नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ

नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ  (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
पहला प्रेम-पत्र

मुझे जीवन भर इस बात का अफ़सोस रहेगा कि मैंने अपनी किशोरावस्था में मेरे नाम लिखे हुए प्रेम-पत्र नहीं पढ़े। उस समय मेरी उम्र 15 साल रही होगी। यह प्रेम-पत्र कम से कम मेरी पीएच.डी. की थीसिस से कम बड़ा नहीं होगा; इस पत्र का वास्तविक अर्थ मुझे मेरी पीएच.डी. की थीसिस जमा करने के बाद ही पता चला। 

तब तक मेरी ज़िन्दगी पार हो चुकी थी। 

क्या मुझे उस पत्र से नफ़रत थी? मेरा मतलब कम से कम उस पत्र को छूकर अनुभव तो कर ही सकती थी? ईमानदारी से कहूँ, बिल्कुल भी नहीं किया। 

ऐसा उस पत्र में क्या था, जिसका मैं मुक़ाबला करने में असमंजस अनुभव कर रही थी, किसी दर्पण में मानो चारों तरफ़ देखते हुए और क्षण भर में पानी पर उठ रहे बुलबुले फट गए हों। 

हो सकता है यह कहानी कुछ जगह पर आपको अलंकृत, बनी-बनाई या लगभग झूठ लग रही हो। मगर यह शत-प्रतिशत सत्य है, बारिश की बूँद की या चाँदनी रात की तरह। उस समय मेरी दुनिया मात्र बच्चों का खेल थी। उस समय मैं विश्वास और अविश्वास के बीच कभी भी बँटी हुई नहीं थी, और उस पत्र का अस्तित्व मुझे मंत्र-मुग्ध नहीं कर पाया था। फिर भी मैं अपनी कल्पना के उधेड़-बुन में फँस गई थी। 

सामल सर ने जब वह किताब मुझे दी थी (हाँ, मैंने उसे किताब ही समझा था! ), जिससे दूसरी किताबों का अर्थ अनावृत हो गया था। तबसे कोयल ने बसंत में प्रेम और आनंद के गीत गाने बंद कर दिए। बाक़ी सारी चिड़ियाँ दुखों के मौसम में आँधी, तूफ़ान, बारिश, और सर्दी-गर्मी धैर्यपूर्वक बर्दाश्त कर रही थी, बसंत के इंतज़ार में, जब कोयल उनके लिए फिर से प्रेम और ख़ुशियों के गीत गाएगी। 

उस समय पृथ्वी पर केवल पाँच ऋतुएँ होती थी, बसंत ऋतु को छोड़कर। 

हमेशा मेरा नंबर तेरह रहता था, चाहे अच्छा हो या बुरा। मैंने उन्हें देखा, मेरा मतलब सामल सर को, जब मेरी आयु तेरह साल की थी। जब मैं अपनी गर्ल्स हाई स्कूल की नौवीं कक्षा में पढ़ रही थी। अध्यापकों के कहने के अनुसार हमारा बैच सबसे ज़्यादा स्मार्ट था। हम सभी अच्छी ख़ुशनसीब लड़कियाँ थी, हमेशा मस्ती करती रहतीं थीं, पढ़ाई भी करती थी और अतिरिक्त गतिविधियों में बहुत आगे थी। हमेशा हमारे अध्यापकों को हम पर गर्व होता था, जब कभी अंतर-विद्यालय प्रतिस्पर्धा आयोजित होती थी। मुझे स्कूल में विशेष तवज्जोह दी जाती थी, पहला कारण, स्कूल में टॉपर और लिटरेरी चैंपियन होना और दूसरा कारण, उनके स्कूल के अध्यापिका की बेटी होना। 

मैं सेक्शन-ए में थी, मगर मेरी अधिकतर सहेलियाँ सेक्शन-बी थीं। मेरी सबसे अंतरंग सहेली सलोनी भी सेक्शन-बी में पढ़ती थी। हालाँकि, उस समय हम घनिष्ठ मित्र नहीं थे, केवल औपचारिक दोस्ती थी, यद्यपि हम प्राथमिक और उच्च प्राथमिक कक्षाओं में घनिष्ठ सहेलियाँ हुआ करती थीं। जब हम प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते थे, हम एक-दूसरे के बिना रह नहीं पाते थे। जैसे ही हम स्कूल पहुँच जाते थे, वैसे ही हम झाड़ियों के पीछे भाग जाते थे और उस दिन के लिए एक-दूसरे के फ़्रॉक बदल देते थे। मुझे उसके पसीने से भीगे फ़्रॉक काफ़ी अच्छे लगते थे, जो न केवल देखने में बल्कि गुणवत्ता में अधिक अच्छे होते थे। वह धनी घर की लड़की थी, उसके पिताजी उसके लिए अच्छे फ़्रॉक ख़रीद सकते थे। गहरे रंग के मेरे कॉटन वाले फ़्रॉकों पर हमेशा फूलों का डिज़ाइन होता था, न कोई एंब्रॉयडरी, न कोई ताम-झाम और न ही किसी फीते की लटकन। मेरी माँ साहू वाणिज्य प्रतिष्ठान से थोक के भाव पर कपड़ों का पूरा का पूरा गट्ठा ख़रीद लेती थी, हम सभी बहनों के एक ही पैटर्न के कपड़े सिलाने के लिए। अगर कुछ कपड़ा बच जाता था तो वह माँ के ब्लाउज बनाने या पिताजी के रुमाल बनाने के काम आता था। हमें यह अच्छा नहीं लगता था। फिर भी हम पर कोई हँसता नहीं था, क्योंकि उस समय सभी परिवारों में ऐसा ही चलन था। सलोनी को मेरे फ़्रॉक पसंद आते थे। हम पूरे दिन एक-दूसरे के कपड़ों से हमारी नाक पोंछते थे और एक दूसरे के पसीनों से वे तर-बतर हो जाते थे। अंतिम पीरियड में फिर से हम झाड़ियों के पीछे जाकर अपने कपड़े बदल कर अपने-अपने फ़्रॉक पहन लेते थे, घर जाने से पहले। जब हम उच्च विद्यालय में आए तो चीज़ें बदलने लगीं। हमारी कक्षाएँ अलग-अलग हो गईं, इसलिए हमारी मित्र-मंडली भी। शुरू-शुरू में हम दोनों के आँखों से आँसू बरस जाते थे, मगर बाद में उसके मकर (घनिष्ठ सहेली के नाम की जगह किया जाने वाला सम्बोधन) और दूसरी सहेलियों के समझाने पर कि मैं घमंडी हूँ, क्योंकि कक्षा में फ़र्स्ट आती हूँ और मेरी माँ स्कूल में अध्यापिका है, वह मुझसे दूर होने लगी। 

हालाँकि, कई सालों के बाद हमारी स्नातक परीक्षाओं के दौरान फिर से सलोनी और मैं घनिष्ठ सहेलियाँ बन गई, जीवन भर के लिए। 

हाई स्कूल की बात है। उस समय मैं शांत, पूरी तरह से टॉमबॉय वाली एक बिंदास लड़की थी। पूरी तरह से लापरवाही भरा जीवन था मेरा, पढ़ाई के सिवाय। मुझे कभी बर्दाश्त नहीं होता था कि कोई दूसरा मुझसे आधा अंक भी ज़्यादा लाएँ। मैं ईर्ष्यालु नहीं थी, फिर भी मैं अगली परीक्षा में उससे कम से कम दस अंक ज़्यादा लाकर ही प्रतिशोध लेती थी। हमारा संयुक्त परिवार था, इसलिए हमेशा समय-असमय पर मेरे माताजी-पिताजी के सगे-संबंधियों और दोस्तों का आना-जाना लगा रहता था। कभी-कभी तो मेरे पिताजी भूल जाते थे कौन-सी लड़की किस कक्षा में पढ़ रही है, शायद घर में ज़्यादा लोग होने के कारण या वास्तव में घर में अकेले आदमी होने से ज़्यादा व्यस्त रहने के कारण। 

नौवीं कक्षा में भुवनेश्वर से एक नई लड़की, सोनालिका दास, हमारे विद्यालय में आई। वह स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के शाखा प्रबंधक की इकलौती पुत्री थी। वह फ़ैशन की बहुत शौक़ीन थी और मीठी आवाज़ में सबसे बात करती थी। कुछ ही समय में स्कूल में वह सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गई। यहाँ तक कि मेरे बचपन की सखी सलोनी ने भी उसकी ‘गुड बुक’ में रहने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। 

इससे पहले, सेक्शन-ए की मेरी सहेलियाँ जैसे निर्मला, गीता, सरस्वती, तृप्ति और अन्य मेरी ख़ुशामद किया करती थीं। मैं पढ़ाई में उनकी मदद करती थी और बदले में वे मुझे आचार, मिठाई, बैरी और उनके घर के बने हुए व्यंजन देती थीं। सोनालिका के आने के बाद वह उनके आकर्षण का केंद्र बन गई, सभी उसे रिझाने में लगे रहते थे, उसकी ख़ास सहेली बनने के लिए। निर्मला तो उसका ध्यान आकर्षण करने के लिए चिल्लाना तक शुरू कर देती थी और उसके लिए थैली भरकर आचार, बैरी और चॉकलेट लाकर देती थी। अचानक मैं उनके लिए गौण हो गई, यद्यपि सोनालिका के मन में मेरे प्रति आदर था, क्योंकि उसे स्कूल के प्रिंसिपल और उसके माता-पिता ने मेरी उपलब्धियों के बारे में बता दिया था। 

एक बार बहुत ही बुरा होना था। अर्द्ध-वार्षिक परीक्षा में उसके मेरे से एक प्रतिशत अंक ज़्यादा आ गए, क्योंकि उसने वैकल्पिक विषय के तौर पर संस्कृत को चुना था, जो कि स्कोरिंग सब्जेक्ट था। मैं एक सप्ताह के लिए अवसाद में चली गई और घर के ऊपर वाले छोटे कमरे में अपने आपको बंद कर लिया और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। माँ परेशान नहीं हुई थी क्योंकि मेरा और सोनालिका, दोनों का चार महीने बाद होने जा रही आगामी राष्ट्रीय प्रतिभा खोज में चयन हो गया था, जिसमें कक्षा नौ और दस का सिलेबस आता था। माँ जानती थी कि मैं बहुत ज़्यादा आत्म-प्रेरित हूँ और कुछ दिन रोने-चिल्लाने के बाद मैं आगे आकर अपनी पढ़ाई करूँगी। ऐसे समय में, उसने मेरे पिताजी और बहनों को मुझ जैसी ज़िद्दी लड़की के मामले में दख़ल नहीं देने की सलाह दी। मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगता था कि कोई मुझे सवाल पूछे या मेरी ग़लतियाँ ढूँढ़ें। ठीक वैसा ही हुआ। मैंने एक क्षण भी विश्राम नहीं लिया, जब तक की अगली परीक्षाओं में सोनाली से मेरे 2% अंक ज़्यादा नहीं आ गए। हालाँकि, उसने हमारा स्कूल छोड़ दिया क्योंकि उसके पिताजी का कटक स्थानांतरण हो गया। आज भी मैं उसे फ़ेसबुक पर तलाशी रहती हूँ, बदला लेने की दृष्टि से नहीं, सच में। यह देखना चाहती हूँ कि वह कैसा जीवन जी रही है, जिसने मुझे जीवन में पहली बार हराया था, भले ही क्षण भर के लिए। विगत वर्ष जब मुझे सलोनी की बहन मामा ने मैं मुझे फोन पर बताया कि सोनालिका एक गृहणी है, तो शायद मुझे मन ही मन ख़ुशी हुई। आख़िरकार मनुष्य का स्वभाव, जो ठहरा। 

स्कूल की बात करें तो, कक्षा नवीं की राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा में कक्षा दसवीं का सिलेबस भी आता था। नियम के तौर पर मेरे पिताजी नें कभी हमें निजी ट्यूशन पर नहीं भेजा, क्योंकि वे ख़ुद अध्यापक थे। यह दूसरी बात थी कि घर पर उन्होंने हमारी पढ़ाई में किसी भी प्रकार की कोई मदद नहीं की। मैं चिंतित थी कि कम समय में इतना ज़्यादा सिलेबस कैसे पूरा किया जाए और बिना किसी मार्गदर्शन के किन-किन अध्यायों पर ध्यान देना अपेक्षाकृत ज़्यादा ज़रूरी है, कैसे पता करती। मैं साहित्य और समाज विज्ञान में अच्छी छात्रा थी, मगर विज्ञान मेरे लिए ठीक नहीं था। हमारे स्कूल में कोई भी प्रशिक्षित विज्ञान अध्यापक नहीं था। सोनालिका, सलोनी और बाक़ी सभी प्राइवेट ट्यूटरों पर निर्भर करते थे। मेरी अवस्था निराशाजनक थी। 

उस समय, सामल सर हमारे स्कूल में विज्ञान के नए अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। विश्वविद्यालय से एम.एससी. स्नातकोत्तर अभी-अभी हुए ही थे कि उन्हें हमें पढ़ाने के लिए भेजा दिया गया था। बेचारा, एक जवान पुरुष अध्यापक लड़कियों की स्कूल में और ख़ासकर जहाँ महिला अध्यापिकाएँ हो, महिला प्रिंसिपल हो, आप उसकी अवस्था की कल्पना कर सकते हैं! 
 
सामल सर की हमारी पहली कक्षा दुखद थी। वह हम सभी का परिचय लेना चाहते थे, हमारे नाम, हमारी अभिरुचियाँ पूछकर। सभी अपना ख़ासा बायोडाटा दे रहे थे, सुंदर दिखने वाले पुरुष अध्यापक को देखकर, केवल उनकी रेगिंग करने के दृष्टिकोण से। जब मेरी बारी आई तो मैंने कहा, “मैं नंदिनी हूँ, मेरी अभिरुचियाँ हैं भाषण देना, किताबें पढ़ना, रसोई करना आदि।” 

“सर, वह हमारे हिन्दी अध्यापिका की बेटी है।” 

“सर, वह हमारी क्लास मॉनिटर और लिटरेरी चैंपियन भी है।” 

उसने हमें शांत करने का कोशिश की, मगर सब व्यर्थ। 

तभी सरस्वती ने पूछा, “सर, आपकी क्या अभिरुचि है, मेरा कहने का मतलब हमारी स्कूल में पढ़ाने के अलावा?” 

“मैं . . . मैं . . . मैं नहीं जानता। निश्चित तौर पर नहीं कह सकता हूँ। चलो, अध्याय-पाँच शुरू करते हैं। अपनी-अपनी विज्ञान की किताब खोलो।” 

“सर, इतनी भी जल्दी क्या है? कुछ समय के लिए तो हमसे बात कीजिए ना!” 

“देखो, अगर आप लोग सहयोग नहीं करेंगे तो मुझे प्रिंसिपल से शिकायत करनी पड़ेगी। विज्ञान का सिलेबस बहुत ज़्यादा है, इसलिए पढ़ाई की तरफ़ ध्यान दो।” 

उसी दौरान स्कूल की घंटी बज गई। सारी लड़कियाँ ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। उन्होंने तुरंत की क्लास से बाहर निकल गए, नर्वस होने के कारण टेबल पर उपस्थिति रजिस्टर छोड़कर। उन्हें पसीना आ रहा था, उनके गोरे गाल लाल हो गए थे। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें मोटे चश्मे के पीछे से झाँक रही थी। मुझे उन पर दया आ रही थी। 

“लड़कियो! क्या तुम्हें ऐसा व्यवहार करना चाहिए था? अब यह सब क्या था? क्या दूसरे अध्यापकों के साथ भी ऐसा ही बर्ताव करोगी?”

“लगता है तुम्हें वह बहुत पसंद है, हाँ?” तृप्ति ने कहा। 

“नहीं, . . . मैं उन्हें पसंद करती हूँ। उन्हें मेरे लिए छोड़ दीजिए, ठीक है,” सरस्वती ने बात काटते हुए कहा। 

सरस्वती हमारे ग्रुप में सबसे बड़ी लड़की थी। परिपक्व औरतों की तरह उसकी जानलेवा मुस्कान, उभरी हुई छाती, लंबे-लंबे बाल और गज-गामिनी चाल हर किसी का ध्यान आकर्षित करती थी—जिसे मैं अब समझ पा रही हूँ। उस समय अपनी तरफ़ देखते हुए मैं केवल इतना ही सोच पा रही थी कि उसके जैसी लड़कियाँ कैसे हो सकती हैं, औरत जैसी! कुछ लड़कियाँ कह देती थीं, “वह तो आंटी है।”

अगले डेढ़ साल में, जब तक हमने दसवीं कक्षा पूरी कर ली थी, और स्कूल छोड़ कर स्थानीय कॉलेज में दाख़िला ले लिया था, उस दौरान सरस्वती सामल सर का ध्यान आकर्षित करने का भरसक प्रयास करती रही। वह गहरे लाल रंग का सूट पहनकर अपने दुपट्टे को गले तक खींचकर स्कूल-पिकनिकों के दौरान उनके इर्द-गिर्द घूमती रहती थी। जब वह कक्षा में पढ़ा रहे होते थे तो अपनी प्यासी निगाहों से उनकी तरफ़ घूरने लगती थी। कभी पेन तो कभी पेंसिल जानबूझकर नीचे गिरा देती थी और फिर उसे झुक कर उठाती थी, ताकि उनका ध्यान उस तरफ़ जाए। गणेश चतुर्थी या श्री पंचमी जैसे अवसरों पर आयोजित अंत्याक्षरी में वह उनके लिए प्रेम गीत गाती थी। यहाँ तक कि एक दिन वह पढ़ाई का बहाना बनाकर बेचलर लोगों की मेस में जाने से पीछे नहीं हटी। बरामदे में उसके पास खड़े होकर उन्हें समझाना पड़ा, जबकि वहाँ से गुज़रने वाले लोग उन्हें दूसरी दृष्टि से देख रहे थे। क्योंकि उन्हें बैचलर मेस में किसी भी लड़की को बुलाना पसंद नहीं था। 

हमारी कक्षा में अधिकतर समय यही बात चर्चा होती थी कि सरस्वती सामल सर के प्यार में सिर से पाँव तक डूबी हुई है। मैं हमेशा उसे डाँटती थी, “हम यहाँ पढ़ाई करने आए हैं, प्रथम श्रेणी अंक लेने आए हैं, और हमारे माता-पिता और अध्यापकों का नाम रोशन करना है। अध्यापकों के प्रेम-जाल में फँसने के लिए नहीं, समझी?” 

“ज़्यादा महात्मा गाँधी मत बनो। हम सभी जानते हैं कि आजकल सामल सर हर शाम को तुम्हारे घर जा रहे हैं। तुम्हारी माँ अध्यापिका है, इसलिए यह तुम्हारे लिए आसान है। हैं न?”

वे सही कह रहे थे। हमारे घर में उन्हें लाना कोई ज़्यादा मुश्किल वाला काम नहीं था क्योंकि मेरी माँ जैसी वरिष्ठ अध्यापिका के प्रति उनके मन में सम्मान था, जिन्होंने उन्हें हमारे घर आने के आमंत्रित किया था। 

वास्तव में, यह माँ का आइडिया नहीं था, यह मेरे पिता और मेरी बड़ी बहन का आइडिया था कि मैं ट्यूशन नहीं जा पा रही हूँ और मुझे एनटीएस परीक्षा का सिलेबस पूरा करना है तो हमारी स्कूल के विज्ञान के नए अध्यापक से संपर्क कर हमारे घर शाम को एक घंटा आकर पढ़ाई के संदेह दूर करने का अनुरोध किया जा सकता है, जब तक कि परीक्षा ख़त्म नहीं हो जाती। बाद में, उन्हें कुछ उपहार दिया जा सकता है, भले ही केस नहीं हो। 

वह सहमत हो गए। 

शाम को पाँच से छह बजे तक विज्ञान की कक्षाएँ प्रारंभ हो गईं। 

शाम को चार से छह बजे हम सभी के लिए खेलने का समय था, मगर मुझे घर के ट्यूशन के लिए एक घंटे का त्याग करना पड़ा। सामल सर एक अच्छे अध्यापक थे। उनके कंसेप्ट क्लियर थे और उनकी भाषा भी स्पष्ट। केवल एक ही दिक़्क़त थी, उनका नर्वस हो जाना। कभी भी उन्होंने घर में मेरी आँखों में आँखें डाल कर बात नहीं की, एक ही टेबल पर बैठकर भी, यद्यपि कक्षा में प्रवेश करते ही हमेशा मेरी तरफ़ देखते थे और मुस्कुराते थे। हम सभी के साथ पूरी तरह से घुल-मिल चुके थे, घर पर भी और स्कूल में भी। वह अपना ख़ाली समय स्कूल के कॉमन रूम में बैठकर बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ने में बिताते थे। एक दिन मैंने उनसे कहा, “सर, स्कूल के मध्यांतर के दौरान आप क्या पढ़ाई करते हैं? आपके हाथों में हमेशा कहानी की किताब रहती है!” 

“नहीं, मुझे कहानियाँ और साहित्य बिल्कुल समझ में नहीं आता है। मैं बैंक पीओ और दूसरे प्रतियोगी परीक्षाएँ देने की तैयारी कर रहा हूँ।” 

“लेकिन आपको फिर अध्यापन का काम छोड़ना होगा! आप हमारे बहुत अच्छे अध्यापक हैं। आपके बिना हम कैसे पढ़ाई करेंगे?”

“जब तक मैं किसी प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो जाता हूँ तब तक तुम दसवीं बोर्ड की परीक्षाएँ पास कर चुकी होगी। फिर तुम कॉलेज में होगी, वहाँ तुम्हें और अच्छे अध्यापक मिल जाएँगे। फिर तो तुम मुझे भूल जाओगी।” 

“नहीं, सर . . . कोई भी अध्यापक आपके जितना अच्छा नहीं हो सकता है। मैं आपको कभी भी भूल नहीं पाऊँगी। आप बहुत अच्छे हैं।”

“तुम्हारा यह मतलब है?” 

उस दिन पहली बार उन्होंने प्राइवेट क्लास के दौरान मेरी आँखों में अपनी आँखें डालीं। उसी समय मेरी बड़ी बहन दो कप कॉफ़ी लेकर कमरे में आई। वह उनसे उम्र में बड़ी थी, और उस समय यूनिवर्सिटी में एम.फिल. कर रही थी। वह अपने गर्मियों की छुट्टी में घर आई हुई थी। हम सभी अपनी दीदी से डरते थे, हो सकता है कि वह घर में सबसे बड़ी थी। उसके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ था, जिससे हमें प्रेरणा मिलती थी और वह वास्तव में हम सभी पर गंभीरतापूर्वक हुक्म चलाती थी। 

“क्या हो रहा है? पढ़ाई पूरी हो गई?” 

“नमस्कार दीदी, कब आईं?” 

“मैं कल ही आई हूँ। और तुम्हारा विद्यार्थी कैसा कर रहा है? कितने दिन बचे हैं इसकी परीक्षा के लिए?” 

“एक और महीना। पढ़ाई अच्छी चल रही है। अभी उसे सारे अध्याय अच्छी तरह आते हैं।” 

“ओह! फिर तुम उसे और ज़्यादा क्यों पढ़ा रहे हो? स्पून-फीडिंग करने की कोई ज़रूरत नहीं है।” 

“नहीं, हम रिवीजन कर रहे हैं। उसे हर स्कूल के अच्छे विद्यार्थियों से टक्कर लेनी है।” 

“वो तो ठीक है। मगर उसे अपने ऊपर ज़्यादा निर्भर मत बनाओ। हमने कभी ट्यूशन नहीं किया, फिर भी सब जगह अव्वल रहे हैं।”

वह चुपचाप कॉफ़ी की चुस्की ले रहे थे। 

मैं बेचैन थी कि वह सर से इस तरह क्यों बात कर रही है। वह हमारे लिए सम्माननीय है। 

“तो तुम्हारा नाम समरेंद्र सामल है। ठीक कह रही हूँ?” 

“हाँ, दीदी।” 

शाम को मैंने उसे माँ से पूछते हुए सुना, “क्या सामल ब्राह्मण होते हैं?” 

“नहीं, सामल ब्राह्मण सरनेम नहीं है। क्यों?” 

“नहीं, ऐसे ही पूछ रही थी।” 

परीक्षा के लिए एक सप्ताह रह गया था। मेरा वर्क लोड ज़्यादा था। नियमित रूप से कक्षा में पढ़ाई करना, कक्षा-कार्य, गृह-कार्य और एनटीएस परीक्षा की तैयारी। सामल सर बहुत मदद कर रहे थे। वह मेरे लिए हर अध्याय का एक चार्ट बनाते थे, अपने छुट्टी के समय में और शाम को मेरे लिए घर लाते थे। मैं शाम को उनके चार्ट, नोट्स, कक्षा और उनका बेसब्री से इंतज़ार करती थी। वह मेरी आदत बन चुके थे। उन्होंने मुझे कभी-कभार ही बात की होगी, पढ़ाई के दौरान यहाँ तक कि एक शब्द भी नहीं। पढ़ाई के एक घंटे के बाद वह अचानक उठ जाते थे और इससे पहले कि मैं उन्हें धन्यवाद दूँ, वह रूम छोड़ कर चले जाते थे। बहुत ही सभ्य इंसान थे। शायद ही कोई इतना अच्छा इंसान होगा। चौदह साल की लड़की के कोरे दिमाग़ में उनकी लग्न, उनकी साफ़-सुथरी उँगलियाँ, बदन की भीगी-भीगी ख़ुश्बू, चमकते दाँत, चश्मा, तीखी नाक, घुँघराले बाल, लंबा क़द, दुबला-पतला शरीर और सुंदर व्यक्तित्व-सभी चीज़ों का प्रभाव पड़ता था, भले ही उस समय मैं उन्हें समझ नहीं पाईं।

क्योंकि उस समय मैं कोई दिवा-स्वप्नदर्शी नहीं थी। एक यथार्थवादी महत्वाकांक्षी विद्यार्थी थी, जिसका उद्देश्य केवल परीक्षा में अव्वल रहना था। उस दिन जाने से पहले उन्होंने मुझसे कहा, “अगले रविवार को इस समय तुम्हारा और ट्यूशन नहीं होगा?”

“क्यों, सर?” 

“भूल गई? तुम्हारी परीक्षा रविवार की सुबह होगी। उसके बाद तुम्हें और ट्यूशन की ज़रूरत नहीं होगी। तुम अपनी पढ़ाई ख़ुद करोगी, मैडम ने कहा है।” 

मेरा हृदय डूबने लगा। 

शाद मेरी आँखें गीली हो गई, शायद नहीं। 

मैं अपने टिप-टॉप बॉल पेन से बेचैन होकर टिपटॉप, टिपटॉप करने लगी। कुछ सोच रही थी, जो आज मुझे अभी बिल्कुल याद नहीं है। 

अचानक उन्होंने मेरे अँगूठे को पकड़कर रोका और मेरी पेन निकालकर टेबल पर धीरे से रख दी और अभी भी मेरा अँगूठा पकड़ते हुए कहने लगे, “ऐसा मत करो, बेचैन मत होओ। इस समय तुम्हें धीरज की ज़रूरत है। तुम्हें स्कॉलरशिप पाना है, मेरे लिए, हमारे लिए।” 

“हमारे लिए?” 

मैंने कुछ ही सेकेंड बाद मेरा अँगूठा पीछे खींच लिया और अचानक मुझे लगा कि मेरा मुँह सूख रहा है। ऐसा लगने लगा जैसे मुझे उल्टी हो जाएगी। अथाह अनुभूति। मुझे मालूम नहीं यह क्या था? मैंने कहा, “हाँ सर, मैं भरसक प्रयास करूँगी।” 

वह जाने के लिए खड़े हो गए। उन्होंने आख़री निगाहें मेरी तरफ़ डाली, ध्यान से। फिर चले गए। मैं अंदाज़ लगा रही हूँ उस दिन से उन्होंने पाँच सौ पृष्ठों का प्रेम-पत्र लिखने का साहसिक कार्य करना शुरू किया होगा।

मेरी शाम की कक्षा समाप्त हो गई थी। एनटीएस की परीक्षा भी ख़त्म हो गई थी। कुछ ही महीनों के बाद हम दसवीं कक्षा में चले गए। विज्ञान एक नई अध्यापिका उस साल ज्वाइन की, जो हमारी विज्ञान की कक्षाएँ लेती थी। वह वरिष्ठ थी और एक अच्छी अध्यापिका भी। सामल सर को अधिकतर लोग भूल चुके थे, सच में, सरस्वती को छोड़कर। 

सरस्वती स्टाफ़ रूम या कॉरिडोर या कहीं और किसी बहाने उनसे मिलने का भरसक प्रयास करती थी, मगर उसके लिए सबसे बड़ी निराशाजनक बात थी कि अनुभूतिहीन पत्थर दिल असभ्य इंसान की तरह ही पेश आते थे। 

और मैं कभी ऐसा नहीं कर सकती थी। कभी भी नहीं। 

मैंने उनसे कभी बात नहीं की, कुछ अवसरों को छोड़कर। जैसे, ज़िला मुख्यालय में लगने वाली विज्ञान प्रदर्शनी में हमारी स्कूल की तरफ़ से मेरा चयन हुआ था। मैंने इंद्रधनुष के सात रंगों पर एक प्रोजेक्ट तैयार किया था, जिसे वर्ण-चक्र कहते हैं। उस दिन मैं ज़िला मुख्यालय गई थी, दो घंटे की बस यात्रा के दौरान वह मेरे साथ थे। स्कूल ने उन्हें भेजा था क्योंकि वह विज्ञान के सक्षम और ज़िम्मेदारी लेने वाले अध्यापक थे। दो और जूनियर भी हमारे साथ थे, साइबली पाल और तनुश्री मिश्रा। हम तीनों एक लंबी सीट पर बैठ गए और वह दूसरी तरफ़, जहाँ मेरा चेहरा उनकी तरफ़ पीछे लगे दर्पण में साफ़ दिखाई देता था। उनके लिए फ़ायदे की बात यह थी कि वे दो लड़कियाँ नहीं देख सकती थी। मैं जानती थी की दो नम उदास आँखें उस दर्पण में मेरी तरफ़ देख रहीं थीं और उस समय मैं चुपचाप भाव-विहीन बैठी हुई थी। लौटते समय उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि हम तीनों सही-सलामत घर पहुँच गईं हैं। अपने से कभी भी नहीं चाहा कि उन दो लड़कियों को छोड़ने के बाद मुझे छोड़ा जाए। जबकि उन्होंने जूनियर लड़कियों से कहा, “पहले सीनियर लड़की को छोड़ देते हैं, फिर तुम दोनों जा सकती हो, क्योंकि तुम दोनों पड़ोसी हो।”

हमारी स्कूल में हर दिन कक्षा शुरू होने से पहले प्रार्थना होती थी, जहाँ अलग-अलग कक्षाओं की लड़कियाँ अलग-अलग पंक्तियों में खड़ी होती थीं और एक सीनियर लड़की भजन गाती थी। बाक़ी सभी पंक्ति-दर-पंक्ति उसका अनुकरण करतीं थीं। प्रत्येक सोमवार को मेरी बारी आती थी। मैं अच्छा गाती थी। मैं लगभग अच्छा गाती थी, अगर अच्छा नहीं कहें तो। हर सोमवार को मैं प्रार्थना के कालांश में उन्हें बहुत पहले से ही इंतज़ार करते हुए देखती थी, जबकि सप्ताह के दूसरे दिन नहीं रहते थे। मैंने उनसे कभी कहा था कि सफ़ेद मेरा पसंदीदा रंग है। उसके बाद उनके सारे शर्ट सफ़ेद, थोड़े-से पीले या सफ़ेद की छाया लिए हुए मिलते थे। वास्तव में, ये कपड़े उनके स्वच्छ व्यक्तित्व और भोले-भाले चेहरे पर ख़ूब फबते थे। 

उन्होंने मेरे पिताजी के स्कूल के अध्यापक के साथ दोस्ती की, जो हमारा दूर का रिश्तेदार था, चचेरा भाई। मगर मुझे पक्का विश्वास है कि उन्होंने कभी भी मेरे बारे में डर से नहीं बताया होगा। 

अब मैं अनुभव कर सकती हूँ उनका कितना दम घुट रहा होगा और कितने बेचैन रहे होंगे। मगर बुद्ध की तरह उनकी शांत आँखों में यह नहीं झलकता था। ऐसा लगता था उनकी दृष्टि सदैव दूर दिगंत पर टिकी रहती है, वस्तुओं की तरफ़ नहीं, वस्तुओं के भीतर से होती हुई। 

कितना अद्भुत आदमी था वह! 

आज मैं उनकी कहानी बड़े आत्मविश्वास के साथ लिख रही हूँ क्योंकि मुझे पूरी तरह विश्वास है कि वह बैंक पीओ या किसी बैंक में अभी तक ब्रांच मैनेजर बन गए होंगे। जिनका साहित्य से कोई सम्बन्ध नहीं होगा और साहित्यिक पत्रिका की एक छोटी-सी कहानी को भूल गए होंगे। 

वह यहाँ तक भी भूल गए होंगे कि मैं अँग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर बनना चाहती थी। 

दसवीं कक्षा के टेस्ट परीक्षाओं के बाद हमें तैयारी करने के लिए छुट्टियाँ मिली। अधिकांश ने स्कूल जाना बंद कर दिया, घर पर पढ़ाई करने के लिए। मैं कह सकती हूँ उन्हें स्कूल जाने जैसा नहीं लग रहा होगा, जब वहाँ मैं नहीं रहूँगी। मैं उनकी दुनिया की धुरी थी। अपरोक्ष रूप से मैंने उनके हृदय में चाँद के बीज बो दिए थे। मैं उनकी एकमात्र इच्छा थी, बिना एक शब्द उच्चारण किए हुए। उनके शब्द कुछ दूसरा रूप ले रहे होंगे, पूरी तरह से भीगकर, पूरी तरह से डूबकर, भ्रम में लपेटे हुए और पूरी तरह से नग्न। मगर कभी भी उनकी ज़ुबान पर नहीं आ पाए। मैं उनकी सजी-सँवरी हुई सुंदर-सी देवी, जंगली उत्साह और जलती हुई अगरबत्ती की ख़ुश्बू थी। जिसके सामने उनके लिए एक दीप लगाना पर्याप्त था, चाहे वह मोमबत्ती क्यों न हो और वह ख़ुद पतंगा बन जाते थे। वह निरुद्देश्य एकमुँही सुरंग में भाग रहे थे, यह जानते हुए भी कि उसका दूसरा किनारा खुला हुआ नहीं है और उन्हें फिर से लौटना होगा। फिर भी उन्हें पूर्ण अँधेरे में भागना अच्छा लग रहा था, वह भी अकेले। अब मैं कई बार सोचती हूँ कि उन्हें मुझ जैसी लड़की से प्यार क्यों हुआ, जो दिखने में उतनी अच्छी नहीं थी, जिसमें प्यार की कोई समझ भी नहीं थी, सपाट वक्षस्थली, श्वेत-त्वचा, जबकि शास्त्रीय सौंदर्य की प्रतिमूर्ति और शकुंतला जैसे सुंदर घने बालों वाली पूर्ण महिला सरस्वती की उन्होंने उपेक्षा कर दी। 

जिसके कारण थोड़े भी हो सकते है और ज़्यादा भी।

मैं जानती हूँ कि उनके घर में सभी लड़के ही थे। उनकी माँ की भी मौत हो चुकी थी। उनके केवल पिताजी और भाई ज़िन्दा थे। वह अत्यंत ही अध्ययनशील रहे होंगे और उनका अकादमिक कैरियर अव्वल रहा होगा। उन्होंने कम उम्र में अध्यापक के तौर पर गर्ल स्कूल जॉइन किया था, जहाँ लड़कियाँ उनका पाँव खींचती थीं, उन्हें परेशान करती थीं। शायद उन्हें मेरी आँखों में उनके प्रति सम्मान दिखाई दिया हो। मैंने उन्हें सहज अनुभव करना सीखा दिया था, मेरी कुछ महीनों की प्राइवेट कक्षाओं के दौरान। मैं वह पहली लड़की रही हूँगी, जिससे उन्होंने बात की होगी और तुरंत ही वह मेरे प्रेम-जाल में फँस गए। उन्होंने मेरे और उनके बीच समानताएँ अवश्य खोजी होंगी, जिसे अब मैं अनुभव कर सकती हूँ। हम दोनों मज़ाकिया स्वभाव के थे और साथ ही साथ अध्ययनशील भी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करने वाले, खाने के शौक़ीन और संगीत-प्रेमी। मगर कुछ दिध्रुवीय असमानताएँ भी थी। मैं बहुत वाचाल थी और बहिर्मुखी भी, वह शांत स्वभाव और अंतर्मुखी थे और उन्हें अपने आप को अभिव्यक्त करना भी नहीं आता था। शायद इसी वजह से वह विज्ञान के अध्यापक बने और मैं साहित्य की अध्यापिका। विपरीत ध्रुवों में आकर्षण होता है—इस बात को उन्होंने उस साल अनुभव किया, जब वह पहली बार मुझे मिले और मैं आज अनुभव कर रही हूँ, दो दशक बाद, जब मेरे जीवन के सारे अध्याय पूरे हो गए। प्रेम मेरे लिए अंतिम अध्याय है और दुर्भाग्यवश, वह उनका पहला अध्याय था। मैंने सारे पहाड़ चढ़ लिए, हर ढलान पार कर ली और सोचा कि प्रेम एक मरुभूमि है, बेहतर यही होगा उससे दूर ही रहा जाए। 

अंत में, मैं नदी के साथ बह गई। प्रेम कभी भी नहीं आया मेरे भीतर, जंगली धारा बन कर।

वह साल मेरे जीवन का गौरवमयी साल था। मैं बोर्ड की परीक्षाओं में अच्छे अंकों से पास हुई। अख़बारों में मेरा नाम छपा था। मेरे परिवार को मुझ पर नाज़ था, मेरे दोस्त ख़ुश थे और हम सभी प्लस टू की तैयारी में जुट गए। मुझे थोड़ा-थोड़ा याद है मेरे पिताजी ने सामल सर के लिए मिठाई और सूट पीस का एक पैकेट भेजा था, क्योंकि उन्होंने कभी भी उन महीनों में मुझे पढ़ाने के दौरान कोई पैसा नहीं लिया था। 

मेरी चचेरी बहन ने मुझे बताया कि उस दिन सामल सर पहली बार अपने जीवन में मंदिर गए थे, भगवान को श्रद्धा-सुमन अर्पण के लिए। 

पहले पखवाड़े में मैंने प्लस टू में एडमिशन लिया और दूसरे पखवाड़े में मेरी कक्षाएँ शुरू हो गईं। मैंने अपनी कक्षाओं का आनंद लिया, नए-नए दोस्त बनाए और कुछ पुराने दोस्त भी मेरे साथ थे। 

कॉलेज हमारे घर से 3 किलोमीटर दूर था और मुझे वहाँ पैदल जाना होता था क्योंकि मैंने तब तक साइकिल चलाना नहीं सीखी थी। दिन बीतते चले गए। स्कूल के दिनों की मेरी स्मृतियाँ धीरे-धीरे कमज़ोर होती चली गईं। मेरे लिए नए-नए मैदान खुले पड़े थे और आकाश में उड़ान भरने के लिए नए पंख। 

निस्संदेह, मेरे मस्तिष्क में कुछ संवेदनात्मक अनुभूतियाँ बंद पड़ी हुईं थीं, मगर उनका कभी पालन-पोषण नहीं हो पाया। एक बीज, जिसे कभी पानी नहीं दिया गया हो, क्या वह अंकुर बनकर फूट सकता है? ऐसी अनुभूति को बिल्कुल अपराध-बोध भी नहीं कह सकते है, क्योंकि मेरे भीतर किसी भी प्रकार का अपराध-बोध नहीं था। 

और उनके भीतर भी, जैसा मैं अनुमान लगा सकती हूँ। 

हर सुबह मेरी कक्षाएँ दस बजे आरंभ हो जाती थीं, इसलिए मुझे घर से नौ बजे निकलना पड़ता था। मेरी एक सहेली ने मुझे एक शॉर्ट-कट रास्ता दिखा दिया था, केवल 15 मिनट में गली से होते हुए कॉलेज पहुँचना का, और तो और मुख्य बाज़ार भी पार नहीं करना पड़ता था। 

उस मार्ग से मेरा कॉलेज जाना आसान हो गया। पौने दस घर से रवाना होती थी और दस बजते-बजते कॉलेज पहुँच जाती थी, क्योंकि मुझे घर में सुबह का नाश्ता भी बनाना पड़ता था। 

कुछ दिनों के बाद मैंने कॉलेज जाते समय यह महसूस किया कि कोई मुझे दूर से देख रहा हैं। दो दिखाई देने वाली अदृश्य आँखें! एक काल्पनिक चेहरा! क्या ऐसा सचमुच में था? क्या कोई मेरे पीछे चल रहा था? या केवल यह भ्रम था? 

पहला महीना मज़े से कट गया। हम एक-दूसरे को जानने लगे, पाठ्यक्रम की जानकारी हुई, कॉलेज के अध्यापकों से परिचय हुआ। कॉलेज के अध्यापकगण स्कूल के अध्यापकों से पूरी तरह अलग थे। वे व्यक्तिगत देखभाल और जुड़ाव से कोसों दूर थे। हमारे एक अँग्रेज़ी प्रोफ़ेसर होता थे, जिनकी कक्षा हमेशा खचाखच भरी रहती थी। मैं कभी भी उनकी कक्षाएँ नहीं छोड़ती थी। 

प्लस टू के पहले 5 महीनों के बाद हमने कक्षाओं को छोड़ना शुरू किया, कैंटीन में बैठना या जब चाहे घर आ जाना अच्छा लगता था। वह गुप्त सड़क मेरे लिए बहुत फ़ायदेमंद थी, क्योंकि अध्यापक और सहपाठी मुझे देख नहीं पाते थे। मैं अपनी एक ओड़िया अध्यापिका की कक्षाएँ कभी-कभी सहेलियों के साथ अटेंड कर लेती थी, जबकि ओड़िया मेरा विषय नहीं था। केवल सहेलियों की उस अध्यापिका की टाँग खिंचाई में मदद करने के लिए मैं अक़्सर वहाँ जाया करती थी। वह अपने ढीले गालों पर बड़ी सावधानी से पाउडर लगाती थी और तेल लगे घुँघराले बालों को इस तरह सजाती थी कि बाल्टी पानी डालने पर भी वे नहीं खुलेंगे। दूसरे साल के बोर्ड की परीक्षाओं की तिथि निर्धारित कर दी गई, उनके लिए अच्छा मौक़ा था जो प्रथम वर्ष में गंभीर नहीं थे। 

जुलाई का महीना बीत गया, बारिश का मौसम आया और हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा था केवल स्कर्ट पहनकर कॉलेज जाने के सिवा, क्योंकि बारिश में अगर सलवार भीग जाती तो दस से चार बजे तक तक कक्षा में रहना बहुत मुश्किल था। 

उस दिन सब कुछ थम-सा गया था। लगातार दोपहर बारह बजे से लेकर शाम को पाँच बजे तक मूसलाधार तेज़ बारिश होने के कारण सारे क्रिया-कलाप बंद थे। कॉलेज छोटी-छोटी पहाड़ियों के पास था और उसके चारों तरफ़ आम के बग़ीचे थे। प्रकृति हमारे प्रति काफ़ी उदार थी। पहाड़ी बारिश ख़तरनाक हो सकती है और वह दिन कुछ ऐसा ही था। पानी ग्राउंड फ़्लोर की कक्षाओं में घुसना शुरू हो गया था और ओड़िया मैडम को अपनी कक्षा तुरंत ही आनन-फ़ानन में बंद करनी पड़ी। उन्होंने अपनी भ्रू-लताएँ ऐसे ऊपर उठाई कि कनपटी के इर्द-गिर्द घुँघराले बालों की सारी लटें बिखर आई, बाहर में हो रही बारिश की बूँदों की तरह। खेतों में पानी दर्पण की तरह स्थिर था, हवा रुक-सी गई थी, गैलरी में 80 विद्यार्थी फँसे हुए थे जिससे साँस लेने में दम घुट रहा था। 

मुझे अच्छी तरह याद है उस दिन हमारे घर में एक आयोजन था, हमारे घर कुछ रिश्तेदार आए हुए थे और माँ ने मुझे जल्दी घर आने के लिए कहा था। बरसाती दिन अच्छा लगते हुए भी मुझे चिंता हो रही थी। फिर पता चला की बाढ़ का पानी कॉलेज के गेट से अंदर आने लगा था, हम सभी को अपनी गिरफ़्त में लेते हुए, फिर भी हम बहुत ख़ुश हैं। हमें अच्छा लग रहा था कि कम से कम अब एक सप्ताह तक और कक्षाएँ नहीं लगेगी। लगातार बारिश से बाढ़ का पानी बढ़ता जा रहा था। बादलों की घड़घड़ाहट, तेज़ हवाएँ, बिजली की चमक आदि चारों तरफ़ क्रूर सौंदर्य का वातावरण प्रस्तुत कर रही थी। 

मेरी सहेली नसरीन पराठें और कबाब का जायकेदार लंच लाई थी। मगर शायद ही उसने कुछ खाया होगा। हम सभी ने अपने लंच बॉक्स खोलकर इनडोर पिकनिक मनाना शुरू किया। 

शाम को पाँच बजे के आस-पास बारिश रुकी। हम सभी पानी में छपाक-छपाक करते हुए अपने-अपने घरों की तरफ़ जाने लगे। 

मैं बहुत तेज़ी से घर जा रही थी। क्या कोई मेरा पीछा कर रहा था? 

मेरे साथ और तीन सहेलियाँ थी, जो पहले या दूसरे मोड़ पर मुझसे विदा लेतीं और वहाँ से मुझे अपने घर के लिए शॉर्टकट रास्ता पकड़ना था।

अब मुझे पूरा विश्वास हो गया था कि कोई मेरा पीछा कर रहा था। पीछे देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि लगभग अँधेरा था और और मुझे छोड़कर उस बारिश के मौसम में कोई परिंदा तक नहीं भटक रहा था। मुझे लगा कि क़दमों की आहट बहुत नज़दीक आती जा रही थी और मुझे पीछे मुड़कर देखना पड़ा। 

जिसका मुझे हमेशा से अंदेशा था, वही मेरे पीछे थे। मेरी छठी इंद्रिय कहा करती थी कि मेरा हर जगह पीछा करने वाली अदृश्य आँखें उनकी ही है। 

“सामल सर, आप?” 

“हाँ, तुम कैसी हो?” 

“मैं अच्छी हूँ। आप इस समय यहाँ क्या कर रहे हैं?” 

“तुम्हारे स्कूल छोड़ने के बाद इस गली में एक किराए के मकान में रहता हूँ।” 

“ओह!” 

“मैं हर दिन तुम्हें दो बार इस गली से गुज़रते हुए देखता हूँ।” 

मैं चुपचाप धीरे-धीरे चल रही थी। 

“आज मेरा दिन है, मेरी ज़िन्दगी का।” 

फिर भी मैं शांत रही और कुछ जवाब नहीं दिया। 

“यह छाता ले लो, कल आते समय मुझे वापस दे देना।” 

“नहीं सर, मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है। मैं पहले से भीग चुकी हूँ और ऐसे भी मुझे घर जाने में दस मिनट लगेंगे।” 

“क्यों? क्यों नहीं है तुम्हें इसकी ज़रूरत? तुम्हें मुझसे कुछ भी चीज़ क्यों नहीं चाहिए? क्या तुम नहीं समझ पा रही हो हर किसी को कुछ चाहिए, कोई-न-कोई? तुम देवी क्यों बन रही हो? साधारण इंसान क्यों नहीं? एक साधारण लड़की, जो समझ सकती है और पढ़ सकती दूसरे आदमी की भावनाओं को? मैंने ऐसी क्या ग़लती की है तुम्हारे साथ? क्या मैं इतना बुरा आदमी हूँ?” यह कहकर वह काँपने लगे।

“नहीं सर, आप बिलकुल बुरे नहीं हैं। कौन कहता है? क्या हुआ?” 

मैं नर्वस हो गई थी। 

“डेढ़ साल से मैं अपने आप से संघर्ष कर रहा हूँ। मैंने कोशिश की तुमसे नफ़रत करने की, ऐसी लड़की जिसे मेरी भावनाओं की क़द्र नहीं है। उसके लिए केवल उसका कैरियर ही मायने रखता है। मगर मैं विफल हो गया। बुरी तरह असफल। तुम्हारे जिस गुण से मैं नफ़रत करता था, उसी के उधेड़बुन में मैं फँस गया हूँ। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊँगा, मर जाऊँगा।” 

वह क्या कह रहे थे? 

उधेड़-बुन क्या होता है? और वह मरने की बात क्यों कर रहे है? मैंने आशा की थी कि वे किसी प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं में सफल होकर अब तक स्कूल छोड़ कर अन्यत्र चले गए होंगे। 

मुझे अपने आप पर नियंत्रण करना चाहिए, क्योंकि उस समय वह बेक़ाबू थे। मैं उन्हें दुख नहीं पहुँचाना चाहती थी। 

“सर, क्या आपने अभी तक बैंक पीओ की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की है?” 

“हाँ, मैंने उतीर्ण की है। उन्होंने मुझे तारीख़ दी है। अगले सप्ताह जॉइन करने की अंतिम तारीख़ है। मगर मैं नहीं जाऊँगा। मैं यह जगह छोड़कर नहीं जाना चाहता हूँ।” 

“लेकिन वह तो आपका हमेशा से सपना था।” 

“ओ गॉड! फिर से तुम सपनों की बात कर रही हो? अभी मेरे पास उससे बड़ा सपना है! मेरी इच्छा थी कि इसे मैं पहले बता देता। तुम्हीं मेरी . . . मेरी सपना हो।”

“सर, अँधेरा हो रहा है। अब मुझे जाना चाहिए। कृपया और भविष्य में मुझसे बात करने की कोशिश मत कीजिएगा। मेरे परिवार को ये सब पसंद नहीं आएगा।” 

“कृपया मेरी बात सुन लो। किसी भी प्रकार का निर्णय लेने से पहले इसे एक बार पढ़ लेना। फिर सोचना कि हमें भविष्य में मिलना चाहिए या नहीं।” 

उन्होंने मुझे पॉलीथिन का बैग थमाया, जिसके अंदर एक किताब रखी हुई थी, मेरी पीएच.डी. थीसिस जितनी मोटी होगी। यह देकर वह अँधेरे में कहीं ग़ायब हो गए। जाने से पहले उन्होंने मुझसे कहा, “कल सुबह दस बजे तक मुझे तुम्हारी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा। यह मेरे जीवन और मृत्यु का सवाल है।” उन्होंने मुझे कौन-सी किताब दी है? वह कैसे मुझसे उम्मीद कर सकते हैं कि मैं उसके जीवन और मृत्यु का फ़ैसला यह किताब पढ़ने के बाद दूँ? 

मैंने उस किताब को अपने बैग में डालकर जल्दी से घर चली गई। घर का आयोजन स्थगित हो गया था, क्योंकि बारिश के कारण अधिकांश मेहमान नहीं आ पाए थे। माँ खाना बना रही थी, मेरी बड़ी बहन और चाची रसोई में उनकी मदद कर रहे थे। छोटी बहनें बाहर में पेपर बोट से खेल रही थी। 

मैंने चाय का कप लिया और कॉलेज का बैग लेकर सीढ़ियों पर चढ़ गई। मैं उस किताब की विषय-वस्तु पढ़ने के लिए बहुत उत्सुक थी। वह किताब जिससे किसी ने मेरे जीवन, मेरे चरित्र और मेरे व्यक्तित्व को प्रभावित किया है, उतने महीनों के बाद उन्होंने मुझे दी है। 

मैंने वह बैग खोला। मगर उसमें लूज़ पेपर थे, कम से कम पाँच सौ होंगे, हर पत्र पर तारीख़ लिखी हुई थी, एक के बाद एक साफ़-सुथरे अक्षरों में और अंतिम दिनांक आज की लिखी हुई थी, मेरा मतलब उस दिन की तारीख़ से है। 

ये सब क्या है? पत्र? प्रेम-पत्र? इतने सारे? किसके नाम पर है? मेरे? एक प्रकार का लेखा-संग्रहालय? एक उपन्यास? उस व्यक्ति ने लिखा है जिसने कभी कहानी तक नहीं पढ़ी हो? विज्ञान का वह आदमी, जो वर्णनात्मक शैली से कोसों दूर था? क्या था वहाँ? 

मैं पसीने से तर-बतर हो गई थी। मेरे होंठ उसी तरह सूख गए थे, जैसे दो साल पहले उन्होंने जब मेरा अँगूठा पकड़कर कहा था, बेचैन मत होओ। 

मैंने आख़िरी पन्ना निकाला और पढ़ने लगी, “मेरे प्रीतम! देखो, मेरी भी क्या क़िस्मत है! मैं विगत दो सालों से तुम्हें प्यार करता हूँ और हर दिन तुम्हारे नाम एक पत्र लिखता हूँ। और उसे फ़ोल्डर में रखते जा रहा हूँ। मगर मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई है कि वह पत्रों का यह पुलिंदा तुम्हारे सम्मुख जाकर तुम्हें दे आऊँ।

और देखो, तुम्हारी क़िस्मत! तुम ईश्वर द्वारा निर्मित सबसे ज़्यादा प्यारी आत्मा हो। तुम सर्वोत्तम हो। लेकिन यह पक्का है, तुम्हें कोई भी इतना प्यार नहीं कर पाएगा, जितना मैं करता हूँ। कोई भी तुम्हारा इतना ध्यान नहीं रख पाएगा, जितना मैं रखता हूँ। मगर तुम्हें इस चीज़ का शायद ही अनुभव होगा। 

तुम एक ऊँचे मंच पर बैठी हुई हो, नौका की रोशनी को पार करते हुए बड़ी नदी की रोशनी की तरफ़ देख रही हो। यहाँ मैं हूँ जहाज़ के डेक पर बैठी हुई एक जंगली चिड़िया, जो इस जीवन में कई ज़िंदगियाँ जी रही है। मेरी आवाज़ समुद्र की तरंगों की तरह है और मेरे सपने नीचे उतरते हुए बारिश के बादलों की तरह।” 

ओह, मैं और ज़्यादा नहीं पढ़ सकती हूँ। और ज़्यादा नहीं! मैंने पन्ना पलटा और अंतिम पंक्तियाँ देखी, “मुझे बचाओ। मेरा उपचार करो या मार डालो। मैं और बोझ नहीं बर्दाश्त कर सकता हूँ, इन असंप्रेषित पत्रों का वज़न, अनकहे शब्दों का वज़न। मेरा ज़िन्दगी एक ज्वाला से जल रही है, तुम्हारे पावन हाथों की ज्वाला से। तुम नहीं जानती हो, प्रिये! मैं तुम्हारा कितना आभारी हूँ! भोलेपन में, अनजाने में तुमने मुझे जीवन के बड़े-बड़े अध्याय सीखा दिए हैं, जब मैं तुम्हें तुम्हारे किताबी अध्याय पढ़ाता था। तुमने मुझे दुनिया के संचालन, इतिहास की रचना और सभ्यताओं के निर्माण का सारा सिलेबस सिखा दिया है। यही तो ‘प्यार’ है! तुमने मुझे प्यार सिखाया, तुमने मुझे सच्चा मनुष्य बनाया। ओह! मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ . . .” 

रुक जाओ! मुझे और ज़्यादा नहीं पढ़ना चाहिए, जिससे मेरी दुनिया में उथल-पुथल हो जाए। यह मेरी धरती निगल जाएगी, जैसे उफनता समुद्र प्रायद्वीप को निगल जाता है। 

मैं जल्दी-जल्दी सीढ़ीयों से नीचे उतरकर रसोई-घर में चली गई और बड़ी बहन को आवाज़ दी। उसे भी अंदाज़ हो गया कि कुछ-न-कुछ गड़बड़ हुई है। मैं उसे बेडरूम में लेकर गई और वह पैकेट पकड़ा दिया। 

“दीदी, सामल सर ने मुझे दिया है।” 

“यह क्या है? पत्र? हे भगवान! क्या तुम अभी भी उस आदमी के संपर्क में हो? मुझे लग रहा था। क्या तुम उसे पत्र लिख रही थी? कब से यह सब-कुछ चल रहा है? क्या तुमने ये सब पत्र पढ़े हैं?” एक ही साँस में हज़ारों सवाल उसने मेरे ऊपर दाग दिए। तुरंत मैं कमरे से बाहर निकाल गई, रोते हुए। मैं पूरी तरह से परेशान हो चुकी थी। 

माँ और दीदी बहुत ग़ुस्से में थी और बड़बड़ा रहीं थीं। 

“केवल बच्ची है। क्या उसने यह सब फ़ालतू चीज़ें पढ़ीं हैं? क्या उसे गुमराह किया गया है? फँसा दी गई है? यह तो अच्छा हुआ, कि उसने ये पत्र मुझे दिखाए। घर पहुँचते ही ये पत्र उसने मुझे दे दिए। आशा है, ये पत्र उसने कॉलेज में नहीं पढ़े होंगे। भगवान का शुक्र है।” 

अगली सुबह मुझे घर पर एक हफ़्ते के लिए रुकने के लिए कहा गया और बाद में अपने दोस्तों से नोट्स लाकर काम पूरा करने के लिए। शाम को उन्हें हमारे घर बुलाया गया। पिताजी को मार्केट भेजा दिया गया और हम बहनों को बेड रूम में रुकने के लिए कहा गया कि कोई बाहर नहीं आएगा। वह छह बजे पहुँचे। शायद ये सारे पत्र उनके मुँह पर फेंक दिए गए। शायद उन्हें भला-बुरा भी कहा गया। तुम एक बच्ची को कैसे दिग्भ्रमित कर सकते हो? तुम्हारा साहस कैसे हुआ? हम तुम्हारे ख़िलाफ़ व्यभिचार का केस दर्ज करने जा रहे हैं। हम तुम्हें पुलिस के हवाले कर देंगे। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?? 

मैं सब-कुछ सुन रही थी कान लगाकर, उसके शांत क़दमों की आवाज़ घर से बाहर निकलते हुए। जो मैं झाँक-ताक कर देख सकी, वह आख़िर बार उन्हें देखना था। घर से बाहर जाते समय उनके हाथों में काग़ज़ों का वही पुलिंदा था, अपने सीने पर चिपकाए हुए, चेहरा नीचे किए, आँखें सूजी हुई थीं। उन्होंने दूसरे दिन ही वह क़स्बा छोड़ दिया, अपनी नौकरी भी छोड़ दी। आज बीस साल से ज़्यादा समय बीत चुका है, मैं सोच सकती हूँ कि क्या सही था और क्या ग़लत? कौन सही था और कौन ग़लत? मैं निर्णय नहीं करने जा रही हूँ। केवल इतना ही कह सकती हूँ कि मैंने एक कालजयी कृति को पढ़ने से वंचित रह गई, शायद इसमें किसी के हृदय की धड़कनों से ज़्यादा गहरी धड़कन रही होगी, साँसों से ज़्यादा जीवन रहा होगा और सृजन से ज़्यादा सच्ची और ईमानदारी कृति रही होगी। 

ओस की बूँदों की नीरवता के रूप में मेरी स्मृति में कुछ पंक्तियाँ, जिन्हें मैंने पढ़ा था, बची हुई रह गईं। आज तक उन नीरव पत्रों की जड़ें मेरी धरती खोद रही है, और अर्द्ध-रात्रि को बहने वाली नदियों को सोख रही है। 

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