नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)
(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )सोनागाछी का महाप्रसाद
एक ऐसा मायावी संभोग सुख, जिसे न तो परिभाषित किया जा सकता है और जो अमूर्त, अवर्णनीय, सूक्ष्म है और साथ ही साथ, आत्मान्वेषी भी। वह उसे अनुभव करना चाहती थी, जब भी उसे अपने पति के साथ दुर्लभ अंतरंग क्षणों को साझा करने का मौक़ा मिलता था। मगर यह प्राप्ति उससे कोसों दूर रहती थी, क्योंकि दो डरावने सर्पिल हाथ, कठोर शरीर और दूर से आती हुई मछलियों की गंध उन पलों के दौरान उसके उत्तेजित अवचेतन मन में रेंगने लगती थी।
क्या अपने पति के साथ सेक्स करते समय ऐसा सोचने के लिए उसे दोषी ठहराया जा सकता है? मुझे लगता है कि सच में ऐसा कोई नहीं कर सकता।
झुंपा चटर्जी उस समय गोल-मटोल चेहरे वाली सोलह साल की प्यारी लड़की थी, जब उसकी माँ को आधा पैरालिसिस हुआ था और वह व्हील चेयर पर बैठने के लिए विवश हो गई थी। झुंपा के पिताजी, जिसे वह बाबाई कहती थी, उनकी उम्र लगभग चालीस वर्ष के आस-पास रही होगी और कोलकाता से कुछ किलोमीटर दूर सोनागाछी में अपनी बीमार पत्नी की सेवा और किशोर बेटी की देखभाल का बोझ उनके कंधों पर आ गया था।
सोनागाछी की प्राकृतिक सुषमा देखते ही बनती थी, कभी वहाँ घने जंगल हुआ करते थे, जिसमें चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के तुंग नज़र आते थे। यह जगह शहरी जीवन से इतनी अछूती थी कि यहाँ पक्की सड़क होने की बजाए गंदी धूल भरी पगडंडियाँ साफ़ दिखाई देती थीं। इस इलाक़े में सियार, चितकबरे हिरण, दंतैल हाथी, लोमड़ियों के झुंडों के अलावा पेड़ों के झुरमुटों पर रंग-बिरंगी पक्षियों में तोते, कठफोड़वे, किंगफिशर और पोखरियों में बतख, राजहंस आदि जहाँ-तहाँ प्राचुर्य में मिलते थे। एशिया का सबसे बड़ा ‘रेड लाइट एरिया’ था वह।
बंगाली में सोनागाछी का अर्थ होता है सोने के गाछ यानी सोने के पेड़। कुछ लोक कथाओं के अनुसार कोलकाता के शुरूआती दिनों में एक कुख्यात डकैत सनाउल्लाह अपनी माँ के साथ वहाँ रहता था। जब वह मर गया तो उस शोक संतप्त माँ को अपनी झोपड़ी में आवाज़ सुनाई पड़ी, “माँ, रोना मत। मैं गाजी बन गया हूँ।”
इस तरह सोनागाजी की कथा प्रचलित हुई और उस माँ ने अपने बेटे की याद में एक मस्जिद बनवाई, हालाँकि कुछ ही समय में वह मस्जिद जर्जर होकर टूट गई। कालांतर में यह सोनागाजी शब्द सोनागाछी में बदल गया। कोलकाता के रेड लाइट इलाक़े के बच्चों पर सन् 2005 में बनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘बोर्न इन्टू ब्राथेल्स’ को सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला। इस फ़िल्म में सोनागाछी के वेश्यालयों में पैदा हुए बच्चों के जीवन का वीभत्स वर्णन है। इस फ़िल्म में वेश्याओं से भरी गलियों के अलावा सबसे ज़्यादा गंदी जगहों पर रहने वाले बच्चों के जीवन के बारे में भी चित्रण किया गया है। एक दस साल के लड़के अविजीत की लेंस के माध्यम से खींचे गए नेचुरल उत्तेजक फोटो के कारण उसे एम्स्टर्डम के वर्डप्रेस फोटो फ़ॉउंडेशन में शरीक होने का निमंत्रण मिला। वह लड़का सोनागाछी का रहने वाला था।
मगर झुंपा को इन सारी चीज़ों से कोई लेना-देना नहीं था। वह मेडिकल में दाख़िला पाने के लिए नीट की तैयारी कर रही थी। उसकी केवल एक ही चाहत ही डॉक्टर बनने की, उसकी माँ का अर्धांग पैरालाइसिस होने के कारण उसके जीवन में कब ग्रहण लग गया, उसे पता ही नहीं चला। सब-कुछ इतनी तेज़ी से हुआ कि बस . . . वह भी ग़लत तरीक़े से।
उस समय झुंपा की ग्रेस और मेरे साथ अच्छी दोस्ती थी। झुंपा और मैं हिंदू ब्राह्मण परिवारों से आती थीं, जबकि ग्रेस कट्टर ईसाई परिवार से। हम सभी एक साथ स्कूल जाते थे; एक साथ खेलते थे और एक साथ पढ़ते थे। मेरे स्वर्गीय पिता और ग्रेस के पिता दोनों सोनागाछी के स्कूलों में शिक्षक थे।
एक दिन अचानक झुंपा ने स्कूल आना बंद कर दिया और वह हम दोनों से विचित्र रूप से कटती चली गईं। वह अपने माता-पिता को माई और बाबई कहती थी, उन्होंने हमें उससे मिलने तक नहीं दिया। उस ज़माने में न तो कोई फ़ेसबुक थी, न व्हाट्सएप और न ही इंटरनेट।
ग्रेस मुझसे ज़्यादा स्मार्ट थी, इसलिए उसने किसी भी तरह झुंपा के साथ संपर्क बनाने की चेष्टा की। मैं निराश हो गई क्योंकि मेरे पिता का उस जगह से कहीं और स्थानांतरण हो गया था। और मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा, साथ ही साथ ग्रेस, झुंपा और अन्य सभी का साथ भी छूटता चला गया। शुरू-शुरू के कुछ महीनों में मैंने ग्रेस को चिट्ठियाँ लिखी, झुंपा के हाल-चाल जानने के लिए। मगर उसका कभी कोई ख़बर नहीं मिली। कोई खुशख़बरी नहीं थी। देखते-देखते हम बड़े हो गए। समय के साथ बचपन के सहेलियाँ अतीत की स्मृतियाँ बनकर रह गई। हालाँकि झुंपा के लिए मेरे दिल के किसी गुप्त कक्ष में दर्द अवश्य कचोटता रहा था। फेलोशिप पाकर मैं अमेरिका चली गई, अपनी पीएचडी पूरी करने के लिए और फिर भारत लौट आई दिल्ली के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बनकर। सन् 2020 में अपने बचपन की सहेली ग्रेस से मिलने के लिए मैं केरल गई, फ़ेसबुक पर एक बार उसकी फ़्रेंड रिक्वेस्ट पाने के बाद। मेरे जाने के कुछ दिनों बाद ग्रेस ने भी सोनागाछी छोड़ दिया था और कोच्चि में जाकर रहने लगी थी। हमारी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी। ग्रेस को पाना कुछ विलुप्त पेरागनों को पुनर्जीवित करने या किसी छुपे हुए ख़जाने को पाने के समकक्ष था। हम बरसाती जंगलों में जंगली धाराओं की तरह मिले थे।
गर्मियों की छुट्टियाँ उत्साह, उमंग, प्यार, साहचर्य और ख़ुशी से भरी हुई थी, मगर अचानक एक दिन मेरा हृदय विदीर्ण हो गया। हमारी मुलाक़ात के पहले दिन ही मैंने ग्रेस से पूछा था कि क्या वह झुंपा का पता जानती है? उस प्रश्न का उत्तर टालते हुए वह मुझे अपना विशाल फ़ॉर्म हाउस दिखाने ले गई, जहाँ पर वह जैविक खेती किया करती थी। उसके दोनों बेटे मेरे बेटे के साथ अच्छी तरह घुल-मिल गए थे और हम उन तीनों शरारती बच्चों को सँभालने में पूरी तरह व्यस्त हो गई थीं; जबकि बिछोह के इतने सालों के बाद हमारे पास कहने और करने के लिए बहुत कुछ था। एक हफ़्ते बाद सुबह-सुबह मैंने फोन पर ग्रेस की दबी हुई आवाज़ सुनी। वह फुसफुसा रही थी, “झुंपा, क्या तुम पागल हो गई हो? फिर से उस नरक में जाना चाहती हो? यदि इस बार फिर से तुम ऐसा करती हो तो मैं तुम्हें और बचाने वाली नहीं हूँ। ख़ासकर जब निन्नी बरसों बाद मिलने के लिए यहाँ आई हुई है। बेचारी वह तुम्हारे बारे में पूछ रही थी और मैं टालते जा रही हूँ। वह बर्दाश्त नहीं कर पाएगी क्योंकि तुम जानती हो वह बचपन से ही अति संवेदनशील है।”
अगले ही पल मैं ग्रेस के सामने खड़ी थी, झुंपा और उसके ठिकाने के बारे में मेरे वैध सवालों को लेकर। ज़ाहिर है ग्रेस उन सवालों के उत्तर और टाल नहीं सकी।
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सन् 2005 में सोनागाछी छोड़ने के बाद ग्रेस पहले से कहीं ज़्यादा अकेली हो गई थी क्योंकि झुंपा ने स्कूल आना बंद कर दिया था। उसने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के लिए किसी पत्राचार पाठ्यक्रम में दाख़िला ले लिया था। ग्रेस के पिता ने उसे कॉलेज और विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए केरल भेज दिया था, जहाँ वह हॉस्टल में रहने लगी, इस तरह झुंपा के संघर्ष से वह भी दूर हो गई। लेकिन जब वह सन् 2008 में अपने माता-पिता के साथ गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने सोनागाछी गई, तब उसे पता चला कि झुंपा के माता-पिता दो महीने के लिए कहीं बाहर गाँव गए हुए थे, अपने किसी रिश्तेदारों के अंत्येष्टि कर्म में भाग लेने के लिए। झुंपा नौकरानी के साथ अकेली रहती थी और उसे सख़्त हिदायत दी गई थी कि वह कभी भी कहीं बाहर न चली जाए। उचित समय देखकर ग्रेस अपने चचेरे भाइयों रेमचासो, एल्विन और थॉमस के साथ मिलकर झुंपा के घर चली गई। उसके चचेरे भाई स्थानीय चर्च में अच्छा काम कर रहे थे। झुंपा की अस्त-व्यस्त हालत में देखकर वह बहुत दुखी हुई। झुंपा पूर्ण महिला की तरह लग रही थी, तरह-तरह के विचारों की उधेड़बुन में खोई हुई-सी। अठारह-उन्नीस साल की लड़की की तरह वह बिल्कुल नहीं लग रही थी। उसकी दुर्दशा और व्यवहार देखकर ग्रेस परेशान हो गई। नौकरानी को अच्छी ख़ासी रिश्वत देकर वह उसे उसकी नज़रबंदी से बहुत दूर बाहर ले गई।
झुंपा को गलियों में घूमना असहज लग रहा था, आख़िरकार तीन साल बाद के बाद वह घर की चारदीवारी से बाहर निकली थी। ग्रेस और उसके भाइयों ने उसे काफ़ी हद तक सामान्य अवस्था में लाने की कोशिश की। उसे एक अच्छे रेस्टोरेंट में खाना खिलाया, उसके लिए कुछ सामान ख़रीदा और ईसा मसीह से उसके जीवन की मंगल-कामना करने के लिए चर्च के भीतर ले गई। यह देखकर झुंपा बहुत ख़ुश थी और वहाँ के लोगों की स्वतंत्रता देखकर आश्चर्यचकित भी। एक पिंजरे में बंद पक्षी होने के कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन वह नहीं समझ सकती थी। चर्च के कोने में एक ‘कन्फ़ेशन बॉक्स’ रखा हुआ था, जहाँ हर कोई अपने दिल की बात कह रहा था। ऐसा माना जाता है कि वहाँ उस श्रद्धालु व्यक्ति और परमेश्वर के बीच की बात को कोई नहीं सुन सकता है। सभी की प्रार्थनाएँ और स्वीकारोक्ति पूरी होने के बाद झुंपा कन्फ़ेशन बॉक्स में जाने के लिए सहमत हो गई, ताकि वह अपने व्यक्तिगत भगवान—अगर इस दुनिया में उनका अस्तित्व हो तो—से बातचीत कर सकें। ग्रेस ने मुझे बताया कि उसने अपने भाइयों की सहायता से वहाँ एक रिकॉर्डर फ़िट कर दिया था और झुंपा ने वहाँ क्या कहा, हम सभी के लिए एपीफ़नी के क्षणों से कम नहीं था, किसी बम विस्फोट या वज्राघात की तरह।
कन्फ़ेशन बॉक्स में अपने दिल की बात कहने की बजाय वह कहने लगी, “हे इस सुंदर, शांत जगह के भगवान! मैं यहाँ आपके साथ अपनी कहानी साझा करना चाहती हूँ। मैं फँसी हुई हूँ और मुझे इस अँधेरी सुरंग से बाहर निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा है। जब मैं 11वीं कक्षा में पढ़ रही थी तो मेरी माई व्हीलचेयर पर थी और मेरे बाबाई को पूरे दिन काम करना पड़ रहा था। मेरे माई-बाबई किसी दुर्दांत देवी के परम भक्त थे, जिसका हमारे घर के तहख़ाने में मंदिर बना हुआ था। बाबाई वहाँ हर दिन घंटों-घंटों बैठकर पूजा करते थे। बाबाई और माही मुझे कहते थे—मैं उस देवी का प्रसाद हूँ, महाप्रसाद, एक पवित्र लड़की का शरीर पाकर। इस वजह से उन्होंने मुझे स्कूल जाने से रोक दिया और उस रात बाबाई ने मेरे लिए ख़ास पूजा की और माई आँखें बंद कर मंत्रों का जाप जपने लगी। पहली बार जब मुझे प्रसाद के रूप में देवी को चढ़ाया गया तो सांसारिक पापों से शुद्ध करने के लिए बाबाई मुझे स्नानघर में ले गए और वहाँ अपने हाथों से उन्होंने मुझे स्नान करवाया, पहली बार। शुरू में मुझे बहुत और असहज लग रहा था। बाबाई समझा रहे थे कि वह देवी के परम भक्त हैं और मैं देवी की महाप्रसाद, इसलिए मुझे शर्म करने की क़तई ज़रूरत नहीं है। बल्कि देवी के समक्ष आत्म-समर्पण करने के लिए अपनी आँखें बंद कर उन्हें ऐसा करने की अनुमति ख़ुशी-ख़ुशी से देनी चाहिए। माई अपने कमरे में सो रही थी। बाबाई ने मुझे नहलाया, मेरे स्तनों और जननांगों को कोमलता से स्पर्श करते हुए मेरे भीतर ऐसे घुसे कि मेरी योनि से तेज़ी से ख़ून बहने लगा। मुझे बहुत दर्द हुआ। यह मेरे लिए बहुत बड़ी दुखद घटना थी। मैं फूट-फूटकर रोई। बाबाई ने मुझे अपनी बाँहों में भरकर सांत्वना देते हुए चुप होने को कहा और इसके बाद बिस्तर पर ऐसे ही नंगा सुला दिया। उसके बाद हर रात मुझे स्नान कराने की रस्म अदा करते हुए मुझे महाप्रसाद के रूप में देवी के सामने चढ़ाया जाता था। और अब मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। वह मेरे शरीर के साथ जो कुछ करता है, मुझे अच्छा लगता है। वास्तव में मुझे उन दिनों नींद नहीं आती थी, जब बाबाई मेरे साथ ऐसा नहीं करते हुए सुला देते थे। मगर मुझे एक चीज़ नापसंद है, वह यह है कि बाबाई और माई मुझे किसी से बात करने की अनुमति तक नहीं देते हैं, यहाँ तक कि नौकरानी से भी नहीं। मुझे बाहर जाने तक की अनुमति नहीं है। मुझे अपनी सहेलियों की याद आती है। अपने स्कूल की याद आती है। मैं मेडिकल प्रवेश की तैयारी नहीं कर रही हूँ। उन सपनों को मैं पूरी तरह भुला चुकी हूँ। भगवान! आज तुम्हारे सामने ये सब क़ुबूल करते हुए मुझे काफ़ी राहत अनुभव हो रही है, चाहे तुम कोई भी हो। ग्रेस मुझसे कह रही थी कि अगर यहाँ कोई अपना क़ुसूर क़ुबूल करते हैं तो हमारी सारी चिंताएँ दूर हो जाती है। हे शांत भगवान! क्या मैं अपने जीवन का बाक़ी हिस्सा भी ऐसे ही एकांत और गुप्त तरीक़े से बिताने के लिए विवश रहूँगी? क्या मुझे दूसरों की तरह आज़ादी की अनुकंपा प्राप्त नहीं होगी?”
झुंपा आँखों में आँसू लिए बाहर आ गई। ग्रेस, रेमचासो, एल्विन और थॉमस सभी अपमान और लज्जा भरी दुष्कर्म की कहानी सुनकर क्रोधाग्नि से दहक रहे थे। साफ़ ज़ाहिर था कि अंतहीन सहमति वाले दुराचार की इस कहानी ने एक निर्दोष लड़की की जीवन-शृंखला को तहस-नहसकर बदसूरत बना दिया था। सबसे बुरी बात यह भी थी कि वह स्वयं इसे असामान्य, अप्रिय और आपत्तिजनक नहीं मान रही थी। जब उसे एनिग्मोस कि इस भूमिगत अँधेरी दुनिया में धकेला गया था, उस समय वह बहुत ही मासूम और नाज़ुक उम्र की लड़की थी।
ग्रेस, रेमचासो, एल्विन और थॉमस चर्च के अधिकारियों से मेल-मुलाक़ात कर इस बदनसीब लड़की को बचाने की योजना तैयार करने लगे। तक़दीर उनका साथ दे रही थी क्योंकि झुंपा के माता-पिता दो महीने के लिए अपने गाँव गए हुए थे। ग्रेस झुंपा को दिन-रात सामान्य पुरुष-स्त्री के संबंधों और पिता-पुत्री के रिश्ते की पवित्रता के बारे में बताती जा रही थी। झुंपा को इस चीज़ का एहसास हुआ कि वह अथाह गहरे गड्ढे में धँस चुकी थी और केवल ग्रेस ही उसे बचा सकती थी। झुंपा डॉक्टर नहीं तो कम से कम नर्स बनने का सपना देखने लगी। वह सहयोग करने लगी और उसने एक महीने के भीतर ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया। चर्च की विशेष सिफ़ारिश के कारण उसके लिए स्वतंत्र वीसा की व्यवस्था हो गई। वह तीन अन्य स्टाफ़ नर्स के साथ अमेरिका में वंचित बच्चों की सेवा करने हेतु वहाँ जाने के लिए इच्छुक थी और उसे इस हेतु उसे मंज़ूरी दे दी गई। अपने माता-पिता के घर लौटने के केवल तीन दिन पूर्व अमेरिका के लिए उसने उड़ान भरी।
घर आकर यह पता चलने पर बाबाई नौकरानी पर पागल होकर बरस पड़े और निश्चित रूप से उन्होंने ग्रेस के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज करने की धमकी भी दी। ग्रेस के पास ऑडियो रिकॉर्डिंग तैयार थी, उसके आधार पर उन्हें अपनी बेटी के साथ लंबे समय तक यौन-संबंध बनाने और प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ़्तार किया जा सकता था, जिससे उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ता। इस वजह से उनकी पत्नी ने उसे कुछ समय के लिए उन्हें चुप रहने को कहा क्योंकि वह अपनी देखभाल करने वाले को खोना नहीं चाहती थी।
सच में, झुंपा अमेरिका में अच्छा जीवन जीने लगी थी। उसने वहाँ नर्सिंग में बीएससी का कोर्स पूरा किया और अपना जीवन समाज-सेवा के लिए समर्पित कर दिया। वैसे भी उसकी रातें बहुत मुश्किल से कट रही थी। वह अनुभव करती थी साँप की तरह दो हाथ उसके शरीर पर रेंगते हुए, उसे स्नान कराते हुए और उसकी देह को बेचैनी के गर्त में धकलेते हुए।
वह अपने सहयोगी अब्राहम से मिली, जिसके मन में उसके प्रति आकर्षण था। उसने उससे मित्रता की और भारत के केरल राज्य में अपने अनाथालय के बारे में बताया, जिससे उसे अमेरिका में उच्च-शिक्षा हेतु मदद मिली। वह दयालु हृदय का था और झुंपा के प्रति सद्भावना और सहानुभूति रखता था। उसे उसके अतीत के बारे में कुछ जानकारी अवश्य थी, मगर वह यह नहीं जानता था कि वास्तव में उसके साथ क्या घटित हुआ है। उसका मानना था कि समय सबसे बड़ा मलहम होता है और झुंपा का शांत और दयालु व्यक्तित्व देखकर उसे लगता था कि समय के मलहम से झुंपा ठीक हो गई थी। इसलिए सही समय पर उसने शादी का प्रस्ताव दिया और दोनों की शादी हो गई। ग्रेस झुंपा के जीवन में आए इस मोड़ से बहुत ख़ुश थी। उसने चैन की साँस ली, यह सोचकर कि आख़िरकार उसने एक लड़की के जीवन को बचा लिया और उसे अच्छा जीवन जीने की प्रेरणा दी।
उसने झुंपा के बाबाई को फोन पर इस बात की सूचना दी कि वह बहुत ग़ुस्से में लग रहा था। वह फोन पर ग्रेस को अभिशाप देने लगा, मगर ग्रेस एक विजेता की तरह मुस्कुराने लगी।
मगर चीज़ें इतनी आसान नहीं थी।
शुरू-शुरू में अब्राहम सोचने लगा कि झुंपा शर्मीली है और अंतर्मुखी भी, इसलिए वह विवाह के अच्छे दिनों की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने लगा। मगर हर रात डिनर के बाद झुंपा अपना कमरा बंद कर लेती थी, अपने आप को भावप्रवण होकर छूने लगती थी, अपने आपसे कुछ बतियाती रहती थी। उसका शरीर किसी परपुरुष के स्पर्श को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। उसके शरीर की अपनी अलग केमेस्ट्री थी। अब्राहम यह बात समझ नहीं पा रहा था, लेकिन वह इतना समझ गया था कि झुंपा को उसकी शारीरिक नज़दीकियाँ पसंद नहीं आ रही थीं। उसकी एकमात्र इच्छा थी उसे संभोग-सुख देने की पूरी तरह से। उसने उसे गले लगाया, प्यार से फ़ोरप्ले भी किया, उसे समाधि में ले जाने की भरसक कोशिश की, जिसे हर कोई स्त्री अपने आदमी से पाने की चाहत रखती है, मगर सब-कुछ व्यर्थ रहा।
ऐसा भी नहीं, झुंपा ने अब्राहम की असफलता की शिकायत की और उसे छोड़ दिया।
कुछ मिनटों तक उसने उसके सिर को सहलाया, फिर उसे बेचैनी भरी नींद में सुला दिया, मगर ख़ुद जागती रही रात-रात भर। ऐसी रातों के दौरान अब्राहम ने देखा कि झुंपा रात भर छत की ओर देखती रहती थी और जब वह सो जाती थी तो आँसू की दो बूँदें उसके गालों या पलकों पर आकर सूख जाती थी। वह अनिद्रा से पीड़ित हो गई थी और उदासीन और नीरस भी।
जब अब्राहम ने फोन पर ग्रेस से शिकायत की तो उसने उसे धीरज रखने की सलाह दी कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।
हालाँकि उसने कभी भी झुंपा के लंबे अतीत के बारे में नहीं बताया था, जिसमें उसके अपने पिता के साथ विवशतापूर्ण जुनूनी यौन-सम्बन्ध बने थे। वह ऐसे पति को बताने की हिम्मत नहीं जुटा सकी, जो अपने पत्नी से बेहद प्यार करता था। अब्राहम ने झुंपा से उसके प्रति नफ़रत के भाव रखने के बारे में पूछा तो वह केवल रोने लगी और कुछ भी नहीं बता सकी, क्योंकि वह भी उससे प्यार करने लगी थी। वह उसका जीवन साथी था, मगर उसका शरीर उसके स्पर्श को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। भले ही, एक दो बार झुंपा चुपचाप अब्राहम के बग़ल में लेट गई, ज़बरदस्ती आँखें बंद कर, अब्राहम ने उसके शिथिल शरीर के साथ सेक्स किया, मगर नफ़रत के साथ। अब्राहम को उससे नफ़रत होने लगी थी, वह नेक्रोफीलिया से ग्रस्त हो गया।
और फिर धीरे-धीरे उसने उसके पास जाना ही पूरी तरह बंद कर दिया। अब एक घर में वे दो मेहमानों की तरह रहते थे, जिनका एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं था। उसने उससे कुछ पूछना भी बंद कर दिया और फिर घर आना-जाना भी बंद।
झुंपा एक बार फिर से खोई-खोई महसूस करने लगी। जीवन के बारे में अस्तित्वगत और अनुभवजन्य प्रश्न उसे परेशान करने लगे। उससे छुटकारा पाने के लिए वह ग्रेस को अपने घर बुलाना चाहती थी, कुछ दिनों के लिए। मगर ग्रेस ने उसे अपने वैवाहिक जीवन पर ध्यान देने और अब्राहम के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताने की सलाह दी तो तुनककर झुंपा उसे धमकी देने लगी, “अगर तुम मुझे कुछ दिन अपने साथ रखने के लिए तैयार नहीं हो तो मैं बाबाई के पास जाकर उनके साथ रहूँगी।”
इसी बात पर मैंने ग्रेस को सुबह-सुबह फोन पर फटकारते हुए सुना था।
मैं ख़ुद न केवल डर गई थी, बल्कि अपनी दीर्घ समय से खोई हुई सहेली की अवांछित कहानी सुनकर हैरान थी। मैं हमारे अतीत में झाँकने लगी और सोचने लगी कि जीवन ने उसके साथ क्या-क्या अनुचित नहीं किया है!
क्या उसका बाबाई पीडोफाइल नहीं था! एक नार्सिसिस्ट! वूमेनाइजर! बीमार आदमी! क्या उसकी पत्नी शारीरिक सम्बन्ध बनाने में असमर्थ होने के कारण अपनी लड़की का दुरुपयोग करने और उसके जीवन के साथ खिलवाड़ करने की आज़ादी दे सकती है? क्या उसकी माँ इतनी स्वार्थी थी कि उसकी देखभाल करने और सुख-सुविधा मुहैया कराने वाले के साथ अपने भविष्य के ख़ातिर अपने पति के दुष्चक्र का शिकार हो गई थी और अपनी बेटी के जीवन की आहुति दे दी? मैंने अपने आप को भी दोषी ठहराया, सोनागाछी छोड़कर, जब झुंपा को अपने सहेलियों की सख़्त ज़रूरत थी।
मैंने ग्रेस से कहा, “चलो, हम इस लड़की को बचाएँ। अब हम उससे नाराज़ नहीं हो सकते, ख़ासकर जब वह दुखी हालत में हो और उसे इस समय हमारी ज़रूरत है।”
अगली सुबह झुंपा केरल में हमारे साथ थी। वह ज़्यादा बात नहीं कर रही थी, बहुत काम केवल इधर-उधर की बातें कर रही थी।
ग्रेस ने उसे बताया कि मुझे उसके बारे में सब-कुछ मालूम है तो वह ज़्यादा असहज हो गई। मैंने उसे सहज बनाने के लिए बातचीत के विषय को दिल्ली के पर्यटन, राजनीति, भोजन, कपड़े, ख़रीदारी और सहेलियों के हालचाल की तरफ़ मोड़ दिया। मैंने उसे अपने साथ दिल्ली में कुछ दिन रहने के लिए आमंत्रित भी किया। हमारे बच्चे उसके साथ खेलने लगे तो वह सहयोग करने की कोशिश कर रही थी, मगर उसकी आँखें हमेशा क्षितिज की तरफ़ टिकी हुई थी।
जब हम लोग लॉन्ग ड्राइव पर बाहर निकले तो ग्रेस और मैं आगे बैठी हुई थी और झुंपा बच्चों के साथ पिछली सीट पर। रियर व्यू मिरर पर चुपके से बीच-बीच में मैं उसके चेहरे की तरफ़ देख रही थी, यद्यपि वह मुस्कुराने की कोशिश कर रही थी, मगर उसकी आँखें सुन्न थी और जब अन्यमनस्क रहती थी तो उसका चेहरा अनजाना-सा लग रहा था। वैसे भी, जब भी हम उसे हँसाने की कोशिश करते थे तो वह हँसने का अभिनय अवश्य करती थी। एक कर्तव्यपरायण नारी की तरह दिन में दो बार अपने पति को फोन करती थी, अपने ईमेल चेक करती थी और बिना सोचे-समझे अपने कार्यालय के काम पूरे कर लेती थी।
एक रात झुंपा को सोफ़े पर बेपरवाह एकदम नंगा सोया देखकर हम चौंक गए। ग्रेस ने उसे ज़ोर से डाँटा, यह कहते हुए, “इस तरह सोते हुए क्या तुम्हें शर्म नहीं आती है?”
“छोड़ो न ग्रेस, इस शरीर में रखा ही क्या है? यह तो सिर्फ़ आत्मा का खोल है और मेरी आत्मा तो बचपन से मरी हुई है। मैं तो ऐसे ही सो रही हूँ सोलहवें वर्ष से और मुझे इस पर सोने में कोई ख़राब नहीं लगता है। शरीर के बारे में हमारे इस तरह संकीर्ण विचार क्यों है?”
फिर भी ग्रेस ने उसके गोरे, सुडोल, नग्न बदन पर कंबल ओढ़ा दिया और हम भी सोने के लिए बच्चों के कमरे में चले गए। हमने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। वह जीवित थी और हमें इस बात की ख़ुशी थी कि कम से कम उसने बात करना तो शुरू कर दिया।
दो-तीन दिन बाद झुंपा के बाबा का हमारे पास फोन आया कि वह भारत में है तो उसे अपनी माँ से मिलना चाहिए। ज़ाहिर था, वह अपनी अंतिम साँसें गिन रही थी।
बाबाई को हमेशा झुंपा के ठिकाने के बारे में पता रहता था।
हमारे बहुत रोकने के बावजूद झुंपा सोनागाछी चली गई। माई की हालत बहुत ख़राब थी और बाबा की उम्र पचास से ज़्यादा हो गई थी, फिर भी उनकी सेहत ठीक लग रही थी। बाबाई के मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला, एक-डेढ़ दशक या उससे ज़्यादा समय के बाद वे मिल रहे थे। बाबा को किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं थी, वह नीरव थे। अपनी मरणासन्न पत्नी की देखभाल और झुंपा के आराम से रहने और खाने की व्यवस्था में व्यस्त थे। पहली मंज़िल पर झुंपा का कमरा उसकी दीर्घ अनुपस्थिति के बाद भी बड़े चाव से सजाया गया था। उसे अपने कमरे में किसी भी अचूक उपस्थिति महसूस होने लगी, यद्यपि वह उस कमरे में अकेली थी।
क्या यह तूफ़ान के पहले की शान्ति थी! झुंपा सोचने लगी।
जब ग्रेस ने उसे दोपहर के खाने के समय फोन किया तो हमें उसके पिता की आवाज़ सुनाई देने लगी, “मछली करी का झोल और ले लो, अमेरिकन की भाँति हड़बड़ी से मत खाओ।”
उसकी माँ भी शायद उसे वही खाने के लिए कह रही थी, जो उसके बाबा ने परोसा था। वहाँ क्या हो रहा होगा–सोचकर हमारे शरीर में सिहरन उठने लगी।
“ग्रेस, हमें उसे आज रात बार-बार फोन करना चाहिए और कल ही वापस अमेरिका जाने के लिए कह देना चाहिए। उसे वहाँ जाने की अनुमति देकर शायद हमने ठीक नहीं किया था।”
ग्रेस ने सहमति में अपना सिर हिलाया।
मैंने ग्रेस से पूछा, “अब्राहम और झुंपा के बीच वास्तविक दिक़्क़त क्या है? और जब बाबा उसके जीवन में नहीं था तो वे एक-दूसरे से प्यार करते थे, कम से कम एक दूसरे को पसंद तो करते थे।”
ग्रेस मुझे कहने लगी, “झुंपा को अब्राहम के साथ कभी संभोग-सुख नहीं मिला था। शायद इसलिए कि बचपन में उसके पिता द्वारा किया गया उसका यौन-शोषण आज भी उसके लिए दर्दनाक बना हुआ है।”
मुझे ग्रेस का यह तर्क सही नहीं लग रहा था क्योंकि अब्राहम बहुत ही परिपक्व व्यक्ति लग रहा था, धैर्यवान भी, झुंपा के साथ ज़बरदस्ती करने वाला या उसे डराने वाला तो बिल्कुल नहीं।
मुझे कुछ और संदेह हो रहा था, बहुत ही जटिल वलय के रूप में विगत कुछ दिनों से झुंपा के चेहरे के हावभाव देखकर।
“लेकिन मुझे बताओ ग्रेस, एक स्वस्थ महिला के लिए संभोग सुख इतना मायावी कैसे हो सकता है, जब किसी स्वस्थ पुरुष के साथ सेक्स करती हो?” मैंने अपना स्पष्टीकरण देने की मुद्रा में कहा।
“फ़ोरप्ले, योनिमुख मैथुन और ऐसी ही बहुत सारी चीज़ें ऑर्गेज़्म के लिए निहायत ज़रूरी है, मगर यह इतना आसान नहीं है क्योंकि ज़्यादातर महिलाओं के लिए ऑर्गेज़्म शरीर की बजाए दिल और दिमाग़ की वस्तु होती है। हो सकता है, अब्राहम के साथ रहते समय झुंपा का ध्यान एकाग्र नहीं हो पा रहा होगा? तुम वहाँ जाओ, ग्रेस। क्या तुम्हें नहीं लगता है अभी भी उसका दिल दिमाग़ बाबाई के साथ है? क्या उसके बचपन में हुआ दुर्व्यवहार उसके लिए अपराधग्रस्त ख़ुशी में तब्दील हो गया? मैं कुछ ज़्यादा ही सोच रही हूँ, ग्रेस।”
“क्या बकवास कर रही हो? ज़्यादा पढ़ाई करने से कहीं पागल तो नहीं हो गई हो? तुम हर चीज़ को उलझाना पसंद करती हो?”
मैं चुप रही और सोचती रही।
जैसा कि तय हुआ था हमने शाम सात बजे से हर पंद्रह मिनट में झुंपा को व्हाट्सएप वीडियो कॉल करना शुरू कर दिया। झुंपा हमारे उद्देश्य को जानती थी और इसलिए वह सहमत भी थी। शाम को सात बजे से रात को नौ बजे तक वह अपनी माँ के साथ नीचे थी और फिर अपने कमरे में चली गई। हमने सहज ढंग से उससे बातचीत की, उसकी माँ के स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ की, मगर हर कोई उसके पिता के बारे में चुप था। वह रात को दस बजे सोना चाहती थी। हम तीनों अमेरिका के लिए उसके वापसी टिकटों और हमारी छुट्टियाँ ख़त्म होने से पहले बच्चों के साथ शिलॉन्ग ट्रिप के बारे में बातचीत कर रहे थे।
झुंपा रात को दस बजकर दस मिनट पर अपने दरवाज़े पर गुप्त दस्तक सुनकर चौंक उठी। हमने इसका पहले ही अनुमान लगाया था।
हम लगभग जानते थे।
“झुंपा!! उस पर चिल्लाओ कि अगर वह दरवाज़ा खटखटाना जारी रखता है तो तुम बालकनी से चिल्लाकर पड़ोसियों को बुलाओगी और उसे पुलिस के हवाले करोगी। बस, दरवाज़ा मत खोलना। वीडियो कॉल चालू रखना। बात समझ रही हो ना?” ग्रेस ज़ोर-ज़ोर से कह रही थी।
मैं काँप उठी, हक्की-बक्की, डरी-सहमी।
मेरा ब्लड प्रेशर कम हो गया था, मुँह सूखने लगा था, मैं रोने लगी थी, निर्वाक् निःशब्द।
“झुंपा! तुम्हें इस रात को ज़िन्दा पार करना है। अपना सामना करो। अपने आपको मज़बूत बनाओ। ठीक है ना? तुम हमारे प्रभु की सच्ची भक्त और अपने पति के वफ़ादार पत्नी हो। यह मत भूलना कि तुम एक पवित्र, ईमानदार और गुणी महिला हो।”
ग्रेस ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर बातें करती रही।
झुंपा का चेहरा अलग दिखाई दे रहा था, उसने ग्रेस की किसी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। हमने उसकी तरफ़ देखा। मेरे आँसू बह रहे थे। मैं काँप रही थी। ग्रेस उस पर पागल हुए जा रही थी।
झुंपा बुदबुदा रही थी, “नहीं, बाबा, कृपया आप चले जाओ। मेरे साथ ऐसा मत करो।”
“दरवाज़ा खोलो, झुंपा, मेरे प्यार! मैं यहाँ हूँ केवल तुम्हारे लिए। मैं तुम्हारी देखभाल करूँगा। तुम्हारे उदास तन को शांत करूँगा, थके मन को आराम दूँगा। तुम मेरी महाप्रसाद हो। तुम कैसे उसे भूल सकती हो कि तुम मेरे जैसे भक्तों के लिए ही पैदा हुई थी? मैं तुम्हें चोट नहीं पहुँचाऊँगा। मैं तुम्हें सुला दूँगा। तुम बहुत क्लांत लग रही हो, जैसे सदियों से सोई नहीं हो।”
झुंपा दिखने लगी थी पीत, चकित, स्तब्ध, भावहीन, गतिहीन और थकी-माँदी।
दरवाज़े की तरफ़ जाने से पहले उसने हमारा कॉल काट दिया और अपना फोन स्विच ऑफ़ कर दिया।
उस रात झुंपा चैन की नींद सो गई। हम यह जानते थे। अगले सुबह मेरे गले में एक गाँठ बन कर उभर आई थी।
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