नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)
(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )बिलकुल अलग कहानी
“मानवीय सम्बन्धों के आधार पर मीता के हृदय की थाह लेना सबसे मुश्किल काम है! हर सम्बन्ध का पालन-पोषण करना पड़ता है, अन्यथा वह दीर्घायु नहीं रहता है।”
उसने सिर्फ़ सिर हिलाया।
उसके प्रश्न सरल थे, और विचार निर्दोष, मेरे प्रश्नों और विचारों से पूरी तरह अलग।
उसका सवाल होता था, जब बदले में उसे कुछ नहीं चाहिए, तो फिर उस रिश्ते को बचाने की कश्मकश से क्या फ़ायदा?
उन वर्षों में, न तो वह किसी चीज़ की शिकवा-शिकायत करती थी, न ही किसी चीज़ को पाने की कोशिश करती थी। फिर भी वह स्वेच्छा से अपने आप को एक जाल में फँसी हुई मछ्ली की तरह क़ैद अनुभव कर रही थी। पहली बार, वह ताज़ी हवा में साँस लेना चाहती थी। क्या यह बहुत ज़्यादा था? क्या वह किसी अक्षम्य चीज़ की कामना कर रही थी? बिलकुल नहीं।
शादी हुए तेरह साल हो गए थे, ख़ुशी से दिन कट रहे थे, उस समय हमारी मुलाक़ात हुई थी। क्रिएटिव राइटर्स वर्कशॉप में वह चुपचाप बैठी हुई थी, फिर भी वह मुझे चिर-परिचित लग रही थी, उसके होंठों पर हँसी थी और आँखों में चमक, शायद प्यार की!
जैसे हर कोई उसे मिला करता था, वैसे मैं भी उसे मिला था, और मन-ही-मन उसके शांत, सौम्य और भाव-प्रवण चेहरा देखकर आकर्षित हो गया था। बहुत ख़ूबसूरत चेहरा, गालों पर दो डिंपल, दोनों भौंहों के संगम-स्थल पर बिंदी, ऐसा लग रहा था जैसे दोनों आँखें उसकी भावनाओं को प्रकट कर रही हों, एक पारदर्शी सेतु बनकर।
हमने विनीत भाव से बातें की। उसकी आँखें बहुत ज़्यादा चमक रहीं थीं, इसलिए मैंने आँखों में आँखें डालकर बातें करना ठीक नहीं समझा। वह कहने लगी, उसे गीत गाना, खाना पकाना, पढ़ना-लिखना और मुस्कराना बहुत पसंद है और मैंने देखा कि वह बहते पानी की तरह हँसती थी। धीरे-धीरे कुछ महीनों में मुझे उसकी अभिरुचियों के बारे में पता चला जैसे कि उसे मछली खाना पसंद है, छोटी स्कर्ट, घुटने तक की लंबाई वाली फ़्रॉक, ऊँची एड़ी के जूते पहनना अच्छा लगता है ताकि उसके पतले-चिकने पैर दिख सकें, इसके अलावा, वह अपने घर के सामने हरी-भरी पहाड़ी पर ध्यान करना बहुत पसंद करती थी।
यह तो मुझे अच्छी तरह से याद नहीं है कि कब मैंने उसके साथ सम्बन्ध जोड़ना शुरू किया था, लेकिन मुझे याद है कि कभी भी मुझे उसकी उपस्थिति असहज नहीं लगी। जल्दी ही मैं समझ गया कि उसका मिलन मेरे अधूरे जीवन की तलाश पूरी कर सकता है।
मेरी छठी इंद्री कभी झूठ नहीं बोलती थी।
वह एक प्रसिद्ध लेखिका थीं, लेकिन ज़मीन से जुड़ी हुई। दिन के काम-काज के दौरान, मुझे दर्शकों से उसका परिचय करवाना पड़ा, और मैंने यह काम दिल से किया . . . अपनी पसंदीदा तथ्यों को जोड़कर प्रस्तुत किया। उसकी रचनात्मक कृति के सूक्ष्म से सूक्ष्मतम विवरण का मैंने पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन तैयार कर लिया था, जिसमें ख़ासकर उन विशिष्ट बिन्दुओं पर ध्यान आकर्षित किया गया था, जब उसने अपनी कम उम्र में साहित्य का एक लंबा सफ़र तय किया था। जैसे-जैसे मैं उसके साहित्यिक सफ़र पर प्रकाश डालता जा रहा था, वैसे-वैसे दर्शक उसकी तरफ़ घूर-घूरकर देखने लगे थे, और वह शरमाकर नीचे देखने लगी थी और अपने नाखूनों को दाँतों से काटने लगी थी। जैसे ही मैं अपना प्रेजेंटेशन पूरा कर उसके लाजवंती चेहरे की ओर निहारने लगा तो वह मेरे कानों में धीरे से बुदबुदाई, “इन सब चीज़ों की क्या ज़रूरत थी?” उसकी आँखों में दिखावटी ग़ुस्सा और मन के भीतर छुपे हर्ष के भावों का मनोरम मिश्रण दिखाई दे रहा था। मगर ललाट पर लगी बिंदी, जुड़ी हुई भौहों को और मधुर बना दे रही थी!
उस समय मुझे महसूस हुआ कि मैं उस सरल लड़की के प्रेम-जाल में फँस गया हूँ। कहीं अनजाने में, हम दोनों के बीच एक सेतु का निर्माण हो गया है। हम दोनों के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध बनता जा रहा था, हमेशा-हमेशा के लिए।
उसमें वे सारे गुण थे, जो मैं अपने दोस्तों में तलाशता था। ऐसे लोग जो मेरे जैसे हो, कोई ज़रूरी नहीं है कि वे हमेशा ‘गुड़ी-गुड़ी’ हो, चेहरे पर सदैव मुस्कान हो। जब मैं कोई प्रेम-गीत गाऊँ तो वह नाचने-थिरकने लगे और जब मैं कहूँ कि आज कार पार्किंग में रहने देते है, मेंट्रो से जाएँगे या रात को फ़िल्म देखेंगे तो वह कहेगा, “चलो मैं तैयार हूँ, चलते है।”
संक्षिप्त में, वह पूरी तरह से जंगली थी, आँखों में शरारत के भाव लिए। मैंने उसके जैसी शायद ही किसी सनकी औरत को पहले देखा होगा। उसके व्यक्तित्व में लालित्य, शिष्टता, सर्जनशीलता और अन्य बहुमुखी प्रतिभा के बीच कूट-कूट कर भरे हुए थे।
लेकिन प्यार में मज़ाक या लालित्य से अधिक गुणवत्ता होनी चाहिए, है न? सही कह रहा हूँ न?
माधवी में ऐसे गुण भी हैं, उसे मालूम तक नहीं था। हम समान उम्र के थे, लेकिन वह ज़्यादा परिपक्व थी। वह ऐसी स्त्री थी, उसके साथ मैं बॉलीवुड के किसी रोमांटिक हीरो की तरह रह सकता था, मसखरा, मज़ाकिया और अच्छा-बुरा, जो मैं बनना चाहता था, बन सकता था। ऐसा कोई नियम नहीं था। मैं चाहता था कि युवावस्था में वह मेरी पत्नी, प्रोढ़ावस्था में दोस्त और वृद्धावस्था में नर्स बन कर रहे। मगर जो हम जीवन में चाहते हैं, कोई ज़रूरी नहीं कि वह हमें प्राप्त हो। हुआ भी ऐसा ही।
वह चुपचाप लंबी दूरी से सम्बन्ध निभा रही थी, विगत पच्चीस वर्षों से मेरे जीवन के बारे में अपनी चिंताओं का साझा करती, मुझे मैसेज, पत्र भेजती, मेरे काम में हाथ बँटाती, अपनी रचनाओं को पढ़ाती, अपने सुख-दुख बाँटती। जीवन भर मेरे साथ ऐसा ही उसका व्यवहार रहा। मैं केवल उसका मौसमी साथी नहीं था, मैं उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा भी बन गया था। साहित्य की छात्रा होने के नाते, विख्यात हस्तियों को पढ़कर उसका सार वह तुरंत समझ जाती थी और उन्हें अपने जीवन में अमल में लाने कि कोशिश करती थी। अभाव-ग्रस्त होने के बाद भी वह संतोष का जीवन जी रही थी।
जैसे उसके जीवन में और कोई नहीं था, वैसे ही मेरे जीवन में कोई दूसरी महिला नहीं थी। उससे मुलाक़ात होने से पहले मेरी शादी टूट चुकी थी।
उस दिन, सर्जनशील लेखकों की कार्यशाला के समापन-सत्र के बाद आयोजकों ने मुझे उसे एयरपोर्ट छोड़ने के लिए कहा। विगत कुछ दिनों से, हम सकारात्मक संकेतों का आपस में आदान-प्रदान कर रहे थे, हमारी आँखें बातचीत कर रही थी, जबकि ज़ुबान से शब्द नहीं निकल रहे थे और मैं थोड़ा-थोड़ा उसे मिस करने लगा था, उसके औपचारिक सूट, सलवार, आकर्षक साड़ी, रेशमी बाल, उसकी उँगलियों के नाखून से लेकर पैर के नाखूनों तक। भले ही, यह दूसरी बात थी, वह शायद ही नोटिस कर रही होगी कि कोई उसे इतनी बारीक़ी से देख रहा होगा। वह अपने आप को ‘टॉम-बॉय’ कहती थी, या उसे यह नाम पसंद था।
उस दिन, बड़ी मुश्किल से मैंने सुबह तक इंतज़ार किया, केवल इसलिए कि मुझे उसे एयर पोर्ट छोड़ने जाना था। उस रात मैंने उसे कुछ टेक्स्ट मैसेज भेजे, शहर के सबसे अच्छे रेस्तरां और ख़रीददारी के लिए बेहतरीन जगहों के बारे में बताते हुए। प्रतिक्रिया स्वरूप एक सरल शब्द में उत्तर मिला था, “धन्यवाद।” मुझे आश्चर्य होने लगा, क्या मैं उसके प्रति बहुत व्यक्तिगत होता जा रहा था?
मेरा अनुमान पूरी तरह से सही था, उसका व्यवहार एकदम अप्रत्याशित था। देर शाम, उसने मुझे मैसेज भेजा, “मैं आप पर निर्भर हूँ। क्या दोपहर 3:30 बजे स्टेशन पर लेने आ सकते हो।” यह मेरी सोच से परे था। मगर हमेशा की तरह मैं अपनी भावनाओं को दबाना जानता था और जब मैं पहली बार उससे मिला तो मेरे चेहरे पर किसी प्रकार के भाव दिखाई नहीं दे रहे थे। एक बड़े सैमसोनाइट बैग के साथ ट्रेन से नीचे उतरकर वह अपने साथ लाना बैग को ख़ुद खींचकर ले जाने लगी। मुझे उसके हाथ से वह बैग छीनना पड़ा था। मैंने उसके हवाई टिकटों का भी प्रिंट आउट ले लिया था, यह सोचकर कि वह कहीं उन्हें अपने साथ लाना भूल गई हो। पिछले दो दिनों से उसका प्रोग्राम काफ़ी व्यस्त था, दो दिनों में अनेक अलग-अलग कॉलेजों में उसे व्याख्यान देने थे। बाद में उसने मुझे बताया कि वह मेरी देखभाल और आवभगत से ख़ुश थी।
मुझे उसकी कार्य-शैली बहुत पसंद थी। मैंने उसके ‘प्रोफेशनलिज़्म’ की भूरि-भूरि प्रशंसा की, कम उम्र में हासिल की गई उपलब्धियों की भी खुले मन से सराहना की। लेकिन मैंने उसे कभी नहीं बताया कि मैं उसे दिल से प्यार करने लगा था। विगत कुछ दिनों में धीरे-धीरे, निःशर्त, वह मेरी स्वप्न-सुंदरी बन गई थी। मैं हतप्रभ था, जीवन में जो कुछ घटित हो रहा था उसे देखकर, वह भी उनचालीस वर्ष की उम्र में! वह दुनिया की सबसे मनोरम कृतियों में से एक थी; नारीत्व के चुम्बकीय आकर्षण से भरपूर, विनीत भाव-भंगिमा और दिव्य जुनून के लिए।
उस दिन वह सहज दिख रही थी, तो थोड़ी उलझन में भी। भले ही, उसके होंठ बंद थे लेकिन जीवंत लग रहे थे, कुछ तिर्यक मुस्कान लिए। रंग ताँबे जैसा, चेहरे के हाव-भाव आकर्षक। मेरी कार में वह सहज महसूस करे—उसके लिए मैं अतिरिक्त सावधानियाँ बरत रहा था। इसलिए जैसे ही वह कार में बैठी, वैसे ही मैंने कार की खिड़कियाँ खोल दीं। वह एनपे ‘टॉम बॉय’ वाला परिधान पहने हुई थी, पेंसिल जैसा फ़िट सूती पैंट, गहरे पीले रंग की सूती फुल स्लीव टॉप, हल्का मेकअप, कोमल त्वचा और एक पारदर्शी मुस्कान। तुरन्त ही उसने कार के शीशे बंद कर दिए तो मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। बाद में जब मैंने उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? उसका उत्तर था—एक महिला आदमी की आँखों में देखकर यह आसानी से बता सकती है कि वह व्यक्ति सज्जन है या और कुछ?
हाँ, मैं उसका ‘सज्जन’ आदमी था।
आज तक की वह मेरी सबसे बेहतरीन लॉन्ग ड्राइव थी। उसने अपनी गोद में अपना हैंडबैग रखा था, शायद वह मेरी नज़रों से बचना चाहती थी, अपने आप को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए! या यह भी हो सकता है, वह उसकी आदत हो। इधर-उधर की कुछ बात-चीत होने के बाद, उसने कहा कि ब्लोवर अच्छा नहीं लग रहा है, और उसने उसे बंद कर दिया। मेरी लाल अल्टो कार में केवल ए.सी. चल रहा था और एकदम शांत वातावरण। अहा!
परम आनंद वाली निस्संगता!
मुझे हर पल नया-नया आश्चर्य हो रहा था, एक ऐसा इंसान जिसे कुछ दिन पहले जानता तक नहीं था, उसे दुनिया सर्वोच्च अहंकारी मानती थी, शायद ही उसने कभी पुरुषों से बातचीत की हो और जिसने महिलाओं के दिल में डर भर दिया हो!
यह रोज़मर्रा की बात नहीं थी मेरे लिए, बहुत ख़ास दिन था वह। उसने मुझे बाद में बताया कि उसके बग़ल में बैठा आदमी उसकी साधारण बातचीत में भी कविता का अनुसंधान कर रहा था, कार्यशाला में उसके द्वारा बताई गई हर छोटी-बड़ी बात को लेकर वह बहुत उत्साहित था। उसके शहर में उतरते ही उसने मैसेज भेजा था, “आनंद के शहर में पहुँच गई हूँ!” और एसएमएस में उत्तर दिया था, “आनंद के शहर में आपका स्वागत है!” और वह उसके पीछे छाया की तरह कुछ दिनों तक लगा रहा। ऐसा उसका अनुमान था।
लेकिन अभी भी वह औपचारिक, शालीन लड़की थी, जिसे मैं उस व्यक्ति से दूर करने की कोशिश कर रहा था, पता नहीं क्यों। वह कहने लगी, “मैंने तुम्हें परेशान किया! मेरे लिए तुम्हें रविवार के दिन एयर-पोर्ट तक आना पड़ा!”
“ओह, सच में? ऐसी बात है तो कृपया नीचे उतरो और टैक्सी ले लो!”
“हे भगवान! आप मुझे नीचे उतरने के लिए कह रहे हो? नहीं . . . मैं नहीं उतरूँगी।”
हम हँसने लगे, हम मज़ाक कर रहे थे एक-दूसरे से। बाद में, उसने मुझे बताया कि मैं ऐसा पहला व्यक्ति था, जिसने उसे बेदम हँसाया। और मैं ही पहला आदमी था जिसने उसकी चापलूसी नहीं की, उसे कुर्सी पर बैठाकर, न ही उसकी पूजा की। यह उसे अच्छा लगा कि मैं पहला व्यक्ति था जिसने उसे मूलत: सीधी-सादी लड़की के रूप में खुले-आम पहचान लिया था। मैं उसे कैसे बता सकता था कि मुझे एलिज़बेथन सोनेट से नफ़रत थी, जो रक्त-मांस की बनी सुंदर महिलाओं को देवी का दर्जा देते थे!
और सही कहूँ तो मैंने वास्तव में उसके व्यक्तित्व के सुषुप्त हिस्से को अनजाने में भाँप लिया था। वह बारहसिंघा-जैसी लग रही थी और, उसने भी, मेरे भीतर के विप्लवी कवि और बंगाली लहजे वाले दुखद नायक की नब्ज़ पर हाथ रख दिया था। मेरे साथ, वह अनेक प्रकार की भावनाओं को एक साथ महसूस कर रही थी, अपने बचपन की, डरावनी, मधुर और गीतों भरी।
मुझे उसके परिवार के बारे में जानने का भरपूर अवसर मिला। हमारे पास पर्याप्त समय भी था।
तभी कोई छोटी-सी चीज़ उसकी छाती से टकराई और अंदर पेट की तरफ़ चली गई। मगर उसने टी-शर्ट खोलने का फ़ैसला किया और स्पष्ट रूप से, धैर्यपूर्वक मुझसे बोली कि उसने कभी भी किसी पुरुष के सामने नहीं अपने वस्त्र नहीं खोले हैं और उसकी बहुत ही कम सहेलियाँ है, जो उसके निजी जीवन के बारे में जानती है। पब्लिक फ़िगर होने के कारण वह इस मामले में कुछ ज़्यादा ही सतर्क रहती थी। आज भी मुझे दृश्य याद है, जब वह अपनी सजल नेत्रों से दिग्वलय की ओर टकटकी लगाकर देख रही थी।
यद्यपि वह निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से सम्बद्ध रखती थी, मगर अपने कैरियर के बारे में उसके बहुत ऊँचे ख़्वाब थे। तेईस साल की उम्र में उसके माता-पिता ने उसकी शादी एक ग़लत आदमी से करवा दी तो वह घरेलू-हिंसा, वैवाहिक-बलात्कार, ईर्ष्या, पुरुष-अहंकार और शारीरिक शोषण का शिकार हो गयी कुछ सालों तक। गर्भावस्था के दौरान, फ़ैलोशिप की परीक्षा पास की और उसके बाद पीएचडी। अपने बेटे के जन्म के बाद, वह दूसरे शहर में चली गई और फिर, वहाँ से धीरे-धीरे दिल्ली। शादी के कुछ ही वर्षों में वह अपने मानसिक-विकलांग पति से अलग हो गई।
इसी बीच, उसका और उसके छोटे बेटे का किसी अन्य परिवार से नज़दीकी रिश्ता बन गया; उनके परिवार का इकलौता बेटा उसके बेटे का शुरूआती वर्षों में प्रमुख सहारा था, और एक बहुत अच्छा इंसान भी। उसका बेटा पूरी तरह से उन पर निर्भर करता था, और उसका भी उनके साथ अच्छा तालमेल बन गया था। इसलिए, उन्होंने शादी करने का फ़ैसला किया। वैसे भी, भाग्य कुछ लोगों के साथ क्रूर मज़ाक करता है और उसके साथ भी ऐसा ही हो रहा था। उसके दूसरे पति के लिए सौंदर्यवाद की भावनाओं को समझना तो दूर की बात थी, उसका साहित्य से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था; उसके साथ कभी कोई शारीरिक नज़दीकियाँ भी नहीं बनी थी, और शायद उसकी सेक्सुअल प्राथमिकताएँ बिलकुल अलग थीं। लेकिन उसके पास शिकायत करने का कोई अधिकार या इच्छा नहीं थी, क्योंकि वह घर और अपने बच्चे के लिए शान्ति चाहती थी, जो उसे बहुत प्यार करता था। और इस प्रकार, वह सुलह-सुविधा की शादी से कहीं ज़्यादा अकेली हो गई थी।
जिस तरीक़े से धीमी आवाज़ में डरते हुए उसने कहा था, जो मुझे पहले से मालूम था कि वह एक घायल स्त्री है। उसकी भावनाएँ वास्तविक, विशाल और आकाश की तरह स्थायी थीं, जो मुझे किसी भी दिन निगल सकती थी। एक ऐसा सर्वोत्तम पाश में जकड़ने वाला प्रेम या तो आप तोड़कर बाहर निकल जाओ या फिर इंतज़ार करते हुए सावधानी से सहन करो, भले ही, उसका फँदा छोटा हो।
एकदम सन्नाटा, फटी-फटी ख़ामोशी।
चुप्पी तोड़ी, अपना मूड बदला और वह मुझे अपने परिवार के बारे में पूछने लगी।
“फिर से व्यक्तिगत बात करना ठीक रहेगा? मेरी पत्नी मेरे बेटे के साथ दूसरे शहर में रहती है, वहाँ काम कर रही है। वह मेरी बचपन की सहेली थी, लेकिन शादी के कुछ सालों बाद, हमें पता चला कि शादी नहीं टिक पाएगी; मेरा मतलब है कि हम एक-दूजे के लिए नहीं बने हुए थे। इसलिए हमने सोचा कि कुछ समय हमें अलग-अलग जगहों पर रहना चाहिए। अब मेरा बेटा छुट्टियों के समय मुझे और मेरे माता-पिता को मिलने के लिए आता है। बस यही है मेरी कहानी।”
“क्या आप उससे प्यार करते हो?”
“नहीं।”
मुझे उसकी फ्रेंकनेस पर आश्चर्य हुआ। प्यार अपनी जगह पर है-जिसने जीवन को मृग-मरीचिका में बदल दिया था, मगर अभी भी युवा दिनों की कुछ ऐसी यादें बची हुई थीं जो मुझे किसी न किसी तरह अतीत में खींचकर ले जाने के लिए झकझोर देती थीं। वर्तमान की निस्संगता और अतीत की स्मृतियों के बीच मन एक तरह से फटा हुआ था, जिसे जड़ से उखाड़ फेंकना मुश्किल प्रतीत हो रहा था।
“तो फिर आप उससे बाहर निकलने का रास्ता क्यों नहीं खोजते हो? तुम्हें अच्छा जीवन जीना चाहिए!” उसके स्वर में उदासीनता झलक रही थी।
“क्या यह इतना आसान है? क्या आप अपनी वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए कुछ भी कर सकती हो?हमारे बच्चे हैं जिन्हें दोनों माता-पिता की ज़रूरत है!”
फिर से एक लंबी चुप्पी।
पत्नी से प्यार का अभाव, उसके बारे में उल्टा-सीधा बोलना, विवाहेत्तर रिश्ते की शुरूआती रणनीति होती है, जिसका अधिकांश पुरुष भावी साथी को लुभाने के लिए उपयोग में लाते हैं। मगर वह इतनी सरल थी कि मेरे जैसे अजनबी आदमी पर संदेह नहीं कर पाई, जो उसे प्रभावित करने के लिए इस तकनीक का उपयोग भी कर सकता है। वह अपनी स्वाभाविक बुद्धि पर विश्वास करती थी, जो कभी झूठ नहीं बोलती।
मैं उसे कॉफ़ी की दुकान पर लेकर गया, अभी भी हमारे हाथ में एक घंटा समय बचा हुआ था।
हमने अपने मूड को हल्का रखने और मुस्कुराने की कोशिश की, इधर-उधर की हल्की-फुलकी बातों को साझा भी किया।
मैंने दूर से ही सुगंधित चमेली जैसे सौन्दर्य को निहारा। वह अपने आप में खो गई थी, अपने घर पर फोन कर रही थी और मेरा इंतज़ार भी।
हमने पकौड़े खाकर कॉफ़ी पी। इस समय मेरे मन में एक असीम भावना पैदा हो रही थी, और मैं चाहता था यह समय यहीं थम जाए।
एयर-पोर्ट के सामने आदरपूर्वक हाथ मिलाते हुए एक-दूसरे से इस तरह विदा ली, मानो हम किसी सरकारी या निजी फ़र्म के पार्टनर हो।
मुझे अच्छी तरह याद है, आख़िरी बार जब मैंने उसे देखा था। मेरी आँखों में ताज़गी थी, उसकी आँखें थोड़ी नम, थोड़ी चमक रही थीं, और उसके चेहरे पर एक आकर्षक मुस्कान थी। ऐसी मुस्कान, जो सबसे घातक आतंकवादी को भी धाराशायी कर अपने प्रेम के गिरफ़्त में ला सके। मुझे उसका गौरवर्ण और आकर्षक शरीर साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। एक पल के लिए, मुझे उसकी ठुड्डी को छूने की इच्छा हुई और उसके छोटे बालों को सहलाने की भी। लेकिन क्या मैं ऐसा कर पा“या, अगर ऐसा करता तो मैं उस भद्र महिला का ‘सज्जन’ पुरुष कैसे रह पाता, और जीवन कुछ अलग ही होता।
इसलिए मुझ जैसे तेज़-तर्रार आदमी ने ख़ुद को वहीं रोक लिया और मैं सपनों की दुनिया में खो गया।
मैं उसके साथ जा रहा था, हवाई अड्डे के बाहरी परिसर में, ध्यान से उसकी तरफ़ देख रहा था।
देखते-देखते अन्य यात्रियों की पंक्ति में वह कहीं गुम हो गई।
अचानक उसने मेरी सरसरी निगाहों की तरफ़ देखा, जो उसका पीछा कर रही थी। वह विचलित हो गई थी, कई बार उसने पीछे देखा, और लगभग वह अपना रास्ता भूल गई थी।
बाद में, उसने मुझे बताया कि, उसके लिए यह वह क्षण था जब वह अपने आप पर सबसे ज़्यादा आश्चर्य कर रही थी, क्योंकि उस समय वह किसीके लिए ऐसा अनुभव कर रही थी, जैसा उसने अपने जीवन में पहले कभी किसी के लिए अभी तक महसूस नहीं किया था। उस समय उसे लगा था कि मैं पहले से ही उसे चाहने लगा था। काश! बिना किसी समझौते, और आदान-प्रदान के उसके दिल को छू लेता तो शायद कोई अन्य व्यक्ति वहाँ तक पहुँचने का कभी प्रयास नहीं करता।
अब वह और कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। उसके सामान की चेकिंग हो गई थी और वह भीतर चली गई।
मैंने उसे कुछ मैसेज भेजे, धन्यवाद देते हुए, खाने-पीने, हैंडबैग और लैपटॉप का ध्यान रखने के निर्देश देते हुए। फिर मैंने उसे टैगोर के नारी-पात्र के बारे में मैसेज भेजे, जो मुझे हमेशा से प्रेरित करता था और जिस पर मैं शोध-पत्र भी लिख रहा था, और आश्चर्य की बात यह भी थी कि टैगोर के नारी पात्र का नाम उसके नाम से मिलता-जुलता था।
“ओह . . . मुझे अब अपना नाम और ज़्यादा पसंद आने लगा है।”
क्या मैं सपना देख रहा था? क्या मैं किसी अकल्पनीय सोच में डूबा था? असंभव?
कुछ समय तक सिर घूमने-सा महसूस हुआ, थोड़ा ठीक लगने पर मैं गाड़ी चलकर वापस चला आया। मन और शरीर दोनों दूसरे का साथ नहीं दे रहे थे। दो घंटे बाद, जब उसकी उड़ान पूरी हुई, तो मुझे उसका एक मैसेज मिला, “पहुँच गई हूँ। ठंडा मौसम है। बारिश हो रही है।” और मैंने उसे फिर से धन्यवाद देते हुए मैसेज दिया और उसके सुरक्षित घर पहुँचने की कामना की।
दो दिन बीत गए थे। माधवी मेरे दिमाग़ में छाई हुई रहती थी, अधिकांश समय तक।
उसकी मुस्कुराहट, उसके संघर्ष की कहानी, उसकी आशावादिता, उसकी महत्वाकांक्षाएँ, उसकी हर चीज़ मुझे अपील कर रही थी। यह परिपक्व उम्र का प्यार था? मैं तो आसक्त नहीं था, मुझे यक़ीन था, मन ही मन विचार कर रहा था, क्या वह मेरे बारे में वह ऐसा ही सोच रही होगी?
मेरे मन के किसी कोने में ख़्याल आ रहा था कि क्या वह मेरी दोस्त बनेगी; और मन के दूसरे कोने में ऐसा लग रहा था कि अवश्य वह मुझे भूल जाएगी। आख़िरकार, सेलिब्रिटी को अपने व्याख्यान देने के लिए कई स्थानों पर जाना पड़ता है, हर रोज़ नए लोगों से मुलाक़ात करनी होती है। उसे लोगों को भूलकर अपने काम पर ध्यान केंद्रित करना ही पड़ेगा, जो न्याय-संगत भी था।
मुझे ठीक नहीं लग रहा था, मैं मिस कर रहा था, आशा के विपरीत आशा लगाकर बैठा था कि कहीं वह वापस आ जाए।
दो दिन की चुप्पी के बाद, वैसे भी, उसने मुझसे खुलकर कहना चाहा, “मेरे दिमाग़ में कुछ है, जो मुझे हर समय परेशान करता है। पता नहीं क्या! क्या आप बता सकते हो? आप मेरे मन को अच्छी तरह से समझते हो।”
हे भगवान! मैं क्या लिखने जा रहा था? अपने रिज़र्व नेचर के कारण यह मैसेज भेजने से पहले उसने हज़ार बार अवश्य सोचा होगा।
“यह वास्तव में गंभीर मसला है। कोई-न-कोई ज़रूर सुंदर महिला के दिमाग़ को परेशान कर रहा है?” मैंने इसे सरल भाषा में मज़ेदार लहजे में लिखा और जान-बूझकर नहीं समझने का स्वाँग भरा।
उस दिन हमने कुछ और मैसेजों का आदान-प्रदान किया। देर रात उसका मैसेज आया, “प्रो. माधवी इस समय बिना किताब के सोफ़े पर लेटी हुई है, बुरी बात है, बहुत बुरी। है न?”
मुझे समझ में आया और साफ़ तौर पर इस बार मैंने लिखकर हामी भरी।
जोश और हास्य दो गुण उसके चरित्र में कूट-कूटकर भरे हुए थे; वह आगामी दिनों, सप्ताहों, महीनों और वर्षों के लिए मेरी रुचि, शोध, विश्लेषण, विचार, प्रेम और ध्यान की वस्तु बन गई। मेरी ज़िन्दगी का प्यार। वह मुझे अपने रचनात्मक लेखन और शोध-पत्र मेरी टिप्पणी के लिए भेजती रहती थी। मुझे शुरू-शुरू में संकोच लग रहा था। वह एक स्थापित लेखिका थी और मैं, आख़िरकार, एक अनिर्वचनीय अकादमिक था। तरह-तरह के विचार मेरे मन में आ रहे थे कि उसे मेरे सुझाव या सुधार कैसे लगेंगे। मैं अक़्सर नुक़्सान में रहता था। लेकिन धीरे-धीरे मुझे अहसास होने लगा कि मुझे अपनी भूमिका को गंभीरता से निभाना चाहिए। उसे मेरी क्षमता में बहुत ज़्यादा विश्वास था, जितना किसी और को नहीं था। वह मेरे लेखन, भाषण और समीक्षा को ‘आउटस्टेंडिंग’ मानती थी, जिसके कारण कुछ हद तक मुझे मानसिक दबाव अनुभव होने लगा था। वह कहती थी कि मेरे पास एक विशेष क़िस्म की बुद्धि थी, जो पूरी तरह से कच्ची, आदिम और मौलिक थी। मेरे साथ प्रत्येक शैक्षणिक बातचीत के बाद उसने अनुभव किया कि उसका दिमाग़ और तेज़ी से चलता था।
अंतराल में हम एक-दूसरे को लगातार मैसेज भेजने लगे। जिससे मुझे हमेशा यह पता रहता था कि वह उस समय क्या कर रही होगी, 2000 किलोमीटर दूर रहने पर भी। उसका टेलीफोन मेरे लिए ‘स्टैंड-इन प्रॉक्सी’ बना हुआ था, क्योंकि मेरी अनुपस्थिति उसके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। किस दिन उसने कौन-से कपड़े पहने हुए है, उसने क्या खाना बनाया या किस रात रेकी की, मुझे हमेशा पता रहता था। मैं उसकी हर कविता और कहानी पढ़ता था, मैं उसके हर साक्षात्कार को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया देता रहता था और विगत पच्चीस सालों में उसके द्वारा दिए गए व्याख्यानों पर भी अपने विचार व्यक्त करता था। मुझे उसके बेटे के बारहवीं बोर्ड के परिणाम, कॉलेज में प्रवेश, घर के त्योहार, उसकी हर बीमारी और उसके बेटे की शादी आदि की जानकारी मुझे फोन के माध्यम से मिलती-रहती थी। मैंने उनके जीवन के हर छोटी-सी चीज़ का विशेष ध्यान रखता था, 2000 किलोमीटर दूर बैठे हुए भी।
धीरे-धीरे लंबी दूरी का रिश्ता आत्मा से आत्मा को जोड़ने वाला बन गया। ज़िन्दगी भर वह रहस्यमयी जीवन जीती रही, एक उदासीन जीवन, रियरव्यू मिरर पर अपने अस्तित्व की तलाश करते हुए। वह अकेली थी, अपनी आत्मा पर गहरे ज़ख़्म लिए। धीरे-धीरे मैं उसके लिए ऐसा पात्र बन गया, जिसमें वह अपनी सारी निस्संगता उड़ेलती रहती थी।
हमारी आख़िरी मुलाक़ात के तीन महीने बाद, उसने मुझसे केवल एक बार मिलने की कोशिश की थी।
मैंने यह कहकर बहुत बड़ी ग़लती कर दी कि, “मुझे उन जगहों पर आमंत्रित कर प्रोमोट करने की ज़रूरत नहीं है, जहाँ आप स्वयं मुख्य वक्ता या मुख्य अतिथि बनकर जाती हो।” उसके बाद उसने तय किया कि वह मुझे और कभी नहीं मिलेगी। कभी नहीं। कभी नहीं।
उसका चरित्र बहुआयामी था। प्रति दिन, प्रत्येक मैसेज, प्रत्येक ई-मेल, प्रत्येक फोन कॉल मेरे सामने उसके व्यक्तित्व का नया रूप प्रकट कर रहा था। ऐसा करते-करते एक सप्ताह, दो सप्ताह, महीने, वर्ष गुज़रते चले गए। देखते-देखते पच्चीस साल गुज़र गए, मगर वह मुझे कभी नहीं मिली।
एक बार मैंने उससे कहा था, “मुझे तुम्हारा नाम बहुत पसंद है, मगर मैं तुम्हें ‘मीता’ नाम से बुलाना पसंद करूँगा। मेरी मीता, मेरी जीवन-संगिनी।”
वह बहुत ख़ुश थी, मेरी मीता, मेरी चमेली, मेरी मम्म। वह मुझे फोन पर यह कहकर प्रतिक्रिया देती थी। उसकी सादगी, मासूमियत, बाल-सुलभ गुण मुझे हर बार आकर्षित करते थे। रॉबर्ट ब्राउनिंग की लास्ट डचेस की तरह वह मेरे प्यार की छोटी सी अभिव्यक्ति से अभिभूत हो जाती थी। उसकी विनम्र सराहना करने पर उसका चेहरा शर्म से झुक जाता था। लेकिन अपनी सफलता से वह कभी भी फूली नहीं समाती थी, उसने अपनी उपलब्धियों को सर्व-साधारण भाव से स्वीकार कर लिया था।
मीता की घ्राण-इंद्रिय बहुत तेज़ थी। वह कहती थी, “मैं गन्ध के प्रति बहुत जागरूक हूँ। कोई भी गंध मेरे लिए बहुत मायने रखती है।”
“मगर हर शाम मैं सूअर का बच्चा बन जाता हूँ! प्रतिदिन पचास किलोमीटर की यात्रा सार्वजनिक परिवहन से करता हूँ, और आप तो अपनी कार से यात्रा करती हो। आप चमेली हो और मैं सूअर का बच्चा।”
“सूअर का बच्चा भी प्यारा होता हैं। मुझे प्यारे सूअर के बच्चे से प्रेम है।”
मैंने उसे हँसाया, ख़ूब हँसाया, अपने आप पर व्यंग्य करते हुए।
“क्या आप जानते हो कि मैं अपनी पसंद के आदमी में कौन-से चार आवश्यक गुण देखती हूँ? मेरी नज़रों में वह दिल से संवेदनशील और ईमानदार होना चाहिए। वह कला, साहित्य, संस्कृति और संगीत का अनुरागी होना चाहिए। उसकी घ्राण शक्ति तेज़ होनी चाहिए और ख़ासकर उसे मुझे हँसाना आना चाहिए।”
आह ह! कितनी सादगी थी उसके व्यक्तित्व में! वह समृद्ध, सफल और सुंदर औरत थी। लेकिन उसकी ज़रूरतें बहुत ही कम थी।
एक बार जब मैंने उसे चिढ़ाते हुए हल्के मूड में कुछ स्माइली भेजी, और उसने मुझे वापस मैसेज किया, “आप मुझ पर हँस क्यों रहे हो?” और जब मैंने कैपिटल अक्षरों में कुछ शब्द लिखे, तो उसने लिखा, “क्या आप मुझ पर चिल्ला रहे हो?” कितनी गहरी संवेदनशील थी वह! ऐसा लग रहा था कि वह ऐसे परिवार से आई है, जहाँ कुछ ऐसे संस्कार उसके रक्त में घोल दिए है कि किसी लड़की को चिल्लाना नहीं चाहिए, उसकी आवाज़ तेज़ नहीं होनी चाहिए कि पास वाले कमरे में सुनाई दे। वह किसी प्रकार का शोर, किसी भी तरह की हिंसा और असभ्यता को सहन नहीं कर सकती थी।
यह मेरी मीता थी—अतिसंवेदनशील।
उस दिन मैंने उसे एक मैसेज भेजा, “किसी आदमी ने, जिसे मैं ज़्यादा नहीं जानता, मुझे कुछ समय पहले बताया कि तुम्हारा किसी ज़िंदा-दिल व्यक्ति से संपर्क हुआ है और उस व्यक्ति ने अपनी आत्मा किसी 'बेजान' हृदय में डाल दी है। अब उसे बार-बार उससे सलाह-मशविरा करने और मदद लेने की ज़रूरत पड़ती है।”
“बेजान? मदद? उन शब्दों पर मैं थूकती हूँ। आप तो विशाल हृदय वाले थे, निर्बल आदमी की तरह सोचने की हिम्मत कैसे कर सकते हो? बकवास न करें। आख़िर मीता सबके लिए समान है।”
उसकी छोटी-सी इच्छा पर, मैं सारी दुनिया न्यौछावर करने को तैयार था। लेकिन मीता किसी भी बदलाव से डर रही थी। उसका फोन नंबर दशकों से वही था। उसका पसंदीदा रंग सफ़ेद था, हमेशा से। पसंदीदा गायक-लता जी; उसका सबसे अच्छा दोस्त और प्रेमी, मैं। सदैव। वह कभी नहीं चाहती थी कि उसके किसी भी निर्णय के कारण उसका परिवार दुखी हो।
“. . . मैं तुम्हारे जीवन का हिस्सा बनना चाहती हूँ, लेकिन मैं अपनी ज़िम्मेदारियाँ किसी दूसरे के कंधों पर नहीं थोप सकती। यदि आप चाहते हो कि मैं सब कुछ छोड़ कर तुम्हारे पास चली जाऊँ, तो मैं ऐसा नहीं कर सकती। स्वीटहार्ट! मैं तुम्हें कभी ‘नहीं’ नहीं कह सकती! मैं बहुत स्वार्थी हूँ, तुम्हें पाने के लिए। लेकिन कृपया मुझे मेरी ज़िम्मेदारियों से दूर मत करना। अगर मैं ऐसा करती हूँ, तो आप उस स्त्री को नहीं पा सकोगे, जिसे आप प्यार करते हो। मुझे पछतावा होगा, अफ़सोस लगेगा, और जो मुझे पूरी तरह से बदल देगा।”
लेकिन मैं हमेशा यही चाहता था कि वह जैसी है, वैसी बनी रहे। भ्रमणशील, विंटेज, क्लासिक, आधुनिक महिला, जो पूरी तरह से निःस्वार्थी थी। अजब विडम्बना थी! अगर वह ऐसी नहीं होती तो मुझे नहीं लगता है कि जो मैं आज हूँ, वैसा होता। अपने पत्रों और मैसेजों में, उसने मुझे एक ब्रह्मांड प्रदान किया और मुझे व्यापक इकाई बना दिया, जो बाद में टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर चुका था और वह कहती थी, मैंने उसमें प्राण फूँके हैं, उसके टुकड़े-टुकड़े को जोड़कर। यहाँ तक कि जब हम अपनी चेतनावस्था में नहीं रहते थे, फिर भी हम एक-दूसरे का आकर्षण महसूस करते थे। हम हमेशा के लिए एक-दूसरे के बँधन में बँध चुके थे। देखते-देखते हम जवानी से वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हो गए। उसने कभी भी मेरे शरीर का स्पर्श नहीं किया, मगर मेरे हृदय को अदृश्य स्पर्श अवश्य किया था।
उसका अपना परिवार था, मगर वह दुखी थी कि मेरे साथ कोई नहीं है। फिर भी वह मेरा हर पल साथ निभा रही थी, मेरी नींद में, जागते समय, मेरे दिल और आत्मा में। उसने मुझे प्यार का असली मतलब समझाया–पहली बार मुझे पता चला कि प्यार का भी कोई अस्तित्व होता है!
जितना कुछ होने पर भी हमने हमारे प्यार को कभी सार्वजनिक नहीं किया। हमारे दिल की व्यथा किसी को कभी नहीं बताई। न कभी मिले, न कभी जुदा हुए। फिर भी ऐसा लग रहा था मानो हमारा दिल टूटा हुआ था। हम अकादमिक हलकों की हर छोटी ख़बर को गंभीरता से ले रहे थे, जैसे प्रो. जे.बी. परित एक साल में पचास शोध-पत्र लिख सकते हैं; छात्रों के विरोध को नज़रअंदाज़ करते हुए दिल्ली यूनिवर्सिटी चार साल का बी.ए. ऑनर्स कोर्स शुरू करेगा; देश में दस नए केंद्रीय विश्वविद्यालय खुलेंगे और पंद्रह नए आईआईटी; और इतना कुछ होने के बाद भी हमारी चेतना में कोई ख़ास हलचल नहीं होती थी।
मगर प्रोफ़ेसर माधवी श्रीवास्तव, प्रसिद्ध लेखिका, अगर किसी श्री ए, बी या सी के साथ दिखाई दे दी तो वह राष्ट्रीय स्तर की ख़बर बन जाएगी। ब्रेकिंग न्यूज़! सेमिनारों में, विश्वविद्यालय के गलियारों में चर्चा का विषय, हर प्रकार के न्यूज़ रिपोर्टर द्वारा मिर्च-मसाला मिलाकर बनी-बनाई ख़बर। इसलिए हमने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि दुनिया में किसी के कानों-कान ख़बर नहीं कि विगत पच्चीस साल से प्रोफ़ेसर माधवी श्रीवास्तव घमंडी, ‘फुल ऑफ़ एटिट्यूड’ वाली लेखिका कभी-कभी मैं उसे मिस एटी कहकर चिढ़ाता था! मेरा प्यार बनी हुई थी। जिसे मैं प्यार से ‘पगली मीता’ कहता था, सरल और सबसे आकर्षक महिला थी वह!
मीता छोटी-छोटी बातों पर अपने निर्णय तुरंत लेती थी, “आप मुझे प्यार नहीं करते हो। तुम्हारे पास मेरे लिए समय नहीं है।” ऐसे भी दिन थे, जब मैं एक लोकल ट्रेन में दो मोटी चाचियों के बीच सेंडविच बनकर बैठा हुआ था, और उस लड़की का कॉल आया। बहुत कठिनाई से मैंने अपनी जेब में से मोबाइल निकाला और कहने लगा, “हेलो!”
“हे भगवान, आप हमेशा सड़कों पर घूमते रहते हो?”
“हेलो . . . आवाज़ नहीं आ रही है, बेबी!”
“ओह प्लीज़, आप चिल्ला क्यों रहे हो? क्या कहीं दर्शकों को संबोधित कर रहे हो?”
उसके बाद नेटवर्क कट गया। तुरंत दो मिनट के बाद, उसने मुझे मैसेज भेजा, “आप मुझे प्यार नहीं करते हो। मुझे और फोन करने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हारी मीता नहीं हूँ . . . ”
उस उदास महिला ने मुझे बांग्ला गीत याद दिला दिया, “ओ मो मीता, मोरो सुदूरेर मीता”, और एक ओड़िया गीत, “मो प्रिया थारू किए अधिका सुंदर . . . ” यह गाना मुझे तब से याद है जब मैं भुवनेश्वर में रहता था अपने जवानी के शुरूआती दिनों में। और उसके बाद मुझे अगले चार-पाँच घंटों तक बैठकों, अकादमिक परिषदों, स्कूल बोर्ड, बाथरूम से उसे रिझाने के लिए मैसेज भेजने पड़ते थे, उसकी ख़ुशामद करनी पड़ती थी, उसके साथ फ़्लर्ट करना पड़ता था।
लेकिन उस संवादहीन अवधि की नीरवता हमारे रिश्ते को और मज़बूत बनाती थी।
“मीता . . . बात करते समय, हो सकता है, मेरे शब्दों ने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। नहीं, तो आप मज़ाक कर रही हो। सवाल यह नहीं है कि कौन सही है और कौन ग़लत है, बल्कि इसके बारे में सबसे अच्छा तरीक़ा क्या है, यह खोजना है। मैं निश्चित रूप से तुम्हारा ग़ुलाम नहीं होना चाहता हूँ। आप एक अच्छी इंसान हो, प्रतिष्ठित महिला हो, और पहले से ही जीवन में पर्याप्त परेशानियाँ झेल चुकी हो। कृपया मुझसे बात करें।”
तब जाकर वह मेरा फोन उठाती थी।
मेरे दिन-रात ख़ूबसूरत तरीक़े से बीत रहे थे। वह उन्हें सुंदर बना रही थी। मुझे उससे प्यार हो गया था—गहरा प्यार, पागलपन भरा प्यार, बुरी तरह से।
एक बार उसने मेरी कॉल उठाई, तो पंखुड़ी-दर-पंखुड़ी वह अपने आपको खोलती चली गई। वह अपनी संवेदनाओं को सशक्त शब्दों में व्यक्त कर रही थी। वह मेरी सरस्वती थी। मुझे उसकी काव्य-कविताएँ बहुत पसंद आती थी, प्रत्येक कविता को अत्यंत ही सहज-भाव और वाक्पटुता के साथ लिखती थी। वह ऐसी थी, जो सोचा करती थी कि एक दिन अपनी छाती पर किताब रखकर पढ़ते-पढ़ते मर जाएगी। मैं कभी-कभी उसकी कविता की खुले मन से सराहना करता था, उसके मनोभावों को ऊँचा बनाए रखने के लिए।
वह लिखती थी, “नहीं . . . काव्य-कविता की बात मत किया करो। हाँ, मैंने बहुत सारी क्लासिक कविताएँ पढ़ी हैं, मगर आधुनिक कविता? आधी मेरे सिर के ऊपर से गुज़रती है—मेरा मतलब शब्दों से नहीं है, लेकिन लोग विशेषणों के लंगर की जुगाली करते हैं—वह मुझे समझ में नहीं आता। काश, कुछ तार्किकता के बिच्छू इन कवियों की पीठ पर डंक मार देते। आप आधुनिक कवि केवल छींकना जानते हो। मिर्च पाउडर से भरे मेरे इस रुमाल को उनके चेहरे पर उँडेल दीजिए।”
कैसा-कैसा मज़ाक! मज़ाकिया मीता। बहती नाक वाली मज़ाकिया लड़की।
हम हर दिन के हर छोटे-बड़े विवरण का साझा करते थे। एक बार उसने लिखा, “अभी-अभी मैंने एम.ए. अँग्रेज़ी के छात्रों को डोवर बीच पर व्याख्यान दिया। याद आई मुझे उस प्यारी कविता की, जिसमें कोई मेरे लिए अपने प्यार की क़सम खाता है!”
“वह मेरी पसंदीदा कविता है, मीता! जिसमें प्रेम रामबाण औषधि की तरह दिखाया गया है। अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही प्यारी हैं। मैं जीवन में साहित्य देखता हूँ। सच है, साहित्य मुझे हर हारी हुई लड़ाई के बाद उठ खड़े होने की हिम्मत देता है। मेरे जीवन में अधिकांश बार मैं अपने आपसे हारा हूँ।”
मुझसे एकदम विपरीत, मीता बहुत ज़्यादा आत्म-प्रेरित महिला थी। वह कहती थी, अगर उसका मूड हुआ, तो वह हवा के झोंके जैसे मीलों दूर उड़ कर चली जाएगी। नहीं तो, हज़ार घोड़े भी उसे एक इंच तक नहीं खींच पाएँगे। परन्तु अपने रचनात्मक कार्यों के दौरान, वह पूरी तरह से अभेद्य गंभीर, चुपचाप अवहेलित रहती थी। एक बार जब मैंने उसे हमारे पाठ्यक्रम की कविता व्याख्या करने के लिए भेजी तो उसने कुछ ही मिनटों में अपना क्रिटिकल कमेंट मुझे मेल कर दिया। सही में, वह बहुत प्यारी थी!
“ओह . . . मीता हमेशा पॉवरफुल। मेरी व्याख्या अद्वितीय है।”
वह बुरी तरह से बेचैन हो जाती थी, अगर कुछ भूल जाती थी, चाहे किसी पुराने दोस्त का नाम हो या लता मंगेशकर का गीत। याददाश्त खो जाने को भयानक बीमारी मानती थी। मातृत्व से अछूती युवा-लड़की का खिलखिलाता चेहरा था उसका। मीता ख़ुद एक बहती हुई कविता थी, गहरी, सुगन्धित, उसके कानों में फुसफुसाए मेरे प्यार भरे शब्दों से पिघलने वाली।
उसके पति की कभी भी सेक्स में दिलचस्पी नहीं रहती थी और उसके पहली शादी से एक पुत्र संतान हुई थी। जिसे वह बिस्तर पर साथ लेकर हमेशा सोया करती थी, यह आदत तब जाकर ख़त्म हुई, जब तक उसका ललित कला के अध्ययन के लिए किसी छात्रावास में दाख़िला नहीं हो गया। इससे पहले भी, उसके बेटे की रात को 9 बजे तक सोने की आदत थी। मीता को नींद-विकार, अनिद्रा की बीमारी थी। वह मुश्किल से दो घंटे लगातार सो पाती थी। उसका पति प्रेमी कम, दोस्त ज़्यादा था, जो हमेशा अपने कैरियर के प्रति चिंतित रहता था। उसकी आदतों के अनुसार उसने अपने को ढाल दिया था, जल्दी डिनर करना, भोजन करते समय टीवी देखना, और उसके बाद साढ़े नौ बजे घर के सारे दरवाज़े बंद करना। सोते ही वह खर्राटे लेने शुरू कर देता था और मीता बेटे को सुलाने के लिए या तो संस्कृत श्लोक पढ़ती थी या फिर उसे बिस्तर पर कहानी सुनाती थी। वह एक असाधारण माँ थी। वह ख़ुद नैतिकतावादी थी, इसलिए वह अपने बेटे को सर्जनशील तरीक़ों से सकारात्मक मूल्य सिखाना चाहती थी। वह अपनी पसंद के व्यंजन बनाती, उसे धैर्य के साथ पढ़ाती, उसकी दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक बनकर। उसके बेटे के सोने के बाद, वह अकेली हो जाती थी, उसकी किताबें, स्टडी टेबल, बेड लाइट, मोबाइल, लैपटॉप उसका साथ निभाते थे। वह नींद नहीं आने के कारण करवटें बदलती थी, मगर उसके भीतर दूसरा व्यक्ति जन्म लेता था, जो उसकी गर्दन को सहलाना चाहता था, उसकी त्वचा को छूना चाहता था, प्यार करना चाहता था। रात के बाद रात, वह अपने अकेले बिस्तर पर, अपने प्यारे नाइट सूट, हवा में उड़ते हुए बाल, अपने बेडरूम की खिड़की से पक्षियों, बादलों, सितारों को देखकर, मेरे बारे में सोचते हुए सोने का प्रयास करती थी। एक रात उसने मुझे एक हाइकु भेजा:
“मेरी निद्रा और अनिद्रा
लुका-छिपी खेलती हैं।
क्या कोई मेरे भीतर जाग रहा है?”
उस समय हमने आधी रात को बात करना शुरू किया था। पार्श्व संगीत या तो एयर कंडीशनर की आवाज़ होती थी या उसके पति के खर्राटों की।
पहले कुछ दिनों तक हम अपनी दिनचर्या, रचनात्मक लेखन, बाल-बच्चों की, हमारे लड़ाई-झगड़े और उनकी सुलह पर बातचीत करते रहे। एक बार मैंने उससे फोन पर गीत गाने की गुज़ारिश की और उसने मुझे अपनी सुरीली आवाज़ में एक गाना सुनाया। आज भी जब वह गाना याद आता है तो मेरी आँखों में आँसू आ जाते है।
उसे अपने जीवन में क्या मिल रहा है? वह प्यार से लबालब भरी हुई है, उसका दिल प्यार का महासागर है और वह चाहे तो, उसमें एक साथ हज़ार जहाज़ों को डुबो दे, फिर भी उसे अपनी तलाश के लिए एक फेरी तक नहीं मिल रही है!
उसकी आज़ादी में ऐसी क्या बाधा आ रही है, जिससे उसकी भावनाएँ अवरुद्ध हो रही है? सांस्कृतिक दीवारें पुरुषों और महिलाओं के बीच खुले और प्राकृतिक संबंधों को क्यों रुकावट पैदा कर रहीं हैं? रिश्तों में आत्मीयता और उत्तेजना की कमी क्यों है? यहाँ शादी से पहले यौन-प्राथमिकताओं पर बातचीत क्यों नहीं की जाती हैं?
एक रात उसने लिखा, “नींद नहीं आ रही है। राग हंडोल और राग दूत सुन रही हूँ; कंप्यूटर पर काम करते हुए।”
“बहुत काम कर लिया। अब आराम करो।”
“थोड़ी-सी भी नींद कैसे आएगी? कृपया उसकी तरकीब बता दीजिए।”
“क्या यह मेरे लिए छलावा नहीं होगा, जब मुझे सोचना बंद करते ही नींद आ जाती है और नींद के तरीक़े बताने से हृदयाघात? हो सकता है कि आप अपनी पसंद की किताब खोलकर बिस्तर पर सोते-सोते पढ़ने की कोशिश करो! क्या कभी आपको लगता है कि कोई आपके शरीर पर उँगलियों से खेल रहा है, जब आप सोने की कोशिश में कुछ पढ़ रही होती हो?”
नीरवता . . .
अगली सुबह उसने उत्तर दिया, “टुकड़ों-टुकड़ों में नींद आई। मेरी उँगलियों से खेलने और मुझे सुलाने के लिए धन्यवाद। अभी भी शरीर उनींदा और सुन्न लग रहा है। नींद की ख़ुमारी अभी भी नहीं टूटी।”
मीता मानती थी, प्रेमासक्ति का उसके स्वच्छ, अनुशासित जीवन में कोई स्थान नहीं है। उसके घर में किताबें, डिज़ाइनदार फ़र्नीचर, बड़े-बड़े वार्डरोब और बड़ी-बड़ी कारों की जगह है। नौकर-चाकर है देखभाल करने के लिए, हर सप्ताह के अंत में बच्चों को पार्टी, शुक्रवार की रात को पति द्वारा शराब की पार्टी, बाद में टी.वी. के कार्यक्रम, क्रिकेट पर बहसबाज़ी, रिश्तेदारों के फोन या बिना किसी नोटिस के उनके यहाँ आ धमकना—कितना कुछ नहीं था उस घर में।
लेकिन घर में सेक्सुयलिटी का कोई स्थान नहीं था। सेक्स पर कोई बात नहीं होती थी। पूरी तरह से विचार-विमर्श का वर्जित क्षेत्र था यह। वह औरत, जिसे सेक्स की ज़रूरत है और वह उसकी माँग करती है, निश्चित रूप से उसे उस घर में फूहड़ औरत कहा जाता है। “औरत . . . कोई क्या ख़ुद को फूहड़ कहलवाने की हिम्मत करती है!” उसे कहा गया था। यह उसके पति ने स्पष्ट रूप से उसके कान में डाल दिया था, ज़ोर से कहते हुए, मानो उसने एक अध्यादेश पारित किया हो, अलिखित। उसके पति के पास बहुत काम का दिमाग़ था, वह हर चीज़ में चरम पर था। चरम स्तर पर आत्म-मुग्धता और आत्म-धार्मिकता का क़ैदी था वह। अक़्सर उनके आस-पास के कई परिवारों की बेहूदा विद्रूपताओं से नफ़रत भरे जीवन के उदाहरण देता था वह। क्या उनमें कुछ समझदार, विचारशील लोग नहीं हो सकते हैं! शायद थे भी; इसलिए उसने अपनी पत्नी के प्रति संवेदनाहीनता का तार्किक रास्ता खोज लिया। इस तरह वह महिला के मूल अधिकारों से वंचित हो गई। वह इस विचार की खिल्ली उड़ाता था कि किसी महिला को लाड़-प्यार की ज़रूरत भी होती है, इसलिए उसे मनाना चाहिए।
जबकि मैं देर रात तक बातचीत के दौरान उसकी प्रशंसा करता था; उसकी छोटी-छोटी बातों में ख़ुशियाँ खोजता था। मैंने उसे समझाया कि मन में सेक्स की इच्छा होना कोई पाप नहीं है। यही तो इस सृष्टि का आधार और प्रमुख प्रवृत्ति है। मेरी तारीफ़ सच्ची थी, वह जानती थी। वह मेरे भीतर डूबी हुई थी, मेरी हल्की-सी आवाज़ भी उसे दूसरी दुनिया में बहा ले जाती थी और वह उन पलों को सहेजने के लिए वह मुझे प्यार करने लगी थी, जब-जब मैं प्रेमासक्ति वाले मैसेज या ई-मेल भेजता था, तब-तब आभासी प्रेम की रात ख़त्म होने के बाद सुबह जब वह उठती थी, तो उसका चेहरा तरोताज़ा, तनावमुक्त, मुस्कुराता हुआ नज़र आता था। उसकी त्वचा के रोमछिद्र खुल जाते थे, इच्छा-पूर्ति होने से आँखें चमक उठती थीं।
उन दिनों, उसने मुझे एक बार कहा था कि वह अच्छा महसूस कर रही है, वह ख़ुश है। वह मेरे हाथों में हल्की, ऊष्म और स्त्रैण अनुभव करती थी। मैं उसके लिए आभासी-वास्तविकता बन चुका था। और उन दिनों वह हमेशा मुस्कुराती रहती थी; मैं उसके होंठों पर रजत-मुस्कान की तरह चिपक गया था। वह मेरी इच्छाओं के पूल में नग्न तैरना चाहती थी। उसने लिखा था, “तुम्हारी विद्वता ने मुझे ऐसी ठंडक पहुँचाई है, एक ऐसी दुनिया बनाई है, जिसमें केवल हम दोनों रहते हैं और मैं झूलती रहती हूँ। तुम्हारे शब्दों ने मुझे ऐसा जोशीला दर्द दिया है कि मुझे मेरी उन बातों का पता लगाना है जिसके बारे में मुझे अभी तक जानकारी नहीं थी।”
एक बार मुझे बताया कि आज भी उसे मेरे शरीर की सुगंध याद है, जब वह एयरपोर्ट जाते समय मेरे बग़ल में बैठी थी। स्वच्छ, फेनिल गर्म, मूलत: सभ्य आदमी की सुगंध थी वह, उत्तेजक-मादक भी। हे भगवान!! वह शब्दों से जूझना जानती थी। उसके केवल शब्दों ने, हमारे प्रेम को दो दशकों से अधिक समय तक जीवित रखा! बस तीन घंटे की मुलाक़ात ने दोस्ती की लौ जला दी हमेशा के लिए, केवल शब्दों की बदौलत!
दो शहरों, दो ज़िंदगियों में शब्दों की एक सरिता बहती थी और दूसरी सरिता उसके नरम चुंबन, मुस्कान, आँसू, पत्र, मैसेज, ई-मेल और हृदय में . . .
लेकिन यह प्रेम भौतिकता से बहुत परे था। मेरे प्रति प्यार उसके लिए, शुद्ध भक्ति थी मीरा बाई की भक्ति की तरह।
मेरे लिए, वह बेहद ख़ूबसूरत थी जिस पर मैं कभी हावी नहीं होना चाहता था, फिर भी वह पूरी तरह से जीतना पसंद करती थी, ठीक उसी तरह जैसे वह चाहती थी कि मैं उससे प्यार करूँ। दो हज़ार किलोमीटर दूर सुनसान रातों में, मेरे कानों में, मेरे श्वास-प्रश्वास में, मृदु चुंबन में, वह कहती थी कि उसे संभोग-सुख जैसा आनंद मिल रहा है। कितनी दयनीय बात थी! एक सुंदर, प्रेम-पुजारिन, जिसने कभी कोई पाप नहीं किया था, वह अपने जीवन में संभोग-सुख से वंचित! हालाँकि उसके एक बेटा था, लेकिन उसके जीवन में प्यार नामक कोई चीज़ नहीं थी। शायद पहली शादी के वैवाहिक बलात्कारों से वह गर्भवती हुई होगी। हर समय वह मेरे बारे में ही सोचती थी और मुझसे पूछती थी कि क्या मानसिक कामोत्तेजना वास्तव में शारीरिक कामोत्तेजना से अलग होती हैं? मैं उसकी इस मासूम जिज्ञासा का क्या उत्तर देता, सिवाय दो बूँद आँसू टपकाने के।
अब उसे मेरी जिज्ञासु शक्ति पर भरोसा होना शुरू हो गया था। मैंने उसे अपने आधिपत्य में जकड़ लिया था। वह ऐसे भयभीत थी कि किस अदृश्य शक्ति मुझे उसके साथ जोड़ा था। उसके ‘स्व’ का बड़ा हिस्सा मेरे साथ था, और दूसरा हिस्सा उसके परिवार के पास। दोनों भाग निश्चित रूप से एक-दूसरे को बाधित करते होंगे। शरीर के धीरे-धीरे कमज़ोर होने से मैंने सोचा कि हमारा दिमाग़ में भी धीरे-धीरे यह लगाव ख़त्म हो जाएगा। और “यह अध्याय” हमेशा के लिए समाप्त। मगर ऐसा नहीं हुआ।
अपनी बंद आँखों से बंद करके मेरे बारे में सोचते हुए, वह महासागरों कि हवा और कच्ची रेत कि सुगंध को सूँघती थी, सुदूर गाँवों से आदिवासियों के नृत्य कि झंकार सुनती थी, भगवा वस्त्र में पुल पार करते हुए बौद्ध भिक्षुओं को देख सकती थी, मंत्र उच्चारण करते हुए, “बुद्धम् शरणम् गच्छामि।” फिर वह धीरे-धीरे, अपने फोन के रिसीवर पर बुदबुदाते हुए कहने लगती “ओह डियर . . . मैं खो गई हूँ . . . ” उस कमज़ोर क्षण में, मैं मेरा उत्तर होता था, “मीता, आप ऐसा जीवन क्यों जी रही हो जिसमें रोमांस, प्रेम, हमारे किचन रोमांस और मेरी कमी हो? ऐसे उत्तरदायित्व की भावना पर लानत है, जो आप पर प्रहार कर रही हो? अपने आप को ख़त्म क्यों कर रही हो? आप एक ख़ूबसूरत महिला हो, प्यार की देवी हो और आप जैसी की महिला का सेलिब्रेशन होना चाहिए, इस तरह से परित्याग नहीं!”
“आप मुझे यहाँ से निकाल क्यों नहीं लेते, अगर कर सकते हो तो? मैं अपने चूल्हा-चौका की सरल ज़िन्दगी जी रही हूँ। यह क़हर ढाने के लिए तुम्हें किसने कहा था? आपने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? क्यों?”
दूसरे छोर पर नीरवता थी, मैं समझ सकता था, बिना आवाज़ किए वह रो रही होगी, उसनेअपना सिर फोन से दूर रखकर था। मुझे बहुत दुख लगा, क्योंकि इससे मेरे सामने प्रकट हुई मीता की आवश्यकता, चिंता, अलगाव की व्यथा, उसकी असहायता और परित्यक्त होने का डर।
फिर तीन दिन तक वह चुप रही, मेरे और मेरे मीता के लिए यातना भरे तीन दिन। जीवन में पहली और आख़िरी बार, मीता से तीन दिनों का पूर्ण अलगाव।
मैंने लिखा, “मैं अच्छा आदमी कैसे हो सकता हूँ अगर मेरे मैसेज आपके चेहरे से चिंता की लकीरें नहीं मिटा सकते है, आपके हृदय को ख़ुशमिज़ाज नहीं बना सकते है, आपके दिमाग़ को शान्ति प्रदान नहीं कर सकते है। मैं अच्छा आदमी नहीं हो सकता हूँ अगर एक लंबा अंतराल आपका दुख कम नहीं कर सकता है और केवल सीने में दर्द पैदा करता है। मैं अच्छा आदमी नहीं हो सकता हूँ अगर मैं आपके कामों और नाटक, कुकरी और संगीत, रेकी और रेड वाइन में सकारात्मक परिवर्तन नहीं ला सकता हूँ। फिर से अपने ख़ूबसूरत प्यार का मूल्यांकन करें!”
“हम शायद तभी मूल्यांकन कर सकते है, जब हमारे पास कोई अच्छा विकल्प हो। लेकिन मेरे पास कोई भी विकल्प नहीं है। केवल आप ही हो मेरे पास, अच्छे या बुरे। इसलिए कोशिश करो अच्छा बनने थी।”
वह हमेशा से सरल और सीधी थी। मैं उसे 'गोडेस ऑफ़ स्माल थिंग्स’ कहा करता था।
छोटी-छोटी ख़ुशियों से वह बहुत ख़ुश जाती थी, छोटे-छोटे दुख उसे बहुत दुखी करते थे। वह रेड लाइट में भिखारिनों को देखती थी और उन्हें ग़ैर-सरकारी संस्थानों से व्यवस्थित करवाने का प्रयास करती थी और धूप में अपने बच्चों से भीख मँगवाने के लिए उन्हें डाँटती थी। वह सोचती थे कि दुनिया उसके जैसी है। एक दिन भारत के राष्ट्रपति की उसके यूनिवर्सिटी में विज़िट थी, दिहाड़ी मज़दूरों को और सड़क के किनारे बैठने वाले विक्रेताओं को काम पर आने से रोक दिया गया था, जिसके कारण उन्हें एक दिन भूखा रहना पड़ा था। उसने लिखा, “मुझे शर्म आती है कि मैं ऐसी जगह नौकरशाह हूँ जहाँ ‘मानव अधिकार’ केवल और शब्दकोश में शोभा दे रहा है। मैं ज़्यादा शर्मिंदा और असहाय हूँ, क्योंकि मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकी।”
वह केवल कुछ शब्दों से खेलने वाली कवयित्री नहीं थी, वह सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं, अपने मृतक नौकरानी के बच्चों की देखभाल करती थीं, झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों की शिक्षा का वित्तपोषण भी।
एक बार बातचीत के दौरान, उसने मुझे कहा कि वह अपने बेटे का घर-संसार बसाने के बाद अपनी नौकरी छोड़ देगी और बलात्कार और घरेलू हिंसा की शिकार और अलग-थलग पड़ी बच्चियों के उत्थान के लिए कुछ करेगी। उस दिन से मेरे मन में उसके प्रति श्रद्धा के भाव और अधिक बढ़ गए।
उसने लिखा था, “जब मैं इन औरतों को, विशेष रूप से बच्चियों को देखती हूँ, तो मुझे बेचैनी होने लगती है, उन्हें यह भी पता नहीं चलता है कि उनका यौन-शोषण भी किया जा रहा है! मेरा घर, मेरी कारें, मेरी किताबें जो मुझे प्रसिद्धि दिलाती हैं, और विलासिता के सारे सामान जो मेरे पास उपलब्ध हैं—मुझे सब व्यर्थ लगते हैं जब मैं इन महिलाओं को गली के आवारों का शिकार होते हुए देखती हूँ। जब मैं दो-तीन साल के बच्चों को पीवीआर सिनेमा या साकेत सिटी वॉक मॉल के बाहर पड़े हुए या गुलदस्ता बेचते हुए देखती हूँ, मुझे व्यवस्था से नफ़रत होने लगती है। उनके ऊपर इतना अत्याचार होना क्या ठीक है? किसी को उन्हें अपने अधिकार समझाने चाहिए! किसी को उनके लिए लड़ना चाहिए। बाबू, ऐसा लगता है जैसे मैं कुछ बड़ा कार्य करने के लिए अपने आपको तैयार कर रही हूँ। जीवन के किसी बिंदु पर, मैं सब-कुछ छोड़कर गलियों-सड़कों पर चली जाऊँगी और ज़रूरतमंदों के लिए आश्रय गृह, सार्वजनिक पुस्तकालय बनाऊँगी, क्योंकि केवल शिक्षा ही उन्हें प्रबुद्ध बना सकती है। और उसके बाद, मैं नवोदित प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए एक प्रकाशन-गृह भी खोलूँगी। इन सारे कामों में मुझे तुम्हारी सहायता की ज़रूरत है।”
वास्तव में बहुत महत्वाकांक्षी थी वह!
हर चीज़ में वह महत्वाकांक्षी वह महिला थी, अपने घर में किसी भी अतिथि के लिए अपने विस्तृत मेनू से लेकर ज़रूरतमंदों की मदद करने और जन-समुदाय के लिए सार्वजनिक पुस्तकालय बनाने तक। उसके लेखन में भी ऐसे यथार्थ-मुद्दे सामने आते हैं, जिसमेंं जीवन की महक है। हाशिये पर रह रहे लोगों के अस्तित्वगत मुद्दे बनकर।
वह मुझे ‘बाबू’ कहकर बुलाती थी, यह उसका लाड़ प्रकट करने का तरीक़ा था। केवल मैं पेगासस को समझा सकता था कुछ करने के लिए, उसके नाम का बचत-खाता खोलने से लेकर उसकी चिकित्सकीय जाँच कराने तक। अन्यथा वह सबसे ज़्यादा अवज्ञाकारी थी, जब कोई मसला उसका अपना होता था।
एक रात सोते समय बातचीत के दौरान, उसने मुझे एक मैसेज भेजा, कविता के रूप में:
“रात बहुत ढल चुकी है
ताज़ा बाँध बनकर मेरे लिए
जिसने मेरी आँखों की नींद उड़ा दी
खोखले रुदन को बाँधकर
फिर वह कहने लगी,
आप मुक्त हो आज से
अपने सभी अपराधों से,
अनंत काल तक।
जाओ कहीं भी अपनी मर्ज़ी से
श्रद्धा के प्रवेश द्वार पर
लगा दिया है मैंने ताला।”
मैं दुखी हुआ था, बहुत दुखी। मैंने उसे लिखा:
“रेखा चित्र अभी तक दीप्तिहीन, ओह मीता!
भ्रम का साम्राज्य शांत और सौम्य
असफलता और मोहभंग के अलाव से
चलो, नई पाली की किंवदंतियों को
अनभिव्यक्त रहने दो।”
तभी फोन लगाकर, रुंधी हुई आवाज़ में वह सिसकते हुए पूछने लगी, “अनभिव्यक्त क्यों? क्या आप खुलकर मुझसे बात नहीं कर सकते हो? आप सरल क्यों नहीं बन सकते, लड़के क्यों नहीं बन सकते हो, मौलिक बनो? आप हर समय अपना दर्शन क्यों झाड़ते रहते हो? क्या मैं तुम्हारा केवल निरासक्त ‘कर्तव्य’ हूँ?”
“जहाँ मेरी कोई आसक्ति नहीं होती है, मैं पीछे मुड़कर नहीं देखता। कभी ऐसा काम न करें, जिसमें केवल कर्तव्य नज़र आता हो। आपने कभी मेरे पर कोई कर्तव्य नहीं थोपा। मैं आभारी, अगर आप यह मानती हो कि मेरे घाव मेरे अपने हैं और मुझे सख़्त ज़मीन से खड़े होने के लिए थोड़ा समय देने की दया करोगी। आपके बिना मैं टुकड़ा मात्र हूँ। आप मेरी आँखों, हाथों और शरीर के सभी अंगों से या उस व्यक्ति से प्रतिबद्धता चाहती हो, जिसे आप जानती हो कि वह तुम्हारी परवाह करता है और ऐसा करने की इच्छा रखता है?”
लेकिन फिर भी वह चाहती थी हमारे रिश्ते की एक अलग परिभाषा।
“एक युवा माधवी जब शादी के बाद पति के साथ रहती थी तभी भी, उसने सवाल नहीं उठाए। वयस्क माधवी ऐसे शख़्स से सवाल करती रही, जो उसके लिए अच्छे की कामना करता था, वह क़ुबूल करता था, वह जीवन के किसी भी मोड़ में झुकना चाहता था। परिपक्व माधवी को शायद इस चीज़ का अहसास होगा कि प्यार और प्रतिबद्धता के कई रूप सामने आते हैं, आत्मसात करने पर। आख़िर सत्य की जीत होगी।”
उस रात वह अपने आप क़ाबू में नहीं था। जब कभी भी हम एक घंटे से अधिक बातचीत करते थे, तो यह निश्चित था वह न किसी बात पर रोएगी। फिर मैं उसे सांत्वना देता था, और अत्यंत समर्पण के साथ प्यार करता था। हाँ, मैं उसका समर्पित प्रेमी बन गया था, भले ही और कुछ नहीं बन पाया। वह मुझे अपने संवादों से धाराशायी देती थी। उसके आँसू मेरी आँखों में भी आँसू ले आते थी। मुझे यह कहते हुए शर्म नहीं लग रही है कि आदमी होने के बाद भी कई बार मुझे उसकी बातों पर रोना आ जाता था। भले ही आदमी रोते नहीं है, मगर भीतर ही भीतर उनका ख़ून जलता रहता है।
जैसे, दूसरे दिन उसने मुझसे पूछा, “बाबू, क्या आपने वर्जीनिया वुल्फ़ की किताब ‘ए रूम ऑफ़ वन’स आउन’ पढ़ी है? मैं दूसरी किताब लिखने जा रही हूँ, 'ए टेबल ऑफ़ वन’स आउन'।”
“क्यों बेबी?”
“आप जानते हो न कि मेरा बहुत बड़ा परिवार है। हमारे घर पर दो टेबल थे, उन पर मेरे सबसे बड़े और सबसे छोटे भाइयों का अधिकार था। खाने की मेज़ बाबा के लिए थी। इसलिए मैं बचपन और जवानी के दिनों में, मेज़ के लिए तरसती रहती थी, मगर कभी मुझे नहीं मिला। मैं फ़र्श पर पेट के बल पर लेटकर लिखती थी, या मेरी गोद में प्लाईवुड रखकर। अब मेरे घर में बहुत सारे टेबल हैं, एक मेरे बेटे के लिए और दो मेरे पति के लिए, एक पर अपना लैपटॉप और दूसरे पर फ़ाइलों का ढेर, यहाँ तक कि मेरी नौकरानी के लिए भी एक किचन टेबल है, फिर भी मेरे लिए एक भी नहीं है। मैंने ख़ासकर अपने लिए एक टेबल ख़रीदा, मगर उस पर भी उन दोनों ने क़ब्ज़ा जमा लिया। हेहे।”
पहचान की राजनीति के इस मुद्दे पर वह कैसे हँस सकती है? अस्तित्व की समस्या को इतने हल्के से ले रही है वह!!
अपने दर्द और मुस्कान को छिपाकर हर समय हँसने की उसमें ज़बरदस्त क्षमता थी। उसके वास्तव में दो व्यक्तित्व थे। एक जिसे दुनिया जानती थी, गंभीर शिक्षक, सर्जनशील लेखिका, ग्लैमरस, व्यावहारिक, ज़िद्दी, दोस्तों के साथ हँसी-मज़ाक करने वाली, सहयोगी और देखभाल करने वाली प्रोफ़ेसर माधवी। दूसरा व्यक्तित्व था—मौलिक, रोमांटिक, भावुक, प्रेम की पुजारिन, दिल की सच्ची, ईमानदार, जल्दी से किसी का विश्वास करने वाली, मेरी मीता। मैं जानता हूँ कि दूसरा व्यक्तित्व विशेष रूप से मेरे लिए था, लेकिन मैं हमेशा सोचता रहता था, कि वह दो व्यक्तित्वों को कैसे मेनेज करती होगी? ख़ासकर पहला, जो उसका असली चरित्र नहीं था?
वह दूसरी हो जाती थी, जब वह नशा करती थी। मुझे उस समय उसे सुनना बहुत अच्छा लगता था। उसे रेड वाइन बहुत पसंद थी। वह दूसरे पेग के बाद खिसिया कर हँसने लगती थी। फिर मुझे फोन पर बेतुकी बातें करने लगती थी। जोश और हास्य उसके स्वभाव में पूरी तरह से घुलमिले थे। मुझे उसके खिसियाने और बेतुकी बातों में उसकी अनवरत पीड़ा का अनुभव होता था।
एक बार मैंने उससे पूछा, जब वह नशे में थी, “आज आप क्या पढ़ रही हो? मेरा मतलब, क्या शैक्षणिक कार्य कर रही हो?”
“हे भगवान! आप हमेशा चाहते हो कि मैं कुछ करती रहूँ? किसी का होने के लिए? क्यों? मुझे बताओ, क्यों? मैं कुछ भी नहीं हूँ, मैं कुछ भी नहीं होना चाहती हूँ, बस कुछ नहीं! क्या समझे?”
“हाँ बेबी, कृपया कुछ भी नहीं होओ।”
“नो नथींग, है ना? जस्ट नो नथींग।”
मैंने हमेशा उसे अपने मन की बात कहने का स्थान दिया, ताकि वह खुल जाए। और वह अनिवार्य रूप से अंत में सिसकियाँ भरेगी, अपने आँसू बहाएगी, अपना नाक साफ़ करेगी, (कहने लगी, वह मेरी शर्ट पर अपनी नाक पोंछना चाहती थी!!) और हेमा मालिनी की तरह बात करेगी “हेमा मालिनी एक दक्ष अभिनेत्री है, देखते हो न, बेशक वह ख़ूबसूरत है और एक बेहतरीन डांसर भी। जब भी मैं रोती हूँ, तो उसके जैसी आवाज़ निकलती है, दयनीय . . . भावुक नाटकीय। हेहे।” लेकिन मैंने सोच रहा था, जब वह उदास होती थी, तो उसका लहजा ‘साहेब, बीवी और गुलाम’ फ़िल्म की त्रासदी नायिका मीना कुमारी जैसा हो जाता था। कभी-कभी वह मधुबाला की तरह लगने लगती थी, जब वह ज़्यादा शराब पी लेती थी।
शराबी मीता।
“आप जानते हो बाबू, आज क्या हुआ, कोई लगातार मुझे बाज़ार में घूरता रहा। मैं वहाँ से दूर चली गई, फिर भी वह मुझे घूरता रहा; हर कोई मेरी तरफ़ देख रहा था। तो मैंने क्या किया, दोनों हाथों से अपना चेहरा ढँक लिया, और फिर उसके सामने जाकर अपनी हथेलियाँ खोलकर उसके मुँह पर जाकर कहा, “पिकाबू”! लोग हँसने लगे, और घूरने वाले चाचा भाग गए।”
यह मेरी मीता थी, पगली मीता।
लेकिन वह मानती थी कि यह महिला पर निर्भर करता है, पुरुष उसके साथ कैसे व्यवहार करें? वह अपना आत्म-सम्मान बनाए रखती थी।
उसे ‘चाचा’ और ‘चाची’ जैसे शब्दों से नफ़रत थी। ऐसा लगता है, दिल्ली में हर कोई आपको चाची कहकर बुलाएगा, भले ही, आपकी उम्र, रूप, वज़न और ऊँचाई उसके अनुरूप न हो।
“यदि आपके साथ कोई बच्चा है, तो आप निश्चित रूप से चाची हैं, यक़ीन मानिए। दूसरा व्यक्ति आपसे बड़ा हो सकता है! लेकिन अगर आप अकेले घूम रहे हैं, तो आप दिल्ली के पुरुषों के लिए एक आइटम हैं; भले ही आप दो की माँ क्यों न हो?”
“ठीक है बेबी, आप एक सेक्सी-चाची हो।”
“चुप रहो चाचा!”
कभी-कभी रात में वह अपनी सारी खिड़कियाँ बंद कर देती थी और मेरे किसी भी मैसेज का जवाब नहीं देती थी। यह मेरे लिए चिंता का विषय होता था। मुझे पता था कि वह रात में काम करने वाली महिला थी, और उसका अधिकांश लेखन देर रात को ही होता था।
फिर मैं एक बजे के आस-पास अंतिम प्रयास करता था, “यदि आप काम कर रही हो, तो मुझे लगता है सब ठीक-ठाक होगा। अगर आप अपने पति से बातचीत कर रही हो, तो मुझे आशा है कि आप मेरा जवाब दोगी, कोई ज़रूरी नहीं तत्काल ही दो। अगर आप सो गई हो, तो मुझे अपनी बेबी पर सबसे ज़्यादा ख़ुशी होगी और अगर आप उदास हो, तो मुझे बहुत दुखी होगा, अपर्याप्तता की भावना से ग्रस्त होने के कारण।”
“नहीं . . . कुछ ख़ास नहीं कर रही हूँ। आपकी याद आ रही है।”
“फिर तीन मिनट के बाद फोन करो और सात मिनट तक बात करते हैं।”
“अजीब टाइमिंग! . . . सिर्फ़ पागल हो।”
“आप मेरे समय के बारे में कैसे जानते हो?”
उसके बाद वह लजाकर कुछ समय के लिए शांत रहती, फिर प्रतिक्रिया-स्वरूप सिर्फ़ तीन डॉट्स भेजती, और बदले में मैं कुछ मैसेज भेजता, उसे खोलने के लिए।
“मीता, अच्छा हुआ आपका दिमाग़ खुल गया, बिना इस्स और उफ़ के। आपको जानना चाहिए आपके शरीर का हर एक रोमकूप कितना प्यारा है।”
हमारा अपना एक ई-मेल खाता था, जिसे हम दोनों लेटर या चैट के लिए काम में लाते थे। उसका पति तकनीकी-प्रेमी व्यक्ति था। एक बार उसने उस खाते का पासवर्ड हैक किया और हमारे बीच हुए वार्तालाप को पूरा पढ़ लिया, और उसके बाद उसका जीवन नरक बन गया। हम समझ नहीं पाए, उसका हमने ऐसा क्या किया था? मैंने उसका क्या छीन लिया है? उसकी प्रतिबद्धता? नहीं, हम प्रतिबद्ध नहीं थे; बल्कि हमने जीवन में कभी नहीं मिलने का फ़ैसला किया था। सेक्स? नहीं, कभी नहीं, न ही हम एक-दूसरे की तरफ़ यौन-आकर्षित हुए थे। वे जीवन में कभी भी एक बिस्तर पर नहीं सोए थे। हमने साहित्य, जीवन, प्रेम, सेक्स, दर्शनशास्त्र पर बातें अवश्य की थी, जो उसकी समझ से परे थी। इसलिए शायद ही हमें उसकी असुरक्षा के पीछे का कोई कारण नज़र आ रहा था। शायद वह उस विशुद्धिवादी पुरानी दुनिया में जी रहा था, जहाँ केवल औरतों से ही पवित्रता, शुद्धता और वफ़ादारी की माँग की जाती हैं। पवित्रता-प्रदूषण की बहस, उम्र-भर, उसके दिमाग़ में घुसी हुई थी। वह उसके जीवन में पुरुष होने का ‘कर्तव्य’ निभाए बिना उससे प्रतिबद्धता, शुद्धता और पवित्रता की माँग कर रहा था।
वह घर से बाहर निकलती थी, अपने आँसू छुपाकर चेहरे पर कृत्रिम मुस्कान लिए। उसके लिए, उसके पति का कोई अस्तित्व नहीं था। मानो वह पिछले जन्म का सम्बन्धी हो। उनका तालमेल अस्थिर और मायावी हो गया था, जैसे कोई टैग लगा हो, ‘स्विच विद कॉशन!’ उनके लिए पुराने दिन, जब वे मिले थे, अलग-अलग प्रांत के रहने वाले थे। उसका पति उसे प्यार देने के बजाय नैतिकता में अधिक रुचि रखता था, जिस प्यार की वह हक़दार थी। मीता अपने जीवन के सबसे अच्छे हिस्से को न्यायोचित ठहराती थी, कि उसने मुझसे प्यार कर कोई ग़लती नहीं की है, क्योंकि उसका अपने पति के साथ कोई भावनात्मक सम्बन्ध या शारीरिक निकटता कभी नहीं बनी और वह पागलों जैसा व्यवहार कर रहा था; उसे अपनी पत्नी पर संदेह कर एक अच्छे रिश्ते को बर्बाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि मैं उससे कुछ भी नहीं छीन रहा था।
उस रात उसने हमारा व्यक्तिगत ई-मेल खाता खोलकर एक लंबा मेल लिखा—कि कोई भी कभी भी हमारी ख़ूबसूरत यादों को नहीं छीन सकता है, भले ही, वह उस मेल का उपयोग आगे नहीं करेगी। उसने वास्तव में ऐसा किया भी; उस ई-मेल खाते का कभी प्रयोग नहीं किया।
ज़िद्दी मीता।
बाद में, उसने कई बार शिकायत की कि उसे मेरे लंबे ई-मेल्स याद आ रहे हैं, हमारी वार्तालाप के शब्द-संयोजन याद आ रहे है, उसे मेरे लंबे पत्र पसंद आते थे।
“कृपया मुझे लंबे मेल भेजें, बाबू!” वह मुझे एसएमएस करती थी।
मेरे पत्र जटिल होते थे, और उसके सरल। उसे मेरे क्रिटिकल विचार और दृष्टिकोण से प्यार था। वह हमेशा मुझसे कहती थी, “बाबू, भले ही, मुझे आपसे कहीं अधिक हासिल हुआ है, लेकिन अकादमिक रूप से आप ज़्यादा उत्कृष्ट हो। आप मुझसे बहुत बेहतर हो। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है, तुम्हें इस चीज़ का कभी एहसास नहीं हुआ।”
“ओह, अब छोड़िए भी! तुलना मत करो।”
“नहीं, मैं तुलना नहीं कर रही हूँ। लेकिन हम एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। जैसा कि अक़्सर आप कहते हो, हम ‘टीम-मीता’ के सदस्य हैं—सिर्फ़ दो लोगों के साथ ही हमारी सदस्यता बंद!”
जीवन सुचारु रूप से चल रहा था; कोई हमें संवाद करने से नहीं रोक सकता था। आँख बंद करके प्यार करने से, भावपूर्ण, अथक रूप से। आख़िरकार, हमने स्वीकार किया कि भले ही, कठिन समय हमें सोचने पर विवश कर दे, मगर वह हमारे अंदर आवश्यक मज़बूत आत्मबल भी पैदा करता हैं-लचीला, इच्छा-शक्ति से प्रेरित और अदम्य। वह यह भी दिखाता हैं कि जीवन कोई परियों की कहानी नहीं है, फिर भी जीने के लिए ख़ुद को साबित करना पड़ता है। मीता दृढ़तापूर्वक मानती थी कि हमारे देवता हमारे स्वयं की उपज हैं। उनका नाम लेना, बस हमारी सहज संकल्पशीलता को मूर्त रूप देना है। उसका शिक्षण, अनुसंधान, शब्दों के साथ उसका अनुराग उसे व्यस्त बनाए रखता था। हर दिन वह शिखर से और ऊँचे शिखर तक चढ़ती जा रही थी, अभिमान की चोटियों को छूती हुई।
हम झगड़ते भी रहते थे। अगर कभी मैं उसे एक घंटे तक मैसेज नहीं भेज पाता था, तो वह शिकायत करने लगती थी। कई बार ऐसा भी होता था कि मैं उसे अपने हर दिन की जानकारी देना भूल जाता था। वह नाराज़ हो जाती थी, “आप क्या जानते नहीं हो, मुझे हर घंटे कम से कम एक ख़ाली एसएमएस भेज दो, ताकि मुझे यह पता चलता रहे कि आप मुझे याद कर रहे हो।”
मैं उसे चिढ़ाता था, यह कहकर कि वह IRDD (इंकयोरेबली रोमांटिक डिस्पोज़ल डिसऑर्डर) से पीड़ित है!
“आप अच्छी तरह जानती हो, मीता, मेरा जीवन कैसा है। हमारी जीवन-शैली पूरी तरह अलग हैं। तुम्हें सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना नहीं पड़ता हैं, मगर मुझे? तुम्हारे पास छुट्टियाँ हैं, वेकेशन हैं, मगर मेरे पास?”
फिर बहस छिड़ जाती थी और उसकी आँखें आँसुओं से भर जाती थी। मैं हमेशा अपराध-बोध महसूस करता था कि मैंने उसे बहुत रुलाया। मैं कभी नहीं चाहता था कि वह आँसू बहाए, लेकिन फिर भी वह हमेशा रोती रहती थी।
क्या मैं उसके दिल की धड़कनें बहुत बढ़ा रहा था?
“मैं तुम्हें अभिशाप देती हूँ, बाबू, कि अगर किसी दिन मैं मर जाऊँगी, तो कोई भी तुम्हें सूचित नहीं करेगा। कौन जानता है कि मैं आपसे प्यार करती हूँ? कोई नहीं। मेरी मृत्यु के कम से कम दस दिन बाद तुम्हें पता चलेगा।”
“कृपया ऐसी बात मत करो। आप इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हो?” फिर मुझे उसे सामान्य स्थिति में लाने में एक घंटा लगा।
मुझे कभी-कभी अपना दर्दनाक अतीत याद आता था, जिससे उसका मूड ख़राब हो जाता था। वह कभी नहीं चाहती थी कि मैं अतीत की बात करूँ और वह मुझे कहती थी कि अतीत का बोझ हर समय ढोना ‘उबाऊ’ होता है। मैं उत्तर देता था, “वह उबाऊ कठोर होता है। मुझे पता है कि आप टाल दोगी, लेकिन केवल इसलिए कि अतीत वर्तमान नहीं है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह कभी भी अस्तित्व में नहीं था। बहुत सारी यादें है, यादों में लोग है और लिए-दिए दर्द हैं। आज मुझे स्वीकार करो और फिर उसे स्वीकार करो, जो तुम्हारा कल था आज बनाने के लिए। इससे पहले कि वे फिर से स्मृति में आए-कुछ समय तो लगेगा। तुम्हारा फोन आ रहा है—प्रो. माधवी या मीता?” लेकिन फिर, वह परेशान होकर चुप हो गई थी, और मुझे उसे बूस्ट अप करना पड़ा था। मैंने लिखा, “मैं तुम्हारी तरह कोई बच्चा नहीं हूँ, जो हर छोटी–बड़ी बातों को याद रखता रहूँ। एक बुनियादी कारण यह भी है कि मैं आपका सम्मान करता हूँ, आपकी अदम्य भावना के कारण। मैंने पहले भी आपकी आलतू-फ़ालतू चीज़ें याद नहीं रखी। सिवाय अकेले पढ़ने-लिखने के और कोई मेरा शौक़ नहीं है। अति-संवेदनशीलता मेरे लिए प्रतिबंधित है।”
हर लड़ाई के बाद, वह मुझसे बात करती थी। मैं सोच रहा था, मेरे अस्तित्व की तंग सीमाओं से किसी दिन वह मुझसे नाराज़ होगी, क्योंकि मैंने उसके सबसे अच्छे वर्षों पर पानी फेर दिया था। क्या कभी वह मुझसे आज़ाद होना चाहती थी? नहीं, कभी नहीं। मैं हमेशा ग़लत सोचता था।
और मैं लिखता था, “मीता, ज़िन्दगी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया हैं। धर्म कुछ नहीं होता है, बल्कि अंतरात्मा की आवाज़ होती है। छोटी अवधि के परिणामों को नजर-अंदाज करते हुए सही काम करो। ग़लत काम करने वालों को माफ़ कर दो, लेकिन किए गए ग़लत कार्यों से सबक़ अवश्य लेना चाहिए; बार-बार ग़लत काम करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। उन चीज़ों को पोषित करो, भले ही, भौतिक शर्तों में उनकी पारस्परिकता सम्भव नहीं है। अंत में, हर कोई एक अकेला ग्रह है। मैं इन चीज़ों को जीवन पर लागू करता हूँ, जीवन में आकस्मिक जुड़ाव जैसा कोई अर्थ नहीं है।”
“हे भगवान बाबू! मुझे सात जन्म लगेंगे आपकी तरह ज्ञानी बनने में!!”
सही बात यह थी कि हम एक-दूसरे से प्यार करते थे, उस वजह से ज़िन्दा थे। उनचालीस साल से उनचास साल में हमने प्रवेश किया, इस प्रकार और हम बुज़ुर्ग होते चले गए। वह साँस थामकर मेरा नाम बड़बड़ाती थी, और उसे विश्वास था उसकी प्रतिध्वनि कभी-न-कभी सुनाई देगी। हम अच्छी तरह समझ गए थे कि एक-दूसरे के लिए हमारा एलियंस बनना निंदनीय है, हमेशा के लिए अलग-थलग काँच के बर्तन में फँसे रहना, जिसे हम ‘सेल्फ़’ कहते हैं। फिर भी, मेरे और मीता के ‘सेल्फ’ कभी एक-दूसरे के प्रतिकूल नहीं थे। उसने मुझे अपने जीवन, अपने परिवार और दोस्तों, रिश्तेदारों और सहकर्मियों के बारे में सब-कुछ बताया था, जैसे मैं उसे बचपन से ही जानता था मानो हम दोनों एक साथ बड़े हो रहे थे, परिवार की छुट्टियों और समर कैंप में समुद्र के किनारे जाकर रेत के घर बनाए थे, गीली रेत के नीचे एक-दूसरे की उँगलियों को छूते हुए।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, मैंने उसके लेखन पर इन वर्षों के दौरान हमेशा टिप्पणी की। मैंने मेल की हुई लड़कियों की उन सभी तस्वीरों में से सबसे अच्छी तस्वीर का चयन किया था, जो उसने अपने बेटे की शादी के लिए चुनी थी। उसका बेटा चाहता था कि वह अपनी शादी के लिए लड़की का चयन करे, और वह चाहती थी कि यह काम मैं करूँ। आख़िरकार सिद्धार्थ ने उसी से शादी की! मैं उसकी किताबों के कवर पेज चुनता था, उसके लिखे एक-एक इंटरव्यू को पढ़ता था, उसके घर की इंटीरियर डिज़ाइन और उसकी साड़ियों के रंगों का भी सुझाव देता था।
मैं उसकी ज़िन्दगी में अनवरत बना रहा, उसके सुख-दुख में शरीक होते हुए। उम्र के साथ-साथ उसके चेहरे का लालित्य बढ़ता गया, यद्यपि यह एक आनुवंशिक गुण होता है।
♦ ♦ ♦
आज अचानक मेरी दुनिया बिखरती हुई लगने लगी थी; एक अज्ञात भय मन में हिलोरे खाने लगा था। क्योंकि, मीता की तरह, मुझे लिफ़ाफ़े को आगे धकेलेते हुए जीवन जीने की कला में महारत हासिल नहीं हुई थी।
आज मीता का 65 वां जन्मदिन है, और वह एक हफ़्ते से न तो मेरे मेल का जवाब दे रही है और न ही मेरा फोन उठा रही है। किससे पूछूँ? क्या वह विदेश गई है? लेकिन वह हमेशा मुझे सूचित करती है; वास्तव में उसकी अधिकांश यात्राओं की योजना भी मैं ही बनाता था।
तो फिर क्यों है लंबी चुप्पी? मुझे समझ में नहीं आ रहा है। न तो मैं क़रीब से उसके घर वालों को जानता हूँ, न ही किसी सहकर्मी को, जिसे मैं फोन करके उसकी ख़बर ले सकूँ। न ही मेरे पास कोई दूसरा नंबर है। वह पूरी तरह से मेरे लिए अगम्य हो गई थी। मैं चिंतित हूँ, परेशान हूँ।
क्या मेरी मीता अस्वस्थ है और मुझे सूचित करना नहीं चाहती है, पिछली बार की तरह?
हम दोनों के बीच की शान्ति हमारे बंधन के चरमराने की तरह लग रहा था। हम पौधे की उन दो पत्तियों की तरह थे, जो तेज़ हवा के झोंके से एक-दूसरे से मीलों दूर उड़ते जा रहे थे, फिर भी पौधे के उद्गम के प्रति आश्वस्त थे, जहाँ से हम दोनों नीचे गिरे थे।
♦ ♦ ♦
मेरे विभाग में कोई दिल्ली की पुरानी ख़बर पढ़ रहा था, एक हफ़्ते बाद मेरे शहर के एक अख़बार में छपी हुई।
“गणमान्य कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता, स्वर्गीय प्रो. माधवी श्रीवास्तव ने अपनी वसीयत में इच्छा ज़ाहिर की है कि उनका घर दिव्यांग लोगों के लिए दान कर दिया जाए। उन्होंने अपना निजी पुस्तकालय और प्रकाशन-गृह को आम जनता के लिए समर्पित कर दिया है, जिसका संचालन फ़िलहाल उनके पुत्र श्री सिद्धार्थ श्रीवास्तव कर रहे हैं। मूलचंद अस्पताल में इलाज के बाद प्रो. माधवी का हृदयघात से इस महीने की 17 तारीख़ को निधन हो गया। हम दिवंगत आत्मा को अश्रुल श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
मैं बर्बाद हो गया। मेरे सिर में तेज़ दर्द होने लगा। मैं सिर्फ़ स्टाफ़ रूम से बाहर जाने ही वाला था कि कार्यालय के चपरासी ने एक बड़ा पैकेट थमा दिया।
मैं घर चला गया, चुपचाप।
उसमें बहुत सारी कविताएँ लिखी हुई थीं और साथ में एक पत्र भी, साफ़-सुथरे अक्षरों में, शायद इस पैकेट को उसने पोस्ट करने के लिए सिद्धार्थ को दिया होगा, पहली बार कोई तीसरा व्यक्ति हमारे बीच आ रहा था। मैं एक कविता पढ़ने लगा:
“मैं एक कली हूँ,
शाखा से टूटी हुई
मेरा कहाँ होगा उद्धार?
मैं मीरा हूँ।
हे कृष्ण! आप कहीं और हो
मुख्य रास्ते में
तुम्हारे रथ में
मेरे पैर हिल रहे है एक नाली में
अकाव्यात्मक
मगर प्रत्येक धड़कन की आवाज़
मेरे अस्तित्व की डोर
धमनी के अस्थि-पंजर के
पंक में लाचार है।
मुझे ठीक कर दो
चूने के पत्थर की मूर्ति की तरह
मुझे अपने परिचित शहर में रखकर।”
मैं थोड़ी देर तक चुपचाप बैठा रहा, मेरे चारों ओर की हवा बेचैनी से घनीभूत होती जा रही थी और उस समय मेरी सजगता भंग होने लगी, सभी संभावनाएँ समाप्त होती नज़र आ रही थी।
और फिर यह पत्र . . . मेरी आँखें आँसुओं से भर उठी थीं।
“बाबू, मेरे सबसे प्रिय, जब मैंने तुम्हें अभिशाप दिया था कि मेरी मृत्यु के दस दिनों बाद तुम्हें पता चलेगा, मेरा यह मतलब कभी नहीं था कि मैं मर रही हूँ। मैं तुम्हें अभी फोन लगती हूँ, मैं सिद्धार्थ को तुम्हें कॉल करने के लिए कहती हूँ। लेकिन यह प्यार अभी भी पर्दे में रहने देना। आपने मुझे सुंदर जीवन दिया था। वर्षों पहले मैं आपसे अपनी आँखों में सूनापन लिए हुए मिली थी, और आपने उसे अपने प्यार से भर दिया। समय उड़ रहा है, मेरी साँसें छीन रहा है। मैं नदी के पानी की तरह, पहाड़ की चोटी की तरह आगे बढ़ती हुई जा रही हूँ। मैं जलाच्छादित बादलों की तरह वापस जा रही हूँ। अब मुझे कोई नहीं बचा सकता है। पता नहीं क्यों, मुझे अपने भावुक प्रेमी की याद आ रही है, जबकि मैं हर इच्छा से मुक्त हूँ? शुक्रिया, मुझे ऐसी सुंदर ज़िंदगी देने के लिए। आप मेरे लिए हो-मेरा जीवन, प्यार, ख़ुशी। क्या आप मुझे अपनी बाँहों में ले पाओगे, कम से कम अब तो सही?
मुझे खेद है, तुम्हें अभी मेरी ज़्यादा आवश्यकता थी, क्योंकि आप इस वर्ष सेवानिवृत्त होने जा रहे हो। अपने को अकेला न समझें। अच्छा जीवन जिएँ। मैं अपने कुछ आधे-अधूरे शोध-पत्र भेज रही हूँ; पहले की तरह उन्हें पूरा करें। विगत कुछ महीनों में मैंने कुछ कविताएँ भी लिखी हैं। वे कविताएँ तुम्हें समर्पित कर रही हूँ। आप इन सभी का संकलन कर मेरे मरणोपरांत मेरा पंद्रहवाँ कविता-संग्रह प्रकाशित करवा सकते हो। अब मैं जा रही हूँ, आप मेरे शहर आकर मेरा घर देख सकते हो, जिसका डिज़ाइन आपने ही बनाया था, मेरा प्रकाशन-गृह भी देखिएगा, जिसे मैंने आपके मार्गदर्शन में ही बनाया था। उन ग़रीब बच्चों को देखना, जो मेरे घर में ख़ुशी से रह रहे होंगे और हमारे पुस्तकालय का प्रयोग कर रहे होंगे। मेरी अलमारी को छूना, मेरी सारी साड़ियाँ आपकी परिचित हैं, क्या नहीं हैं? उन्हें ज़रूरतमंदों को बाँट देना। मैं मेरा पसंदीदा फ़्लोरल यैलो-ब्लू सूट भेज रही हूँ, आपके लिए। मैंने इसे एक-दो बार पहनने के बाद भी नहीं धोया है, जैसा आप चाहते थे मेरी शरीर की चमेली जैसी सुगंध बरक़रार रहे। और फिर मेरी, ग्रे चप्पल, जो मैं पैंतीस सालों से पहन रही हूँ; आपको पता है, आपसे मुलाक़ात होने से भी पहले! ये दोनों चीज़ें आपकी हैं।
मैं पूरी तरह से न तो माधवी बन पाई और न ही मीता। मैंने जीवन भर मेरी पहचान के बारे में सोचती रही; लेकिन किसी तरह से मैंने इस जीवन को व्यवस्थित रूप से जीना सीख लिया था। मगर मैं कहना चाहती हूँ, जबसे आपसे मेरी मुलाक़ात हुई थी, ‘मीता’ की संवेदनाएँ मेरी पहचान और व्यक्तित्व में ढल गईं। मैं ‘माधवी’ या ‘मीता’ के बारे में एक-दूसरे की पहचान खो जाने के डर से कभी भी पागल नहीं हुई, क्योंकि आपने ऐसा कभी होने भी नहीं दिया।
आज मैं दिग्वलय की ओर देख रही हूँ, मेरी आँखों के सामने दिखाई दे रही है नीले रंग वाली सुनहरी धुंध। मैं अभी फिर से पिघले हुए सोने के आकाश से तुम्हारे पास पहुँच रही हूँ।
तुम्हारी हमेशा के लिए,
मीता
विषय सूची
लेखक की कृतियाँ
अनुवादक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
-
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज