नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)
(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )परमेश्वर की पत्नी होने के नाते
“मैं शीत नील गगन को देखती हूँ
और कोशिश करती हूँ ऊष्मा अनुभव करने की
मेरे पिता की आँखों से।
उनकी क़ब्र कहीं और नहीं है
सिवाय मेरे हृदय के,
और मैं समाधिलेख हूँ उनकी।”
बाबा। पिता। मेरे पिता। शांत हृदय को छूने वाला एक श्रुतिमधुर शब्द।
कभी-कभी ही नहीं, बल्कि अधिकतर मैं अपने बेटे को ‘सोनू-बाबा’ के नाम से बुलाती हूँ। बाबा मेरे रग-रग में बसे हुए हैं। बाबा मेरे पूरे घर में रहते हैं, वे हमेशा हर जगह मेरे साथ रहते हैं—विश्वविद्यालय में, पुस्तकालयों में, मेरे व्याख्यान हॉल में, मेरे टीवी सत्रों में, मेरे साक्षात्कारों में, मेरी पुस्तकों के विमोचन कार्यक्रमों में और यहाँ तक कि रसोईघर में भी, जब मेरा बेटा सोनू खाना खाता है तो उनकी तरह दिखता है और उनकी तरह ही बातें करता है। मेरे हर शब्द में बाबा की प्रतिध्वनि सुनाई देती है क्योंकि वे मेरी महत्वाकांक्षा, मेरी प्रेरणा, मेरी भाव-प्रवणता और मेरे आशावादिता के प्रमुख स्वर हैं।
वर्तमान युग में आनुवंशिक निष्कर्षों और शास्त्रीय पौराणिक पात्रों की रस्सा-कशी में संभावित उपलब्ध ऐतिहासिक सबूतों की तुलना में हमेशा तरह-तरह की अटकलें लगाई जाती हैं, जिन्हें हम उपदेवता (डेमीगॉड्स) कहते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि हम हमारे आस-पास के किसी भी अनूठे चरित्र का विश्लेषण करने के लिए मिथकों की कहानियों का सहारा लेते हैं। अपने पिता को समझने के लिए मैंने पिछले पाँच वर्षों में कई प्राचीन ग्रंथों को फिर से पढ़ा, एक नए अंदाज़ में, नए तेवर के साथ, उनके चरित्र के विभिन्न पहलुओं की खोज के लिए नई दिशाओं को तलाशने के प्रयास करते हुए। सही कहूँ तो उनके बारे में मैंने उनकी पुत्री नंदिनी के रूप में कभी नहीं सोचा, बल्कि किसी भगवान के किसी परम भक्त के रूप में, या उनके साधक के रूप में, मैंने उनकी परिकल्पना की तो मैंने पाया कि डेमीगॉड्स वास्तव में होते हैं और मैं इसे साबित कर सकती हूँ। बाबा के पूर्वजों और संतति के बीच सम्मिश्रण के परिणामस्वरूप हमारे जैसी आधुनिक लड़कियों और अतीत के काल्पनिक पूर्वजों में, जो मेरे बाबा की तरह डेमीगॉड हो सकते थे, अब मेरे लिए जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। लौकिक और अलौकिक प्राणियों की मिली-जुली परिकल्पना अक़्सर हमारे जैसे साधारण परिवार के परिवेश में सहजता से देखी जा सकती है। हमारे जैसे आधुनिक मनुष्यों के पूर्वज के रूप में मेरे बाबा और दूर-दराज़ रहने वाले काल्पनिक असुरों के बीच भौगोलिक सम्मिश्रण इस कहानी में स्पष्ट प्रतीत होगा। मैं अपने बाबा के डेमीगॉड अवतार के बारे में मेरे अपने आधुनिक ज्ञान के आधार पर कुछ कहना चाहूँगी।
बाबा प्रगति-पथ का लिफ़ाफ़ा अनवरत आगे से आगे बढ़ाते थे, क्योंकि कोई भी इसे कर सकता है। वे महिला सशक्तिकरण के पक्षधर थे। छह बेटियों वाले एक ग्रामीण परिवार में, मेरे माता-पिता दोनों ने साधारण सरकारी विद्यालय के शिक्षकों के रूप में अपने जीवनकाल का अधिकांश समय किराए के घरों में बिताया, ताकि वे अपनी बेटियों को शिक्षित कर सकें, अपने स्वयं के सुख-भोग को त्याग कर। मेरे बाबा के सिवाय ऐसा जीवन जीने के बारे में कौन सोच सकता था? बाबा का हृदय बहुत उदार था, वे काफ़ी लोकप्रिय, सदाचारी और पवित्र इंसान थे। यहाँ तक कि लोग उन्हें ‘जीवित भगवान’ के नाम से पुकारते थे। बाबा इस तरह की प्रशंसा सुनकर केवल मुस्कुरा देते थे, क्योंकि वे वास्तव में चापलूसी, ईर्ष्या, लालच, स्वामित्व जताने जैसी नकारात्मक मानवीय भावनाओं से वे काफ़ी ऊपर उठ चुके थे। उन्होंने संत का जीवन जिया, वे 75 साल की उम्र में भी पाँच साल के निर्दोष बच्चे की तरह मासूमियत उनके चेहरे पर झलकती थी। सभी के लिए शिक्षा और भोजन, हर किसी के प्रति दया भाव-उनके जीवन के प्रमुख लक्ष्य थे। अपनी छह लड़कियों के घर-संसार बसाने के बाद जब मेरे माता-पिता ने अपने जीवन के अंतिम चरण में अपना घर ख़रीदा, तो हमारे छोटे से शहर उदयगिरी के लोगों ने उस कॉलोनी का नाम मेरे पिता के आद्य नाम के आधार पर ‘कृष्ण नगर’ रखा।
बाबा की हमारे घर में शांतिपूर्ण मृत्यु हुई थी, अपनी जीवन-संगिनी यानी मेरी माँ की गोद में उन्होंने अपने प्राण-पखेरू छोड़े थे। उन्हें मधुमेह की बीमारी थी और दुर्भाग्यवश उन्हें आस-पास के किसी सैलून में सोरायसिस का संक्रमण हो गया था, उस समय उनकी उम्र चालीस के आस-पास रही होगी। यह बीमारी आजीवन उनके साथ चिपकी रही और अधिक रक्त-शर्करा के कारण उनके घाव कभी ठीक नहीं हुए। उन्हें अपनी बेटियों से बहुत प्यार था, इस वजह से उन्हें बेटा नहीं होने की कमी कभी भी नहीं खली। ओडिशा के ग्राम्यांचल में, जहाँ आस-पास के लोग एक स्कूल शिक्षक की छह बेटियों की शादी को लेकर चिंतित रहते थे, वहाँ बाबा के चेहरे पर कोई शिकन की रेखा नहीं उभरती थी, क्योंकि वे छह ‘योग्य बेटियों’ के बाप थे। वे अपनी लड़कियों को शिक्षित, स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने में विश्वास रखते थे। हम पाँच संकीर्ण कमरों वाले रेलगाड़ी जैसे घर में रहते थे, जहाँ हमेशा रिश्तेदारों का ताँता बँधा रहता था। जब वे अपना ख़ुद का घर ख़रीदने में सक्षम हुए, तब तक हम अपने उस घोंसले से फुर्र हो चुके थे। अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों के दौरान बाबा नितांत अकेले रहे, क्योंकि वे सेवानिवृत्त हो चुके थे और माँ की अभी भी कुछ वर्षों की नौकरी बची हुई थी। उदयगिरी छोड़ने से पूर्व मैंने कुछ महीनों तक स्थानीय कॉलेज में अध्यापन कार्य किया।
हर सुबह माँ के स्कूल जाने के बाद, एक पेठा-वाला चुपके से आता था और बाबा को कुछ मीठे पेठे देकर जाता था, जिसे वे अपराध-बोधग्रस्त होते हुए भी खा जाते थे और माँ के हाथों से बड़े लंच बॉक्स में उनके लिए रखा दोपहर का गर्म भोजन ऐसे ही रह जाता था। जब माँ आस-पास नहीं होती थी तो उन्हें भूख भी नहीं लगती थी। माँ बाबा से छह साल छोटी थीं, और उनकी सेवा अवधि के उन छह वर्षों ने बाबा को पहले से कहीं अधिक अकेला बना दिया। पेठा खाने की आदत और अस्वास्थ्यकर जीवन-शैली के कारण उनकी रक्त-शर्करा बढ़ती गई और सोरायसिस का संक्रमण तेज़ होता गया। इस वजह से वे बहुत जल्दी व्हील चेयर पर आ गए। क्रूर सच्चाई यह भी थी कि हम सभी ने अपने कैरियर बनाने और विवाह करने के लिए उस छोटे शहर को छोड़ दिया। दो बहनें अमेरिका चली गईं, दो दिल्ली और चंडीगढ़; और बची दो ओडिशा में अपनी नौकरी और बाल-बच्चों में सिमट कर रह गईं, माता-पिता के लिए समय ही कहाँ बचा था! हमने ज़ोर दिया कि हमारे माता-पिता को हमारे साथ रहना चाहिए; वास्तव में बाबा मेरे साथ दिल्ली में बहुत ख़ुशी से रहा करते थे। लेकिन माँ की कुछ और साल नौकरी बची हुई थी और फिर वह किसी भी हालत में अपना वह घर नहीं छोड़ना चाहती थी, जिसे उसने अपने और बाबा के लिए बनाया था। वह आख़िर उनके सपनों का घर था।
भारत में स्वास्थ्य प्रणाली की सबसे बुरी बात यह है कि हम शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति बहुत जागरूक हैं, लेकिन कोई भी मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात नहीं करता है। हम सभी के उदयगिरि छोड़ने के कुछ वर्षों बाद बाबा को मनोभ्रंश की बीमारी शुरू हो गई थी। दूसरे कमरे में छह छोटी बच्चियों के साथ अपनी शुरूआती युवावस्था में वापस लौट गए थे। वे माँ को ज़्यादातर समय मेरी सबसे छोटी बहन के नाम से बुलाते थे और उन्हें एक गिलास पानी लाने के लिए कहते थे। वे माँ से ऐसे बात करते थे जैसे कि वह उनकी छोटी लड़की हो और ऐसा बहाना करते थे जैसे हम आसपास में मौजूद हो। माँ और कामवाली मुस्कुराती थीं, यह सोचकर कि बाबा बच्चे बन गए हैं। लेकिन मुझे उनकी यह अवस्था चिंताजनक लगी। इसका कुछ इलाज भी करवाया, लेकिन कुछ भी फ़ायदा नहीं हुआ। शुगर की मात्रा बढ़ती गई और उन्हें 76 की उम्र में पर मस्तिष्क आघात हुआ। जब मैं उनसे मिलने गई तो वह आईसीयू में भर्ती थे। मैं अपने आँसुओं को रोक नहीं सकी, अस्पताल में असहाय लेटे हुए लंबे, सुंदर, हमेशा मुस्कुराने वाले व्यक्ति की ऐसी अवस्था की कल्पना नहीं कर सकती थी, उनका मुँह खुला था, नज़रें छत की तरफ़ टिकी हुई थीं। मेरा दिल टूट गया। हम एक महीने से अधिक समय तक उसके साथ अस्पताल में रहे, उनका हाथ पकड़कर, उनके माथे को सहलाते रहे। कभी-कभी वे अपनी मुट्ठी भींचते थे, मुस्कुराते थे, एक बच्चे की तरह अजीब किलकारी करते हुए। अधिकतर वे माँ के हाथों को पकड़ते थे और माँ उनसे लगातार बातें करती थीं, जैसे कि वे सुन रहे हो। माँ को बाबा से सामान्य लोगों की तरह बातें करते हुए देखकर मेरा दिल टूट गया था। कुछ दिनों बाद, वे माँ की गोद में हमेशा के लिए शान्ति से सो गए, एक नीरव मौत को गले लगाकर।
बाबा के गुण और बोलने का तरीक़ा आज भी मुझे अच्छी तरह याद है। उनकी सनक आम लोगों से अलग थी। उनका व्यवहार बच्चे की तरह था, मगर परिपक्व वयस्क की तरह ज़िद्दीपन लिए। मुझे सन् 2006 की एक घटना याद आती है, जब मैं दिल्ली में अँग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर बनकर आई थी। मेरे पिताजी को मुझ पर गर्व था। मैंने उन्हें हमारे यहाँ आने के लिए कहा, तो वे तुरंत सहमत हो गए। मैंने उन्हें फ़्लाइट का ई-टिकट भेजा। उन्होंने उसे टिकट नहीं माना और ज़ोर देते हुए कहा कि “वास्तविक टिकट” की तरह चमकदार काग़ज़ पर रंगीन टिकट होने चाहिए। हर किसी ने उनसे कहा कि वे मेरे द्वारा भेजे गए ई-टिकटों का प्रिंटआउट निकाल सकते है; लेकिन वे नहीं माने। इसलिए मैंने भारतीय हवाई अड्डा प्राधिकरण के कार्यालय जाकर अधिकारी से रंगीन, चमकदार-काग़ज़ वाला “असली टिकट” देने का अनुरोध किया। वह हँसने लगा। मैं भी उसके साथ हँसने लगी। लेकिन बाबा स्पीड पोस्ट से उन्हें पाकर ख़ुश थे। उन्होंने उन टिकटों को सभी को दिखाया। “देखो! मेरी बेटी ने हवाई टिकट भेजे है!” और फिर, उड़ान के दौरान उन्होंने एयरहोस्टेस को परेशान कर दिया। वे उसे हवाईजहाज़ के उड़ान भरने के बाद खिड़कियाँ खोलने के लिए कहने लगे; शुरू-शुरू में उसे लगा कि वे ऐसे ही मज़ाक कर रहे हैं। मगर जब वे बार-बार ज़िद करने लगे तो एयरहोस्टेस ने समझाया कि यह सम्भव नहीं है। वह हमेशा की तरह हठधर्मी थे और बीच में हवाई जहाज़ से उतरकर दूसरी ऐसी फ़्लाइट लेने की ज़िद करने लगे, जो उनके मन मुताबिक़ हवाई जहाज़ की खिड़कियाँ खोल देगा। बेचारी माँ के लिए परीक्षा की घड़ी थी, बाबा को शांत करने और चालक दल से माफ़ी माँगने के लिए। जब वे मेरे घर पहुँचे, तो माँ ने उनके साथ लड़ाई की। पर उन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, क्योंकि उनके अनुसार वे सही थे।
बेचारी माँ ने ऐसे कई अवसर झेले थे, जब उन्होंने उन्हें कठिन स्थिति में डाल दिया था। मेरी दूसरी बहन की शादी से पहले, माँ ने शादी के गहने बनवाने का ऑर्डर लेने के लिए सुनार को घर बुलाया। सुनार के घर आने से पहले माँ ने बाबा को कुछ निर्देश दिए थे, “सुनार लोग चालाक होते हैं। वह हमें गहने देने से पहले पैसों का पूरा भुगतान करने के लिए कहेगा, लेकिन हम उसकी शर्तों को स्वीकार नहीं करेंगे। वह पैसे लेने के बाद ग़ायब भी हो सकता है। इसलिए हम उसे केवल एक छोटी सी अग्रिम राशि का भुगतान करेंगे और गहने मिलने के बाद उसे पूरी राशि का भुगतान करेंगे। ठीक है न?”
बाबा ने आज्ञाकारी बालक की तरह सिर हिलाया। माँ सही थी, सुनार ने उन्हें पूरी राशि का भुगतान करने के लिए असीम अनुरोध किया, लेकिन माँ ने कहा कि हमें बैंक से पैसे निकालने होंगे, जिसमें बहुत समय लगेगा। बाबा चुप रहे। जब माँ सुनार के लिए चाय-नाश्ता लेने के लिए रसोई में गई, तो उस चालाक सुनार ने बाबा के सामने पूरी राशि देने के लिए विनती की। बाबा ने कहा, “बेटा, हम आपको इतना पैसा नहीं दे सकते क्योंकि सुनार चालाक लोग होते हैं और आप पैसे लेने के बाद ग़ायब हो सकते हैं।”
“आपसे किसने यह कहा, सर!”
“मेरी पत्नी ने “
“बिल्कुल! मैं यही सोच रहा था। आप इतने अच्छे व्यक्ति हैं, आप भगवान की तरह पवित्र हैं, केवल मैडम ही हमारे बारे में ऐसी बातें सोच सकती हैं।”
माँ तब तक एक कप चाय लेकर वहाँ आकर खड़ी हो गई थी। चाय-कप को मेज़ पर रखकर वह सीधे कमरे से बाहर निकल गई और बेटियों के कमरे में आकर रोने लगी।
सुनार केवल अग्रिम राशि लेकर चला गया। लेकिन फिर, बाबा को अपनी पत्नी को सँभालने और अपनी नारीवादी बेटियों को स्पष्टीकरण देने में बहुत मुश्किल हुई। लेकिन दिन अंत होते-होते वे हमेशा एक साथ हो जाते थे, मेरे पिता और मेरी माँ। अगर कोई मुझसे प्यार की परिभाषा पूछता है, तो मैं बस उनका नाम लूँगी। वैसे मज़ाक-मज़ाक में हम उन्हें ‘मीरा और जीरा’ कहकर बुलाते थे, हालाँकि उनके नाम मीरा और कृष्ण हैं। कौन कहता है कि नामवाचक संज्ञा का व्यक्तित्व पर प्रभाव नहीं पड़ता हैं!!
हमने कभी भी अपने माता-पिता को अलग से भोजन करते हुए नहीं देखा है। वे हमेशा एक साथ भोजन करते थे, केवल अपने कार्यस्थलों के समय को छोड़कर। बाबा हर छोटी-सी बात पर दिन भर ‘मीरा, मीरा’ कहते थे, और हम आश्वस्त हो जाते थे कि जीवन अच्छा है, जीवन सुंदर है, मीरा-जीरा की जोड़ी का। ऐसा नहीं था कि उनमें कोई वैचारिक मतभेद नहीं था-लेकिन वे दोनों विचार-विमर्श के बाद सामंजस्य, समाधान, पुनर्मिलन के लिए तैयार हो जाते थे। शायद उन्होंने कभी भी एक-दूसरे से ‘आई लव यू’ नहीं कहा होगा, हमारे बचपन के दौरान हमारे माता-पिता ने कभी भी एक-दूसरे से ऐसी बात नहीं कही थीं-हम इसे समझते थे। लेकिन ‘प्यार’ ने उन्हें परिभाषित किया, और उनके प्यार ने हमारी रक्षा की।
बहुत पहले जब मैं बी.ए. (फ़ाइनल) की छात्रा थी, मैंने बाबा को उनके कठोर अनुशासन रखने के बारे में पूछा, जब भी मेरे पढ़ाई और घर में सफ़ाई की बात आती थी। बाबा का हमेशा बना-बनाया उत्तर तैयार रहता था। वे कहते थे, केवल अनुशासित व्यक्ति सफल हो सकता है। उनके पास उदाहरण देने के लिए शास्त्रों से उद्धृत की हुई उक्तियाँ तैयार रहती थी। वे कहते थे, जो व्यक्ति अपनी सहायता ख़ुद करते हैं, भगवान उनकी सहायता करता है। हमारी चप्पलें और जूते हमारे बिस्तर के नीचे स्थायी रेखाओं के बने के खाँचों के अंदर ख़ुद रख़ते थे, अपने-अपने आवंटित संख्या वाले खाँचे में ही। उससे एक इंच भी बाहर चप्पलें रखने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। वे अपने कैलेंडर में दिनाकों पर गोला बनाते थे, हर छोटी-मोटी चीज़ को याद रखने के लिए, यहाँ तक कि अपनी दाढ़ी काटने की दिनांक हो या हमारे असाइनमेंट जमा कराने की तारीख़। जब हम ब्रह्मपुर के छात्रावास में रह रही अपनी सबसे बड़ी बहन को ख़त लिख़ते थे तो हमारे पत्र ज़ोर-ज़ोर से पढ़े जाते थे, जैसे कोई सामाजिक गतिविधि हो। बाबा के पास अशुद्ध वर्तनियों को दर्शाने के लिए लाल रंग का पेन सदैव तैयार रहता था। उस समय मेरा अँग्रेज़ी भाषा के प्रति अगाध प्रेम पैदा हुआ। मैंने शुद्ध लेखन की कला उनसे सीखी, गुणवत्ता, मात्रा और विषय-वस्तु की स्पष्ट सूझ-बूझ वाली, जो उनसे मुझे विरासत में मिली थी। एक बार मैंने आपकी बहन को ‘please get a nail police for me’ लिखा तो मेरे बाबा बहुत हँसे और अशुद्ध वर्तनी को सही लिखते हुए ‘Nail Polish’ लिखा। मुझे अपमान महसूस हुआ और मैं पूरे दिन ख़ूब रोई, मेरा नारीत्व अहंकार आहत हुआ और मैं ऐसा व्यवहार करने लगी जैसे किसी ने मेरी किडनी बिना अनुमति के निकाल कर दूसरे को दी हो। आज जब मैं उस दिन को याद करती हूँ तो ज़ोर-ज़ोर से हँसती हूँ।
बचपन में मुझे अपने नाम से घृणा थी; ‘नंदिनी’ ध्वन्यात्मक रूप से ओड़िया शब्द ‘कंदुरी’ शब्द से मिलता-जुलता था, जिसका अर्थ होता है ‘रोने वाली बच्ची’। मैं अपना नाम बदलकर ‘पल्लवी’ रखना चाहती थी। मैंने बाबा से विनती की कि अगर वे चाहते हैं कि मैं रोने वाली बच्ची बनना बंद कर दूँ तो मेरा नाम बदल दें। बाबा ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, “बेटी, तुम नंदिनी होने के लिए पैदा हुई है। तुम्हें मालूम है, सबको आनंद देने वाली नंदिनी होती है!” मैं आश्वस्त हो गई। मुझे अपना नाम पसंद आने लगा, मैं ख़ुद से प्यार करने लगी और मैं बाबा द्वारा मुझे दी गई ज़िम्मेदारी को बहुत गंभीरता से निभाने लगी।
पुरानी आदतें मुश्किल से ही जाती हैं—आज जब मैं उन मूल्यों का सख़्ती से पालन करती हूँ और संगठित जीवन जीती हूँ—शायद इस वजह से आज मैं इस मुक़ाम पर पहुँची हूँ। बाबा मुझे वह हर चीज़ करते हुए देखना चाहते थे, जिसे वे ख़ुद नहीं कर सके, अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के निर्वहन के कारण। वे एक प्रोफ़ेसर, एक लेखक बनना चाहते थे, मगर वे बहुत सारी ज़िम्मेदारियों के बोझ के तले दब गए थे। छह लड़कियों का पिता होना कोई मज़ाक की बात नहीं थी, फिर भी हमारे परिवार की धुरी मानवीय प्रेम था, इसलिए बाबा को छह लड़कियों के पिता होने पर भी कभी पश्चाताप नहीं हुआ था। जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है कि ग्रामीण ओड़िशा में वे नारी-शिक्षा के समर्थक थे। दूसरे शब्दों में, वे अग्रदूत थे। यहाँ तक कि उदयगिरि में स्थानीय महाविद्यालय की स्थापना के लिए उन्होंने जिलाधीश कार्यालय और ओड़िशा सरकार के विभिन्न कार्यालयों के दर-दर भटक कर अनेक चक्कर काटे, ताकि उस सुषुप्त क़स्बे में, जहाँ लोग नारी शिक्षा के बारे में सोच भी नहीं सकते थे, वहाँ महिलाओं की शिक्षा के लिए महाविद्यालय खोला जाना बहुत बड़ी बात थी। यहाँ तक कि आज भी कलिंग महाविद्यालय के वरिष्ठ अध्यापक हमारी माँ या हमसे मिलते हैं तो हमारे बाबा को श्रद्धा और सम्मान के साथ याद करते हैं। छह लड़कियों के घर में किसी लड़के का जन्म होना किसी उत्सव से कम नहीं होता है, मगर बाबा के लिए ऐसी बात नहीं थी, क्योंकि वे अपने सारे बच्चों को समान प्यार करते थे। जब मेरे जन्म के दो साल बाद मेरे भाई का जन्म हुआ तो हमारे परिवार का सारा ध्यान उसकी तरफ़ जाना स्वाभाविक था। मेरे नवजात भाई को किसी प्रकार का व्यवधान न पहुँचे, यह सोच कर मेरे घर वालों ने मुझे बहुत जल्दी से स्कूल भेज दिया और बाबा ने मेरी उम्र 13 महीना ज़्यादा लिखवाकर प्रथम कक्षा में मेरा दाख़िला करवा दिया, जबकि उसके लिए मेरी उम्र नहीं हुई थी। गाँव में अक़्सर ऐसा होता है, किसी को भी दूसरे आदमी के भविष्य की कोई चिंता नहीं होती है। यह दूसरी बात है कि मेरे भाई की बहुत जल्दी ही कम उम्र में मृत्यु हो गई, मेरे स्कूल जाने से पहले ही। मेरी माँ बहुत दुखी हुई और मेरे पिताजी भी। हमारे घर फूल देने वाली एक बुज़ुर्ग महिला फूलबूढ़ी ने आपत्तिजनक टिप्पणी की, “छह लड़कियों में से केवल लड़के की आज मौत हुई, केवल लड़के की ही क्यों? यह सोचने वाली बात है।”
दुख-शोक से भरे उस दुर्दिन में भी उसके इस कथन से बाबा को नफ़रत हो गई थी और उसे घर से बाहर निकाल दिया। मेरी सभी बहनों को वह सुबह आज भी अच्छी तरह से याद है और हमें ऐसे पिता पर गर्व है, जो हमें प्यार करते हैं और हमारा सम्मान करते हैं, जिसके हम हक़दार हैं। मगर मेरी दादी, नानी और दूसरे सगे-संबंधियों ने मुझे इकलौते पुत्र की असामयिक मौत का ज़िम्मेदार ठहराया। वे मेरे खाँसने या बीमार पड़ने या रोने पर भी छींटाकशी करते थे। मैं घर से दूर भागना चाहती थी, बहुत दूर, अपने आप को कहीं छुपाने के लिए। इस बात को बाबा समझ गए थे। जब मैं आठ वर्ष की थी, उस समय उन्होंने मेरी स्कूल के पुस्तकालय में जाने की लत लगा दी। बाक़ी इतिहास आपके सामने है। मेरा बचपन हुब्बाक हाई स्कूल की लाइब्रेरी की किताबों को छाँटने, सूची बनाने, सजाने के साथ-साथ में आनंद पूर्वक पढ़ने में बीता। मेरी दुनिया किताबों से भर गई, प्रतिदिन किताबों के थोक पर थोक बढ़ने लगे। आज जब मैं दिल्ली में अपने विशाल निजी पुस्तकालय को देखती हूँ और अपनी आँखें बंद कर लेती हूँ तो मेरे स्मृति पटल पर अपने स्कूल की लाइब्रेरी के फ़र्श पर बैठकर बाबा से हर किताब पर मैं चर्चा करती हुई नज़र आती हूँ।
सोचने मात्र से मेरी आँखों से आँसू बहने लगते हैं।
बाबा में मुस्कुराने की ख़ास अदा थी, मगर वे उससे अनभिज्ञ थे। उनके हुबबाक हाई स्कूल में एक पियक्कड़ संस्कृत शिक्षक थे, जो लोगों से हमेशा नशे में बातें करते थे। सभी उससे बहुत दूर भागते थे, उसे मुँह नहीं लगाते थे। मगर बाबा को उसके प्रति सहानुभूति थी, उन्होंने उसे अपने घर बुलाया और उसकी काउंसलिंग की।
एक बार उस शिक्षक ने अपने घर का दरवाज़ा बंद कर दिया और घर के बीचों-बीच मल-मूत्र विसर्जन कर उस पर सुगंधित अगरबत्तियाँ जलाकर प्रतीक्षा करने लगा। बाहर से लोगों ने दरवाज़ा खटखटाया, मगर उसने ध्यान नहीं दिया। परन्तु जब बाबा ने उसे बाहर से आवाज़ दी तो उसने खिड़की खोली। बाबा पीछे हट गए और उससे पूछा, “क्या कर रहे थे?” उसने उत्तर दिया, “बाबा! मैं यह जानने की कोशिश कर रहा था कि एक साथ दुर्गंध और सुगंध को मिलाने पर क्या होता है?” बाबा ने जैसे-तैसे दरवाज़ा खुलवाया और उसका घर साफ़ करवाया। उस दिन के बाद वह आदमी पूरी तरह से बदल गया। कुछ ही दिनों में आपको अचरज होगा कि उस संस्कृत शिक्षक ने शराब पीना ही छोड़ दिया।
मैं ‘डैडी की लड़की’ थी, अपने बाबा की प्यारी-सी गुड़िया। क्योंकि मैं किताबी कीड़ा थी और स्पष्ट उच्चारण के साथ अँग्रेज़ी बोलती थी, न्याय के लिए सदैव लड़ती थी। आज मुझे एक विचित्र घटना याद आ रही है। जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी तो स्कूल में मेरा मासिक धर्म शुरू हो गया। मैं घर चली गई। नाटकीय अंदाज़ में बाबा के पास भागी और फ़्रॉक ऊपर उठाते हुए चिल्लाने लगी, “बाबा! बाबा! देखो, मुझे ब्लड-कैंसर हो गया है।” (दुर्भाग्यवश गाँवों में उस समय सेक्स एजुकेशन के बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी और लड़कियों को इन चीज़ों की जानकारी के लिए इंटरनेट भी नहीं हुआ करता था)।
हम फ़िल्मों में देखा करते थे कि ब्लड कैंसर के रोगी खाँसते-खाँसते ख़ूनी वमन करते थे और उनके सफ़ेद रुमाल ख़ून के दाग से सन जाते थे। मुझे बहुत दर्द हो रहा था, मगर ब्लीडिंग से रोमांचित हो गई थी। बाबा मेरी दशा देखकर घर में काम करने वाली बाई को बुलाया और मुझे माँ के आने तक धीरज के साथ बैठने के लिए कहा। मेरी जंघाओं के बीच ऊष्म रक्त निकलता और स्कूल यूनिफ़ॉर्म पर रक्त के निशान देखकर मैं आतंकित हो गई थी। बाबा ने भागवत गीता निकाली और मेरे सामने गीता के पाँच अध्याय ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने लगे, शान्ति, दंड, समर्पण, कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्धता और जीवन के प्रति अनासक्ति आदि विषयों पर, ताकि मेरा दिमाग़ माँ के आने तक उस तरफ़ उलझा रहे। यद्यपि मैं गर्म पानी पीते-पीते सिसक रही थी। आज मैं यह अनुभव करती हूँ कि बाबा ने ऐसा क्यों किया होगा? यद्यपि मेरी इच्छा थी कि वे मानव शरीर के बारे में कुछ बताते हैं कि किसी भी औरत के लिए रजस्वला होना स्वास्थ्य व स्वच्छता के लिए साधारण प्रक्रिया है।
बाबा का परीक्षाओं में न्याय और निष्पक्षता में पूर्ण विश्वास था, सच में सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली पर। एक बार एक धनी व्यापारी राजनेता की बिगड़ैल औलाद ने बाबा से परीक्षा में नक़ल करने की इजाज़त माँगी थी, मगर बाबा ने ऐसा नहीं होने दिया। इस वजह से माँ को अपने कार्यस्थल पर मेमो इशू किए गए। हमारा पालन-पोषण ऐसे परिवार में हुआ था।
बाबाजी सेवानिवृत्ति के बाद उनके स्कूल के बड़े बाबू श्री रथ के मन में उनके पेंशन के काग़ज़ात तैयार करने के लिए कुछ रिश्वत खाने की इच्छा थी, मगर वह खुले मुँह से नहीं माँग पा रहे थे। इस मसले को हल करने के लिए वह हमारे घर आए और कहने लगा, “सर! चाय पानी के लिए कुछ चाहिए।” बाबा ने माँ को उसके लिए चाय बना कर लाने के लिए कहा तो उसे ग़ुस्सा आ गया और कहने लगा, “नाटक मत करो। आप मुझे आपको मिलने वाली राशि का दस प्रतिशत हिस्सा दोगे और मैं आपके काग़ज़ात जल्दी से तैयार कर आपको प्रसन्न कर दूँगा।” तब जाकर बाबा को पता चला कि वह रिश्वत माँग रहा था। बाबा ने उसे नैतिकता, दया की गुणवत्ता के बारे में एक लंबा व्याख्यान दिया, जैसा कि हमें उम्मीद थी, मगर श्री रथ चिकना घड़ा था। वह कहने लगा, “कुछ नहीं होगा, अब मैं जा रहा हूँ।” बाबा के धीरज का बाँध टूट गया और कहने लगे, “मेरे जीवन की खून-पसीने की कमाई अपनी बच्चियों की पढ़ाई पर ख़र्च करूँगा और तुम मुझे ग़लत तरीक़े के लिए उकसा रहे हो। मैं तुम्हें अपने पैसे कैसे दे सकता हूँ?” श्री रथ ने उनके साथ बदतमीज़ी की, यह कहते हुए, “आप जो चाहें वह करें, मूर्ख अव्यावहारिक आदमी!”
यह कहकर वह वहाँ से जाने के लिए तैयार हो गया। बाबा ने आव न देखा, न ताव अपनी कुर्सी से उठकर उसे कसकर थप्पड़ मारा। कुछ दिनों बाद हमने देखा, माँ को उस थप्पड़ की गूँज का फल भुगतना पड़ा था। उसने कहीं से पैसों की व्यवस्था कर चुपके से रथ को दे दी, तब जाकर कहीं उनके पेंशन के काग़ज़ात तैयार हुए। माँ ने बहुत कुछ झेला, मगर बाबा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, उसके उपदेवता में।
कुछ दिनों बाद मेरी तीन बहनों की शादी तय हो गई और बाबा शादी के समारोह के लिए कुछ लाख रुपए निकालने के लिए भारतीय स्टेट बैंक गए। शाखा प्रबंधक ने बड़े क़रीने से पैक किए पैकेट में पैसे दिए, जिसे लेकर बाबा घर आ गए। माँ और बाबा अपने भोजन-सह-अध्ययन-सह-बहुउद्देशीय मेज़ और कुर्सियों पर बैठकर पैसे गिनने लगे।
देखो तो! प्रबंधक ने वास्तव में तीन लाख अतिरिक्त रुपए वाला बाबा को एक ग़लत पैकेट सौंपा था। 1997 में तीन लाख रुपये जीवन बदलने वाली राशि थी! बाबा तुरंत उठकर मुझे उनके साथ बैंक जाने के लिए कहा। जब हम बैंक पहुँचे, तो प्रबंधक पहले से ही दो पुलिस कर्मियों के साथ बैंक से बाहर जा रहा था। बाबा ने बिना मनोमालिन्य के साथ वह राशि उसे लौटा दी। मैंने अपनी आँखों से प्रबंधक और कुछ अन्य कर्मचारियों को बाबा के पैरों को छूते हुए देखा, यह कहते हुए कि “आप देहधारी भगवान हैं सर!” हालाँकि मेरी आँखें चमक रही थीं, मगर आँसुओं से। बाबा ने मुझसे कहा, “बेटी, अगर हम उन लोगों से कोई पैसा लेते हैं जो हमारा नहीं है, तो यह अंततः अस्पताल जाएगा, है ना?”
“हाँ, ठीक कह रहे हैं।”
आज तक मेरे गांधीवादी पिता की अदृश्य आँखें मेरा अनुसरण करती हैं, मुझे किसी भी तरह के अनुचित धन लेने या देने से बचाती हैं।
बाबा ने बड़ी दिलचस्पी के साथ फ़िल्में और टीवी देखते थे। वे धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, मनोज कुमार के सबसे बड़े प्रशंसक थे। ‘हाथी मेरा साथी’ उनकी ऑल टाइम फ़ेवरेट फ़िल्म थी। हम हॉल में बैठकर दूरदर्शन देखते थे, जबकि बाबा हमें कृषिदर्शन समेत सभी कार्यक्रमों के बारे में समझाते थे। हम नए साल की रात पुरस्कार कार्यक्रम देखते थे, तो बाबा धर्मेंद्र, हेमा मालिनी को पुरस्कार पाते देखकर ख़ुशी से ताली बजाते थे। दशकों बाद, जब श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, शाहरुख खान आदि को पुरस्कार समारोहों में पुरस्कार मिलने लगे तो बाबा ने कड़ा विरोध जताया, यह कहते हुए, “मीरा, इन बोक्का (मूर्ख) लोगों को देखो, वे धर्मेंद्र, हेमा मालिनी को पुरस्कार नहीं दे रहे हैं!” हमने उन्हें समझाने की कोशिश की कि बदलते समय के साथ नए-नए अभिनेता आते हैं और वे भी पुरस्कारों के हक़दार हैं। लेकिन नहीं! बाबा को कभी यक़ीन नहीं हुआ।
बाबा की बदौलत घर पर दशहरा और दिवाली धूमधाम से मनाई जाती थी। बाबा बहुत सतर्क थे कि हम सुरक्षित ढंग से दिवाली खेले। वे छह क़रीने से काटे गए बाँस की छड़ें लाते थे, जहाँ वे फुलझड़ियाँ को सावधानी से बनाई गई दरारों में भरकर हमें सौंप देते थे, यह देखकर हमारे पड़ोसी हम पर हँसते थे। ऐसा दृश्य-फुलझड़ियाँ पकड़ी हुई छह लड़कियाँ एक पंक्ति में बाँस की छड़ों से चिपकी हुई हों, बाबा सावधानीपूर्वक देखते थे कि हमने फुलझड़ी को नहीं छुआ है। हमें बहुत ख़राब लगता था, लेकिन बाबा की लड़कियों के पास कोई और विकल्प नहीं था। अब जब भी कोई व्यक्ति दिवाली पर व्हाट्सएप संदेश भेजता है, ‘सुरक्षित दिवाली’, तो मेरा ध्यान उस वास्तविक-सुरक्षित दिवाली की ओर चला जाता है। हमारे यहाँ दशहरा धूमधाम से मनाया जाता था, बाबा ने व्रतकथा पढ़ते थे, जबकि माँ दिन भर पीठा बनाती थी। हमारा ध्यान उस तरफ़ रहता था, लेकिन हमारा मन कुछ संप्रदायों द्वारा पशु-बलि अनुष्ठान के लिए दूर-दूराज से बजने वाले ढोलों की आवाज़ की तरफ़ जाता था, जिससे हम भयभीत हो जाते थे। बहुत अधिक होने पर हम बाबा और माँ के पास चुपके से चले जाते थे। वे हमेशा हमारे लिए उपलब्ध थे, कभी व्यस्त नहीं रहते थे जब उनकी बेटियों को उनकी ज़रूरत होती थी। शाम को हम नए कपड़े पहनकर माता-पिता के साथ बाहर घूमने चले जाते थे, छह लड़कियों के लिए एक ही प्रकार के कपड़े वाले एक जैसे फ़्रॉक पहनकर, कभी-कभी तो माँ का ब्लाउज भी उसी कपड़े से सिल दिया जाता था, अगर कपड़ा ज़्यादा होता था। समारोह से एक महीने पहले, हम सभी बाबा के साथ साहू वाणिज्य प्रतिष्ठान में, फूलों के छाप वाले कपड़ों की एक पूरी रिम ख़रीदने के लिए, शायद पंद्रह या बीस मीटर कपड़ा होगा, एक ही प्रिंट, एक समान रंग वाला। दर्जी के पास एक पंक्ति में खड़े होकर माप देने लगे। जब हम थोड़े बड़े हो गए, तो मेरी तीसरी बहन ने इसका विरोध किया कि हम अलग-अलग रंग के अलग-अलग कपड़े पहनेंगे। बाबा बुरी तरह से नाराज़ हो गए।
बाबा सही अर्थों में धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करते थे। 2014 में बाबा और माँ मेरे साथ दिल्ली में दिवाली मनाने आए थे, मेरे विश्वविद्यालय परिसर के सरकारी क्वार्टर में। बाबा को अच्छा नहीं लगा यह देखकर कि सोनू ने बिना छड़ी की मदद लिए फुलझड़ियाँ हाथों में पकड़ रखी थीं। मैंने सोनू को समझाने की कोशिश की, लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि इस पृथ्वी पर फुलझड़ी को छड़ी की सहायता से कैसे जलाया जा सकता है। उसने मेरी बात नहीं मानी, उलटा मुझ पर हँसने लगा और अपने दोस्तों के साथ खेलने के लिए बाहर भाग गया-बाबा फिर नाराज़। इसलिए मैंने बाबा को कहीं और व्यस्त रखने की कोशिश की। मैं अपने सारे दोस्तों को घर बुलाया। हमने महिला सहयोगियों और सहेलियों की मदद से बहुत सारा खाना बनाया। बाबा यह देखकर बहुत ख़ुश थे कि मेरे हिंदू, मुस्लिम और ईसाई दोस्त सभी मिलकर मेरे साथ दिवाली मना रहे है, मेरी रसोई में खाना बनाकर। बाबा ने प्रशंसापूर्वक मेरी पीठ थपथपाई और श्रीमती इंदिरा गाँधी के परिवार का उदाहरण दिया, जहाँ सभी धर्मों के लोग है, वास्तव में पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष परिवार। मेरे मुस्लिम सहकर्मी की पत्नी, श्रीमती खान, पूरियाँ तल रही थीं। बाबा ने उसे बुलाकर थोड़ी देर के लिए अपने पास बैठने के लिए कहा और कहने लगे, “बेटा, मेरी बेटी देखो, वह सर्व-धर्म-समन्वय में विश्वास करती है, वह धर्मनिरपेक्ष है। यही कारण है कि, भले ही, आप मुस्लिम हैं मगर उसकी रसोई में खाना बना रही हैं। वह महिला उनके निर्दोष शब्दों का सार समझ नहीं सकी और नाराज़ होकर घर से बाहर निकाल गई। मुझे अपने मेहमानो को छोड़कर उसके घर जाकर उसे पिताजी के सरल स्वभाव के बारे में समझाना पड़ा कि वे वास्तव में हमारी एकजुटता की सराहना कर रहे थे। ख़ैर, वह कभी नहीं समझ पाई। वास्तव में, हर किसी ने उनके शब्दों को ग़लत समझा, उसके इरादों की ग़लत व्याख्या की। देर शाम जब सभी लोग घर चले गए तो मैंने बाबा को फटकार लगाई, “क्या ज़रूरी है, क्या ज़रूरी था आपको हमेशा हर अवसर पर लंबा भाषण देना?” बाबा चुप रहे। वे एकजुटता और धर्मनिरपेक्षता के बारे में सोचते हुए अन्यमनस्क थे।
कुछ वर्षों बाद, हम सभी की शादियाँ हो गईं और हमने अपना गाँव छोड़ दिया और बाबा पूरी तरह से अलग-थलग हो गए; उनके टीवी धारावाहिक पात्रों और उनके मुद्दों ने घर पर हमारे मुद्दों की जगह ले ली। जब मैं घरेलू हिंसा, गर्भपात के दौर से गुज़र रही थी, तो मेरे माता-पिता दोनों पर कुछ असर नहीं पड़ रहा था। ‘वे अपने दुःख को रोमांटिक नहीं करते हैं,’ माँ अपनी बात इस तरह रखी तो मैं उनकी कठोरता से नाराज़ हो गई थी। इस उदासीनता के जो भी कारण रहे हों, मैं अंदर से टूट गई थी। मेरे दर्द के प्रति इतना उदासीन होने के कारण मैं बाबा से नफ़रत करने लगी थी। यही वह समय था, जब बाबा के अपने पुस्तकालय की एक पुस्तक मेरे काम आई। मुझे उसकी एक कविता मेरे ऊपर लिखी महसूस होने लगी थी:
पिताजी, मुझे आपको मारना पड़ा है।
मेरे पास समय होने से पहले ही आप मर गए—
संगमरमरी-भारी, भगवान से भरा एक थैला,
एक भूरे पैर की अंगुली वाली रौद्र मूर्ति
फ्रिस्को सील जितनी बड़ी
आपके मोटे काले दिल में एक हिस्सेदारी है
और गाँव वालों ने आपको कभी पसंद नहीं किया।
वे नृत्य कर रहे हैं और आप पर मुहर लगा रहे हैं।
वे हमेशा जानते थे कि यह आप थे।
पिताजी, बास्टर्ड पिताजी, तुम्हारे माध्यम से मैं कर रही हूँ। (सिल्विया प्लाथ के “डैडी“)
वैवाहिक बलात्कार के कारण दो मादा कन्याओं को उनके जन्म से पूर्व मैंने खो दिया, जिस वजह से मेरे मन में बाबा के प्रति तीव्र प्रेम-नफ़रत-संबंध पैदा हो रहे थे। गर्भपात के दौरान मैंने दोनों बार भ्रूण देखे और रोते-रोते बाबा को गले लगाना चाहती थी। लेकिन उन्होंने जैसे पथरीली चुप्पी धारण कर ली थी, मानो मैंने केवल अपने खिलौने खो दिए थे और व्यर्थ में रोना-धोना कर रही हूँ। बाबा का यह व्यवहार मुझे अजीब लग रहा था, लेकिन अब मुझे लगता है कि मुझे समझ में आना चाहिए था, वे विगत कुछ वर्षों से माँ के पति के सिवाय कुछ भी नहीं थे। उन्हें डिमेंशिया, आंशिक अल्ज़ाइमर था।
अपनी छह लड़कियों की शादी के बाद और उनके उस घोंसले से उड़ जाने के बाद वे हमारे बचपन में फिर से लौट आए थे। अब मुझे याद है कि वे हमारे गणित की कॉपियाँ जाँच करने में किस तरह उत्सुक रहते थे, हमें Pneumonia (निमोनिया), Psychology (मनोविज्ञान) जैसे कठिन शब्दों की वर्तनी पूछते थे, (हमेशा कहते थे यहाँ ‘पी’ का उच्चारण नहीं होगा।)
शब्द-पहेली खेलना हमारा पसंदीदा शग़ल था। बाबा अपने मनोभ्रंश के दौरान मेरे साथ उन खेलों को खेलने के लिए तरसते थे—काश! मैं उन्हें ज़्यादा समय दे पाती। काश! मैं उस समय सोनू की एकल माँ के रूप में जीवन की दौड़ नहीं भाग रही होती, न केंद्र सरकार की नौकरी की तलाश में होती और न पीएच.डी. कर रही होती, बल्कि शान्ति निकेतन से केवल जूनियर रिसर्च फ़ैलोशिप के साथ हम दोनों के लिए काम चलाने हेतु संघर्ष कर रही होती। काश! मैं उन्हें साफ़-साफ़ ज़ोर से कह पाती—बाबा, मुझे अब आपकी ज़रूरत है! मुझे इस अथाह गड्ढे में डूबने से बचाओ। मेरा हाथ पकड़ो। बदले में, मैं तुम्हारा हाथ पकड़कर सोनू की शैशवावस्था, और किशोर ख़ुशी के पथ से तुम्हें हमारे बचपन की गलियों में ले जाऊँगी। लेकिन मेरे और बाबा के बीच बहुत-सी बातें अनकही रह गईं।
अचानक मस्तिष्क रक्तस्राव होने के कुछ हफ़्तों के दौरान मैं उनके साथ भुवनेश्वर की अपोलो अस्पताल रही थी, जहाँ वे आईसीयू में भर्ती थे, उनका मुँह खुला, आँखें नम थीं, वे ‘बुक्स ऑफ़ विzडम’ के उद्धरण बड़बड़ा रहे थे। यह मेरे लिए चिकित्सीय ज़िम्मेदारी थी कि मैं वहाँ उनकी देखभाल करूँ—मुझे नहीं पता कि वे इसे समझ पाते या नहीं। यहाँ तक कि मैंने उन्हें बुदबुदाते हुए सुना, “भगवान स्वर्ग में है और दुनिया में सब-कुछ ठीक है।” मैंने अस्पताल में उनके लिए एक कविता लिखी और उनके सामने ज़ोर-ज़ोर से पढ़ी, मुझे नहीं पता कि उन्होंने सुनी भी या नहीं।
वे क़दम
(मेरे बाबा के लिए)
वे क़दम जो चले हैं
काँटों पर
तुम्हारे लिए पूरे दिन।
वे क़दम जिसने तुम्हें दिखाया
आगे बढ़ने का रास्ता
वे क़दम।
नारंगी सूरज के पीछे वे क़दम
मेहराब के नीचे चलते हैं
नंगे पाँव
आग पर, पानी पर
अवरोधक
दरवाज़ों और खिड़कियों को तोड़ते हुए
तुम्हारे सुरक्षित प्रवेश के लिए।
वे क़दम।
वे क़दम चलते गए,
अंतहीन सड़कों का अतिक्रमण करते हुए
तुम्हारी महत्वाकांक्षा के ख़ातिर।
वे क़दम तुम्हारे पासपोर्ट है
रामराज्य के सपनों का
नई सच्चाई, अज्ञात ग्रहों का पासपोर्ट।
वे क़दम, दूर जा रहे हैं, धीरे-धीरे,
हमेशा के लिए कल्पना-जगत से अलग होकर
क्या तुम साथ चलोगे?
‘चिकित्सा के रूप में कविता’, ‘साक्षी के रूप में साहित्य’, ‘जीवन के लिए कला’ आदि अवधारणाएँ बाबा ने मुझे सिखाई थीं। वे ख़ुश-मिजाज़ इंसान थे, दुनिया के तौर-तरीक़ों और बनावटीपन से कोसों दूर। अस्पताल में महीनों रखने के बाद, डॉक्टरों ने हमें उन्हें घर ले जाने की सलाह दी। एम्बुलेंस में उन्हें घर भेजा गया, मैंने उनके पाँव छूए, मेरे लिए यही उनका अंतिम दर्शन था।
अगली सुबह मुझे बताया गया, वे ख़ुश लग रहे थे, हर किसी से बात कर रहे थे। दरअसल उन्होंने मुझसे और सोनू से फोन पर बात की, मुझे और ज़्यादा पढ़ने, और ज़्यादा लिखने, अपना और सोनू का ख़्याल रखने को कहा। तब तक उन्होंने अपने सभी कर्तव्यों का निर्वहन कर दिया था, अपनी बेटियों को शिक्षित किया था और उनकी शादी कर दी थी, अपनी प्यारी पत्नी के लिए एक बड़ा सुंदर घर बनवा दिया था। उस सुबह उन्होंने सभी से फोन पर बात की। इसलिए उन्होंने हम सभी से हमेशा के लिए विदा लेने का फ़ैसला किया। उनकी ड्यूटी ख़त्म हो गई थी। उन्हें मालूम था, उन्होंने एक सार्थक अच्छा जीवन जीया था।
बाबा के परलोक सिधारने के बाद मैं अपने घर उदयगिरि कभी नहीं गई; इतने सालों के दौरान मैं अपनी माँ को मिलने ब्रह्मपुर या भुवनेश्वर जाती थी। जून 2022 के अंतिम सप्ताह में पाँच साल बाद मैं उदयगिरि गई और बाबा की दीवार घड़ी, कलाई-घड़ी, पुस्तकें, कपड़ें, टेबलें और उनकी सारी जगहें देखी। माँ ने कुछ भी नहीं हटाया था, सब-कुछ वैसे ही रखा हुआ था। बाबा को कभी पसंद नहीं आता था कि कोई उनका सामान इधर-उधर रख दें। पूरी रात मैं मन ही मन रोती, पूरी तरह से अकेले उस नीरव घर में तड़के तक घूमती रही, बाबा से बात करने की कोशिश करते हुए। मगर नहीं, मुझे कहीं भी उनके कोई निशान नहीं मिले। हवा में केवल अलौकिक चुप्पी, गहरा, घना अँधेरा और भयानक दुख पसरा हुआ था।
अगली सुबह माँ के ख़ातिर मुझे सामान्य होना था। बेचारी माँ, वह अकेले रहना सीख रही है, और मुझे लगा कि वह सीख चुकी होगी! वह अच्छा कर रही है, और मुझे उन पर नाज़ है। हर सुबह अपने आराध्य पति के खोने के ग़म पर अपने रोने की दैनिक ख़ुराक ख़त्म करने के बाद अपने लिए स्वादिष्ट भोजन बनाती है, अपने विटामिन और सप्लीमेंट लेती है, अच्छी सूती साड़ी पहनती है और टीवी धारावाहिक देखने बैठ जाती है, अपनी बेटियों को नियमित रूप से फोन करती है, गृहशोभा और कथा पढ़ती है, अपनी पाँच ख़ुशहाल विवाहित बेटियों से उनके ससुराल वालों के बारे में गपशप करती है और संतुष्ट महसूस करती है।
सुबह नाश्ते के दौरान मैंने और माँ ने सोनू को बाबा के क़िस्से सुनाए। मैं माँ को रुलाना नहीं चाहती थी, मैंने माँ को छेड़ा, गुदगुदाया, और चुटकी ली, बाबा की मासूमियत, सादगी पर हँसाते हुए। हमें अपने घर में काम करने वाली बाइयों की कुछ घटनाएँ याद आने लगी। सुकामा, जब हम बहुत छोटे थे, तो हमारी देखभाल करती थी। मैंने उसके बारे में एक कविता-संग्रह लिखा है, सुकामा और अन्य कविताएँ (2013)। उसकी मृत्यु के बाद, ज़रीना आई, जिसने अपने भाइयों की मदद से हमारे घर में डकैती डाली; उसने हमारा सब-कुछ लूट लिया। फिर पुष्पवती आई, जिसने हमारे सुंदर शालीन बाबा को बहकाने की कोशिश की (मेरी बहनें हमेशा कहती हैं, ‘हमारे बाबा धर्मेंद्र और मनोज कुमार की तरह दिखते थे, इसलिए हमारी वंशावली इतनी सुंदर और समृद्ध है!’), जिसे माँ ने बाहर खदेड़ दिया। फिर टिंटुमा आई। एक चतुर महिला थी, जो हर महीने अपनी सैलरी से एडवांस पैसे लेती थी, लेकिन कभी भी पैसे लौटाने की ज़हमत नहीं उठाती थी महीने के अंत में, वह अपने पूरे वेतन की माँग करती थी। भले ही, बाबा नोट बुक में अग्रिम राशि लिख देते थे, लेकिन उसे पूरा वेतन देते थे, जो कि माँ को नामंजूर था। माँ कहती थी, टिंटुमा हमें धोखा दे रही है। तीस से अधिक महीने बीत जाने के बाद, सुबह-सुबह माँ टिंटुमा के साथ बहुत सख़्ती से पेश आई। उन्होंने बाबा से कहा कि वे उसे कुछ महीनों के लिए कोई वेतन न दे, ताकि अग्रिम राशि को समायोजित किया जा सके। बाबा दयालु थे, घरेलू सहायिका के वेतन में कटौती करना नहीं चाहते थे। उस समय टिंटुमा बरामदे में रो रही थी। माँ ने नोट बुक उठाई और बाबा के सामने ग़ुस्से में रख दी, “देखो! देखो, पहले से ही हमसे कितना पैसा ले चुकी है। हमारी अपनी सीमाएँ हैं, हम उसे और कितने पैसे दे सकते हैं! आख़िरकार हमारी छह बेटियाँ हैं, उन्हें पढ़ाना-लिखाना और फिर उनकी शादी करनी है।”
बाबा को मौक़ा मिल गया। हाँ, टिंटुमा बहुत ज़्यादा करती है। हो गया, जो होना था। उसकी वजह से हमारे घर में बहुत अधिक अशान्ति हो रही है। उसके बारे में कुछ किया जाना चाहिए! उन्होंने बस माँ से नोटबुक ले ली, और उसे फाड़ दिया, और कहने लगे, “न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। मीरा, अब टिंटुमा का तनाव ख़त्म। अब हमारे पास इस बात का कोई सबूत नहीं है कि उसने हमसे कितना पैसा बनाया है। अब ख़ुश?”
माँ ने पूरे दिन बाबा से बात नहीं की, लेकिन दिन ढलते-ढलते उन्होंने समझौता कर लिया। वह बाबा के साथ शान्ति चाहती थी, क्योंकि वह केवल उनसे प्यार करती थी और वह केवल उनसे ही।
जब मैंने और माँ ने सोनू को यह घटना सुनाई तो वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
मैंने देखा, माँ की आँखें नम थीं। मैंने उससे पूछा, “क्या हुआ माँ? तुम ठीक हो?”
माँ एक गहरी साँस ली और कहा, “मैंने तुम्हारे बाबा के साथ एक भरपूर महान जीवन जीया है। मैंने यह सब-कुछ देखा—परमेश्वर की पत्नी होने के नाते!”
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- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
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- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
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- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
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- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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