नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)
(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )छाया-प्रतिच्छाया
रागिनी अपने पेट के बल पर लेटी हुई थी, महेन्द्र तन्या लेडीज़ हॉस्टल के अपने रूम नं. 12 में। सन् 1995 में ब्रह्मपुर यूनिवर्सिटी का मामला था। वह सेफो की कविता पढ़ रही थी। इस कविता में उसकी खंडित भावनाओं का ज़िक्र था, जो समलैंगिकता के व्यवहार की वजह से उसमें पैदा हुईं थीं।
“यहाँ तक कि पाताल लोक में भी मैं तुम्हारे साथ हूँ
एंड्रोमेडा . . . गोंजिला . . . मेरी इच्छाएँ भड़कती हैं
तुम्हारी सुंदरता पर, गोंजिला . . . हर बार मैं तुम्हारा गाउन देखती हूँ
मैं कमज़ोर, मगर ख़ुश हूँ . . . तुम सभी महिलाओं की
चाह है मेरे मन में, फिर से मेरे पास आओ . . .
तुम एक लॉरेल पेड़ के पीछे इंतज़ार में खड़ी हो . . . तुम
मेरी तरह महिला यायावर हो . . . मैंने मुश्किल से
तुम्हें सुना है, मेरे प्रिय . . . तुम आई
अपने झीने वस्त्रों में . . . और अचानक
तुम्हारे वस्त्रों की सुंदरता का क्या कहना!
एक सपने में हेमीज़ मेरे पास आई। मैंने कहा
मेरे गुरु, मैं पूरी तरह से खो गई हूँ . . .
और मेरे कई सम्पदा मुझे सांत्वना नहीं देती
मैं केवल देखभाल करती हूँ . . . मरने के लिए . . . और ओस वाले कमल को
देखती हूँ एचरन के किनारे, नरक की नदी में . . .
मेरे पास तुम्हारे लिए कोई कशीदाकारी वाली रिबन नहीं है
और पता नहीं कहाँ मिलेगी
जबकि म्यटिलेन में म्यरीलोस शासन करते हैं . . . चमकती
रिबन मुझे उन दिनों की याद दिलाती है जब हमारे
शत्रु निर्वासित थे . . . ओ क्लीस . . . ”
रागिनी अपने आप को हँसने से रोक नहीं सकी, सेफो की अपनी सहेलियों एंड्रोमेडा, गोंजिला एथिस, क्लाइस आदि के प्रति उसकी इच्छा के बारे में सोचते हुए। और कितनी चाहिए थी उसे? उसने कहीं पढ़ रखा था कि लेस्बॉस की सेफो एक कवयित्री थी, जो अपनी सहेलियों के साथ सैक्स के प्रति झुकाव के बारे में उन्मुक्त्ता से लिख रही थी और उसकी कविता की वजह से पश्चिम के ईसाई समुदायों में हिंसक झड़पें भी हुईं थीं, विषम लैंगिकता की अनिवार्यता के सरकारी नियमों के कारण वह षड़यंत्र का शिकार हुई थी। फिर भी उसका कार्य जीवित रहा और हमेशा सुर्ख़ियों में बना रहा जब तक कि सन् 1000 ई.पू. में चर्च ने उसकी सारी कविताएँ और उद्धरण नष्ट कर दिए। सन् 1073 में पोप ग्रेगरी के आदेशानुसार रोम और कस्तुतुनिया में उसकी कविताएँ खुलेआम जला दी गईं। मगर अभी भी मिश्र के कुछ लोगों ने उद्धरणों के तौर पर कविताएँ बचा कर रखीं हैं।
रागिनी आश्चर्य चकित थी। एक महिला को इतनी ज़्यादा प्रताड़ना, भर्त्सना, निंदाओं का शिकार होना पड़ता है क्योंकि वह जो भी सोचती है या उन्मुक्तता से लिखती है जिसे लोगों का एक वर्ग ‘अप्राकृतिक’ मानता है। मगर भारतीय सिविल संहिता में यह पूरी तरह ‘प्राकृतिक’ माना जाता है कि सुहागसेज पर किसी औरत की कोमल भावनाओं को कुचला जाए और भले ही, वह आजीवन वैवाहिक बलात्कार की शिकार होती रहे! फिर भी उसे सम्मानित विवाहिता का दर्जा दिया जा सकता है, जिस आदमी को वह प्यार नहीं करती है—उसे सर्वस्व समर्पित कर देती है और जीवन पर्यंत उसके अंतर्वस्त्र सुखाती रहे, राष्ट्रीय ध्वज की तरह, गर्व के साथ।
‘अप्राकृतिक’ शब्द का भावार्थ उसे अप्राकृतिक प्रतीत होता था।
उसे याद आने लगी अपनी बड़ी बहिन, जिसकी शादी कम उम्र में राजीव भाई के साथ हुई थी। बीस साल की होते-होते उसके तीन बच्चे हो गए थे, फिर भी उसकी वासना ख़त्म नहीं हुई थी। वह उसे अनजाने में किसी भी वस्तु के गिरने पर चिल्लाता था, उसकी तरह पढ़ी-लिखी नहीं होने के कारण प्रताड़ित करता था और ‘आनंदित’ वैवाहिक जीवन के उसके ‘प्राकृतिक’ वलय में साथ रहना पड़ता था, अनिच्छापूर्वक। उसने कभी उससे प्यार से बात करते, छूते हुए या पीठ थपथपाते हुए नहीं देखा, उस समय भी जब उसका प्रसव शूल हो रहा था। उसके जन्म दिन पर भी कभी उसने गुलाब का फूल तक नहीं दिया था। क्योंकि उसके पिताजी गुज़र चुके थे और पीछे छोड़ गए थे दो जवान लड़कियाँ, एक लड़का और उसकी बीमार विधवा माँ। इसलिए यह तय किया गया कि उसकी बड़ी बहिन शालिनी, जो उस समय +2 आर्ट्स में पढ़ती थी, कि राजीव भाई के साथ शादी कर दी जाए। वह उस समय किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में उप-महाप्रबंधक के पद पर काम कर रहे थे। उसकी माँ को अपने दिवंगत पति के कार्यालय से कुछ धनराशि प्राप्त हुई थी, मगर वह तीन बच्चों के शिक्षा के लिए पर्याप्त नहीं थी। शलिनी की शादी सामान्य तरीक़े से हुई थी, मगर दहेज़ में कोई कमी नहीं रखी गई थी। एक मारूती-800 कार, रेफ्रिजरेटर, टी.वी. और घर के लिए आवश्यक सारे सामानों की व्यवस्था कर ली थी माँ ने।
उसके बाद रागिनी को हॉस्टल भेज दिया, क्योंकि उसे छात्रवृत्ति मिलती थी। तब से उसे हमेशा फ़ैलोशिप मिलती रही, हॉस्टल में रहते हुए अब वह विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर कोर्स कर रही थी, जहाँ उसे सिंगल रूम मिला था जिसे वह अपनी इच्छा से चंडीगढ़ की अपनी सहेलियों सुनीता मल्होत्रा और सुनी के साथ रहती थी।
रागिनी अपनी बहिन शालिनी को भुला नहीं पा रही थी कि किस तरह डरते-रोते हुए वह अपने ससुराल गई थी, जब उसकी उम्र सोलह साल की थी। पन्द्रह दिनों के बाद वह अपने गले में मंगल-सूत्र लटकाकर घर लौटी थी, आँखें सूजी हुई थीं और गले, गर्दन और होंठों पर खरोंचों के निशान थे। उसे राजीव के साथ हनीमून पर जाना था, जिसे उसके दोस्तों में दिल्ली, शिमला, कुल्लू और मनाली के प्रायोजित किया था। उसकी माँ बहुत ख़ुश थी, यह सोचकर कि कम से कम उनकी एक लड़की का तो जीवन सँवर गया। या तो उसने नहीं देखा या फिर वह देखना नहीं चाहती थी, उसकी पथरीली मृत आँखों, कटे पंखों और नीली-काली खरोंचों की तरफ़।
रागिनी को उठना पड़ता था, लंच या ब्रेकफास्ट की घंटी की तेज़ आवाज़ सुनकर, सुबह के दस बजे के आस-पास। ओह, उसे देर हो जाती थी। आज पहला पीरियड उसके पसंदीदा प्राध्यापक प्रोफ़ेसर महापात्र का था। वह उन्हें उपनिवेशवादोत्तर, आधुनिकोत्तर, नारीवादिता, पर्यावरण समालोचना, अभिनव समालोचना आदि विषयों पर पढ़ाते थे।
वह बाथरूम की तरफ़ भागी। वहाँ पानी नहीं था। पानी आठ से नौ बजे के बीच में आता था, एक घंटे के लिए और आपको अपनी बारी के लिए क़तार में लगकर इंतज़ार करना पड़ता था। या, फिर दो बाल्टी पानी पहले से ही भरकर रख देने से जब भीड़ ख़त्म हो जाएगी तो फिर आप आराम से नहा सकते थे। भगवान का शुक्र है, सुनी उसकी रूममेट थी। उसने अपने नहाने के बाद रागिनी के लिए दो बाल्टी पानी भरकर रख दिया था। सुनी जानती थी, रागिनी सुबह 6 बजे से दस बजे तक पढ़ाई करेगी और वह पानी जैसी छोटी-मोटी चीज़ों के लिए परेशान होना पसंद नहीं करेगी। इसलिए सुनी स्वेच्छा से अपनी तरफ़ से हर दिन उसकी इसी तरह मदद करती थी।
“धन्यवाद सुनी दीदी, आप बहुत अच्छी हो।”
“ओके, ओके, अब जल्दी नहाओ और डाइनिंग हाल में आ जाओ। आज ‘एग करी’ बनी है। मैंने भगवान भाईना से तुम्हारे लिए दो अंडे रखने के कह दिया है।”
सुनी के बग़ैर रागिनी अपने छात्रावास जीवन के बारे में सोच भी नहीं सकती थी। दोनों एक दूसरे की विपर्यय थी। रागिनी अच्छी विद्यार्थी थी, अपने भविष्य के प्रति ज़्यादा गंभीर क्योंकि वह अपनी बहिन शालिनी की तरह जीवन जीना बिल्कुल नहीं चाहती थी। या फिर, यह कहना ज़्यादा ठीक रहेगा कि वह ऐसी ज़िन्दगी जो उस पर थोपी जाए। उसकी गुप्त मंशा थी कि वह किसी दिन आईएएस अधिकारी बनें और इतना ज़्यादा कमाए कि वह अपनी बहिन को उस दरिंदगी से बचा सके। इसके लिए उसे पैसों और ताक़त—दोनों की ज़रूरत थी, जिसे वह अपने कैरियर के लिए फ़ोकस कर रही थी।
सुनी बिल्कुल अलग थी। उसका जीवन में ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था। वह अपने धनवान माँ–बाप की इकलौती संतान थी, उसके पिताजी हमेशा अपने व्यापार के सिलसिले में भारत से बाहर विदेशों की सैर किया करते थे और उसकी माँ सदैव किट्टी पार्टियों में व्यस्त। उसे ‘आया’ के भरोसे छोड़ दिया गया था, इसलिए वह अपनी ज़िन्दगी नौकरों के साथ रहने की तुलना में हॉस्टल में सहेलियों के साथ रहना ज़्यादा पसंद करती थी।
इसलिए वह यहाँ पर थी, एक के बाद एक सर्टिफ़िकेट, डिग्री, डिप्लोमा कोर्स करने के लिए, बिना किसी उद्देश्य के, केवल इसलिए कि वह यूनिवर्सिटी में रह सके, ख़ासकर हॉस्टल में, घर से बहुत दूर। आरंभिक दो सालों में, उसे अपने लिए सिंगल रूम मिला था, जिस पर हमेशा ताला लटकता रहता था, क्योंकि वह अकेले रहना नहीं चाहती थी। वह सीनियर लड़कियों के साथ भी आराम से घुल-मिल जाती थी और उनके साथ इधर-उधर की बातें करती थी, सभी की पैसों से मदद करती थी और सभी का ध्यान रखती थी।
उसके पास पर्याप्त समय होता था, मेरे कहने का मतलब वह उसके लिए समय निकाल लेती थी। जब कोई बीमार होता था, कोई अपसेट होता था, किसी का दिल टूट जाता था, दुखी रहता था, वह शॉपिंग करने जाती थी या कोई मेहमान आते थे, सुनी वहाँ हमेशा मिलती थी। वह इतने अच्छे स्वभाव की थी कि कुछ ही समय में उसने सभी का दिल जीत लिया था। उसके लंबे बाल थे, गोरी त्वचा थी और चेहरे पर आकर्षक मुस्कान। वह वास्तव में सुंदरी थी। और रागिनी उसे हमेशा डाइनिंग रूम या टी.वी. रूम में देखकर मुग्ध होती थी। वह उससे ईर्ष्या करती थी, इसके पास इतना समय! वह अपने नोट्स कब बनाएगी? कब वह पढ़ाई करेगी?
सही बात यह थी, उसने न तो कभी अपने नोट्स बनाए, न कभी पढ़ाई की और न ही ज़िन्दगी में कुछ बनना चाहती थी। वह केवल वर्तमान में जीना जानती थी। गर्मियों की छुट्टियों में, जब सभी घर जाने से पहले घर वालों के लिए कुछ ख़रीददारी करने के लिए उतावले रहते थे, सुनी के लिए कोई नहीं था, जिसके लिए वह सामान ख़रीदती। क्योंकि ब्रह्मपुर के अन्नपूर्णा बाज़ार जैसी जगह पर उसे अपनी मम्मी के पसंदीदा डिज़ाइन वाली साड़ी या पापा के पसंद का सूट नहीं मिल सकता था, जहाँ अक़्सर उसके दोस्त जाना पसंद करते थे। आख़िरकार वे फ़ैशनेबल सामान तो ख़रीदते थे, मगर सस्ते वाला। और मॉल में अकेली जाकर ख़रीददारी करे, जो मम्मी को पसंद भी न आए और ख़रीदा हुआ सामान नौकरों को दे दें, इससे बेहतर तो यही होगा कि मॉल न जाया जाए। वह ताज़ी हवा में साँस लेना चाहती थी, और जीवन की हर छोटी-छोटी चीज़ों में ख़ुशियाँ खोजती थी मगर उसे केवल बड़ी-बड़ी चीज़ें मिलीं, बड़े-बड़े दुख भी उसे अपने माता-पिता की ऊँची महत्वकांक्षाओं पर खरा उतरना था।
इसी तरह, उसके विगत जन्मदिन पर—जब उसके दोस्तों ने कॉमन रूम में टी-समोसे की पार्टी का आयोजन किया था, उसी दौरान उसकी मम्मी का फोन आया था। “प्यारी बेटी, आज हम टाऊन में है, कल मेरा वीमेंन्स वेलफ़ेयर ऐसोसिएशन में मेरा भाषण है। मेरे पास क्यों नहीं आ जाती, मैं तुम्हारे लिए जन्म-दिवस के उपलक्ष्य में कुछ उपहार ख़रीद लेती और तुम्हारे साथ शाम का भोजन भी कर लेती।”
“नहीं मम्मी, थैंक्स। मेरी सहेलियों ने कॉमन रूम में छोटा-सा गेट टुगेदर रखा है।”
“ओह, उसे छोड़ो! भूल जाओ। मैं आ रही हूँ दस मिनट में, तैयार रहना।”
शाम को सुनी हॉस्टल लौटी, एक हीरे की अँगूठी, पाँच डिज़ाइनर सूट, सैंडल, पर्फ्यूमस के साथ, मगर आँखों में सूनापन लिए।
मम्मी ने उसे मॉल में भेजा और हॉस्टल, ड्राइवर के साथ यह आदेश देते हुए कि उसकी इकलौती बेटी की मनचाही ख़रीददारी करवा दे, क्योंकि रेस्टोरेंट में स्थानीय एमएलए की पत्नी से उसकी मुलाक़ात हो गई थी।
लंबी छुट्टियों के दौरान, हॉस्टल बंद था और कमरे अस्थायी तौर पर दूसरे राज्यों से आए हुए चैंपियन खिलाड़ियों को रहने के लिए दे दिए जाने थे। इसलिए हॉस्टल में रहने वालों को कमरे जल्दी ख़ाली करने को कहा गया था, अपनी अलमारियों और सूटकेसों पर ताला लगाकर। सुनी हमेशा सबसे बाद में हॉस्टल का कमरा छोड़ती थी और हॉस्टल फिर से खुलने के दिन ही आ जाती थी। क्योंकि उसके लिए घर में करने के लिए कुछ नहीं था। वह मम्मी की पार्टियों में जाना पसंद नहीं करती थी, जिसमें केवल आधुनिक फ़ैशन या सेलेब्रिटियों के व्यक्तिगत जीवन या अभिजात्य वर्ग की महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली साड़ियों और हीरे के गहनों पर ही चर्चा होती थी। मम्मी की पार्टियों में पानी से बाहर निकाली मछली की तरह तड़पती थी।
कभी-कभी शाम को, जब पिताजी घर में होते थे, वह एक दो बार यूनिवर्सिटी में उसके क्रिया-कलापों के बारे में पूछकर अपने रूम में सोने चले जाते थे। मम्मी और पापा ट्रेन की दो समानांतर पटरियों की तरह थे, जो कभी नहीं मिलते। फिर भी वे साथ में रह रहे थे। उसने कभी उन्हें बातचीत करते हुए, साथ में बाहर जाते हुए नहीं देखा तो आपस में एक-दूसरे का स्पर्श करने या शारीरक सम्बन्ध की बात तो दूर की है।
क्या यह ‘प्राकृतिक’ था?
क्या दो लोग अपनी सुविधा के लिए साथ में जीते हैं? पिताजी के कई महिला मित्र थीं, और मम्मी के कई पुरुष मित्र, जो उसे घर छोड़ देते थे, नशे की हालत में, सुबह के समय। पापा को कोई आपत्ति नहीं थी।
क्या यह ‘प्राकृतिक’ था?
उनका विश्वास था अपनी शादी में एक-दूसरे को जगह देने के बारे में। ‘जगह’ वाली धारणा उसकी समझ से परे थी। वह घर पर क़ैदी जैसा अनुभव कर रही थी और हॉस्टल उसके लिए राहत की साँस लेने वाली जगह।
यह तब की बात है, जब वह रागिनी से मिली थी। वे एक दूसरे को अजनबियों की तरह देख रहीं थीं, डाइनिंग हॉल में एक दूसरे की तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहीं थीं, मगर दोनों ने एक दूसरे से कुछ भी नहीं कहा। रागिनी फ़र्स्ट ईयर में पढ़ रही थी और सुनी एम.ए. सैकेंड ईयर की छात्रा थी। सुनी अपना ख़ाली वक़्त बाज़ार में घूमते हुए बिताती थी। दूकानों का चक्कर काटना उसकी आदत बन चुका था, उसे यह सब अच्छा लगता था। शाम को यूनिवर्सटी कैंपस में हॉकी, शतरंज, टेबल टेनिस और क्रिकेट खेले जाते थे। उसने कभी भी यूनिवर्सिटी के टूर्नामेंट में भाग नहीं लिया था। यहाँ तक कि वह अख़बारों की तरफ़ भी आँख उठाकर नहीं देखती थी, जबकि बहुत सारी लड़कियाँ रागिनी समेत पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए केन्द्रीय पुस्तकालय नियमित रूप से जाते थे। मगर उसे एक ही खेल अच्छा लगता था, क्रिकेट से भी ज़्यादा, भीड़ में से किसी एक दुकान वाले का चयन कर उसकी पीछा करती थी। सुपर मार्केट में घूमना उसे बहुत अच्छा लगता था। वह अपने रूम में भी सब सामान रखती थी, घर-गृहस्थी वालों की तरह। वह नमक, चावल, दाल, इलायची, मिर्च यहाँ तक कि सूखी मछली भी अपने रूम में रखती थी, जिसे वह अपनी जगह के नौकरों के र्क्वाटरों में देखती थी और वह . . .
उस दिन सुनी बेसमेंट में घूम रही थी और बाद में लिफ़्ट पकड़कर स्टोर के मुख्य आहते में चली गई, जहाँ शृंगार सामग्री और बच्चों के खिलौने, क्रीम आदि का पत्रिकाओं की तरह प्रदर्शन किया गया था और लिपस्टिक और कृत्रिम बाल ऐसे चमक रखे थे मानो किसी दर्पण में शादी का दुपट्टा लगा हुआ हो। दुकान वाले उसे कपड़ों वाली जगह की ओर ले जा रहे थे। यद्यपि सुनी ने ओले टोटल इफ़ेक्ट के अलावा कभी भी कुछ नहीं ख़रीदा। उसे मॉल की तंग गलियों से गुज़रना अच्छा लगता था। क़स्बे की गलियों के बनिस्बत उसे वहाँ की तंग गलियाँ अच्छी तरह याद थीं। उसने अपने कोट की जेब में जल्दी से हाथ डाल तो देखा कि तीक्ष्ण सुगंधयुक्त चुनावी प्रचार का कार्ड पड़ा हुआ था। वह मन ही मन मुस्कुराई। लेडीज़ हॉस्टल की लड़कियों को विद्यार्थी संघ के वार्षिक चुनाव के लिए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या महासचिव के पदों के दावेदारों की योग्यता या गुणवत्ता से ज़्यादा लेना-देना नहीं था। वे कार्ड पर छिड़के गए इत्रों की गुणवत्ता जाँचकर, सूँघकर वोट देने का निर्णय लेते थे। विनीत भाव से प्रत्येक उम्मीदवार से वे बहुत सारे कार्ड लेना स्वीकार करती थी, जैसे वे वास्तव में हॉस्टल के भीतर उनका प्रचार करने जा रही हो और बाद में उन कार्डों को अपने सूटकेस, कपबोर्ड के किसी कोने में फेंक देती थी ताकि कुछ समय के लिए उनके कपड़ों पर ख़ुश्बू आती रहे।
यह कार्ड किसका है? देवेन्द्र बिशॉय का?
सुनी ने उसे सूँघा और फिर से अपनी जेब में रख दिया।
फिर वह अपने हॉस्टल की लड़की रागिनी से सुपर मार्केट में मिली। हॉस्टल का दरवाज़ा छह बजे बंद हो जाता था, इसलिए रागिनी को साढ़े पाँच की रोड ट्रेन पकड़नी पड़ती थी, जिसमें लोहे की मोटी ज़ंजीर द्वारा दो बसें जुड़ी रहती थीं और पहली बस दूसरी बस को खींचती थी जैसे शाम के समय एक माँ अपने शरारती बच्चे को खींचकर घर ले जा रही हो पढ़ाई कराने के लिए। देखने में भी विचित्र लगता था। रागिनी बहुत जल्दी में थी, एक चीज़ यहाँ से उठा रही थी तो दूसरी वहाँ से, ताकि कहीं उसकी रोड ट्रेन छूट न जाए। उसने एक बढ़िया सा स्नो-व्हाइट टेडी बियर देखा और उसकी क़ीमत वाला टैग चेक किया। नहीं वह उसकी बजट से बाहर था। वह काउन्टर पर बिल का भुगतान कर रही थी कि तभी उसे यूनिवर्सटी बस का हॉर्न सुनाई दिया। सुनी चाहती थी कि कोई उसके बैग उठाने में मदद करे, मगर वह शर्मा रही थी। वह मन ही मन सोच रही थी, लोग क्या सोचेंगे, वह बाज़ार में क्या कर रही है जब उसे कुछ ख़रीदना ही नहीं है। उसी समय रागिनी उसका हैंड बैग पकड़ने का प्रयास कर रही थी। एक हाथ में प्लास्टिक के बैग ले रही थी, दूसरे हाथ से पैसे दे रही थी कि उसका बैग नीचे गिर गया। सुनी सामान उठाने लगी।
“तुम रुको। मैं सब सामान उठा लूँगी। तुम बिल का भुगतान करो और जल्दी चलो रोड-ट्रेन पकड़ने के लिए।”
“कोटि-कोटि धन्यवाद!”
मगर उन्हें देर हो चुकी थी। उस दिन बस एकदम सही समय पर छूटी, दूसरे दिनों की तुलना में और उनकी बस निकल गई। रागिनी चिंता में पड़ गई जैसे कि कोई भी फ़र्स्ट ईयर की छात्रा होती है।
“चिंता की कोई बात नहीं, हम एक ऑटो कर लेंगे। मैं तुम्हारी सीनियर हूँ, इसलिए अब यह मेरा दायित्व है।” सुनी ने कहा।
“मैं रागिनी हूँ। तुम कौन?”
“सुनिता, मुझे सुनी कह सकती हो।”
“हाँ, मैंने तुम्हें टी.वी. रूम और डाइनिंग हॉल में देखा हैं। तुम सैकंड ईयर में हो। है न?”
“बिलकुल। हाँ, तुम्हारे लिए एक चॉकलेट। मैं तुम्हें हमेशा देना चाहती थी। क्योंकि मैंने सुना था कि तुम गत वर्ष यूनिवर्सिटी में टॉपर रही हो।”
“ओह हाँ, फिर से धन्यवाद। मैं भी हमेशा तुमसे बात करना चाहती थी। सभी कहते हैं, तुम बहुत अच्छी हो और सबकी मदद करती हो।”
उन दोनों में मधुर वार्तालाप हुआ। ऑटो से यूनिवर्सिटी जाने के दौरान चालीस मिनट की अवधि में वे दोनों अपनी कक्षाओं, विभागों, अध्यापकों, रोड ट्रेन, एंटिक और इधर-उधर की बातें करती रहीं।
दूसरे दिन, फिर उनकी मुलाक़ात कैंटीन में हुई और रागिनी ने देखा सुनी अकेली थी, वह हमेशा अकेली क्यों रहती है? उसने उसे अपने दोस्तों के साथ मिलाने के लिए बुलाया।
रागिनी ने देखा कि सुनी अंतर्मुखी लड़की थी, जब लोगों से अपने अनुभवों को बताने की उसकी बारी आई। वह बिल्कुल चुपचाप औरतों की तरह शांत और अपने में खोई हुई थी। सुनी की उदास आँखों में छुपी रहस्यमयी ख़ामोशी रागिनी को हर दिन उसकी तरफ़ आकर्षित कर रही थी। जो भी पहले डाइनिंग हाल में आता वह दूसरे के लिए पहले से थाली रख देती थी।
रविवार की शाम को जब दूरदर्शन पर कोई भी अच्छी मूवी आती थी तो एक वार्ड बॉय को भेजकर दूसरी को बुला लेती थी। सुनी ने रागिनी को सुपर मार्केट से ख़रीदी हुई आचार की बोतल दे दी, क्योंकि वह जानती थी यूनिवर्सिटी के पार्ट-1 की परीक्षाओं के दौरान अधिकतर रागिनी अपना भोजन रूम में ले जाकर करती थी, रात की पढ़ाई ख़त्म होने के बाद। मगर दूसरी सुबह उसके रूम के सामने ट्रे रखी हुई मिलती थी, जिसमें भोजन ज्यों का त्यों रहता था, शायद सब्ज़ी स्वादहीन होगी।
उन दोनों में एक समानता थी। दोनों ही प्रकृति प्रेमी थीं।
जैसे ही रागिनी अपने डिपार्टमेंट से आती थी, वह भोजन के कुछ ग्रास गले में उड़ेल देती थी और चिड़िया की तरह फुदकती हुई सुनी से मिलने के लिए बग़ीचे में चली जाती थी। सुनी ने अपने रूम के पास में एक छोटा-सा किचन गार्डन भी बना रखा था, जिसमें वह टमाटर, शलजम और हरी मिर्च उगाती थी। हर सप्ताहांत में वह अपने मैस में खाना नहीं खाकर दोनों के लिए घर में ही पकाती थी। उसे खाना बनाना बहुत अच्छा लगता था। सुनी जब बाग़बानी में व्यस्त रहती थी तो रागिनी उसके इर्द-गिर्द घूमती हुई उसे देखती रहती थी। उस दौरान रागिनी के हाथों और पाँवों में लगातार खुजली आती थी, बग़ीचे में कुछ काम करने के कारण।
मगर वह पढ़ाई के सिवाय किसी भी काम में निपुण नहीं थी। सुनी कच्चे टमाटर और मिर्च तोड़कर अपने दुपट्टे में डाल देती थी। रागिनी उसके पीछे-पीछे चलती थी, घास और पत्तियाँ तोड़कर सुनी के दुपट्टे में डालती हुई। कभी-कभी तो वह किसी कीड़े सा तिलचट्टे को अनजान में छू लेती थी तो डर के मारे चीखती हुई सुनी के पास आकर उसे पकड़ लेती थी तो कभी अपने हाथ उसके पेट पर पोंछ लेती थी। सुनी को कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता था, ऐसा लगता था जैसे वह रागिनी के लिए दीवार हो, न कि उसका पेट।
रागिनी फिर से एम.ए. पार्ट-1 की परीक्षाओं में अव्वल रही और सुनी ने भी द्वितीय वर्ष की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर ली। जिस दिन उसे अपनी डिग्री मिली, उसके दूसरे दिन ही उसने दूसरा एम.ए. का फ़ॉर्म भरा, ताकि उसे महेन्द्र तनया लेडीज़ हॉस्टल छोड़ना नहीं पड़े।
“ओह सुनी दीदी, मैं यह सोचकर परेशान हो रही थी कि तुम यह जगह छोड़कर अपने घर चली जाओगी। बहुत अच्छी बात है कि तुम और यहाँ रहोगी। देखो न, तुम्हारे सिवाय मेरा कोई ख़ास दोस्त नहीं है।”
“लेकिन तुम जानती हो, मुझे मेरा रूम छोड़ना पड़ेगा और एम.फिल., पीएच.डी. की लड़कियों के साथ रहना पड़ेगा।”
“क्यों, तुम मेरे रूम में भी रह सकती हो। टॉपर होने के कारण मुझे इस साल बड़ा रूम मिला है। तुम वहाँ मेरे साथ रह सकती हो।”
रागिनी की ज़िन्दगी आराम से कटने लगी, सुनी के उसके रूम में होने के कारण। अब उसे सुबह नहाने की पंक्ति में नहीं लगना पड़ता था और कोई भी चिंता नहीं थी, जैसे “आज मैं क्या पहनूँगी?”
वह अक़्सर अपने कपड़ों पर इस्तरी करना भूल जाती थी, जब बिजली रहती थी। अधिकांश समय उन्हें जनरेटर पर निर्भर करना पड़ता था, जिससे इलेक्ट्रिक आयरन काम नहीं करती थी। इसलिए उसे बिना इस्तरी किए सलवट भरे कपड़े पहनकर ही विभाग में जाना पड़ता था। इसे सिंथेटिक कपड़ों से एलर्जी थी, इसलिए वह शुद्ध कॉटन वाले कपड़े ही पहना करती थी और कॉटन वाले कपड़ों पर तो आयरन करना नितांत ज़रूरी है।
अब सुनी 6 बजे उठने लगी थी, रागिनी की अलार्म घड़ी की आवाज़ सुनकर, मगर पेड़-पौधों को पानी पिलाने नहाने-धोने, रागिनी के लिए पानी रखने, पूजा-आराधना करने और दोनों के लिए दो कप चाय बनाने के बाद उसके लिए सारी सुबह कुछ भी काम नहीं रहता था। इसलिए सुबह कभी-कभी वह अपनी और रागिनी की अलमिरा सजाने लगती थी तो कभी-कभी रागिनी का स्टडी टेबल, बुक शेल्फ़, नोट्स, ज़िरोक्स कॉपी, पेन, टेबल लैंप ठीक करने लगती थी। कभी-कभी वह रागिनी के कॉटन ड्रेस बाहर निकालती और उन पर आयरन करना शुरू कर देती थी।
“सुनी दीदी, प्लीज़ मत करो। रहने दो। मैं कॉलेज से आने के बाद दोपहर में कर लूँगी।”
“कब? जब बिजली नहीं होगी? अच्छा रहेगा अपनी एलिज़ाबेथ की दुनिया या जो कुछ भी पढ़ रही हो, उस पर ध्यान दो। मैं इसे कर लेती हूँ।”
“तुम क्यों नहीं करती, मेरे साथ बैठो और अपने गृह विज्ञान पेपर के नोट लिखो।”
“नहीं, मुझे नोट्स बनाने के लिए मत कहो। इसके अलावा, फ़र्स्ट क्लास लाकर मुझे करना भी क्या है? मुझे केवल पास होना है। जब तुम आईएएस ऑफ़िसर बन जाओगी तो मुझे अपना पीए बना देना, ठीक है? तुम कैसे रहती हो। ज़रा अपना सूटकेस तो देखो!”
वह ठीक कह रही थी। रागिनी का काम बहुत पड़ा हुआ था। पी.जी. पार्ट-II के अलावा, वह अँग्रेज़ी में नेट(NET) की तैयारी कर रही थी और आईएएस की भी। “तुम कुछ नहीं जानती हो। तुम्हें सारे विकल्प खुले रखने होंगे!”
शेयर और केयर करना तो उसने सुनी से सीखा। वह उस घर से आती है, जहाँ एक विधवा माँ अपने बच्चों पर चिल्लाती रहती है और एक बहिन जिसकी बहुत जल्दी शादी हो गई और एक बिगड़ैल भाई। उसके अपने परिवार के साथ कभी मज़बूत सम्बन्ध नहीं रहे। उसके लिए सुनी ही उसकी माँ, बहिन, सहेली और उसका परिवार था। सुबह जब रागिनी पढ़ती थी, सुनी एक घंटे में अपना काम-काज कर ऊन और सलाइयाँ लेकर छत पर चली जाती थी। वह रागिनी के लिए स्वेटर बुन रही थी, उसके पास केवल एक ही स्वेटर था। जब वह पढ़ रही होती थी तो सुनी कभी भी दख़ल नहीं देती थी, बल्कि वह बाहर से ताला लगाकर चली जाती थी ताकि कोई भी उसकी पढ़ाई में व्यवधान नहीं डाले। राजी, अनामिका, सागरिका, मोना, दमयंती, पारुल—वे सभी एक ही पंक्ति में रहते थे। चूँकि, रागिनी अपनी क्लास में टॉपर थी, उन्हें उससे ईर्ष्या होती थी और वे कुछ बहाना बनाकर रागिनी और सुनी के रूम में आकर कोई किताब तो कभी कोई नोट्स तो कभी संदेह दूर करने के बारे में तो कभी विभाग के लड़कों के बारे में तो कभी लड़कों के हॉस्टल के बारे में आलतू-फ़ालतू बातें करते थे।
एक बार शाम को सुरभि रागिनी के रूम में ग्लूकॉन-सी माँगने आई, जिसे सुनी ने रागिनी के लिए रखा था, जब वह कक्षा से थक हार कर आती थी तो वह उसे पिलाती थी। जब रागिनी ने अपने हाथ में किताब लिए दरवाज़ा खोला तो सभी लड़कियाँ एक के बाद एक उसके रूम में घुस आईं।
“अरे रागिनी, क्या तुम दिन-रात पढ़ते हुए बोर नहीं होती हो? तुम्हारा अभी तक कोई बॉय फ़्रेंड भी नहीं है। केवल हर समय किताबों को रटती रहती हो। कैसी लड़की हो?”
“नहीं यार, मैं तो अभी-अभी कुछ पढ़ने बैठी थी। आओ तो।”
“मुझे तुम्हारा ग्लूकॉन-सी दो। मुझे थकान लग रही है।”
“क्यों तुम्हारा बॉय फ़्रेंड तुम्हें कुछ ज़्यादा ही परेशान करने लगा है?” सविता ने कहा और पीछे बाक़ी सभी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। अगली पंक्ति की लड़की रेशमा का चचेरा भाई लड़कों की हॉस्टल में रहता है। इसलिए उसे लड़कों के बारे में सबसे ज़्यादा जानकारी रहती है और हमेशा उसकी माँग बनी रहती है।
“रेशमा, बात क्या है? हमें क्यों नहीं बता रही हो?” राखी ने उससे पूछा।
“हे, तुम जानती हो, मेरा चचेरा भाई कह रहा था कि उनके बाथरूम में हॉलीवुड और बॉलीवुड की हीरोइनों के फोटो दो भागों में लगे हुए हैं। सभी लड़के वहाँ जाते हैं और उन फोटो पर चुंबन लेते हैं। वे सब ऐसा काम लड़कियों के फोटो के सामने करते हैं। तुम जानती हो? वे यहाँ तक कि एक दूसरे के लिए ‘ऐसा’ भी करते हैं,” वह खिसियाती हुई कहने लगी।
“प्लीज़ ऐसी सारी बातें यहाँ मत करो। सुनी दीदी मुझे मार डालेगी,” रागिनी ने कहा और देखा कि सुनी पहले से ही दरवाज़े पर खड़ी थी।
“तुम लड़कियों को पढ़ना नहीं है? कम से कम यूनिवर्सिटी टॉपर के बारे में तो सोचो। उसे तो पढ़ने दो,” भीड़ चली गई।
“सुनी दीदी, यह क्या होता है? मैं उन्हें प्यार से समझा देती।”
“नहीं रागिनी, तुम नहीं जानती हो इन लड़कियों को। ये तुम्हें अपने पढ़ाई से समय डिस्टर्ब करना चाहती हैं और वे सारी पढ़तीं रहेंगी। और वह क्यों हर रोज़ तुमसे ग्लूकॉन-सी माँगती रहती है? क्या वह ख़रीद नहीं सकती है? जबकि वह हर महीने अपना नया कुर्ता ख़रीद सकती है, हाँ?”
“रागिनी! प्लीज़ मुझे बॉय फ़्रेंड के बारे में मत कहो,” सुनी परेशान हो गई।
” क्यों? तुम लड़कों से इतनी नफ़रत क्यों करती हो?”
सुनी हिचकिचाते हुए कहने लगी, “क्या तुम्हारे पास ख़ाली समय है? मैं तुम्हें रात को डिनर करने के बाद बताऊँगी। मेस की घंटी बज रही है।”
उस रात रागिनी को पता चला कि सुनी का अतीत दर्द भरा था। उसके प्रशांत महासागर जैसी अभूतपूर्व शांत चेहरे के पीछे एक तूफ़ान छुपा हुआ था।
सुनी के पिताजी राज्य के बहुत बड़े उद्योगपतियों में से एक थे। वह सफल बिज़नेसमैन थे और बिज़नेस में सफलता पाने के लिए उन्हें कई जगह समझौता करना पड़ा था। पहला, उन्हें अपने स्थानीय एमएलए की बिगड़ी हुई औलाद के साथ बिना उसकी अनुमति के शादी करनी पड़ी थी। यहाँ तक कि बिना उससे सलाह मशविरा किए हुए। वह लड़का गुंडा था। जैसे-तैसे कर उसने किसी प्राइवेट यूनिवर्सिटी से एम.ए. पास किया था और उन दिनों वह अगले आम चुनाव में खड़ा होना चाहता था। अपने परिवार और दोस्तों से उसने सुनी की सुंदरता के बारे में सुन रखा था और विगत गर्मियों की छुट्टी तक उसका इंतज़ार करता रहा।
सुनी मई के बीच में घर गई थी और उसे फिर से 1 जुलाई से अपनी क्लास ज्वाइन करनी थी। काफ़ी लंबी छुट्टियों में, वह अपने घर पर भी किचन गार्डन बनाकर समय काटने का सोच रही थी। अगली सुबह ही उसने अपने चपरासियों को पौधे, खाद, बीज लाने तथा उस जगह को साफ़ करने का निर्देश देने लगी थी। उस समय, एक कुरूप दिखने वाला आदमी, जिसकी उम्र चालीस वर्ष के आस पास होगी, घर के भीतर अधिकारपूर्वक कार लेकर घुसा और नीचे उतरा।
“सलाम साहिब!” चपरासी ने कहा। वह कौन था? सुनी ने उसे कभी देखा नहीं था। और वह सुनी की ओर बाँहें खोलकर क्यों आ रहा था?
“हाई स्वीटी! तुमने मुझे बहुत इंतज़ार करवाया।” ओह उसने नौकरों और चपरासियों को उपस्थिति में भी उसे अपने लगभग सीने के पास खींच लिया। सभी ने नज़रें झुका लीं। सुनी अभी भी अपना नाइट सूट पहने हुए थी, स्निग्ध और तरो-ताज़ा लग रही थी।
वह आपे से बाहर हो गई और उस आदमी को बहुत तेज़ी से बाहर धकेल दिया।
“तुम हो कौन? और तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे साथ ऐसा बर्ताव करते हुए?”
“ओह, क्या तुम्हारे पिता ने तुम्हें बताया नहीं कि मैं तुम्हारा बॉयफ़्रेंड हूँ? माजरा क्या है?”
“उस आदमी को बुलाओ, हे तुम!” वह अपने नौकर पर चिल्लाने लगी।
सुनी के पिताजी तभी आ पहुँचे।
“रागिनी बेटा यह मि. सामंत है, एमएलए साहब की इकलौती संतान। मैंने उन्हें वचन दिया है कि तुम्हारी और सामंत की अगले साल शादी होने जा रही है। अगर तुम दोनों सहमत हो तो गर्मियों की छुट्टियों में सगाई की रस्म अदा कर देते हैं। और दोनों को एक दूसरे के साथ रहने का मौक़ा भी मिल जाएगा। सामंत बेटा, तुम उसे घुमाने के लिए बाहर क्यों नहीं ले जाते?”
“ओह, पक्का अंकल! यह बहुत सुंदर है।”
“पापा! मुझे आपसे अभी बात करनी है,” और वह दौड़कर अपने बेडरूम की ओर चली गई।
“सामंत, बैठिए। मैं एक मिनट में वापस आता हूँ। वास्तव में मैंने तुम्हारे बारे में उसे बताया नहीं था। वह कल रात को ही घर आई है।”
सामंत बेसब्री से इंतज़ार करने लगा।
“पापा, मेरे साथ ऐसा मत करिए। मैं कुछ साल और पढ़ना चाहती हूँ और अभी मेरा शादी करने का ख़्याल नहीं है। मैं तैयार नहीं हूँ। और वह आदमी इतना घटिया! मैं उसके साथ शादी नहीं कर सकती हूँ, पापा!”
“क्या? तुम इतनी अहंकारी क्यों हो? वह एमएलए का लड़का है और तुम्हारे पिताजी का भविष्य, क्योंकि कोई भी उद्योगपति उस पर ज़्यादातर निर्भर करते हैं। देखो सुनी, मैंने तुम्हें अपना निर्णय देने के लिए नहीं कहा है। तुम्हें सामन्त के साथ शादी करनी पड़ेगी, भले ही, तुम्हें पसंद हो या नहीं। और एक बार जब तुम्हारी शादी हो जाएगी तो तुम्हें वह अपने आप पसंद आने लगेगा।”
“नहीं, पापा, मैं मर जाऊँगी, अगर मुझसे ज़ोर ज़बरदस्ती की। प्लीज़ पापा!”
“कुछ नहीं। अपना मुँह बद रखो। वह सुन रहा होगा।”
उसका हर शब्द सुनाई दे रहा था। घटिया? ठीक है। वह उसे अच्छी तरह समझाएगा कि घटिया आदमी कैसा होता है।
अगले कुछ दिनों तक सामंत ने सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया। मगर सुनी ज़िद्दी थी। उसकी अभी शादी करने की कोई इच्छा नहीं थी। और अगर उसे शादी करनी ही पड़ेगी तो लड़का उसकी पसंद का होगा। वह भी ज़िद्दी पिता की ज़िद्दी बेटी थी इसलिए कुछ नहीं किया जा सकता था।
मगर क़िस्मत ने सुनी के लिए कुछ और तय कर रखा था।
एक रात में ही दुनिया पूरी ऊपर से नीचे हो गई। अप्रत्याशित बारिश होने लगी। बारिश, मूसलाधार बारिश।
धरती पर विहंगम दृष्टि डालने से जूरैसिक ज़माने की तस्वीर लगने लगी थी। साफ़ सुथरे जलाशयों में जंगल का काला पानी मिलता जा रहा था।
दुनिया अलग हो गई थी जंगली जानवरों से घिरकर। सामंत ने सुनी को उसके पिता के नाक के नीचे से उठाकर किसी अनजान फ़ॉर्म हाउस में लेकर गया। दिग्वलय की मद्धिम रोशनी में पुल के नीचे पानी दो हिस्सों में बँट रहा था। गोचर भूमि पर लाल चींटियों के उपनिवेश का आधिपत्य हो गया था, सदाबहार वृक्षों के झुरमुट उस रात और लंबे होते जा रहे थे, जिससे सुनी की आत्मा के भीतर भी कोह की बारिश होने लगी। बारिश में उसके तन और मन में आग सुलगने लगी।
अगली सुबह वह हॉस्टल चली आई, वहाँ कोई परिंदा भी पर नहीं मार रहा था, सिवाय वार्डन दीदी और उसके बच्चे एक रूम में रह रहे थे। बाक़ी सारे रूम पंजाब टेक्निकल यूनिवर्सिटी से आई फ़ुटबाल टीम की लड़कियों को दे दिए गए थे। सुनी ने वार्डन को झूठ बोला कि वह जल्दी इसलिए आ गई है क्योंकि उसके माँ-पिताजी अमेरिका चले गए हैं एक महीने के लिए और वह अपनी पढ़ाई के लिए चली आई है। वार्डन दीदी सुनी को पसंद करती थी, क्योंकि वह अत्यंत विनीत स्वभाव की लड़की थी। उसने उसे अपने परिवार के साथ उस महीने रहने दिया जब तक कि यूनिवर्सिटी नहीं खुल गई।
सुनी को आदमियों से नफ़रत हो गई, सभी आदमियों से उस रात के बाद।
“माय गॉड! सुनी दी!! ओह माय गॉड! ओह माय गॉड! तुम अपने सीने में इतना दर्द छिपाकर हर समय मुस्कुराती कैसे रही? इतना सब कुछ होने के बाद तुम सामान्य कैसे हुई? मैं उस बास्टर्ड को मार दूँगी। तुम्हारे माँ-बाप ने तुम्हारे साथ ऐसा क्यों किया? तुमने पुलिस क्यों नहीं बुलाई? ओह माय गॉड! मैं बहुत दुखी हूँ। पूरी तरह से अपसेट।”
रागिनी सिसकने लगी।
“रागिनी दुखी मत होओ! पुलिस बुलाने का कोई फ़ायदा नहीं था। उसके पिताजी एमएलए हैं और मेरे पापा उसकी पार्टी के समर्थक। किसी भी तरह मेरे लिए सबसे बड़े क़िस्मत की बात थी कि सामंत ने मुझे फ्रिजिड और कोल्ड और अपनी पत्नी बनने के आयोग्य पाया। इसलिए उसने मुझसे शादी करने के लिए इंकार कर दिया। अगले सप्ताह मम्मी ने मुझे बुलाकर डाँटा कि मैंने उसके साथ सहयोग नहीं किया।”
क्या यह नैसर्गिक था? एक आदमी के लिए शादी से पहले सैक्स की इजाज़त है चाहे कितनी भी औरतों के साथ क्यों न हो। केवल यह देखने के लिए कौन उसे हर रात ख़ुश करने के लिए उपयुक्त रहेगी। अगर कोई औरत ऐसा तरीक़ा खोज लेती तो?
रागिनी का अपरिपक्व दिमाग़ सोच भी नहीं पा रहा था कि क्या सही है और क्या ग़लत। वह उस रात पूरी तरह बैचेन थी और बीच-बीच में सिसकियाँ भरती रही।
“तुम जानती हो सुनी दीदी, मेरी दीदी की राजीव भाई से शादी हुई है। उसके तीन बच्चे हैं। उसकी भी दर्दनाक कहानी है। आदमी लोग ऐसे क्यों होते है?”
रागिनी ने अपनी शालिनी दीदी की कहानी विस्तार से बताई। उस सारी रात वे दोनों बातें करती रहीं, एक दूसरे के आँसू पोंछते हुए और एक दूसरे को दिलासा देते हुए। दूसरे दिनों की तुलना में, अलग-अलग सोने की जगह उस दिन वे एक बिस्तर पर सो गई। जबकि अन्य दिनों में एक बिस्तर पर सोती थी तो दूसरी ज़मीन पर।
उनकी खिड़की के पास के नीम के पेड़ की छाया बिस्तर पर गिर रही थी, ठंडी हवा बह रही थी। सफ़ेद झाग की तरह चंद्रमा की रोशनी उनके बिस्तर पर जहाँ-तहाँ गिर रही थी।
सुनी की कहानी का तूफ़ान शांत होने के बाद रात नीरव होने लगी थी। रागिनी ने धीरे से अपना सिर उसकी बाँहों पर रखा और सुनी के लंबे रेशमी बालों को सहलाने लगी। कनपटी के पास वाली जगह उसके आँसुओं से भीग गई थी, उसने अपनी अंगुलियों से उसे पोंछा।
“ओह रागिनी! यह प्यार है! यही तो स्वर्ग है! यह विशुद्ध प्रेम है, सच्चा प्यार—जो तुमने मुझे दिया है और मैंने तुम्हें। मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। मुझे कोई दुख नहीं होगा अगर मैं मर जाऊँ, मेरे जीवन में इतना सच्चा प्यार पाकर।”
वह उसके कानों में फुसफुसाती रही और उसे अपने नज़दीक खींच लिया। उसने उसका सिर बड़े प्यार से चूमा और उसके बाद, उसके गाल, ड्योढ़ी, गर्दन, पीठ सब छूने लगी। देखते-देखते उसकी हर जगह पर धीरे-धीरे वह स्पर्श करने लगी और उसे अपने नज़दीक इतना भींच लिया कि वे एक दूसरे की साँसें लेने लगी। रागिनी की साँस थम-सी गई थी।
सुनी ने पहले पहल की। पहले धीरे से उसने रागिनी का चेहरा चूमा, उसके बाद वह उसके होंठ चूमने लगी, बहुत देर तक। उसके बाद उसके हाथ उसकी नाभि और उभरे हुए स्तन सहलाने लगे। और उसे पता भी नहीं कि कब उसके हाथ रागिनी के भीतर गहन, गहनतर और गहनतम तक जा चुके थे। जैसे एक दूसरे में बहती हुई दो नदियाँ समुद्र में मिलती जा रही हों वैसे ही उनका शरीर से आत्मा में मिलन होता जा रहा था। दो आत्माओं का मिलन।
दोनों ने उस समय जो अनुभव किया—क्या वह नेचुरल नहीं था। पेड़ो पर पत्तियाँ उगने, बसंत में फूल खिलने या सर्दियों में प्रवासी चिड़ियों का अपने गंतव्य स्थान पर आने की तरह।
जीवन अच्छा चल रहा था, आख़िरकार। वह वर्जित प्रेम नहीं था, बिल्कुल भी नहीं।
अगली सुबह रागिनी को कुछ अपराध बोध-सा महसूस हो रहा था। मगर सुनी के चेहरे पर ऐसे कोई भाव नहीं थे। अन्य दिनों की तरह सबकुछ सामान्य ही था। स्नान करना, पानी रखना, दोनों के लिए खाना बनाना, क्योंकि उस दिन बंद था। सच में, सुनी पूरा ध्यान रखती थी कि रागिनी को किसी भी प्रकार की असुविधा न हो।
“तुम एक घंटा और सो जाओ। मैं सीढ़ियों पर जा रही हूँ। दस बजे दरवाज़ा खोलूँगी। तब तक तुम नाश्ता कर लेना, फिर पढ़ाई करना, ओके?” उसने उसका गाल चूमा और चली गई। रागिनी को अच्छा नहीं लग रहा था। इतना कुछ होने के बाद भी वह सामान्य-सा व्यवहार कैसे कर सकती है? क्या वह पागल है? रागिनी भ्रम में पड़ गई।
मगर सुनी बिल्कुल भी नहीं। जैसे कि उसे पहले से ही इन सारी चीज़ों की जानकारी है। सेफो की तरह वह जानती थी किसी महिला से उसे सांत्वना, आराम और स्थिरता मिलेगी, पुरुष से कभी भी नहीं। वह ऐसे ही बनी थी। उसे जीवन की सारी कोमल भावनाओं से प्यार था, जिसे वह केवल औरत से ही पाने की उम्मीद कर सकती थी, रागिनी से न कि किसी आदमी से।
रागिनी उसक प्रतिरूप थी। वह दुबली-पतली, स्मार्ट, बुद्धिमान, दृढ़ निश्चयी, महत्वाकांक्षी, समर्पित, मुँहफट, अपरिपक्व, बाल-सुलभ, स्टाइलिश और उसके ऊपर निर्भर करती थी और दूसरी तरफ़ वह उन्मुक्त, आधुनिक, खुले विचारों वाली इक्कीसवीं सदी की महिला थी जैसा सुनी हमेशा बनना चाहती थी। मगर वह कभी ऐसा बन न सकी। वह कभी भी devil-may-care जैसी हो न सकी।
तो क्या हुआ? रागिनी की सफलता उसकी सफलता से कम नहीं थी। रागिनी की उपलब्धियाँ उसकी अपनी उपलब्धियाँ तो हीं थीं। जीवन गुज़रता चला गया। रागिनी और सुनी अब दोनों आराम से थीं। वे एक दूसरे का ध्यान रखतीं, दुख-सुख बाँटतीं और एक दूसरे को प्यार करतीं।
एक दिन हॉस्टल में गणेश पूजा के बाद टी. वी. रूम में डीवीडी लाने का सीनियरों ने प्रोग्राम बनाया। एक फ़िल्म उन्होंने देखी, वह थी दीपा मेहता की ‘फायर’। सारी लड़कियाँ हँसने लगी। ओह शिट! ओह गॉड, यह सब क्या चल रहा है? ये दोनों औरतें क्या कर रही हैं? क्या ऐसा हो सकता है? उन्हें गंभीर समस्या थी।
रागिनी ने आग में घी डाला, “क्यों नहीं? क्या तुम नहीं देख रही हो, कैसे-कैसे पुरुष होते हैं इस जीवन में? एक औरत उस आदमी से कैसे प्यार कर सकती है जो उसका ध्यान नहीं रखता हो, इज़्ज़त नहीं देता हो, उसकी भावनाओं की क़द्र नहीं करता हो? क्या किसी आदमी के साथ सैक्स करना ही प्रेम है? तुम सब पढ़ी-लिखी हो। तुम लोग कैसे नहीं जान पा रही हो कि प्रेम एक बहुत ही कोमल भावना है जिसे एक औरत उसी आदमी के साथ बाँट सकती जो उसकी भावनाओं की क़द्र करता हो, केवल शारीरिक तौर पर नहीं? शारीरिक नज़दीकियाँ केवल एक तरीक़ा है उस आदमी के प्रति प्रेम प्रदर्शन का, जो उसका ख़्याल रखता हो, चाहे कोई आदमी हो या औरत हो या प्रकृति ही क्यों न हो। इसमें अप्राकृतिक क्या है? ‘होमो’ या ‘हेटरो’ होना किसी का चरित्र नहीं दर्शाता है। दिक़्क़त तब है, जब हम पर्वर्ट हो, इंडिसेंट हों, बेईमान हों, हिंसक हों, धोखा देते हों या दुष्ट हों। फिर किसी की अलग सैक्सुअल पसंद हमारे लिए क्या दिक़्क़त कर रही है? हम किसी और के वैकल्पिक यौनता के बारे में अपनी प्रतिक्रिया देकर तिल का ताड़ क्यों बना रहे हैं? अगर कोई अपने संबंधों में ईमानदार और गंभीर है तो समस्या क्या है? समय बदल रहा है, फिर हमारी दिमाग़ी-ढ़ाँचा क्यों नहीं? होमोसैक्सुलिटी का विचार तुम्हारे अंदर से निकल रहा है? अच्छी बात है। कौन कह रहा है कि तुम अपने ही बनो? मगर तुम्हें किसने अधिकार दिया है किसी की भर्त्सना करना या मज़ाक उड़ाना कि वह ‘लेस्बियन’ है या ‘गे’? कम से कम लोगों पर अपने निर्णय लेना छोड़ दो, जिनकी संवेदनाओं पर उनका नियंत्रण न हो। आख़िरकार, ये सब प्रकृतिजन्य ही तो है।”
क्या???
सारी लड़कियाँ हँसी दबाते हुए एक दूसरे की तरफ़ देखने लगीं। उस दिन के बाद जहाँ कभी सुनी और रागिनी साथ में दिख जाती थीं तो गप मारती हुई लड़कियाँ कुछ बुदबुदाने लगतीं थीं और उसके बाद वे ‘ही ही ही’ करके हँसने लगती थी।
मगर कौन ध्यान देता है? जब सामने बड़ी चुनौतियाँ मुँह फाड़े खड़ी हों तो इन छोटी-मोटी चीज़ों पर किसका ध्यान जाता है।
रागिनी के पार्ट-2 की परीक्षाएँ शुरू हो गईं थीं और उसे बहुत मेहनत करनी थी। सुनी इस बात का पूरा ध्यान रखती कि कोई भी सहेली उसे व्यवधान न पहुँचाए।
“सुनी दीदी, बहुत-बहुत धन्यवाद, अगर मैं अच्छा पढ़ पा रही हूँ तो इसका क्रेडिट तुम्हें जाता है।”
“हाँ . . . तुम अपनी चापलूसी अपने पास रखो। मैं जानती हूँ कि तुम अपने दोस्तों के साथ किसी पार्टी में जाने का बहाना खोज रही हो। ओके, जाओ, मगर शाम को छह बजे तक आ जाना, पढ़ाई करना है।”
क्या वह माँ की तरह नहीं है? क्या वह सुनी-दीदी की तरह है?
“तुम अकेली क्या करोगी? तुम भी क्यों नहीं आती?”
“ओह नहीं, आठ लड़के और सात लड़कियों का बड़ा ग्रुप है तुम्हारा। जी-7, इसलिए तुम कह रही हो, है न? मैं उन लड़को को बर्दाश्त नहीं कर सकती।”
“उनके साथ क्या दिक़्क़त है? वे तुम्हारी इज़्ज़त करते हैं,” रागिनी ने कहना जारी रखा मगर सुनी उन लोगों के साथ नहीं गई।
“हे, रागिनी! तुम्हारे रूममेट की क्या प्रॉब्लम है? वह पागल है, यार!” रेशमा कहने लगी।
“आओ, उसने तुम्हें उस दिन अपने निर्धारित समय में पढ़ने के लिए कहा था, इसलिए तुम उसकी विरोधी बन गई। मगर तुम्हें इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि वह हॉस्टल में सबकी चहेती है, यहाँ तक वार्डन की भी।”
“ओह . . . मगर वह तो तुम्हारी डार्लिंग है, है न? हम आश्चर्यचकित हैं कि तुम उसे जितना प्यार करती हो, अपने पति को भी करोगी?”
“तुम लड़कियों के पास बॉय फ़्रेंड, पति के अलावा कोई दूसरा टॉपिक नहीं है। यही कारण है सुनी दीदी मुझे तुम्हारे साथ आने पर डाँटती है। वह सही कहती है।” सभी लड़कियाँ सोचती थीं कि वह हवा में बातें करती है। घमंडी है।
क्या सच्चा प्यार कभी स्वीकार्य हुआ है, किसी भी तरह से?
रागिनी के दूसरे वर्ष की परीक्षाएँ ख़त्म हो चुकीं थीं और आशा के अनुरूप वह अच्छे अंकों से उत्तीर्ण भी हुई। उस समय सुनी का दूसरे एम.ए. कोर्स का पहला वर्ष पूरा हो चुका था। हॉस्टल में रहने वाली फ़र्स्ट की सभी लड़कियों ने मिलकर एम.ए. की जाने वाली लड़कियों को फ़ेयरवेल पार्टी देने की योजना बनाई, सोनपुर समुद्रतट पर—जो यूनिवर्सिटी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर था। बहुत मज़ा आया था। सारे दिन रागिनी और उसकी सहेलियाँ जूनियर लड़कियों के साथ मिलकर समुद्रतट में गुलाछें मारती रहीं, नाचती रहीं, गाती रहीं और रेस्टोरेंट में समुद्री भोजन का भी आनंद लेती रहीं। सुनी दूर से सबकुछ नज़ारा देख रही थी। उसे ऐसा जंगलीपन कभी रास नहीं आता था। यद्यपि वह उनसे दर्जे में जूनियर थी, मगर वह उन सबसे बड़ी भी थी और वह अपना सम्मान बरक़रार रखना चाहती थी। जबकि वह वार्डन के साथ बैठकर रसोईए भगवान भाईना की मदद करने लगी। और सोचने लगी वह कल रागिनी के लिए कुछ सूखी मछलियाँ तल देगी। उसे सूखी मछलियाँ अच्छी लगती हैं।
ऐसी बात नहीं थी कि सुनी हमेशा उदास और गंभीर रहने वाली लड़की थी। वह यह भी जानती थी कि रागिनी को मज़ाक करना अच्छा लगता है, इसलिए उसे ख़ुश रहना चाहिए। सोनपुर जाने के रास्ते, लड़कियाँ सुबह चार बजे एक गाँव में निवृत्त होने के लिए उतरीं। सुनी उन्हें साफ़ जगह पर ले गई और अँधेरे रहते-रहते नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिए कहा। लड़कियाँ बहुत ख़ुश हो गईं कि भोर होने से पहले ही उनका यह काम पूरा हो गया। उसके बाद वे कुएँ की तरफ़ गईं, वहाँ पर कुछ पूरी नहाई तो कुछ आधी और सभी ने अपनी पोशाकें बदल दीं। बस में वापस आते समय, उन्होंने देखा कि वह साफ़ जगह किसी के घर का पिछवाड़ा था, जहाँ गत शाम में ही गोबर पानी छिड़का हुआ था, शायद कोई उत्सव होगा।
“भागो! जल्दी भागो!”
वे भागी और भागती हुई बस में चढ़ीं और चढ़ने के बाद पूरे रास्ते पिकनिक स्पॉट पहुँचने तक हँसती रहीं। यह सुनकर हॉस्टल की वार्डन और दूसरे स्टॉफ़ अचंभित रह गए।
सुनी जानती थी कि रागिनी को समुद्री भोजन बहुत अच्छा लगता है। सोनपुर में घूमते समय कहीं उसे अच्छे केकड़े दिखाई दिए। उसने भगवान भाइना से पूछा कि क्या वह उसे अगले दिन हॉस्टल मेस में खाना पकाने की इजाज़त देंगे, एक घंटे के लिए ही सही। वह सहमत हुए, मगर सुबह 6 बजे, जब वहाँ कोई नहीं होगा। सुनी ने दो किलो ज़िन्दा केकड़े ख़रीदे और उसे बाल्टी में डालकर बस के एक कोने में रख दिए। लंच से पहले, कुछ लड़कियाँ अपने थैलों से स्नैक्स लेने आई और ज़ोर से चिल्लाने लगीं। बाल्टी के सारे केकड़े बाहर आ गए और बस में डायनासोर की तरह घूमने लगे। एक भयंकर नज़ारा दिखाई दे रहा था। रसोइया और दूसरे लोग चिल्लाने की आवाज़ सुनकर देखने गए, मगर भगवान भाईना ने कभी भी दूसरों के सामने सुनी का नाम नहीं खोला। सुनी मन ही मन हँस रही थी, ताकि रागिनी समझ सके।
“सुनी-दीदी, आपने मेरे लिए किया है यह सब-कुछ, है न? हे भगवान! सोचो तो! तुम हॉस्टल में मेरे लिए केकड़े तलना चाहती थी? चलो वार्डन को कह देते हैं कि भगवान भाईना को हटाकर तुम्हें नया कुक बना दें, ठीक रहेगा?” वह बुदबदाने लगी।
सुनी ने उसकी हथेली पकड़कर चुप रहने का इशारा किया। लंच करने के बाद लड़कियों ने वार्डन से अनुरोध किया कि समुद्र तट पर वे एक रात गुज़ारना चाहती हैं। इसके लिए वे अपने ख़र्चे पर किसी होटल में रह लेंगी।
अगली सुबह हॉस्टल वापिस चली जाएँगी। इसलिए वार्डन को अपने तथा अपने बच्चों के लिए भी एक रूम किराए पर लेना होगा। उन्हें वहाँ दो डोरमेंटरी जैसे बड़े हॉल मिले, प्रत्येक हॉल में बीस बिस्तर लगे हुए थे और लड़कियाँ कुल साठ थी। फिर भी, उस रात सोनपुर में रुकने के लिए लड़कियाँ सहमत हो गईं अपने बेड शेयर कर रहने के लिए।
उस रात समुद्र अपने उफान पर था, बहुत ज़्यादा। नीरव, सफ़ेद उदास मानसूनी रोशनी और रक्तिम लालिमा ने लड़कियों को कुछ हद तक विचलित कर दिया था। लगातार बहने वाली हवा आकाश को मादक बना रही थी, धरती समुद्र के आलिंगन से खिलखिला रही थी। सुनी मन ही मन कह रही थी, “ओह समुद्र देव! मेरी ज़िन्दगी को बदल दो, मुझे मुक्त कर दो मेरी सोच से, काश! यह पल थम-सा जाता। रागिनी, मेरे प्यार, के इस जगह के छोड़ने के बाद मैं क्या करूँगी? मेरी आत्मा को अपने साथ ले लो। सरसों के खेतों की तरह तुम हरी-भरी और तरो-ताज़ा हो नदी की तरह भीगी हुई और लगातार बहने वाले हो, ताल लय पर अनुनादित होते हो। तुम आकर मेरी आत्मा में पनपो, मुझे अपनी नीली आँखों में समा जाने दो, तुम्हारी तूफ़ानी साँसों में मेरी साँसें घुल जाने दो। तुम सृजन का संगीत हो, मुझे अपने आलिंगन में भर दो। मुझे कहीं नहीं जाना है, मम्मी-पापा के पास भी नहीं और मैं रागिनी के पीछे ज़्यादा नहीं जा सकती। उसका अपना कैरियर है, भविष्य है। ओह समुद्र . . . अब तुम ही मेरा सहारा हो।”
धीरे-धीरे वह अपनी जगह से उठी और गरजती हुई तरंगों की तरह बढ़ने लगी। वह लगभग अचेत हो चुकी थी। समुद्र तट पर लड़कियाँ ‘कैंप फायर’ के चारों तरफ़ नाचने में व्यस्त थीं।
“आप जैसा कोई नहीं, मेरी ज़िन्दगी में आए तो बात बन जाए . . . हाँ हाँ बात बन जाए।”
“सुनिता, तुम क्या कर रही हो? ओह कोई मदद करो! मदद करो!” वार्डन चिल्लाई। रागिनी और उसकी सहेलियों का ध्यान गया उस तरफ़। क्या हो गया? आग और हंसियानुमा चन्द्रमा की रोशनी के सिवाय सब जगह अँधेरे का राज था। तीन मछुआरे पानी में कूदे और सुनी के डूबते हुए अचेत शरीर को खींचकर बाहर निकाला।
रात शांत थी, मौत की तरह ख़ामोश, डारमेंटरी के भीतर। सभी परेशान थे, दबी आवाज़ में कानाफूसी कर रहे थे।
“यह हमेशा ऐसे ही करती है। पागल! दिखाने के लिए।”
“तुम जानती हो न, वह लोगों का ध्यान खींचना चाहती है।”
“तुम्हें क्या पता, हमारी बेचारी रागिनी इस परजीवी को कैसे बर्दाश्त करती होगी?”
रात के दो बज रहे थे। सभी बारह बजे के बाद सोने चले गए और बिजली बुझा दी गई थी। सुनी को कुछ दवाइयाँ और खाना दिया गया। रागिनी ने उसे धीरज बँधाया और अपने पास सोने के लिए कहा। उसे बहुत चिंता हो रही थी। हे भगवान! कुछ हो जाता तो? हॉस्टल छोड़ने के बाद कौन इस लड़की का ध्यान रखेगा? अगले महीने उसके आईएएस की परीक्षा है और उसके बाद नेट (NET) की परीक्षाएँ। उसे घर जाकर तैयारी करनी होगी। कल उन्हें अपने रूम छोड़ने होंगे और कॉमन रूम में जाना होगा, जब तक कि उन्हें हॉस्टल और यूनिवर्सिटी की तरफ़ से क्लीयरेंस नहीं मिल जाता। लड़कियों की मिश्रित प्रतिक्रियाएँ थीं, वे अपने भविष्य के बारे में सोच रहीं थीं। कुछ अपनी जॉब खोजेंगी तो कुछ शादी करेंगी। अगले सप्ताह से उनका वास्तविक जीवन शुरू होने वाला था। विद्यार्थी जीवन अब समाप्त हो गया था, इसी के साथ ख़ुशियों, हँसी-मज़ाक और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना दिन ख़त्म हो गए थे। सभी आने वाले कल के बारे में सोच रहीं थीं फिर भी ख़ुशी से अपने पते, फोन नंबर, ई-मेल यहाँ तक कि नज़दीक भविष्य में होने वाली अपनी शादियों में एक दूसरे को आमंत्रित कर रहीं थीं। जीवन नया आकार लेने जा रहा था।
रागिनी को या तो सिविल सर्विस का या फिर रिसर्च फ़ैलोशिप की परीक्षा पास करनी थी, नहीं तो माँ शादी के लिए उसके पीछे पड़ जाएगी, शालिनी की तरह। नहीं, वह शादी नहीं करेगी। वह अपनी ज़िन्दगी राजीव भाई या निकम्मे सामंत जैसे आदमियों के साथ नहीं गुज़ार सकेगी।
रागिनी ने सुनी का सिर थपथपाकर उसे सुलाने का भरसक प्रयास किया। उसे नींद की गोलियाँ दी गईं थीं, इसलिए उसे नींद आ जानी चाहिए थी। मगर सुनी को नींद नहीं आ रही थी, वह पूरी तरह से काँप रही थी। रागिनी उसे दिलासा दे रही थी, सुनी का सिर अपनी छाती पर रखकर उसके बाल और भौंहे सहलाते हुए लोरी दे रही थी “सो जाओ, सो जाओ . . . अब सो जाओ।”
तीन बजे रेशमा अपने बिस्तर के पास विचित्र आवाज़ सुनकर उठी, जहाँ रागिनी और सुनी सोई हुई थी। डरावनी प्रतिध्वनि सुनाई दे रही थी, जैसे कोई जंगली जानवर ताज़ा मांस पाकर गुर्राता है और चाटता है। ऐसी आवाज़ उसने पहले कभी सुनी नहीं थी, यहाँ तक कि अपने ख़तरनाक डरावने सपनों में भी नहीं।
वह डरकर उठी और सोचने लगी कि कहीं कोई समुद्री जानवर तो डोरमेंटरी में घुस नहीं आया है, समुद्री तरंगों को पार करते हुए और मांस खाते हुए आवाज़ें निकाल रहा है। शायद समुद्र से केकड़े फिर आ गए होंगे, जिन्हें सुबह बस में से बाहर फेंका था।
”राजी, रीता उठो और लाइट लगाओ प्लीज़!” वह बुदबुदाई।
लाइटें जगाई गईं। सभी दिशाओं से सभी लाइटें!
दो लड़कियाँ, एक दूसरे से चिपकी हुई, एक दूसरे के नग्न शरीर से साँसें ले रहीं थीं, एक दूसरे का रसपान करते हुए।
आत्मा से आत्मा
दिल से दिल
शरीर से शरीर
केवल उस क्षण को जीते हुए। मानों कोई दूसरा और पल मिलने वाला नहीं है। साथ नहीं होगी तो साँसें रुक जाएँगी।
इतनी सहजता!
इतनी ऊष्मा!
इतनी नज़दीकियाँ।
उनके जीने का यह अंतिम पल था। उसके बाद निर्जीवता उनकी आँखों से टपकने लगी। उसके बाद, वे न कभी रोईं, चिल्लाईं, हँसी या मुस्कराने लगीं। ज़मीन पर उनके लिए नमी न थी, सुबह उजाले की किरनें। उनके लिए केवल थी सड़ी गली बदबूदार अनुभूति जैसे वे किसी अथाह गड्ढे में गिरी हो। रागिनी ने अगली सुबह हॉस्टल छोड़ दिया, और सुनी ने भी।
वास्तव में, उन्हें छोड़ने के लिए कहा गया था। इतना नैतिक पतन! प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन! दूसरी लड़कियाँ भी बिगड़ जाएँगी। असभ्य! सबसे ज़्यादा अप्राकृतिक!!
वार्डन ने उनके माता-पिता को टेलीफोन से सूचित किया। मम्मी-पापा आग-बबूला हो उठे। रागिनी का माँ को तो शब्द का अर्थ भी मालूम नहीं था—समलैंगिक।
दोनों लड़कियों के सामान बाँध दिए गए, एक घंटे के भीतर उन्हें सारे क्लीयरेंस दे दिए गए। कोई उनसे बात नहीं कर रहा था, यहाँ तक कि वे एक दूसरे से भी बातचीत नहीं कर रहीं थीं।
नीरव अलविदा। अंतिम अलविदा। हो सकता है, दूसरे जन्म में फिर मुलाक़ात हो। सुनी ने उसे गिफ़्ट दिया, जिसे वह अगले हफ़्ते देने की योजना बना रही थी, एक अच्छे फ़ेयरवेल के साथ।
ट्रेन में बैठकर रागिनी ने अश्रुल आँखों से पैकेट खोला। यह वही स्नो व्हाइट टेडी बीयर था, जिसे उसने गत वर्ष सुपर मार्केट में देखा था, मगर ख़रीद नहीं पाई थी। पहली बार वहीं पर सुनी से उसकी मुलाक़ात हुई थी।
रागिनी की तरह वह लिखने बोलने में तेज़ नहीं थी। टेडी पर उसने केवल एक ही शब्द लिखा था, “यह मैं हूँ . . .!”
बाहर तूफ़ान आ रहा था। क्या ट्रेन बहुत तेज़ी से दौड़ रही थी? हवाएँ चलने लगीं, रागिनी के खुले बालों को उड़ाते हुए, मगर फिर अंदर में मुर्दाघाट की नीरवता छाई हुई थी।
वह खिड़की से ट्रेन की छाया देखने लगी और अपनी ख़ुद की छाया भी। छाया की छाया। उसके अपने मानस-पटल पर जीवन की परेशानियाँ साफ़ नज़र आने लगीं। उसे अपने पसंदीदा कवि की दो पंक्त्तियाँ याद आ गईं:
“आनंद दुर्लभ है इस जीवन में
दुर्लभ है यह दिल की धड़कन में।”
विषय सूची
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- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
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- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
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