिए यह पर्याप्त था।
“मेरी उनके साथ शादी हुई तब उन्होंने केवल एम.ए. कर रखा था और किसी गर्वनमेंट कॉलेज में लेक्चरर थे। शुरू से ही ये एक नंबर आलसी थे, मुझे पता चल गया था। अपना गीला तौलिया वाशिंग मशीन में डालने तक उन्हें नहीं आता था। चाय बनाना तो दूर की बात? मैंने सारे काम सँभालना शुरू किए। पूछो उनसे, मेरी वजह से ही वह अपनी पीएच.डी. कर पाए हैं, मेरी वजह से ही अपने शोध पत्र और किताबें लिख पाए हैं। मेरे कारण ही उन्हें प्रमोशन मिलता गया। कल उनका अगर और प्रमोशन होता है तो उसके पीछे मेरा ही हाथ है। मुझे अगर छोड़ दिया जाए तो यह आदमी ज़ीरो है।”
“ऐसी बात है . . .” उसकी बातें सुनते-सुनते शुभ्रा के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान खिल उठी।
मुझे कम से कम इतनी उम्मीद अवश्य थी कि हरिहर अपने और अपने कैरियर के बारे में हो रही उसकी बातों को चुप कराने की कोशिश करेगा। मगर वह पूरी तरह नीरव था। चुपचाप एक कटोरी में दो रसगुल्ले लेकर खाने लगा, तुरंत ही सविता ने उसमें से एक हटा दिया और उसकी तरफ़ प्राथमिक विद्यालय के अनुशासित प्रधानाचार्य की निगाहों से देखने लगी, जैसे किसी शरारती बच्चे को डाँट रही हो।
हरिहर ने एक और रसगुल्ला खाने की इच्छा ज़ाहिर की, एक अपराधी मुस्कान लिए हुए।
“नहीं! तुम और नहीं खा सकते हो।”
सविता हरिहर की ज़िन्दगी परिवार और कैरियर के बारे में अपने योगदान की चर्चा करती रही। शादी को हुए पैंतीस सालों की हर घटना का वह श्रेय ले रही थी—जैसे वह हरिहर के जीवन की धड़कन हो।
मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। मन ही मन सोच रही थी, कब यह शाम ख़त्म हो जाए। मानस इसे भाँप रहा था। आख़िर वह मुझे शुभरात्रि कहते हुए उठ खड़ा हुआ। दूसरों को भी उसके साथ जाना पड़ा।
देर रात मैं जटिल मानवीय व्यवहार के बारे में सोचती रही कि एक औरत किस हद तक अपने पति पर हक़ जताने लगती है। मुझे शत-प्रतिशत इसमें पुरुष प्रताड़ना नज़र आ रही थी। मेरे भीतर लैंगिक सिद्धांतवाद जागने लगा था। मेरे भीतर का इंसान जाग उठा था और पौरुष्य दृष्टिकोण से हलधर और सविता जैसे पात्रों पर मनन करने लगा था। मुझे लग रहा था, बेचारा हरिहर किसी की छत्रछाया में जी रहा था। सविता मुझे अलग-अलग तरीक़े से परख रही थी। मैं देख रही थी कि हरिहर का उसके इस तरीक़े से देखने के कारण दम घुट रहा था, मगर वह हमारे सामने अपनी इज़्ज़त रखने के लिए उसके प्यार और सर्मपण की अच्छी-अच्छी बातें करता रहा। शायद हो सकता है कि वह नहीं चाहता था कि लोग उसका या सविता का अपने ढंग से मूल्यांकन करें।
बेचारा! सारी रात मेरी सहानुभूति उसके प्रति उमड़ पड़ी।
अगली सुबह मैंने मानस को उनके साथ आगरा जाने के लिए मना कर दिया, यह कहकर कि यूनिवर्सिटी में मेरा कोई महत्त्वपूर्ण काम शेष है। मैंने उसे डॉ. हरिहर के प्रति मेरी अनुभूतियाँ भी बता दीं। उसने इस तरफ़ ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, बल्कि उसे ख़राब लग रहा था कि उस दंपती के कारण मेरी शाम बर्बाद हो गई थी। अगर वे लोग नहीं होते तो कम से कम अच्छा साहित्य पढ़ने, कुछ अच्छा संगीत सुनने और मेरे तथा सोनू के साथ शान्ति से डिनर करने का अवसर मिल जाता।
उसका अपने सोचने का तरीक़ा था, जबकि मुझे उन चीज़ों में भी मज़ा आया था।
समय बीतता चला गया।
मैं हरिहर सविता को भूल चुकी थी। कभी-कभी मानस और शुभ्रा याद करते थे, मगर हम कभी भी उस दंपती पर बात नहीं करते थे। हमारे बातचीत करने का मुद्दा भी नहीं था क्योंकि हरिहर के साथ जो कुछ हो रहा था, वह उसे प्रत्यक्ष रूप से सहन कर रहा था—यद्यपि मुझे उसमें संदेह नज़र आ रहा था, मगर मानस मुझे सब कुछ भूल जाने के लिए कह रहा था।
बात कुछ ऐसी थी भी!
हाँ, दिल्ली से उनके जाने के पाँच महीने बाद, मुझे भुवनेश्वर की उत्कल यूनिवर्सिटी जाने का मौक़ा मिला, एक व्याख्यान देने हेतु। डॉ. हरिहर मुझे मिलने के लिए बहुत उत्सुक थे, मगर मेरे पास समय नहीं था, मैं अक़्सर तुरंत अपना विमान पकड़ लेती थी। इसलिए मैंने व्हाट्स एप्प पर उन्हें सूचित कर दिया था अपनी असमर्थता जताते हुए।
बहुधा मैं सुबह जाती थी तो शाम को लौट आती थी। पद्मश्री कवि जयंत महापात्र उस दिन भुवनेश्वर में थे और उनकी कार शाम को मुझे हवाई अड्डे पर छोड़ने के लिए तैयार थी। मैं जयंत सर के साथ घंटों-घंटों बातें करती थी और मुझे उनके साथ लंबी यात्रा में या एअरपोर्ट पर एक-दो घंटे बिताने में बहुत ख़ुशी होती थी। मैं नहीं चाहती थी कि हरिहर वहाँ आए, फिर भी मैंने और जयंत सर ने उसके बारे में कुछ गपशप अवश्य की, कुछ सैकंड ही सही, चेक-इन करने के दौरान हरिहर ने अनुरोध किया कि वह हमारी फोटो खींचना चाहता है, जयंत सर ने उस हेतु हामी भरी।
इसलिए उसने तुरंत अपना मोबाइल पास से जा रहे किसी आदमी को दिया और हमारे साथ फोटो खींच लिया। मैंने जयंत सर के चरण स्पर्श कर भुवनेश्वर से विदा ली और हरिहर को ‘नमस्ते’ कहा।
कुछ दिनों के बाद, मैंने देखा कि हरिहर ने फ़ेसबुक पर हमारा फोटो पोस्ट कर दिया है, एक लंबी टैग लाइन के साथ, नीचे लिखा हुआ था, “पद्मश्री जयंत महापात्र और असाधारण कवयित्री नंदिनी साहू के साथ भुवनेश्वर में गुज़ारे अचरज के कुछ पल। समकालीन भारतीय साहित्य पर लंबू चर्चा के साथ-साथ दोनों के साथ भविष्य में संभावित अनुबंध।”
मुझे ग़ुस्सा आने की बजाय उस पर दया आ रही थी और मैं बार-बार हँस रही थी। जहाँ तक मुझे याद है, हमने भुवनेश्वर एयरपोर्ट पर उसके साथ ज़्यादा से ज़्यादा एक मिनट समय बिताया होगा और वह भी बिन बुलाया मेहमान था उस समय।
हरिहर मुझे त्योहार, आयोजन और विशेष अवसरों पर कर्टसी मैसेज किया करता था और मैं इमोजी के द्वारा उन्हें ‘नमस्ते’ का उत्तर देती थी। कभी-कभी तकनीक हमारे जीवन को सरल बना देती है।
आठ नौ महीने के बाद हरिहर ने मुझे हमारे गेस्ट हाउस में एक रूम बुक करने के लिए फोन किया। उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में रहती हूँ, इसलिए उन्हें वहाँ जाने के लिए ज़्यादा यात्रा करना पड़ेगी। हरिहर ने कहा, “चलेगा, और कहीं भी रूम नहीं मिल रहे हैं।”
हमारे गेस्ट हाउस पहुँचकर उसने फोन किया। वास्तव में वह मुझे उसी सुबह मिलना चाहते थे। ऐसे भी मैं व्यस्त थी और उससे बचना चाहती थी। उस दिन शाम को पाँच बजे जब मैं घर पहुँची तो पहले से ही वह हमारे ड्राइंग रूम में आराम से बैठे हुए थे। वह हमारे घर आमंत्रित नहीं थे, बिन बुलाए मेहमान की तरह आ पहुँचे, यह कहते हुए वह गेस्ट हाउस में बोर हो रहा था। मैंने उन्हें चिढ़ाया, “डॉ. हरिहर, जो लोग अपनी कंपनी में बोर होते हैं, ख़तरनाक लगते हैं।”
शायद मैं उन्हें अपनी तनावग्रस्त ज़िन्दगी के बारे में बताना चाहती थी। अभी भी उनके प्रति हमदर्दी थी। यह दूसरी बात है, एक कमज़ोर और बुज़दिल आदमी होने के कारण उनका सम्मान नहीं करती थी।
चाय की चुस्की लेते हुए तथा स्नैक्स खाते हुए वह अपना मधुर समय बिता रहे थे। इस बार वह तनाव रहित लग रहे थे, विगत समय की तुलना में, जब वह चाय पीने और रसगुल्ला खाने में आनाकानी कर रहे थे।
बेचारा!
सविता का फोन आने तक वह आराम से थे। सविता शायद उन्हें हर घंटे फोन करती होगी। मेरा अनुमान है नेटवर्क ख़राब होने का बहाना बनाकर उन्होंने फोन काट दिया होगा। एकाध मिनट बात करने के बाद उन्होंने अपने मोबाइल को फ़्लाइट मोड में डाल दिया।
“सर, मेरे फोन से बात कर लीजिए। मैं भी अपनी शुभेच्छाएँ प्रकट कर देती हूँ।”
“नहीं, नहीं, मैडम, रहने दो। मैं एकाध घंटे बाद फोन कर दूँगा।”
वह लगातार एक घंटे से अपने कामकाज और यूनिवर्सिटी के बारे में बताते रहे। बेचारे सोनू को हर समय सिर हिलाकर हामी भरनी पड़ी होगी, क्योंकि मैं उस समय डिनर तैयार करने लग गई और उनकी इधर-उधर की बातों में मेरी कोई दिलचस्पी भी नहीं थी। सही शब्दों में कहूँ तो मैं विनीत नहीं थी। और मैं उनसे छुटकारा पाना चाहती थी। ऐसी निरर्थक बातों में समय बर्बाद नहीं करना चाहती थी।
एकदम सात बजे उन्होंने अपनी पत्नी को फोन लगाया और कहने लगे कि वह गेस्ट हाउस में हैं, डिनर का इंतज़ार कर रहे हैं और यह कहकर फिर से अपना फोन फ़्लाइट मोड पर लगा दिया।
मैं समझ गई। वह अपनी पत्नी को हमारे यहाँ होने की बात नहीं बताना चाह रहे थे। संक्षिप्त में, मेरे साथ। इकलौती महिला के साथ।
सोनू ने पूछा, “मगर अंकल, आप तो हमारे घर में बैठे हुए हैं। आप झूठ क्यों बोल रहे हो?”
यह असमंजस की स्थिति थी उनके लिए। फिर मैंने उन्हें घर से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए झूठ बोला, “सर, कृपया माफ़ करें। सोनू को होमवर्क करना है और अभी हम पढ़ाई करेंगे।”
“नहीं, मम्मी। आज मुझे होमवर्क नहीं करना हैं।”
मैं मूर्ख की तरह उसकी तरफ़ देखने लगी।
बेशर्मी से हरिहर कहने लगा, ”मैडम, जाने से पहले डिनर ले सकता हूँ? गेस्ट हाउस में लंच अच्छा नहीं था।”
हमने बहुत जल्दी चुपचाप डिनर किया। फिर मैंने उन्हें अपनी कार में गेस्ट हाउस छोड़ने का प्रस्ताव रखा, जबकि साढ़े सात बजे उनका जाने का मूड नहीं था।
अनमने भाव से सोनू को ‘गुड बाय’ कहते हुए मेरी कार में बैठ गए। अतिसफल स्वतंत्र महिला की तारीफ़ के पुल बाँधना नहीं भूले, जो ख़ुद अपनी कार चलाती है।
बहुत ही ख़राब लग रहा था।
अब मैं उनके साथ कार में अकेली थी और मेरे पास एक रीढ़विहीन जोरू के ग़ुलाम के प्रति ग़ुस्सा दबाने का कोई कारण नहीं बचा था। गेस्ट हाउस में डिनर करने का झूठ बोलकर उसने मेरे लिए स्पष्टीकरण माँगने का रास्ता खोल दिया था।
“डॉ. हरिहर, मैं अपने बेटे को किसी भी प्रकार का झूठ या धोखाधड़ी नहीं सिखाना चाहती हूँ, इसलिए आपने मेरे घर में जो भी झूठ बोला, वह पूरी तरह से आपत्तिजनक था। मैं आपके या आपके परिवार या उनके मूल्य-बोधों के बारे में बिल्कुल नहीं जानती हूँ। हमारे परिचित मित्रों के द्वारा आपसे परिचय हुआ है। मैं आपका सम्मान करना चाहती हूँ मगर दुर्भाग्यवश नहीं कर पाऊँगी और नहीं कर सकती हूँ। कोई दूसरा आदमी आपके ऊपर उस हद तक अधिकार कैसे जता सकता है? मेरे घर में बैठकर मेरे सामने ही अपनी पत्नी से झूठ कैसे बोल सकते हैं? आपने हमें शर्मिंदा किया है और हमारे स्वागत-सत्कार पर पानी फेर दिया है। मैं नहीं जानती, इन सारी चीज़ों के लिए मुझे आपको फटकारना चाहिए या नहीं। यह भी नहीं जानती हूँ कि आपसे मुझे बात भी करनी चाहिए या नहीं। आप अपनी पत्नी को इतना तक नहीं बता सकते हो कि हमारे साथ हमारे घर में डिनर कर रहे हो। हमारे परिवार का भी कोई मान-सम्मान है या नहीं? पिछली बार भी हमारे सामने आपका व्यवहार बहुत निंदनीय था। एक आदमी यह कैसे बर्दाश्त कर सकता है, जब कोई औरत उसके जीवन और कैरियर का सारा श्रेय ख़ुद लेती हो? क्या आपका अपना कोई स्वाभिमान नहीं है। शर्म नहीं आती है? अरे! क्या आपका दम नहीं घुट रहा है? ऐसी ज़िन्दगी कैसे जीते हैं आप?”
क्रोध के मारे मेरी साँसें फूल रही थी। मैंने गेस्ट हाउस के सामने अपनी कार रोकी और नीचे उतर गई। वह भी नीचे उतर गए और कुछ दूरी पर जाकर खड़े हो गए।
शांत लहजे में वह कहने लगे, “मैडम, मैं सोच रहा था आप बहुत बुद्धिमान महिला हैं और आप किसी अध्याय में उप-अध्याय को समझ सकेंगी। दमन की इस कहानी के पीछे का लक्ष्य? अगर अब मुझे आप किसी गांधारी से कम नहीं लग रही हो। अंधा पैदा होना कोई अपराध नहीं है, लेकिन आँखों को अंधी कर देना? इस कहानी की अथाह गहराई तक आप कैसे नहीं पहुँच पाई?
“ओके, सीधे बिंदु पर अपनी बात रखता हूँ।”
उन्होंने अपना सिर खुजलाया, शून्य में शब्द खोजते हुए कहने लगे, “मेरी पत्नी सविता ख़ाली दिमाग़ वाली मूर्ख महिला है, तुम्हारे जैसी विदुषी ऐसे लोगों का दिमाग़ नहीं पढ़ पाई। वह तीन क्लास उत्तीर्ण है (या अनुतीर्ण हा हा), वह अँग्रेज़ी में अपने हस्ताक्षर तक नहीं कर सकती है। वह काग़ज़ों पर अँगूठा लगाती है, जहाँ मैं कहता हूँ। वह बड़े घर की महिला है, जहाँ उसने आदमियों को औरतों पर वर्चस्व जताते देखा है। अठारह साल में उसकी मेरे साथ शादी हो गई थी, उस समय मेरी उम्र पच्चीस साल थी। उसके पिता ने मुझे काफ़ी दहेज़ दिया था और बोनस तो आप देख ही रही हो। एक बड़ा आलीशान घर और दो-चार चमचमाती कारें। वह इन अनुत्पादक चीज़ों के नशे में कभी नहीं समझ सकी। मेरे और मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के सिवाय उसके पास सोचने का वक़्त नहीं था। वह खाना बनाती है, घर साफ़ रखती है, मेरी आवश्यकताओं और इच्छाओं का ध्यान रखती है—मुझे अच्छा खाना, साफ़-सुथरा घर, नरम बिस्तर, काम करने के लिए स्वच्छ टेबल, धुले नए तौलिए, साफ़ सुथरी किताबों की अलमीरा, स्वास्थ्यप्रद चाय और स्वास्थ्य के प्रति सजगता आदि हर चीज़ जो अच्छी ज़िन्दगी की ज़रूरत होती है। बदले में, मैं उसकी मूर्ख बातों को उसकी स्वघोषित प्रभुत्व को नज़रअंदाज़ कर देता हूँ। उसे लगता है वह मेरे ऊपर हुक्म चला रही है। क्या तुम विश्वास करोगी? उसने अपनी सारी सम्पत्ति जायदाद मेरे नाम कर दी है—मेरा मतलब सम्पत्ति के काग़ज़ पर उसने अँगूठा लगा दिया है—बिना कोई पूछताछ किए कि वह क्या करने जा रही है। मैंने उससे कहा कि अपनी सम्पत्ति को सुरक्षित रखने के लिए इन काग़ज़ों पर अँगूठा लगाना ज़रूरी है।”
मैं आश्चर्य चकित थी। मेरा मुँह खुला का खुला रह गया और आँखें फटी-फटी। कैसा रहस्योद्घाटन!
“और मैडम, मेरे फ़्रेंड सर्कल में कौन आदमी विश्वास कर पाएगा कि वह तीसरी कक्षा फ़ेल है, जो निरा मूर्ख है, जो केवल अपना दंभ हाँकने के लिए मुँह खोलती है, उसकी मूर्खता ने वास्तव में मेरे अकादमिक कैरियर का ढाँचा बुना है। सत्य तो यह है कुछ लोग उसकी मूर्खता पर हँसते हैं और आपके जैसे कुछ लोग अपनी सहानुभूति जताते हैं। वास्तव में यह मेरे लिए विन-विन वाली स्थिति है।”
मैं अपनी कार में बैठ गई, ‘गुडनाइट’ या ‘गुड बाय’ का अभिवादन किए बग़ैर।
और अन्यमनस्क भाव से घर पहुँची पौरुष के बारे में पुनर्विचार, संज्ञान और परिभाषा संबंधित निर्वात को अपने भीतर समेटे हुए।
विषय सूची
लेखक की कृतियाँ
अनुवादक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
-
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज