नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ

नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ  (रचनाकार - प्रो. नंदिनी साहू)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
ऑक्टोपस

“ऑक्टोपस के तीन हृदय होते हैं, एक तो वह हृदय जो शरीर में रक्त का परिसंचरण करता है और फेफड़ों में लगे दो हृदय जो गलफड़ों में ख़ून की पंपिंग करते हैं। ऑक्टोपस के ख़ून में ताँबे के आधिक्य वाला प्रोटीन ‘हिमोसियानीन’ होता है, जो ऑक्सीजन को लाने-ले जाने का काम करता है।” 

उसके बारे में क्या कहना! मेरी ऑक्टोपस है वह। उसके तीन हृदय हैं, एक—जिससे वह मुझे प्यार करती है, दूसरा जिससे वह मुझे और ज़्यादा प्यार करती है और तीसरा—जिससे वह और ज़्यादा से ज़्यादा प्यार करती है। 

उसका नाम नीलोत्पला था यानी नीलू। जब मैंने ऑक्टोपस के बारे में ऐसा पढ़ा तो मेरे होंठों पर हल्की मुस्कराहट खिल उठी और आँखों में आँसू छलक पड़े। और मुझे उसकी याद आने लगी, “वरुण, कौन कहता है कि पुरुष नहीं रोते हैं? वे भी रोते हैं। सच में उन्हें भी कभी-कभी रोना चाहिए।” 

उसके तुरंत बाद उसने कहा था, “हमेशा तो बिल्कुल नहीं! नहीं तो तुम भी मेरी तरह ड्रामा क्वीन बन जाओगे! हा, हा।” 

डेटिंग ऐप के जो एटीकेट और मैनर्स होने चाहिएँ, उसके पास बिल्कुल भी नहीं थे। शायद मेरे संपर्क में आने से पहले उसने डेटिंग साइट को कभी लॉग नहीं किया था। विगत उन्नीस वर्षों से अकेले उसके कंधों पर माता-पिता दोनों का तथा अपना सार्थक भविष्य बनाने का उत्तरदायित्व था। जो कुछ भी वह करती थी, वह पूरे समर्पण भाव से करती थी। जब उसके बेटे की उम्र उन्नीस वर्ष थी, उसकी उम्र चालीस के पार थी, इसके बावजूद भी उसके चेहरे पर उम्र नहीं झलकती थी। उसका व्यवहार भी बच्चों की तरह था और दिल भी बच्चों का-सा, एक दम पारदर्शी स्फिटक पानी की तरह। वह ऑक्टोपस की तरह थी। यह उपमा उसके लिए सटीक थी और उसका चरित्र भी वैसे ही झलकता था। वह स्नातकोत्तर विभाग की निदेशक थी और एक सेलिब्रेटी लेखिका भी। उसकी सार्वजनिक ज़िन्दगी लोगों और जगहों से भरी-पूरी थी, मगर निजी ज़िन्दगी में उतना ही अकेलापन था—जितनी वह अकेली थी। वह निजी इंसान थी। एक समय ऐसा भी आया, जब उसके जीवन के खास अंग, उसके बेटे और उसकी अंतरंग सहेलियों ने उसे अपने लिए एक साथी खोजने के लिए प्रेरित किया, कहीं ऐसा न हो जाए कि इससे पहले वह बूढ़ी होकर अकेली ही मर जाए।

नीलू कई बैठकों और संगोष्ठियों में भाग लेती थी, लोग सुपर स्टाइलिश निदेशक मैडम, जो ऊँची एड़ियों वाली जूतियाँ पहनती थी और शुद्ध उच्चारण के साथ अपना व्यक्तव्य रखती थी, से प्रभावित होते थे। 

जितना वह अनुशासन के प्रति जागरूक थी, उतना ही उदारमना और सहृदया भी। ऐसे अवसरों पर कई लोग उससे व्यक्तिगत तौर पर जुड़ने की कोशिश करते थे, मगर उसने अपने चारों तरफ़ कोकून का आवरण खड़ा कर दिया था। वह अपना बचाव कम शब्दों के प्रयोग, तीखी निगाहें और व्यवहार में आकस्मिक बदलाव के माध्यम से करती थी। मगर भीतर में तो वह ऑक्टोपस की तरह पिघली हुई थी। मुझसे बेहतर उसे और कौन जान सकता था? 

विगत वर्ष कोविड लॉकडाऊन के दौरान उसके पुत्र मोनू और नज़दीकी सहेली ईशा ने बिना उसकी सहमति के उसके मोबाइल फोन पर ‘डेटिंग ऐप’ डाऊनलोड कर दिया था, जिससे वह अपने लिए उपयुक्त साथियों के साथ चैटिंग कर सकती थी। पहले उसे बहुत ग़ुस्सा आया था और उसने अपने फोन से वह ‘ऐप’ सीधे ही डिलीट कर दिया था। 

उस दिन, ईशा ने उसे शांत करते हुए समझाया था, यह अच्छी बात नहीं है, कोई आनंद नहीं है, केवल काम करते-करते अकेले मर जाना कोई महान बलिदान नहीं है। वह कहने लगी, “मेरी तरफ़ देखो! मेरा तलाक़ हो गया। एक साल तक मैं दुखी रही और रोती रही। अब मैं उस सदमे से बाहर आ गई हूँ और इस साइट से जुड़ गई हूँ और लगभग पचास लोगों से बातचीत की होगी। चार-पाँच को तो मिली भी, आख़िरकार मैंने एक को ज़ीरो बना दिया। आज मेरा एक पार्टनर है जिसके साथ मेरे स्थायी सम्बन्ध होने जा रहे हैं। हम सप्ताहांत में मिलते हैं, हम दोनों का व्यस्त जीवन है। हम बातें करते हैं, साथ घूमते हैं, फ़िल्में देखते हैं और शारीरिक सम्बन्ध भी बनाते हैं।” 

“शारीरिक सम्बन्ध?” 

“क्यों, क्या ग़लत है? मैं अपने बिस्तर पर उन पचास लोगों के साथ नहीं कूदती हूँ, जिनसे मैं चैटिंग करती हूँ। एक महीना लगा उस डॉक्टर को खोजने में, जिसके साथ मैं डेटिंग करती हूँ और अब हम सामाजिक, शारीरिक और भावनात्मक तौर पर जुड़ गए है।” 

“अच्छा।” 

“अच्छा ही मत कहो, कुछ करो भी तुम। अन्यथा बहुत जल्दी ही तुम उदास, निराश, हताश, दुखी, बीमार बुज़ुर्ग महिला बन जाओगी। तुम्हारा बेटा भी अपनी ख़ुशहाल ज़िन्दगी शुरू नहीं कर पाएगा, जब तक कि वह तुम्हें ख़ुश नहीं देख लेगा। वह कभी भी आदमी नहीं बन पाएगा, केवल तुम्हारा बेटा ही रह जाएगा। तुम्हारी सेवा करना ही उसका कार्य बचा रहेगा। क्या तुम ऐसा चाहती हो? आओ, आगे बढ़ो, एक बार कोशिश करके तो देखो।” 

नीलू सारी रात सोचती रही। ईशा की बातों में दम था। कुछ लोगों से बातचीत करने में क्या नुक़्सान है? मेरा तो कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। फोन पर वे लोग मुझे क्या क्षति पहुँचा पाएँगे? और मैं तो उनमें से किसी को भी मिलने नहीं जा रही हूँ। कुछ अच्छे लोगों से बातें की जा सकती हैं। 

ऐसा ही कुछ हुआ। 

दूसरे दिन, उसके फोन पर डेटिंग ऐप फिर रिलोड किया गया। जिस क्षण उसने अपने आकर्षक फोटो के साथ लॉग किया, अपनी विस्तृत जानकारी दिए बिना, कई लोगों ने उसे वेव किया और अपनी प्लीज़ेन्ट्री भेजी। ईशा सबका उत्तर दे रही थी, जबकि नीलू नर्वस हो गई थी और अपने कंधे उचका रही थी। 

एक घंटे के बाद मोबाइल की स्क्रीन बदल गई और अच्छे सजे-धजे आदमियों के फोटोग्राफ दिखने लगे थे, नीलू ने मेरा फोटोग्राफ देखा। केवल मेरे फोटो ने उसका ध्यान आकर्षित किया था और उसने लिखा, “हाय!” 
तुरंत ही मैंने उत्तर दिया, “हेलो ब्यूटीफुल लेडी! क्या मैं तुम्हारा नाम जान सकता हूँ? शायद तुम्हारा नाम ‘एन’ से शुरू होता है।” 

मेरी तरफ़ आश्वस्त होने में उसे समय लगा, शुरू-शुरू में निर्णय लेने में उसे समय लगता था। मेरे रूपरंग, चमकती आँखों, आकर्षक मुस्कान और जेंटल मेन लुक उसे अच्छा लगा। 

मैंने उसका पता पूछा। 

मुझे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, उसने अपना नाम, पद और पता चैट बॉक्स में लिख दिया। 

मैं असमंजस में था। इतना अच्छा प्रोफ़ाइल! उसने डेटिंग साइट पर ये सब-कुछ क्यों डाल दिया। हो सकता है, ईशा ने उसे डेटिंग ऐप के तौर-तरीक़ों सही ढंग से नहीं समझाया होगा या फिर नीलू एकदम नई है इस साइट पर। मुझे उस पर दया आने लगी और उसकी यह कहने में मदद नहीं कर सका कि इस तरह की साइटों पर लोगों को अपना सही पता-परिचय नहीं देना चाहिए। 

वह नहीं समझ पाई थी। कुछ सोचने के बाद उसने लिखा, उम्र के इस पड़ाव पर ज़्यादा लोगों को जानने में कोई नुक़्सान नहीं है। आख़िरकार हम लोग कोई टीनएजर तो नहीं है। हम लोग परिपक्व है और दूसरे लोगों को मिलते समय अपना डेकोरम जानते हैं। 

इस विश्वास में उसकी गहरी आस्था थी, और उसकी यह आस्था मुझे हतप्रभ कर देती थी। 

मैं उसके अच्छे इरादों को बिल्कुल नहीं नकार रहा हूँ। क्या वह मुझे तुरंत मिलना चाहती थी? उसने मुझे अपना पता क्यों दिया? क्या वह कोई दूसरी तो नहीं है? कोई चालबाज़ी? उसके प्रोफ़ाइल पर जब दूसरी बार मैंने निगाहें डाली तो मेरी धारणा बदल गई। 

हाँ, कोई नुक़्सान नहीं होगा। 

मैं अपने प्रत्युतर में औपचारिक रूप अनौपचारिक था, वास्तव में, मैं उसे सहज बनाने के लिए मज़ाक कर रहा था। मेरा यह उपाय काम कर गया। उसने मुझे हँसता हुआ इमोजी भेजा। धीरे-धीरे मैंने उसके काम-काज, घर-परिवार, उसके अतीत, अभिरुचियों के बारे में जानना शुरू किया, सब-कुछ उसके बारे में ही था, मेरे बारे में कुछ भी नहीं। जब वह मुझे मेरे परिवार के बारे में पूछती तो मैं उसे इधर-उधर की बातों में घुमा देता था। आख़िरकार वह मेरे लिए अजनबी थी और मैं जानता था कि उसकी तुलना में मुझे डेटिंग ऐप में मैनर की जानकारी थी। 

‘गुड नाइट’ कहते हुए हम एक दूसरे से विदा लेते थे, हर शाम एकाध घंटा चैटिंग करने के बाद। हमने कभी अंतरंग बातचीत नहीं की, मैं न तो उसका विश्वास खोना नहीं चाहता था और न ही उसके भोलेपन का फ़ायदा उठाना चाहता था। 

वह भद्र महिला थी। 

कुछ दिनों बाद, एक बार उसने उत्साहित होकर मुझे कहा कि डेटिंग ऐप पर बड़े-बड़े बहुत आदमी हैं। 

“बहुत आदमी? तुम किसके बारे में बताना चाहती हो?” 

“अरे! तुम्हारे बारे में!” 

“मैं एक आदमी हूँ, बहुत आदमी, हा हा।” 

“पहले से ही ईशा ने मुझे बता दिया था कि जब तुम एक आदमी के साथ डेटिंग करती हो तो तुम्हें सारा ध्यान उसकी तरफ़ ही रखना चाहिए, न कि किसी दूसरे आदमी की तरफ़। यह व्यवहार सम्मत भी नहीं है।” वह ईशा की सलाह को मानती थी, यह बात उसने मुझे बाद में बताई थी कि मैं ही उसका ‘महान आदमी’ हूँ। उसने तय कर लिया था कि मुझे एक बार मिले बग़ैर भी मेरे साथ डेटिंग करेगी। 

मुझे बहुत ख़राब लगा। मैं तुरंत उससे दूर भागना चाहता था, सच में, उसे ब्लॉक करना चाहता था और मैंने गूगल पर उसकी जानकारी ली, उसके बहुत सारे आलेख और फोटोग्राफ मेरे कम्प्यूटर में हैं—देखते-देखते वह मेरी अभिरुचि और सपनों की रानी बन गई। 

मैं चाहने पर भी उसे ब्लॉक नहीं कर सका। इसलिए मैंने उससे जुड़े रहना मंज़ूर किया, अपनी सीमाओं के भीतर रहते हुए। उस दिन मैंने उसे बताया कि मेरा असली नाम वरुण है, न कि राम, जो मैंने डेटिंग ऐप पर रखा था। मेरे परिचय को छुपाकर रखने के लिए मैंने यह नाम रखा था। वह कुछ समय तक चुपचाप रही, शायद उसे दुख पहुँचा होगा। मुझे अपराध बोध हुआ। जब मैंने उसे कहा कि मैं अपने एकाकीपन से राहत पाने के लिए इस ऐप से जुड़ा था, मगर मेरा तलाक़ नहीं हुआ था। मैं अलग रहता था, और मेरी सत्तरह वर्षीय पुत्री निशा मेरे और मेरी पत्नी के बीच कड़ी थी। मैंने उसे कहा कि मैं और मेरी पत्नी अलग-अलग बेडरूमों में सोते हैं। निशा के जीवन में कोई झंझावात पैदा न हो, इसलिए मैंने उसे ऐप पर छद्म नाम रखा था। 

उसने हामी भरी। 

समय के साथ, हम एक दूसरे के साथ सहज अनुभव कर रहे थे या यूँ कहे एक दूसरे की आवश्यकता बन गए थे। मैं अपनी तत्क्षण बुद्वि से उसे हँसने पर मजबूर कर देता था। उसके भीतर ‘सेंस ऑफ़ ह्यूमर’ भी ग़ज़ब था। 

♦    ♦    ♦

उसकी चैन्ने में एक सहेली थी, जो उसे दिमाग़ लगाने वाले जोक्स भेजा करती थी, वह उसे मेरे साथ शेयर करती थी। हर सुबह मैं उन जोक्स के साथ उठा करता था। हम दोनों के बीच में जो अंतर था, वह अपने शब्दों के साथ राजनैतिक दृष्टिकोण से सही रहती थी, अपने हँसी-मज़ाक के मूड में रहने के बावजूद भी, जबकि मेरे साथ ऐसा नहीं था, मैं हमेशा अपने पाँव अपने मुँह में डाल देता था और फिर पछताता था। उदाहरण के लिए, एक बार मैंने उससे कहा कि मैं बार-बार उसे फोन नहीं कर सकता हूँ, मेरे चाहने पर भी मेरे साथ रहने वाले अन्य लोगों को पता चल जाएगा कि मेरी ज़िन्दगी में कुछ चल रहा है। अन्य से मेरा अर्थ मेरी बेटी तथा मेरी पत्नी से था, जो उस समय उसकी परीक्षा के दौरान आई हुई थी। नीलू हतप्रभ रह गई। 

“अन्यों के साथ वरुण? जैसे तीन लोग किसी चिड़िया घर में रह रहें हो? जहाँ हर कोई एक दूसरे को खा जाने की निगाहों से देख रहा हो? क्या वे लोग तुम्हारे मालिक हैं? क्या तुम दरवाज़ा बंदकर मुझे फोन भी नहीं कर सकते हो? वाह!” 

मैंने कहा, ” बेबी, डोंट बी सिली। हम अपने बारे में बातचीत करें।” 

“वरुण, अब जब मुझे मालूम चल गया है कि तुम्हारे साथ कुछ ‘अन्य लोग’ भी रहते हैं तो मैं कैसे इसे भूल सकती हूँ? हा, हा!” 

उस तेज़ दिमाग़ वाली महिला के सामने मैंने यह सब कहकर ग़लत किया। 

मुझे याद है नीलू कभी-कभी घातक मज़ाक भी करती थी, इस हास्य-भाव के पीछे उसका व्यंग्य बाण छुपा हुआ था, “वरुण, तुम तो ‘ई-कामर्स’ वाले आदमी हो, इसलिए मुझसे मिलने में भी ‘लाभ और हानि’ का आकलन कर रहे हो? लाभ, जैसे तुम मुझे सप्ताह या पखवाड़े में एक बार मिलते हो तो हमारी शारीरिक नज़दीकियाँ कुछ बढ़ेंगी और तुम अपनी यौनता के प्रति आश्वस्त होगे, जो तुम्हारी पूर्व पत्नी के लिए किसी काम की चीज़ नहीं है। और हानि इस बात की है कि तुम्हारे घर का संतुलन बिगड़ जाएगा। हा, हा।” 

मैंने केवल कहा, “शट अप, जान।” 

उसकी आदत थी रात को दस बजे मोबाइल बंद कर देर तक पढ़ाई करने की। उसके जीवन में अगर किसी चीज़ की कमी थी, तो वह थी ‘समय’ की। मगर मेरे लिए समय निकाल लेती थी, जब भी मैं चाहता था। 

उनके प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान था। हमारी मीटिंग के एक महीने के भीतर, मैं खुल गया था। मेरे लिए वह बिलकुल अलग थी। जिस दिन मैं उससे बात नहीं करता था, मेरे लिए वह निरर्थक दिन था। जिस दिन मैं उससे बात करता था, मुझे अद्भुत संतोष मिलता था। वह मेरी ख़ुशी का पैमाना थी। वह मेरे मूड जितना जल्दी समझ जाती थी, उतना कोई नहीं समझ पाता था। वह मेरी भावनाओं की क़द्र करती थी, जब मैं मेरी कंपनी में कर्मचारियों के चयन के दौरान मीटिंगों में होता था तो वह धैर्यपूर्वक इंतज़ार करती थी। 

उसने कभी भी शिकायत नहीं थी, और कभी भी यह भी नहीं दर्शाया कि वह मुझसे ज़्यादा व्यस्त रहती है। वह हमेशा मुझे समय देती थी। उसने धीरज रखना सीख लिया था, जो उसके चरित्र की बहुत बड़ी ताक़त थी। 

“नीलू, मुझे हँसी आ रही है,” एक बार मैंने बातचीत के दौरान उससे कहा। 

“क्यों?” 

“दुनिया में इतने सारे लोगों में मेरी मुलाक़ात तुमसे हुई है। एक ऐसी कवयित्री जो मुझे शब्दों में पिघला देती है। और फिर मैं तुमसे जुड़ जाता हूँ।” 

“ईश्वर को शायद यह मंज़ूर था। क्योंकि मैं तुम्हारे योग्य हूँ।” 

वह शब्दों के साथ जोड़-तोड़ करती रहती थी और वह शब्दों की जादूगरनी थी। वह कहती थी, “भाषा ही तो हमारा व्यवहार है।” एक दिन मैंने उससे कहा, “मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ।” और उसने कहा, “तुम सागर हो और मैं तो नदी की धारा हूँ।” धीरे-धीरे मेरे भीतर उसके मिल जाने के कारण ख़ुशी का दर्द होने लगा था। 

नीलू लाइलाज रोमांटिक थी, उसे केवल प्यार चाहिए था। वह मानती थी कि सारी मनुष्यकृत बीमारियों की रामबाण औषधि है प्रेम, सारी समस्याओं का समाधान की कुंजी है प्रेम। 

नीलू ने एक किताब लिखी थी ‘वैदेही’ रामायण की सीता का दूसरा नाम। वह मुझे अक़्सर चिढ़ाया करती थी,  “देखो वरुण! तुम्हारा छद्म नाम राम देखकर सीता मैया तुम्हारी तरफ़ आकर्षित हुई।” 

मगर तुरंत ही उसने आगे कहा, “मगर मत सोचना कि मैं तुम्हारे प्यार में फँसने वाली हूँ, हे हे।” 

कुछ हँसती इमोजी भेजने के बाद दोनों मुस्कराने लगे। एक मैसेज वह अक़्सर मुझे भेजा करती थी, बार-बार वही मैसेज, जब भी वह कुछ नज़दीक आने की बातें करती। हाँ, उसका यह तरीक़ा अत्यन्त ही प्रभावशाली था सुज्जित हास-परिहास के लिए। 

मेरी परमसंतुष्टि और ख़ुशी के दिन थे वे। वह महिला मेरे लिए स्वर्ग थी। 

हम म्यूज़िक और मूवी शेयर करते थे। एक ही शहर में 25 किमी. की दूर पर रहकर हम दोनों एक ही मूवी देखते थे और फिर उसकी समीक्षा करते थे। हमेशा हम एक जैसा सोचते थे, उसी समय उन्हीं वस्तुओं के बारे में। वह कहा करती थी, मैंने उसके मुँह की बात ही नहीं छीनी, बल्कि विचार भी। मैं उसकी ‘स्ट्रीम ऑफ़ कांशियसनेस’ थी और ‘ऑबजेक्टिव कोरिलेटिव’ भी। हमारे बीच में एक प्रकार से आत्माओं का सम्बन्ध था। जब वह लंबे समय तक मेरी मोबाइल स्क्रीन पर नहीं दिखाई देती थी तो मुझे भीतर में ख़ालीपन लगता था। वह मेरी संवेदनाओं का, व्यस्तताओं का और मेरे परमानंद की धुरी बन चुकी थी। 

हम अपने बाल-बच्चों का भी अच्छे से ध्यान रख रहे थे। जो कुछ मैं निशा के लिए करता था, उसे बताता था और वह भी मुझे अपने बेटे के बारे में किए गए कामों के बारे में बताती थी। मैं उसकी दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक बन गया था। उत्साहपूर्वक उसने मुझे यह दर्जा दिया था। मुझे लगा कि वह मेरी चापलूसी कर रही है, मगर उसका ऐसा कोई इरादा नहीं था। उसे लग रहा था जैसे मैं दुनिया का पुरस्कृत इंसान हूँ। 

मैंने कुछ सॉफ़्टवेयर डाउनलोड कर उसकी कुछ सुंदर तस्वीरों पर पेंटिंग कर दी, उसे वे तस्वीरें जीवंत लग रही थी। व्हाटसअप पर मेरे भेजे हुए जीआईएफ उसे पसंद आते थे, वह उन्हें देखकर हँसती थी। एक बार उसने मुझे मिलने के लिए कहा तो मैंने उसे किसी दिन सफ़ेद फूलों के साथ मिलने के लिए आश्वस्त किया, तो वह किसी लड़की की तरह ख़ुशी से फूले नहीं समाई। वह उस दिन का इंतज़ार करने लगी। कुछ दिनों के बाद, मैंने उससे पूछा कि हक़ीक़त में हमारी मुलाक़ात कब होगी? 

उसने मज़ाक में कहा, “मेरी मृत्युशय्या पर? या अंत्येष्टि कर्म के समय।” 

मैंने उस शाम उसे बहुत डाँटा और वह लगातार हँसती रही, “बूढ़े अंकल, मैं काफ़ी जवान हूँ क्या तुम नहीं जानते हो? मैं इतना जल्दी मरने वाली नहीं हूँ। और अगर मैं मर भी गई तो भी तुम्हारा पीछा छोड़ने वाली नहीं हूँ। मैं भूतनी बनकर तुम्हारे पीछे लगूँगी।” 

वह जानती थी अपने दर्द को कम कर चेहरे पर मुस्कराहट बिखेरने की तकनीक को। 

तब तक वह मेरी चेतना पर बोझ बनती जा रही थी, जो मैं वहन नहीं कर पा रहा था। उसकी ईमानदारी, सादगी, पारदर्शिता और भोलापन मेरे लिए घातक होता जा रहा था, उसकी निस्संगता उसके लिए ख़तरनाक होती जा रही थी। हम दोनों निशब्द एक दूसरे को तड़पा रहे थे। मैं उसे मिलने के लिए तरस रहा था, मगर भीतर से कोई मुझे रोक रहा था। मैं उसे आहत नहीं करना चाहता था, मिलन की उम्मीदों पर पानी फेरकर। वह भी मुझे मिलने के लिए तड़प रही थी, मगर उसमें असीम धीरज था। बिना कुछ कहे वह इंतज़ार करना चाहती थी। वह कहती थी, “वरुण, मैं सदियों तक तुम्हारा इंतज़ार कर सकती हूँ। तुम मेरे धीरज की थाह नहीं ले सकते हो।” 

मुझे आश्चर्य हो रहा था, नीलू जैसी एक अकेली सुंदर सफल महिला को उसके योग्य आदमी क्यों नहीं मिल रहा है? वह मेरे भीतर ऐसा क्या देखती है? मेरी भीतर ऐसा क्या था, जो उसने मिलने के लिए बाध्य कर रहा था? उसे यह बात पता थी। मुझे मालूम नहीं था, उसने मुझे बताया भी नहीं कि उसने मेरे भीतर ऐसा क्या देखा, मगर वह हमेशा कहा करती थी, मैं ही उसका ‘अल्टीमेट’ पुरुष हूँ। वह कहा करती थी कि वह सेपिओसेक्सुअल है जो अपने पार्टनर में बुद्धि को सबसे ज़्यादा स्थान देती है। दंभपूर्वक एक बार उसने यह बात कही थी तो मैंने उससे कहा था वैज्ञानिकों के अनुसार सेपिओसेक्सुअलिटी में सेक्स की तरफ़ झुकाव कम होता है, मगर अपनी पहचान की तरफ़ ज़्यादा। मुझे अचंभा हुआ कि मेरी इस बात को उसने बुरा नहीं माना। कभी-कभी नीलू पूरी तरह से अनाड़ी थी, छोटे-मोटे मतभेदों को नज़रअंदाज़ कर देती थी। 

मगर उसने यह अवश्य कहा, “मगर ऐसा कभी मत सोचना कि मैं तुमसे प्यार करने लगूँगी, ओके?” इस पर हम दोनों बहुत हँसे थे। यह तरकीब काम भी कर गई। साथ रहने पर हम दोनों बहुत हँसते थे, हम दोनों बहुत ख़ुश थे, उन दिनों वह मेरे हृदय की धड़कन थी। 

एक बार मैंने इंटरनेट पर उसकी कोई पुरानी कहानी पढ़ी, जिसमें उसका किसी जयदीप से लंबी दूरी पर रहते हुए भी सम्बन्ध था। मैं डर गया था, क्या वह मेरे भीतर भी जयदीप देखना चाहती है? मैंने उसे सीधे-साधे शब्दों में पूछ लिया, वह असमंजस में पड़ गई। 

“मैं तुम्हें किसी दूसरे की जगह नहीं रखना चाहती हूँ और जयदीप अविस्थापनीय है।” 

“मुझे खेद है।” 

“वरुण, तुमने मुझे बहुत दुख पहुँचाया। तुम्हें पता होना चाहिए कि मैं सम्बन्धों में पीछे हट जाती हूँ, जब मुझे लगता है कि मैं दूसरे के लिए अच्छा नहीं कर रही हूँ। मैं केरल के पश्य-जल की तरह हूँ, जितना आगे जाती हूँ उतना पीछे भी आती हूँ। वरुण, अगर एक-दो बार और ऐसा करोगे तो नीलू तुम्हारी ज़िन्दगी से हमेशा के लिए ग़ायब हो जाएगी, ओके?”उसने कहा। 

उसका केरल के साथ विचित्र सम्बन्ध था। 

यह मेरे लिए ख़तरे की घंटी थी। मैं परेशान हो गया था। मैंने भी संकल्प कर लिया था कि मैं धमकी बर्दाश्त करने वाला अंतिम आदमी होऊँगा। 

“धमकी? मैं अपने किसी महत्त्वपूर्ण इंसान वरुण को धमकी दे सकती हूँ? केवल मैं तुम्हें अपना दायरा बता रही हूँ।” 

वह कुछ भावुक हो गई थी। हम दोनों अपसेट हो गए थे, मगर दूसरी सुबह उसी शुभेच्छा और विश्वास के साथ फिर हाज़िर। 

हमारे बीच जो विश्वास का पुल था, वही काम कर रहा था। हर दिन वही काम आता था। इस आभासी दुनिया में ‘डेटिंग’ करने वाली एक मात्र महिला थी, उन दिनों मेरी यह वास्तविकता थी। 

मेरा अपना निजी धंधा था, इसलिए मेरा समय इधर-उधर होता रहता था, परन्तु वह नौ से छह बजे तक नौकरी करती थी, मैं उसके घर पहुँचने और स्नान करने के बाद उसका मैसेज आने का इंतज़ार करता था। 

“नहा ली हूँ, पूजा भी कर ली, चाय पी रही हूँ।” 

आह . .  . पवित्र आनंद की घड़ी। शुद्ध आनंद। मुझे नया जीवन मिल जाता था। मैं फिर से जीवन जीना सीखता था। 

नीलू ने मुझे एक पे-चैनल पर डाक्यूमेंटरी देखने के लिए कहा। वह एक विभिन्न महिला थी और फ़िल्म देखने की उसकी पसंद भी बिल्कुल अलग तरह की। 

उसने कहा था कि एक लोककथा पर आधारित वह बहुत ही सुंदर और मर्मस्पर्शी डाक्यूमेंटरी थी। नीलू निराश, मगर ज़बरदस्त रोमांटिक थी—वह हर किसी चीज़ में और कहीं पर भी प्रेम और विश्वास को तलाश लेती थी। वह मूवी देखकर बहुत रोई। फ़िल्म निर्माता ने एक मादा ऑक्टोपस पर उसके रहन-सहन, रीति-रिवाज़ पर एक साल से शोध किया था, उसे ठंडे पानी में डुबाकर भी। दृश्य कितना मर्मस्पर्शी था। जब वह शार्क से अपने को बचाने के लिए जी-जान लगा दे रही थी। उस रात मैंने भी वह फ़िल्म देखी। 

मैंने देखा कि मनुष्य में प्रकृति से तारतम्य बैठाने की अद्भुत क्षमता होती है। उस कहानी ने मेरे भीतर नई संभावनाओं को जन्म दिया। एक जानवर से विश्वास और मानवता के अध्याय सीखने की दिशा में मनुष्य का यह नया क़दम था। अपने इर्द-गिर्द के लोगों से बिछुड़कर एक आदमी ने ऑक्टोपस की ज़िन्दगी से सबक़ सीखें। 

एक दिन मादा ऑक्टोपस की मुलाक़ात नर ऑक्टोपस से हो गई और दोनों के बीच में सम्बन्ध भी स्थापित हो गया। ऑक्टोपस का जीवन चक्र इस प्रकार होता है कि उसके शरीर का अधिकांश हिस्सा अंडों की सुरक्षा करने और सेंकने में लगता है। दूसरे शब्दों में उसका जीवन उसके बच्चों के जीवनावधि में ख़र्च हो जाता है। एक हफ़्ता या ज़्यादा हुआ होगा, वह अपनी गुफा में लेटकर अंडों को सेंक रही थी और उसका जीवन धीरे-धीरे ख़त्म होता जा रहा था। जब वह पूरी तरह ख़त्म हो गई, तो उसका शरीर समुद्र के मांसाहारी जीव जंतुओं द्वारा खा लिया जाता है और आख़िरकार एक पजामा शार्क आकर उसका शरीर खींचकर ले जाता है। जब मैं यह बात उसे बताने जा रहा था तो मेरी आँखों में आँसू छलक आए और वह कहने लगी, “वरुण, कौन कहता है कि आदमी नहीं रोते हैं।” 

कहानी के भीतर छुपा हुआ लक्ष्यार्थ था, किसी की भी ज़िन्दगी में सम्बन्धों में विश्वास कितना मायने रखता है, किसी से भी और किसी रूप में भी। और दूसरा सबक़ था किसी का फिर से जीता हुआ विश्वास तुम्हारी ज़िन्दगी से एक न एक दिन चला जाएगा—इसलिए जब तक हो सके उसे बनाकर रखें, भले ही कुछ समय के लिए ही क्यों न हो। 

मुझे तुरंत उस मादा ऑक्टोपस में वरुण-नीलू का सम्बन्ध दिखाई देने लगा। आदमी उसी वहम में था कि वह ऑक्टोपस के साथ प्रयोग कर रहा है। मगर वास्तव में, ऑक्टोपस पहले से ही उसके जीवन का ध्यान कर रहा था। जैसे नीलू कॉफ़ी का चम्मचों में मेरी ज़िन्दगी मापती थी। मेरी ज़िन्दगी ‘मेरी ऑक्टोपस गुरू’ नीलू ने बड़ी सावधानीपूर्वक नापी। 

इस वर्ष, नीलू के कुछ धन-संपत्ति ख़रीदी और वह अपने घर के लिए फ़र्नीचर, फ़िटिंग्स, फिक्चर ख़रीदने का सोच रही थी। विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर और लेखक होने के कारण उसे रियल इस्टेट की बिल्कुल जानकारी नहीं थी। इसलिए मैंने उसकी तरफ़ खोजबीन करना शुरू किया और अलमीरा एवं बुकशेल्फ के लिए उपयुक्त संभावित कोटेशन भेज दिए। 

मैंने बहुत सारे भेजे थे, मगर उसे कुछ भी समझ नहीं आया। उसके दिमाग़ में केवल शोध, सर्जनशील लेखन, शिक्षण और निश्चित तौर पर ‘प्रेम’ की भावना भरी हुई थी। वरुण के प्रति उसका प्यार उसका धंधा ही नहीं, बल्कि नशा बनता जा रहा था। मैं उसे लड़की ही समझता था, उसका व्यवहार ही कुछ ऐसा था, वह मुझसे 51 दिन तक लगातार बातें करती रही और 51 आत्मावलोकन भरी मर्मस्पर्शी, आँखों में आँसू लाने वाली, सरल, फिर भी जटिल कविताएँ लिख डालीं और एक दिन उसने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया, जब उसने उन कविताओं की पूरी किताब प्रकाशित करवाकर मुझे समर्पित कर दी। मैं ख़ुशी से फूला नहीं समाया, कभी मैंने सोचा तक नहीं था कि एक महिला कवयित्री मेरे नाम पर मेरे लिए एक किताब लिख डालेगी। मैं भूल गया था कि आख़िरकार मैं भी तो एक इंसान हूँ, आवश्यकताओं, इच्छाओं और भावनाओं से ओत-प्रोत। उसने मुझे मानवता के उच्च आदर्श सिखाए, हाँ, वह मेरे चरित्र का ‘मानवीय पक्ष’ थी, जैसा कि वह अक़्सर कहा करती थी। सही अर्थों में, उसने मेरे भीतर मानवाधिकार के विचारों को उद्दीप्त किया था। मगर दुख की बात यह है कि मैं उससे वे सारे सबक़ नहीं सीख सका, क्योंकि मैं भी बहुत ज़िद्दी लड़का था। मैंने उसके मानव-संकाय की कक्षाओं में वही सीखा, जो मैं सीखना चाहता था। संक्षिप्त में, वे चीज़ें जो मुझे अच्छी लगती थी। मैंने कभी भी उसे खुले दिमाग़ से नहीं सुना। मगर उसका मुझ पर एक दम अंधा विश्वास था-मैं उसकी कलाएँ और विज्ञान का अनंतिम स्त्रोत था। 

एक दिन जब मैंने नीलू को फोन किया, उसका मन ठीक नहीं था। सांसारिक चीज़ों में अनभिज्ञ होने के कारण उसे अपने आप पर ग़ुस्सा आ रहा था। कुछ अव्यवहारिक लग रही थी। वह सिसक रही थी, नहीं आँसू बहा रही थी कि उसे बिल्डर और कंपनी वालों के ग्राफ, डायग्राम, डिज़ाइन, कोटेशन समझ में नहीं आ रहे थे। जब मैंने उसे फोन किया तो वह उसी को समझाने की कोशिश कर रही थी। 

मैंने उसे सांत्वना दी। मैंने वायदा किया कि उन सारी चीज़ों में मैं उसकी सहायता करूँगा। 

“चिंता मत करो, नीलू, हम दोनों मिलकर यह काम करेंगे, ओके?”

बिना शब्दों को चबाए वह सीधे मुख्य मुद्दे पर आ गई। 

सीधा मुख्य, मुद्दा। 

“तुम मेरी किस हैसियत से मदद करना चाहते हो, वरुण?”

“शांत रहो, नीलू।” 

मैंने फिर सांत्वना दी, “एक दोस्त की हैसियत से।” 

“मगर मैंने तुम्हें कभी केवल दोस्त ही नहीं समझा। तुम मेरे लिए उससे कुछ ज़्यादा हो।” 

उसकी आँखों में आँसुओं की बाढ़ आ गई। सारी सरहदें टूट गई। उसकी आवाज़ घुट रही थी, और उसे ढाढ़स नहीं बँधाया जा सकता था। 

वह नाराज़ थी फिर भी हमने बातें की, नहीं, केवल मैं ही बोलता रहा। वह सुबकती रही, केवल सुबकती रही। उसकी संचित भावनाएँ पिघल रही थी, फोन के उस तरफ़ मैं निस्सहाय हताश था। 

ऐसा ही होता था, जब मैं कहा करता था, “देखो, मैं कोई ख़ाली आदमी नहीं हूँ, मेरी शादी अभी लटकी हुई है, यह दूसरी बात है कि मैं अपनी पत्नी या पूर्व पत्नी के साथ नहीं रह रहा हूँ। क्या मैंने ऐसा कभी वायदा भी किया? क्या मैंने ऐसा कुछ किया? तुम रो क्यों रहीं हो? मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है।” 

शांत होकर वह कहने लगी, “नहीं, तुमने कभी ऐसा वायदा नहीं किया, वरुण। ऐसा कुछ भी नहीं किया, मैं जानती हूँ।” 

उसके बाद उसने फोन रख दिया। 

उस रात हम दोनों को नींद नहीं आई। 

एक घंटे बाद उसका मैसेज आया, “तुम्हें यह नहीं कहना चाहिए था कि तुम मेरे लिए प्रतिबद्ध नहीं हो। कम से कम हमारे साथ गुज़ारे पलों का सम्मान करने की ख़ातिर ऐसी अभद्र घोषणा तो नहीं करते। मुझे कोई तुमसे स्पष्टीकरण नहीं चाहिए। वरुण, कौन प्रतिबद्धता का ख़्याल करता है, जब कोई केवल जीना चाहता हो?” 

और फिर उसने मुझे कहा, “वरुण, पहले दिन से तुमने मुझे कहा था कि तुम अकेली हो, और तुम्हारा अकेलापन मुझे तुम्हारे नज़दीक खींच लाया है। तुम मुझे अपना सोलमेट बनाना चाहते थे, तुम्हारा प्लूटोनिक प्रेम। और अब तुम ऐसी दुनियादारी की बातें करते हो और जब घंटां-घंटों तक नज़र नहीं आते हो तो मेरे मन में संदेह पैदा होता है। मगर मैं अपने ख़ातिर, अपनी मानसिक शान्ति के लिए तुम पर शक करना नहीं चाहती।” 

और दूसरी सुबह, अपनी सूजी आँखों वाला फोटो भेज दिया, लगातार रोने और रात भर अपने आपको कोसने की वजह से। सारे बुरे या भले फोटो भेजने की उसकी यह अद्भुत आदत थी। 

हाँ, वह अपने आपको नष्ट कर रही थी। उसकी आँखें निर्जीव लग रहीं थीं। 

मैं बेचैन हो गया था, अपराध-बोध से ग्रस्त। 

मैंने मन ही मन तर्क दिए। मुझे उसे शांत करना चाहिए, मैं उसे किसी भी क़ीमत पर नहीं खोना चाहता। किसी भी क़ीमत दर। मेरा अपनी पत्नी के पास जाने का कोई इरादा नहीं था, यद्यपि हमारा तलाक़ नहीं हुआ था। निशा के व्यवस्थित होने के बाद मैं मुक्त हो जाऊँगा। उसके बाद मेरे ऊपर मेरी पत्नी या पुत्री के साथ रहने का कोई पारिवारिक दबाव नहीं होगा। इसी दौरान, मुझे नीलू से मिलना चाहिए, हमारे भीतर पर्याप्त धैर्य है। वह परिपक्व है, वह कभी भी मुझे प्रतिबद्धता के लिए नहीं कहेगी। सप्ताह में हम अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते हैं, मगर सप्ताहांत में तो मिल ही सकते हैं। नीलू के साथ मेरी ज़िन्दगी अच्छे से गुज़रेगी। हम दोनों एक दूसरे के लिए बन हुए हैं। मुझे कमिटमेंट करने से डर लगता है और नीलू को कमिटमेंट नहीं चाहिए। 

मगर उस रात के बाद नीलू का मेरे प्रति रवैया पूरी तरह बदल गया। उसकी सूजी हुई आँखों वाली रात के बाद, जो हुआ इस प्रकार हैः

मेरे हर बड़े मैसेज का उत्तर एक शब्द में। उसके बाद कोई रोमांटिक मैसेज नहीं। लंबी-लंबी बातें बंद। साहित्य और मूवी पर चर्चा ख़त्म। राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर और कोई बहस नहीं। मैं फिर से अपने शून्य की ओर फेंका गया। मैं बिना पैंदे का लोटा बन गया। मेरे इस बॉक्स और कोई हृदय को लुभाने वाली तस्वीर नहीं। न तो शेयर, न ही केयर। कुछ भी नहीं। प्यार भी नहीं। कुछ भी नहीं। 

केवल, हाँ। 

या फिर, ना

जो कुछ मैं पूछता था, उसके ये ही दो उत्तर होते थे। इस बार मैंने भी धीरज धारण किया। उसे अपना समय दिया जाए। मुझे प्रतीक्षा करनी चाहिए। आख़िरकार, मैंने उसे चोट पहुँचाई है। उसे कुछ समय ‘ब्रेक’ करना चाहिए। मेरे हिसाब से, जब कभी कठिन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलता हो तो हमें ‘ब्रेक’ ले लेना चाहिए। 

महीने गुज़रते गए। लगभग एक साल बीत गया। यद्यपि मेरे मैसेजों पर उसकी तरफ़ से प्रतिक्रिया अवश्य मिलती थी। 

मेरे धीरज का बाँध टूटने लगा था। 

मेरे पास उसका पता था, जब हम एक दूसरे के नज़दीक थे, तब उसने मुझे दिया था—से उम्मीद थी कि मैं सफ़ेद फूलों के साथ कभी उसे मिलूँगा। बेचारी लड़की ने इस को गंभीरता से ले लिया था। लोगों का चेहरा भाँपकर विचार पढ़ लिए थे। 

उसके जन्मदिन पर, मैंने एक सफ़ेद गुलाबों का पुष्पगुच्छ ख़रीदा और एक लाल गुलाबों का। पता नहीं, उसे कौन सा पसंद आ जाए। 

उसके घर पहुँचने से पहले मैंने फोन किया। उसने कहा मुझे किसी भी प्रकार का ‘सरप्राइज़’ पसंद नहीं है। एक साल बाद जब मैंने उसका मोबाइल नंबर लगाया तो मेरे हाथ काँप रहे थे। मैं उसे कहना चाहता था कि ऐसा कोई दिन नहीं था, कोई घंटा नहीं था, कोई पल नहीं था, जब मैंने उसके बारे में सोचा नहीं होगा। ख़ैर, घर में काम करने वाली ने फोन उठाया। 

नीलू पढ़ रही होगी, पढ़ाकू लड़की। 

“हेलो। कौन बोल रहा है? मोनू भैया कक्षा में हैं, वह आपका फोन नहीं उठा सकते हैं।” 

“कृपया मैडम को फोन दीजिए।” 

“मैडम? वह तो गत वर्ष चली गई, मोनू भैया उनके नंबर काम में ले रहे हैं। अगर कोई ज़रूरी काम हो तो, आप उन्हें मैसेज कर सकते हैं। वह बाद में उत्तर दे देंगे।” 

“क्या तुम्हें पता है वह कहाँ पर है? क्या तुम मोनू भैया को पूछकर मुझे बता सकती हो?” 

“नहीं, मुझे कहा गया है कि मैडम के बारे में किसी को भी नहीं बताऊँ। गत वर्ष वह इंडिया छोड़कर चली गई है।” 

मुझे याद आ गया कि शार्क मछली ऑक्टोपस को घातक समय में निगल जाती है। 

मैं दुखी हुआ। सिसकने लगा। रोने लगा। 

हाँ, आदमी भी रोते हैं। आदमियों को भी रोना पड़ता है। मेरी मेडूसा, मेरी ऑक्टोपस, आख़री बार हँसी थी, मेडूसा की हँसी। उसने न तो डेटिंग ऐप के मैनर्स सीखे, जब वह मुझसे डेटिंग करती थी, वरुण, डेटिंग ऐप के विशेषज्ञ से और नहीं उसने अपने बेटे को टेलीफोन मैनर्स सिखाए। 

सच में, उसने मुझे सिखाया, संक्षिप्त में। 

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