शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
अध्याय–3
वेताल के बिना बोलकर जाने के कारण विक्रम ने पहले सोचा कि उससे और नहीं मिला जाए, लेकिन उसे लगा कि शहीद बिका नाएक की खोज अधूरी रह जाएगी। फिर उसने चन्द्रबिल गाँव के पुल से सटे ताल-पेड़ के नीचे से जाने का मन बना लिया। कल तो ऐसे लग रहा था कि विक्रम और वेताल के वार्तालाप में किसी कहानी के तत्वों का ज़िक्र कम, मगर ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण ज़्यादा था। जैसे ही विक्रम की गाड़ी उस पेड़ के नीचे से गुज़री तो प्रतीक्षारत वेताल लपककर उसके कंधे पर हो लिया।
सामने रास्ते में बड़त्रिविड़ा की हाई स्कूल था, उसकी ओर हाथ से संकेत करते हुए वेताल मन-ही-मन कुछ बुदबुदाने लगा, मगर उसकी आवाज़ भले ही धीमी थी, मगर कानों में साफ़-साफ़ सुनाई पड़ रहा था, “यह वही स्कूल है जिसका नाम कभी मेरी शहादत पर रखा गया था, शहीद बिका नाएक प्राइमरी स्कूल। मगर अब यह स्कूल बड़त्रिविड़ा मिडिल स्कूल के नाम से जाना जाता है। उसी प्रजा ने मेरा नाम तक हटा दिया, जिसके सुखमय भविष्य के लिए, देश की आज़ादी के लिए मैंने कभी अपनी जान दे दी थी,” कहकर वेताल रुआँसा हो गया।
“मगर आपके नाम क्यों हटा दिया?” विक्रम पूछना चाह रहा था। मगर उसे याद आ गया कि उसके पूछने से कहीं वेताल की शर्तों का उल्लंघन न हो जाए और वह ताल के पेड़ पर फिर से वापस न चला जाए।
”नहीं, नहीं। अब आप आगे की गाथा सुनाओ,” विक्रम ने उसे स्कूल की बाउंड्री के पास खड़े पेड़ का सहारा लेते हुए कहा।
“हाँ, आप तो जानते हो मैं भटकती अतृप्त, मगर देशप्रेमी आत्मा हूँ। महाभारत में बेलालसेन की तरह मैं इस गड़जात क्षेत्र में प्रजा का राजाओं और अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हो रहे आंदोलनों का साक्षी रहा हूँ। मूक साक्षी नहीं, बल्कि विद्रोही बनकर मैंने आततायियों के साथ संघर्ष किया था।” वेताल के कहते-कहते विक्रम की गाड़ी महानदी कोलफ़ील्डस लिमिटेड की कणिहा खुली खदान के व्यू पॉइंट पर रुक गई। सामने दिख रही थी नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन और जिंदल इंडिया थर्मल पॉवर लिमिटेड की गगनचुंबी चिमनियाँ और पूर्व की ओर कुछ छोटी बस्तियाँ। उसकी ओर इशारा करते हुए वेताल ने विक्रम से कहा, “सामने से देख रहे हो, वह है कंसमुंडा गाँव, उसे पीछे हैं कणिहा क्षेत्र का पोईपाल गाँव। जहाँ जन्मे थे पवित्र मोहन प्रधान, हमारे प्रजामंडल के संस्थापक। जैसे आप महात्मा गाँधी को देश के स्वाधीनता संग्राम का अवतार मानते हो, वैसे ही हम उन्हें तालचेर गड़ की आज़ादी के लिए अवतार मानते हैं।”
विक्रम ने कोई उत्तर नहीं दिया।
विक्रम को नीरव देखकर बहुत लंबी श्वास लेते हुए वेताल ने कहना शुरू किया, “कल मैंने आपको प्रजामंडल के बारे में पूछा था, मगर तुमने अनभिज्ञता जताई थी। इसलिए आज मैं आपको प्रजामंडल के जन्म की कहानी सुनाता हूँ। जिसे सुनकर तुम्हारी रूह काँप जाएगी और आँखों से आँसू बहने लगेंगे। शर्त है, मेरी कहानी ध्यानपूर्वक, बिना आँसू बहाए सुनना। किसी भी प्रकार की ‘ऊँह आह’ मत करना।”
“हाँ, मुझे मंज़ूर हैं। मुझे लगता है यह कहानी शानदार होगी,” विक्रम ने उत्तर दिया।
वेताल ने बिना कोई प्रतिक्रिया दिए कहना जारी रखा, “गाँधी जी के प्रभाव ने पूरे भारत को अपनी चपेट में ले लिया था। उनके सत्य के साथ अभिनव प्रयोग भारत को देशी राजाओं और अंग्रेज़ी शासकों से मुक्ति दिलाने में रामबाण औषधि की तरह सिद्ध हो रहे थे। तालचेर के राजा को इस बात की अच्छी-ख़ासी जानकारी हो गई थी कि पवित्र बाबू तालचेर के लोगों को इस दिशा में जागरूक कर रहे हैं और साथ ही साथ, राजा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए उन्हें एकत्रित भी कर रहे हैं। अतः प्रजामंडल की तर्ज़ पर वह प्रजा समिति बनाना चाहता थे। उसके लिए गाँव के मुखियाओं को बुलाया गया, मगर 256 में से बहुत कम यानी दस-पंद्रह मुखियाओं को छोड़कर वहाँ कोई नहीं पहुँचा। जबकि बाक़ी सारे मुखिया पवित्र बाबू के ’प्रजामंडल’ में शामिल हुए थे, जिसका गठन 06.09.1938 को तालचेर से दूर अंगुल के कोशला गाँव में हुआ था। उस दिन वहाँ केवल 6000 लोग इकट्ठा हुए थे, मगर मेरी शहादत के केवल पाँच दिन बाद 26.09.24 को कोशला के रामचंडी पीठ के पास 40000 लोगों ने पवित्र बाबू की सभा में हिस्सा लिया था। ज़रा सोचो, उस ज़माने के हिसाब से यह कितनी बड़ी भीड़ रही होगी! इस तरह देखते-देखते कोशला गाँव क्रांति का प्रमुख केन्द्र बन गया था। प्रजामंडल के गठन की घोषणा 01.09.1938 को अंगुल के टाउनहॉल के सभागार में कृषक दिवस मनाने के दौरान कर दी गई थी। तालचेर के ‘प्रजामंडल’ के संचालन का दायित्व पंच सखाओं के कंधों पर आ गया था, जिसमें पवित्र बाबू सभापति बने थे, मागुणि चंद्र प्रधान और दाशरथि पाणि (युग्म सचिव), गौरी शंकर प्रधान (कोषाध्यक्ष) और कृतिवास रथ (कार्यालय सचिव) थे।”
“इस प्रजामंडल के अखिल भारतीय और ओड़िशा स्तरीय प्रमुख नेता कौन-कौन थे और इसके गठन के पीछे क्या मुख्य उद्देश्य छिपा हुआ था?” विक्रम ने पूछा।
“आपका यह सवाल पूछने से पहले ही आपको बताने जा रहा था कि अखिल भारतीय गड़जात सम्मेलन के महासचिव थे बलवंत राय मेहता, जबकि ओड़िशा गड़जात सम्मेलन के सभापति थे सारंगधर दास और कांग्रेस कार्यकारी समिति के सदस्य थे हरे कृष्ण महताब।” कहते हुए वेताल ने दीर्घ साँस ली और फिर कहने लगा, “हमारे प्रजामंडल ने 26 माँगे रखी थी, जिसमें नागरिकों की स्वाधीनता, रसद और मांगणा बंद करने, प्रजा के लिए उचित न्याय प्रणाली बनाने, वनों के लिए क़ानून बनाने, हर प्रकार की बैठी प्रथा के उन्मूलन करने, कोयला खदानों में ट्रेड यूनियन बनाने, पाइक (क्षत्रिय) पुलिस को वेतन देने, हरिजनों की प्राइमरी शिक्षा देने के साथ-साथ उन्हें नौकरी की सुविधा देने, राजवंश के लोगों द्वारा वाणिज्यिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेने, ब्राह्मण छात्रों के लिए संस्कृत शिक्षा की सुविधा करने, शासन में लोक प्रतिनिधि के हिस्सा लेने, छोटी जातियों वाले लोगों से कर नहीं लेने के अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य, रास्ता-घाट, सिंचाई हेतु सुविधा प्रदान करने जैसी कई माँगें शामिल थीं।”
“ओह! इसका मतलब आपका प्रजामंडल तालचेर राजा से अपनी सुख-सुविधाओं के लिए भीख माँग रहा था?” विक्रम ने वेताल की ओर तिरछी निगाहों से देखते हुए व्यंग्य बाण छोड़ा, मगर उसकी बातों की तरफ़ ध्यान दिए बग़ैर वेताल ने कहना जारी रखा, “प्रजामंडल ने यह तय कर लिया था कि अगर ये माँगे पूरी नहीं होती है तो गाँधी जी की नीतियों पर आधारित अहिंसक आंदोलन के साथ-साथ सत्याग्रह करेंगे। इस हेतु उन्होंनें स्वयं सेवकों की एक तालिका बनाई और उन्हें शिक्षा देने की व्यवस्था भी की। उन्हें राय-मशविरा देने के साथ-साथ नेतृत्व करने के लिए आगे आए निखिल भारत कांग्रेंस समिति के सदस्य श्री हरे कृष्ण महताब, ओड़िशा गड़जात प्रजा सम्मेलन के अध्यक्ष सारंगधर दास, नव कृष्ण चौधरी, मालती देवी आदि। तालचेर की तरफ़ से मागुणी चंद्र प्रधान, कवि कृतिवास रथ, हरिहर प्रधान और आनंद चंद्र प्रधान ने इस कार्य में सक्रिय हिस्सा लिया। देखते-देखते 14 सौ सत्याग्रहियों ने गाँधी टोपी पहनकर तिरंगा झंडा लहराते हुए हम ‘खजणा नहीं देंगे’, ‘बेठी नहीं करेंगे’, ‘कोर्ट कचहरी नहीं जाएँगे’ जैसे नारों को लगाते हुए तालचेर के गाँवों-गाँवों में फेरी लगाना शुरू किया। यह देखकर राजा क्षुब्ध हो गया और सत्याग्रहियों को नंगे बदन बेंतों के प्रहार से इतना पीटा कि तालचेर कोर्ट का आंगण ख़ून से लथ-पथ हो गया, और इस ख़ून के निशान कई दिनों तक उस आंगण से मिटे नहीं। यही नहीं, राजा के लोगों ने जगह-जगह उनके घास-फूस के घरों और कैंपों में आग लगा दी, जिसमें गहम गाँव की श्रीमती अइंठा पत्री और श्रीमती रेखा देवी की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई और पुलिस अत्याचार से कुमुण्डा के बुद्धिया बेहेरा की भी मृत्यु हो गई।”
“प्रथम दृष्ट्या यह घटना तो मानवता को कलंकित करने वाली लग रही है। इतना ख़ून-ख़राबा क्यों? वह भी अपनी प्रजा के साथ?” कहते हुए विक्रम के चेहरे पर दुख के भाव उभर आए।
वेताल ने उत्तर दिया, “हाँ, उस समय मैं बाँका जवान था, चौबीस साल के आसपास उम्र रही होगी। तब बालूकेश्वर आचार्य की अध्यक्षता में एक राजनैतिक संगठन गठित हुआ था, नाम था ओड़िशा गड़जात प्रजा सम्मेलन। जिसके पृष्ठ पोषक थे ढेंकानाल के प्रखर गाँधीवादी सारंगधर दास। कभी अगर समय मिलेगा मैं तो उनके जीवन के बारे में भी दृष्टिपात करूँगा कि किस तरह वे विदेश से शुगर टेक्नॉलोजी की पढ़ाई करने के बाद स्वदेश लौटे, गन्नों की खेती करने के लिए अपने गाँव ढेंकानाल, एक विदेशी महिला फ्रीडा से शादी करने के बाद। और कूद पड़े प्रजामंडल के आंदोलन में। और उनकी पत्नी फ्रीडा तो गाँधी जी की इतनी भक्त थीं कि उनका फोटो खींचने के लिए कटक तक चली गयी थी, उनके आश्रम में। ख़ैर, छोड़ो ये सारी बातें! देशी रियासतों के द्वारा अंग्रेज़ी शासन चलाने के ख़िलाफ़ आंदोलन को नया रूप देने का अखिल भारतीय स्तर पर गाँधी जी ने पट्टाभी सीता रम्मैया जी और ओड़िशा के स्तर पर डॉ. हरे कृष्ण महताब को कार्यभार सौंपा था। ओड़िया भाषा के प्रसिद्ध लेखक राधानाथ रथ ‘समाज’ पत्रिका निकालते थे और गड़जात के राजाओं के अत्याचार की जीवंत कहानी प्रकाशित करते थे।
1938 मार्च-अप्रैल के समय तक भारत के बहुत सारे राज्य संगठित हो गए थे। उद्देश्य सभी का एक ही था-प्रजा का दुख दुर्दशा, अन्याय-अत्याचार दूर करना। इधर नीलगिरी में रणपुर प्रजामंडल स्थापित हो गया और उधर ढेंकानाल में। तालचेर का दायित्व मिला था पवित्र बाबू को। उन्होंने जानबूझकर प्रजामंडल का ऑफ़िस तालचेर में न खोलकर अनुगोल में खोला। तालचेर से अंगुल, 35 किलोमीटर दूर। इधर रणपुर में उत्तेजित प्रजामंडल ने ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट बेजेलगेट को जान से मार दिया था तो उधर सुंदरगड़ में लगान बंद वाले आंदोलन ने तूल पकड़ा था। जिसमें अँग्रेज़ों ने गोलियाँ चलाई, दस-बारह से ज़्यादा लोगों की जान चली गई। ढेंकानाल में प्रजामंडल के आंदोलन ने गति पकड़ी। वहाँ भी गोली चली। इन घटनाओं से प्रेरित होकर तालचेर में प्रजामंडल का आंदोलन धीरे-धीरे भभकने लगा और जब पूरी तरह से भभका तो इतिहास में शायद ही ऐसा कोई आंदोलन हुआ होगा। ओड़िशा या भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी पृथ्वी पर नहीं।”
वेताल की इस कहानी ने विक्रम के मन में गहरी जिज्ञासा पैदा कर दी। इससे पहले की वह कुछ पूछता, वेताल ने स्वयं ही कह दिया, “विक्रम! क्या मन में कोई शंका हैं? कुछ पूछना चाहते हो?”
“नहीं, मेरे मन में कोई शंका नहीं हैं और न ही मैं कुछ पूछना चाहता हूँ। बस, आपके वृत्तान्त सुनकर यह कहना चाहता हूँ कि अब मुझे समझ में आ गया कि जिस तरह रावण और कंस जैसे अत्याचारी राजाओं के मारने के लिए भगवान राम और कृष्ण ने जन्म लिया था, वैसे ही गड़जात क्षेत्र के रक्त-पिपासु राजाओं को मारने वालों ने इस धरती पर जन्म ले लिया था, ढेंकानाल में सारंगधर दास ने और तालचेर में पवित्र मोहन प्रधान ने।” कहकर विक्रम ने वेताल की उसकी गाथा में नए मोड़ के प्रति आग्रह दिखाकर उसे जारी रखने का अनुरोध किया। पता नहीं, क्यों इस बार वेताल की आँखों में आँसुओं की बूँदें साफ़ झलक रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह आगे की कहानी कहते-कहते शायद रो पड़ेगा, मगर अपने दुखों के भाव चेहरे पर नहीं लाते हुए कहना शुरू किया, “जब महात्मा गाँधी के अखिल भारतीय स्तर के प्रतिनिधि ठक्कर बापा और ओड़िशा स्तर के प्रतिनिधि डॉ. हरे कृष्ण महताब तालचेर राजा के शासन की गतिविधियों को देखने तालचेर आए तो उन्होंने देखा कि प्रजा पर अत्यंत ही अमानुषिक अत्याचार हो रहा था। तालचेर जेल में 80 क़ैदियों को रखने की जगह थी और उसमें डाल दिए थे डेढ़ हज़ार क़ैदी। एक कोठरी में 20 क़ैदी की जगह 200-300 क़ैदी। हगना-मूतना वहीं पर। खाना-पीना वहीं पर। थाने में ले जाकर उन्हें नंगा करके पेट के बल सुलाकर दो आदमी दोनों पैरों और दो आदमी दोनों हाथों पर खड़े हो जाते थे खजूर कोरड़ा या ताल की पतली बेंत से पीठ, नितंब और जाँघों पर सौ-सौ बार प्रहार करते थे। मार खाकर प्रजा बेहोश हो जाती थी तो उनके चेहरे पर पानी छिड़ककर होश में लाते थे और फिर पीटना शुरू करते। सत्याग्रहियों को उलटा लेटाकर उनकी कमर और पीठ पर नरम बेंत ज़ोर-ज़ोर से मारकर चमड़ी उधेड़ दी जाती थी, जिससे खून-माँस निकल जाता था। और उन घावों पर नमक छिड़कते थे तो वे बेहोश हो जाते थे। उस समय उनकी बाँहों पर या हाथों पर नमक हराम (न.ह.) गोद दिया जाता था। यह दाग़ जीवन भर रहता था। इधर जेल में दुर्घुष प्रताड़ना और उधर हाथी ले जाकर उनके घर भी तोड़ दिए जाते थे। जैसे कि आधुनिक समय में सरकारें बुलडोज़र के प्रयोग से आतंकवादियों के घर तोड़ देती है। वैसी ही दुर्दशा उस समय देश भक्तों की हुआ करती थी। जब ये सत्याग्रही जेल से बाहर निकलते थे तो उनके पीठ और नितम्बों पर पड़े घावों से मवाद निकलती थी। ऐसी यंत्रणा के बारे में तो आप लोग कभी सोच भी नहीं सकते हैं, लेकिन मेरे समकालीन स्वतंत्रता सेनानियों ने यह यंत्रणा भोगी है। इसलिए मैं आप लोगों से कहता हूँ कि इस स्वतंत्रता की अक्षुण्णता की रक्षा करो। मुझे यह कहते हुए गर्व है कि तालचेर के मेरे प्रजामंडल ने हिम्मत नहीं हारी। वह कुत्सित यंत्रणा उनका मनोबल नहीं गिरा सकी। पवित्र बाबू का मानना था—’कार्यम् वा साधयेत, शरीरं वा पातयेत’”
यह कहते हुए वेताल का दर्द आँखों से छलक पड़ा। उसे अपना गुज़रा जमाना याद आने लगा कि कितने कष्टों से गुज़रे थे वे दिन और आज वर्तमान पीढ़ी हमारी इज़्ज़त तक नहीं करती है।
विक्रम ने इस बार पहले वेताल के कंधे पर हाथ रखकर ढाढ़स बँधाया और दुखी स्वर में कहने लगा, “मेरे पूर्वज की पवित्र प्रेतात्मा! हम सब आपकी औलाद हैं। आपके वंशज हैं। आज जैसे ख़ुद्दार, क्रांतिकारियों विद्रोहियों की वजह से ही आज हम स्वतंत्रता के शांत माहौल में साँस ले रहे हैं। इन साँसों में आज भी आप जैसे पूर्वजों की धड़कन सुनाई देती है। अतः आप अपने आप को नियंत्रित करते हुए अपनी क़ुर्बानी के बारे में बताएँ।”
अपने आपको नियंत्रित करते हुए वेताल ने कहना शुरू किया, “आप जब मेरी क़ुर्बानी के बारे में पूछ रहे हैं तो अवश्य पहले मुझे इसकी पृष्ठभूमि पर आलोकपात करना होगा। तालचेर के राजा की दमन नीतियों के बारे में तो आपने सुना ही है। सितंबर, 1938 में, तालचेर की प्रजा ने अपनी कुछ शिकायतों के निवारण के लिए तालचेर दरबार से अपील करते हुए एक ज़िम्मेदार शासन की स्थापना की माँग की थी, जिसकी एक प्रति भारत सरकार के राजनीतिक विभाग को भी भेजी गयी थी। अपील मिलते ही प्रजामंडल को अवैध घोषित कर दिया गया और ब्रिटिश सैनिकों की सहायता से दमन शुरू कर दिया गया।
ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट बेजेलगेट ने अपनी फ़ौज बुलाई थी तथा तालचेर पुलिस और गड़जात पुलिस फ़ोर्स के साथ मिलकर 20 सितंबर 1938 की मध्यरात्रि को बंतोल, कुकुडुला, बाघुआबोल, घंटपडा, हांडिधुआ, देऊलबेड़ा और कंकीली गाँव में दमन अभियान शुरू किया था। इसके दूसरे दिन भी अँग्रेज़ सेना का आसुरी उत्पात जारी रहा। 22 सितंबर को राजा ने प्रजा परिषद गठन के गाँवों के मुखियाओं सरवराकारों की बैठक बुलाई थी, मगर उसमें बहुत कम लोग गए थे। इस वजह से प्रतिशोध लेना शुरू हुआ।”
“प्रतिशोध? राजा भी प्रतिशोध लिया करते थे? वह भी, भोलीभाली निशस्त्र प्रजा के साथ?” विक्रम ने पूछा।
“अरे, विक्रम! वह भी ऐसा-वैसा प्रतिशोध नहीं। सशस्त्र सेना से विप्लवी प्रजा का दमन किया जाता था।” कहते हुए वेताल ने अपनी मार्मिक कहानी सुनाना शुरू किया, “तालचेर सदर से कणिहा रास्ते होते हुए सबसे पहले वह सशस्त्र सेना कंसमुंडा पहुँची। यह बड़ा गाँव था, राज विद्रोहियों का गढ़। सेना ने यहाँ पर विच्छंद प्रधान का घर तोड़कर उसकी सम्पत्ति लूटी, फिर सेना चली गई तेलीसिंहा की तरफ़। वहाँ पर कंदर्प सुबुद्धि का घर तोड़कर उसकी सम्पत्ति लूटी। इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे—राज्य का मुख्य पुलिस अधिकारी। फिर बड़त्रिविडा में धावा बोला, वहाँ पर बेहेरा प्रधान और साहेब सामंतराय, जो कणिहा अंचल के सभी सरवराकारों के मुखिया थे और राजा के ख़िलाफ़ प्रजा को सचेत कर रहे थे, का घर तोड़कर लूटपाट करने के बाद शाम को घर लौटते समय पुलिस फ़ोर्स की लॉरी, अभी आप अपनी ड्यूटी के कणिहा महाप्रबंधक ऑफ़िस के लिए जिस रास्ते से आते-जाते होते हो, उसी रास्ते में पड़ने वाली मेरी जन्म-स्थली चंद्रबिल गाँव के पास सिंगड़ा नदी की बालू में धँस गई।”
“फिर क्या हुआ?” विक्रम ने वेताल से इस तरह पूछा, जैसे ‘नटवर लाल’ हिन्दी फ़िल्म में बच्चे अमिताभ बच्चन से पूछते हैं।
“होना क्या था, उनकी लॉरी का सिंगड़ा नदी में फँसना ही इतिहास का टर्निंग पॉइंट बन गया,” कहते हुए वेताल ने कहा, “इस लॉरी को देखने के लिए चंद्रबिल गाँव वाले आए और उसमें मैं भी एक हृष्ट-पुष्ट तीस-पैंतीस वर्ष का नौजवान शामिल था। जब उन्होंने लॉरी ठेलने के लिए मुझे कहा तो मैंने साफ़ मना कर दिया और कहा, “हमारे प्रजामंडल के अध्यक्ष पवित्र बाबू ने राजा के हर काम में असहयोग करने के लिए कहा है। हम न तो राजा का बेठी और बेगारी पर कोई काम करेंगे और न ही आप जैसे फिरंगियों का।”
यह कहते हुए मैंने अपना फरसा ऊपर उठाया और जाने के लिए खड़ा हो गया। उनमें से एक ओड़िशा पुलिस हमारी नीची जाति को बताने वाली गाली देते हुए मुझे कहने लगा, “साले पाण! जानते हो, तेरी क्या औक़ात है? राजा को 6 आने लगान तो दे नहीं पाते हो और यहाँ अपनी हेकड़ी दिखा रहे हो।” कहते हुए वह अपना हाथ ऊपर उठा रहा था, तभी चंद्रबिल गाँव के बहुत सारे आदमी और औरतें अपने हाथों में लाठियाँ, फरसे, कुल्हाड़ी, पत्थर-जिसको जो मिला, लेकर लॉरी की तरफ़ तेज़ी से आने लगे। और उन्होंने लॉरी को चारोंं तरफ़ से घेर लिया। हम सभी के मन से पवित्र बाबू के ओजस्वी भाषण की ख़ुमारी अभी तक उतरी नहीं थी। सभी के अंदर उत्तेजना संचरित हो रही थी। यह बात सत्य है कि पवित्र बाबू अहिंसा के पुजारी थे, आख़िरकार गाँधी जी से पूरी तरह प्रभावित थे। हमारे असहयोग में कहीं हिंसा नहीं थी, मगर अँग्रेज़ों की फ़ौज को एक हरिजन पाण जाति के नवयुवक द्वारा राजा की गाड़ी को ढेलने से इंकार कर देना न केवल भीतर से चुभ रहा था, बल्कि उनके हाथों में लाठियाँ, फरसे, कुल्हाड़ियाँ देखकर अपनी जान पर ख़तरा मँडराता महसूस कर रहे थे। डरकर एक अँग्रेज़ सैनिक ने ‘न आव देखा, न ताव’, तुरंत बंदूक उठाकर मुझे केंद्रित करते हुए दनादन गोलियाँ चलाना शुरू किया, उसमें से एक गोली मेरे सीने को भेदती हुई दूसरी तरफ़ निकाल गई और घटना-स्थल पर ही तुरंत मेरी मौत हो गई और मेरे पाँच साथी रथी बेहेरा, बाली साहू, जोगी बेहेरा, वैष्णव बेहेरा और माँगता महाराणा घायल हो गए।”
“वह कौनसा दिन था, जो हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया?” विक्रम ने पूछा।
“21 सितंबर 1938 की रात का समय था। चारों तरफ़ कोहराम मचा। उत्तेजित भीड़ को देखकर रात के अँधेरे में राजा की ओड़िया पुलिस और बाहर से मँगवाई हुई फिरंगी फ़ौज जंगल-झाड़ी के रास्ते से कूदते-फाँदते सामल गाँव पहुँच गए और वहाँ से उनके लिए तालचेर सदर थाना जाने का प्रबंध हो गया।” कहकर वेताल एकदम नीरव हो गया, मानो उसकी आँखों के सामने अपनी मौत का दृश्य जीवंत हो उठा हो।
“आपको अपनी मौत की तारीख़ भी याद है? अँग्रेज़ों की गोली जब आपके सीने को चीरते हुए आरपार हुई होगी तो आपको बहुत दर्द हुआ होगा? उस समय की कोई स्मृतियाँ आपने मानस-पटल पर अभी भी जीवित है?” वेताल के शहीद होने की घटना पर गहराई से जानने के लिए विक्रम ने पूछा था।
“मुझे घटना-स्थल पर मरा हुआ देखकर मेरे गाँव वाले मदद माँगने के लिए पास वाले गाँवों सानत्रिविड़ा से बड़त्रिविड़ा पहुँचे। देखते-देखते हमारे और आस-पास वाले दूसरे गाँवों से सौ से ज़्यादा आदमी इकट्ठा हो गए। उनमें से फिरंगी प्रधान, कुलमणि प्रधान, नृसिंह प्रधान, चंडाल सेठी और नालू शामल अपनी-अपनी बैलगाड़ी लेकर तुरंत वहाँ आ गए। मेरी लाश और दूसरे घायलों को उन बैलगाड़ियों में लादकर अंगुल की ओर प्रस्थान किया, जहाँ घायलों को भर्ती करवा लिया गया और 22.09.38 को मेरी लाश को पवित्र बाबू, गिरिजाभूषण दत्त, एमएलए, अंगुल और प्रजा मंडल के नेताओं ने मेरे परिजनों और गाँव वालों की उपस्थिति में लिंगराजोड़ी गाँव के पास से बहती हुई लिंगरा नदी के किनारे लकड़ी इकट्ठा कर चिता बनाकर मेरी लाश को धधकती आग के हवाले कर दिया गया। देखते-देखते मैं राख के ढेर में तब्दील हो चुका था, मगर मेरी आत्मा उस बरगद के पेड़ के खोखल में जाकर अटक गई, जिसके नीचे मेरी मौत हुई थी। उसके बाद की कहानी तो आपको मालूम ही है। तुम्हारी आत्मा के सुवास से अहसास हुआ कि आप अच्छे इंसान हो, जो मुझे मुक्ति दिला सकते हो और मेरी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हो।” दार्शनिक की तरह कहते-कहते वेताल पूरी तरह भावुक हो गया था।
सिर हिलाते हुए विक्रम ने कहा, “आपकी ये दार्शनिक बातें मेरे दिमाग़ में नहीं घुसती हैं। मैं हतप्रभ हूँ कि एक शहीद अपने शहादत की गाथा अपने मुँह से सुना रहा है। पता नहीं, कोई पाठक या श्रोता इन बातों पर विश्वास करेंगे या भी नहीं। लेकिन घटनाएँ तो सत्य हैं, जो भी हो, मुझे अपना कार्य तो करना ही होगा।”
“मैं मृत्यु से परे जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकता हूँ, इसलिए मुझे किसी के स्मरण के लिए अहसान की ज़रूरत नहीं है। जहाँ तक मुझे याद है मेरी जलती हुई चिता पर पवित्र बाबू और प्रजामंडल के अन्य नेताओं ने शपथ खाई थी कि ‘वीर बिका, तुम्हारी शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी। इस तालचेर अंचल से राजे-रजवाड़ों के शासन के साथ-साथ ब्रिटिश हुकुमत को जड़ से उखाड़ फेकेंगे, जब तक हमारा देश आज़ाद नहीं होता, तब तक हम चैन से नहीं बैठेंगे। देश की आज़ादी के लिए हम अपना सर्वस्व न्योछावर कर देंगे; तन, मन, धन सब-कुछ। इतिहास में आपके यह बलिदान स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा’।” यह कहते हुए वेताल नीरव हो गया, मगर विक्रम के मन में एक सवाल बार-बार उठने लगा कि मैं वेताल की इस अतृप्त आत्मा को किस तरह मुक्ति दिला सकता हूँ। जो कार्य कोई आठ दशक से नहीं कर सका, क्या मैं उस कार्य को कर सकता हूँ! पता नहीं क्यों, वेताल को मुझ पर इतना भरोसा है! हिम्मत कर विक्रम ने वेताल से पूछ ही लिया, “परम वीर बिका जी, मैं तुम्हारी कैसे मदद कर सकता हूँ?”
आकाश की ओर देखते हुए वेताल ने विक्रम के दाएँ कंधे को थपथपाते हुए कहा, “तालचेर के इतिहास ही नहीं, देश के स्वर्णिम इतिहास में, मेरा नाम दर्ज हो गया, एक शहीद के रूप में। मैं अँग्रेज़ फ़ौज की गोली का शिकार हो गया, जिससे मुझे तालचेर प्रजामंडल आंदोलन के प्रथम शहीद होने का गौरव अवश्य मिला। मगर तुम्हारी पीढ़ी ने मुझे क्या दिया? हमारी पीढ़ी ने भी क्या किया? एक गहरे अँधेरे गर्त में धकेल दिया। मुझे किसी भी प्रकार का तमगा या इनाम पाने की इच्छा नहीं हैं। कभी-कभी मुझे लगता है मेरा बलिदान व्यर्थ गया, क्योंकि मेरी धमनियों में ‘पाण’ का ख़ून दौड़ता था, जबकि बाजि राउत की शिरा-प्रशिराओं में ‘पाइक’ का। ख़ून-ख़ून में कितना अंतर होता है? मेरी अभी तक किसी चौराहे पर प्रतिमूर्ति नहीं लगी, किसी सड़क, पुल का नामकरण मेरे नाम पर नहीं हुआ। स्कूल का नामकरण हुआ था, उसे भी कालांतर में हटा दिया गया। इस बात का बहुत अफ़सोस है मुझे। और यही कारण है कि आज भी मैं वेताल बनकर कई दशकों से भटक रहा हूँ। जिस तरह जलियां वाला बाग़ के हत्या कांड में जनरल ओ’डायर ने निर्दोष जनता पर गोली चलाने का आदेश दिया था, उसी तरह ओड़िशा गड़जात समूह के पॉलिटिकल एजेंट मेजर बेजलगेट ने मिलट्री को सत्याग्रहियों पर धावा बोलने का निर्देश दिया। सत्याग्रह को तीन महीने नहीं हुए थे कि बेजलगेट और उसके अंगरक्षकों को प्रजा ने कुत्ते की तरह दौड़ा-दौड़ाकर मार डाला।”
फिर कुछ समय नीरव रहने के बाद अपने आपको नियंत्रित करते हुए वेताल ने दीर्घ साँस ली और कहना शुरू किया, “मगर पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगता है, विक्रम, आप मुझे न्याय दिलाकर रहोगे, अपनी क़लम के मून की ताक़त पर, क्योंकि आप तो हमेशा साधारण जनता और दलित वर्ग के लोगों के बारे में लिखते हो। आज आपको मेरे अनाम बलिदान पर लिखना होगा। कम से कम मेरे ख़ातिर, मेरी अतृप्त आत्मा के मुक्ति की ख़ातिर, ताकि मैं ताल वृक्ष से छूटकर व्योम की अनंत ऊँचाइयों और पाताल की अथाह गहराइयों में घूम सकूँ और नया जीवन धारण कर सकूँ। मैं अब शाप मुक्त होना चाहता हूँ।” कहते ही वेताल फिर से रुआँसा हो गया। उसका कंठ अवरुद्ध हो गया। विक्रम से उसकी यह हालत देखी नहीं गई। वह अभिशप्त वेताल के बारे में प्रश्न पूछना चाहता था, कि उसे किसने शाप दिया और क्यों? मगर तभी उसे अपनी शर्त याद आ गई और वह चुप रह गया। तभी उसने देखा कि वेताल ताल के पेड़ की तरफ़ उड़ गया था और उसके मन-मस्तिष्क पर छोड़ गया था अनेक प्रश्न, –सारंगधर दास, फ्रीडा, पवित्र मोहन प्रधान जैसे संग्रामियों के जीवन के अनछुए पहलुओं के बारे में जानने और साथ-साथ, हमारे देश में पाण जाति के शहीद बनने के बाद आज भी सभ्य समाज में जाति का दंश क्यों नहीं छूटता है, का हल खोजने के लिए।
बिका के शहीद होने के बाद प्रजामण्डल ने सत्याग्रह शुरू किया, अपने पाणिओला कैंप से। इस संदर्भ में जन-चेतना जागृत करने के प्रजामण्डल के तरीक़ों पर प्रकाश डालते हुए वेताल ने कहा, “तालचेर के सारे शरणार्थी सुबह जल्दी उठते थे। उसके बाद एक व्हिसल बजती थी तो वे सारे स्वयंसेवक उन कैंपों के सामने आम पेड़ के नीचे इकट्ठे होते थे। उसके बाद दूसरी व्हिसल बजती तो वे बाँस के खूँटे के पास वृत्त बनाकर खड़े हो जाते थे। खूँटे पर तिरंगा झंडा फहराते थे और अगली व्हिसल पर सभी उस झंडे का अभिवादन करते थे और फिर होता था समवेत स्वर में राष्ट्रगान। उसके बाद बीस-बाईस की टोली में बँटकर जगन्नाथपुर, बन्तोल, कुकुडोला, बाघुआबोल एवं तालचेर गड़ में ‘महात्मा गाँधी की जय हो’, ‘तालचेर प्रजामंडल ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए शांतिपूर्ण पदयात्रा करते हुए प्रभात-फेरी निकालते थे। उनके इस तरह के अनेक जत्थे गाँधी टोपी पहनकर और अपने हाथों में तिरंगा झंडा लिए हुए तालचेर से कणिहा क्षेत्र के कोने-कोने में स्थित गाँवों में जाकर अहिंसक तरीक़े से राजा के आदेशों का पालन नहीं करने के लिए जागरूकता अभियान के तहत प्रजामंडल के संदेशों को लोगों तक पहुँचाते थे। अगर कोई पकड़ा जाता था, गिरफ़्तार होता था या फिर मार खाता था तो राष्ट्रगान के साथ-साथ ‘महात्मा गाँधी की जय हो’ के नारे लगाते थे।”
“क्या प्रभात-फेरी में पवित्र बाबू की क्या भूमिका रहती थी?” विक्रम ने प्रश्न किया।
“ऐसे जागरूकता अभियान में पवित्र बाबू की अद्वितीय भूमिका रहती थी। कभी-कभी वे भी प्रभात फेरी में जाते थे, मगर हमेशा अपने हस्तलिखित अख़बारों से प्रजा को सचेत करते रहते थे। उदाहरण के तौर पर एक बार उन्होंने मेरी शहादत को प्रजामंडल आंदोलन के मील का पत्थर बताते हुए अपने हस्तलिखित अख़बार ‘मुक्तिपथ’ में 4.10.1938 को प्रजामंडल का आदेश प्रकाशित किया था, जो इस प्रकार था:
“भाई और बहनो!
गत मास की 21 तारीख़ को चंद्रबिल गाँव के बिका नाएक की राजा के सिपाहियों ने गोली मार कर हत्या कर दी और गोलीबारी में अन्य पाँच लोग घायल हुए थे। साथ-ही-साथ, राजा के सिपाहियों ने गाँव में घुसकर बहुत सारे लोगों के घर-द्वार तोड़ डाले, लूटपाट कर रहे हैं, हमारी बहनों की इज़्ज़त भी लूट रहे हैं। उनके शरीर से गहने छीन रहे हैं। ऐसी दिनदहाड़े डकैती और गुंडागर्दी हमने कभी नहीं सुनी। राजा के ऐसे निर्मम पशु व्यवहार का विरोध करते हुए बहुत सारे लोग अपने बाल-बच्चों समेत राज्य छोड़कर पलायन कर गए हैं। और उनके परिवार के दुख दर्द बताने पर भी राजा के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती है। ऐसी हालत में केवल पलायन करने से ही कुछ नहीं होगा, बल्कि हमें बड़ी बलि देनी होगी। कहते हैं लोहे को लोहा ही काटता है। हमें फ़ौलाद बनना पड़ेगा। हमारी प्रजा को मिलजुल कर अत्याचार सहन करने पड़ेंगे और जब तक हमारे प्रजामंडल की माँगें पूरी नहीं होती है, तब तक हम अपने सीने पर हाथ रखकर शपथ खाते हैं कि किसी भी प्रकार की ‘बेठी’ मज़दूरी नहीं करेंगे, न ‘मागण’ या ‘रसद’ देंगे। फ़सल और जीवन की रक्षा के लिए जंगली जानवरों को मारेंगे। खेती और घर के सामानों के लिए जंगल से लकड़ी काटेंगे। अगर प्रजामंडल की माँगे पूरी नहीं होती है तो हम किसी भी प्रकार का लगान भी नहीं देंगे। हाट नहीं जाएँगे। हमें जहाँ सामान सस्ता मिलेगा, वहीं से ख़रीदेंगे। कचहरी में मुक़द्दमा दर्ज नहीं करवाएँगे। अपने-अपने समूहों में मिलजुल कर फ़ैसला लेंगे। प्रजामंडल विरोधी लोगों का दमन करेंगे।” वेताल ने अपनी बात ख़त्म की ही थी कि विक्रम ने अपनी जिज्ञासु-प्रवृत्ति की वजह से तुरंत दूसरा प्रश्न किया, “पवित्र बाबू की भूमिका तो समझ में आई। वे तो इस आंदोलन के सूत्रधार थे, मगर महात्मा गाँधी किस तरह तालचेर के प्रजामंडल आंदोलन को गति दे रहे थे?”
अपने सुदीर्घ अतीत को याद करते हुए वेताल ने कहा, “मैंने भी उसी अंचल के माटी-पानी-पवन प्रयोग में लिए है, जिस अंचल के पवित्र बाबू वासिंदे थे। केवल हमारे भीतर जाति और शिक्षा का अंतर अवश्य था। जिस प्रकार प्रसिद्ध ओड़िया लेखक श्याम प्रसाद चौधुरी की कहानी ‘अदिति की आत्मकथा’ में अदिति का पूर्व प्रेमी उसकी आत्मकथा में अपना नाम नहीं देखकर दुखी होता है, उससे कई गुणा मैं इस वेताल योनि में आज भी दुखी हूँ, क्योंकि मेरे पास अब शरीर नहीं होने के कारण दुख व्यक्त करने का कोई माध्यम ही नहीं है। यह तो अच्छा है कि आप मुझे देख पाते हो, सुन पाते हो, इसलिए मैं तुम्हारे सामने अपनी बात रख पाता हूँ। मगर तुम्हारी बातों को मेरी बात समझकर कोई मानेगा या नहीं—इसकी क्या गारंटी है? मेरे तो पाँचों तत्त्व अपनी-अपनी जगह जा चुके हैं, सिवाय आत्मा के चेतना के इस परमाणु को ताल पेड़ पर छोड़कर और अब वह भी अपना घर खोज रहा है, मगर अपूर्ण इच्छाओं ने किसी क़ैदी के पैरों में बेड़ी डालने की तरह या किसी खूँटे से जानवर को बाँधने की तरह उस अंश को भी तालपेड़ से बाँध रखा है।”
यह कहते हुए वेताल नीरव हो गया। कुछ समय बाद चुप्पी तोड़ते हुए फिर से कहने लगा, “मेरे मरने और अन्य पाँच जनों के हताहत होने की ख़बर 23.09.1938 तारीख़ के ओड़िया दैनिक ‘समाज’, ‘द बोम्बे क्रानिकल, ‘द इंडिया एक्सप्रेस’ में प्रकाशित हुई। पवित्र बाबू ने तार द्वारा गाँधीजी के प्रतिनिधि को इस चंद्रबिल गोली-कांड की ख़बर दे दी थी। अँग्रेज़ सरकार को इस घटना से ओड़िशा प्रांत में राजनैतिक अस्थिरता की भनक लगने लगी थी। यहाँ तक कि ओड़िशा के तत्कालीन राज्यपाल, पूर्वांचल के कमांडर ने इस घटना पर 75 मिनट तक लंबी चर्चा की।”
“उसके बाद क्या हुआ?” विक्रम ने पूछा।
“चंद्रबिल और बड़त्रिविड़ा की अधिकांश भयभीत जनता ने मेरी मृत्यु के दूसरे दिन ही अपने जन्म स्थान को छोड़कर अंगुल के कोशला, नेतड़ा, कंपसला, संतराबन्ध, पाणिओला आदि गाँवों में चल गए। प्रजामंडल के नेताओं के अनुरोध पर कोशला उच्च प्राथमिक स्कूल के हेडमास्टर कल्याण साहू ने तुरंत स्कूल की छुट्टी करके उनके रहने का बंदोबस्त किया और गाँव वालों ने शरणार्थियों के लिए भोजन-पानी की सामग्री जुटाई। दुख की बात यह है कि बाद में तालचेर के राजा ने अँग्रेज़ों के पॉलिटिकल एजेंट से मिलकर उस हेडमास्टर का वहाँ से दूसरी जगह ट्रांसफ़र करवा दिया। मेरे मरने के दूसरे दिन ही ढेंकानाल से मँगवाई अँग्रेज़ फ़ौज के साथ राजा किशोर चंद्र ने डंअरा गाँव पर चढ़ाई की, मगर सारा गाँव पहले से ही ख़ाली हो चुका था। उसके बाद गहम गाँव के धनाढ्य लोग श्री लक्ष्मीधर राय चौधुरी और चंद्रशेखर राज वल्लभ के घर तोड़कर उनकी धन सम्पत्ति लूटी और फिर यही तांडव दमनलीला तालचेर के अन्य गाँवों में सिपुर, बागुआ बोल, गुरूजांग, पोईपाल में जारी रही,” कहकर वेताल चुप हो गया।
“आपकी शहादत ने तो तत्कालीन समाज को स्वतंत्रता-संग्राम के लिए प्रेरित किया होगा?” विक्रम ने भले ही पूछ लिया, मगर वेताल उत्तर देने के मूड में बिल्कुल नहीं था। काफ़ी अनुनय-विनय के बाद उसने कहना उचित समझा, “आपको जानकार यह आश्चर्य होगा कि मेरी मौत के साथ तालचेर के राजा ने राजनीति करना नहीं छोड़ा। मेरी मृत्यु की ख़बर को राजा ने अपने साप्ताहिक अख़बार ‘गड़जात वासिनी’ में दूसरा रंग दे दिया। आज तक मैं समझ नहीं पाया कि राजा-महाराजा मौत की इन घटनाओं पर भी अपनी रोटियाँ सेंकने के लिए गंदी राजनीति करने से बाज़ क्यों नहीं आते थे! यह घटना उनके अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर इस तरह अंकित हुई, “विद्रोहियों ने राज्य के 26 अस्थायी पुलों को तोड़कर संचार व्यवस्था को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया था। जिसे ठीक करके शाम को पुलिस गाड़ी तालचेर मुख्यालय लौट रही थी कि पुलिस का ट्रक बालू में अटक गया, उसे निकालने के लिए पैसे देकर उस ट्रक को धक्का देने के लिए वहाँ के स्थानीय लोगों से अनुरोध किया। तभी शंख ध्वनि सुनाई दी। देखते-देखते तीन सौ लोगों ने पहुँचकर पुलिस पर लाठियाँ, टाँगियाँ और पत्थरों से धावा बोल दिया। इस आक्रमण में ड्राइवर और पुलिस वाले हताहत हुए। आत्मरक्षा के लिए पुलिस ने चेतावनी देते हुए ट्रक और अपने जूते-चप्पल वहीं छोड़कर वहाँ से भागने के लिए रास्ता निकालने के लिए गोलीबारी की और जंगल से होते हुए सामल गाँव की ओर आ गए। इस घटना में एक अग्निशमक कर्मचारी के हताहत होने की ख़बर मिली है।” दूसरे दिन की ख़बर में कुछ और मिलावट थी। “चंद्रबिल के लोगों से ख़बर मिली है कि वहाँ 2200 उपद्रवी लोग इकट्ठे हुए हैं। ब्रिटिश सेना सहित स्टेट मजिस्ट्रेट और पॉलिटिकल एजेंट ने उस स्थल पर पहुँचकर घटना की जानकारी ली। उस जगह पर बारूद, टोपीदार बंदूक, तलवार, धनुष तीर और भाले बरामद हुए हैं। इस विद्रोह का दमन कर लिया गया है और 14 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है।”
“सच में, तालचेर के राजा की राजनीति बहुत गंदी थी। मगर महात्मा गाँधी ने तालचेर के प्रजामण्डल आंदोलन को कैसे सँभाला?” विक्रम ने वेताल की ओर तिरछी निगाहों से देखते हुए कहा, मानो वह अपनी पीएच.डी. की थीसिस के लिए कोई गवेषणा कर रहा हो।
“निस्संदेह, महात्मा गाँधी की भूमिका उत्प्रेरक की तरह थी। भले ही, वे प्रजामंडल आंदोलन में सीधे तौर पर जुड़े हुए नहीं थे, मगर दूर से तालचेर प्रजामंडल के आंदोलन पर नज़र रखे हुए थे, मगर सारी गतिविधियों पर उनकी नज़र होती थी। जहाँ पवित्र बाबू अपने ‘मुक्तिपथ’ पत्र के माध्यम से तालचेर के लोगों को प्रजामंडल के फ़ैसलों को अवगत करा रहे थे, वहाँ महात्मा गाँधी बेठी पर काम करने को नग्न ग़ुलामी का प्रतीक मानते हुए तालचेर प्रजा के हिजारत के बारे में तत्कालीन कांग्रेस के नेताओं और ब्रिटिश अधिकारियों को लगातार पत्र लिख रहे थे। उसमें से एक अंगुल के तत्कालीन विधायक गिरिजा भूषण दत्त भी थे। उन्होंने लिखा था कि “अगर तालचेर राजा के अत्याचार से राज्य के भीतर प्रजा नहीं रह पा रही है, प्रजा के लिए ऐसे राज्य के भीतर आंदोलन करना असंभव है। राजा प्रजा की नितांत न्याय संगत माँगें पूरी नहीं कर रहे हैं और दुख की बात यह है कि राजनैतिक विभाग राजा को समर्थन कर रहा है। ऐसी स्थिति में राज्य के परित्याग के अलावा और कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा है। इसलिए अगर कम से कम एक हज़ार ख़ास-ख़ास आदमी अत्याचार का विरोध करते हुए तालचेर से बाहर एक वर्ष रहने के लिए संकल्पबद्ध हो तो ब्रिटिश सरकार का ध्यान अवश्य उनकी तरफ़ जाएगा और अंत में, राजा और राजनीतिक विभाग उनकी न्याय संगत माँगे पूरी करने के लिए बाध्य होगा।” देखते-देखते एक हज़ार की जगह 30 से 35000 प्रजा तालचेर से बाहर पलायन कर गई। गाँधी जी के उक्त परामर्श का निस्संदेह तालचेर के जन मानस पर गहरा असर पड़ा था।” एक चक्षुदर्शी साक्षी की तरह वेताल ने कहना जारी रखा, “देखते-देखते एक महीने के भीतर-भीतर तालचेर की तत्कालीन जनसंख्या 84000 हज़ार का 25 प्रतिशत लोग तालचेर से हिजरात कर अंगुल के नौ कैंपों में यानी कोशला, आंबपाल, नेतड़ा, संताबंध, कमसला, पाणिओला में डाली-पत्तों की कुटिया बनाकर रहने लगे। वे रिफ्यूजी हो गए थे, यानी वे कृष्ण की तरह रणछोड़, पलायनवादी, दूसरे शब्दों में राज्य त्यागी थे। तत्कालीन ओड़िशा में कांग्रेस मंत्रिमंडल के मुख्यमंत्री थे विश्वनाथ दास, (उस समय उन्हें ओड़िशा के प्रधानमंत्री कहा जाता था), मगर उनके हाथों में कोई आधिकारिक शक्ति नहीं थी, फिर भी उन्होंने हमारे शरणार्थियों की सेवा के लिए कुछ डॉक्टर, पुलिस और अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट भेजे थे। इन कैंपों को देखने आए थे मालती चौधुरी, नवकृष्ण चौधुरी, ठक्कर बापा, प्रोफ़ेसर रँगा, विश्वनाथ दास, ब्रिटिश सांसद अगाथा।”
मगर विक्रम का अंतर्द्वंद्व अभी तक ख़त्म नहीं हुआ था। वह सोच रहा था कि महात्मा गाँधी दूर से इस आंदोलन पर दृष्टि बनाए रखे थे, तो यहाँ की गतिविधियों की जानकारी उन्हें कौन देता था। एक दीर्घ-श्वास लेते हुए आख़िरकार वेताल से पूछ ही लिया, “गाँधी जी दूर से इस आंदोलन पर गिद्ध की तरह पैनी नज़र गड़ाए हुए थे, मगर उनका खबरीलाल कौन था?”
“ठक्कर बापा . . .” वेताल ने विक्रम की ओर तिरछी निगाहों से देखते हुए कहा।
“वह कैसे?” विक्रम ने पूछा।
“ठक्कर बापा गाँधी जी के ख़बरीलाल थे। गाँधी जी को यहाँ की सारी ख़बरें लिखकर भेजते थे, या तार के माध्यम से संदेश भेजते थे। हिजरात के बारे में ठक्कर बापा ने महात्मा गाँधी को लिखा था कि लगभग 30000 आदमी, औरतें और बच्चे पड़ोसी ब्रिटिश ओड़िशा को पलायन कर प्रचंड शीत और प्रखर धूप में अपने जीवन की बलि चढ़ा रहे हैं। बहुत ही कम लोगों ने अपने लिए पत्तों की अस्थायी कुटिया में आश्रय लिया है। अपने घर लौटने के बजाय वे वहीं पर मरना ज़्यादा पसंद करेंगे। जिस अपने राज्य में अपने जीवन, सम्मान और सम्पत्ति असुरक्षित हो, ऐसी अवस्था में उनके पास पलायन के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। ऐसा पलायन भारत में और कहीं नहीं हुआ। वे लोग रोते-रोते अपने बच्चों को गोद में लेकर शिविर में आए थे। उन्हें यह तक मालूम नहीं था कि आगे क्या होने वाला है, क्योंकि वे अपनी परिस्थितियों से बहुत हताश हो चुके थे।” कहते हुए वेताल ने विक्रम को ठक्कर बापा के बारे में विस्तार से बताया—
“महात्मा गाँधी के अनुरोध पर विशिष्ट समाज सेवी अखिल भारत हरिजन संघ के महासचिव अमृतलाल ठक्कर बापा जनवरी 1939 में कटक पहुँचकर प्रदेश कांग्रेस नेताओं के साथ तालचेर शरणार्थियों की समस्या के बारे में चर्चा करने हेतु अंगुल आए थे। उन्होंने कोशला के शिविरों में दूसरे नेताओं के साथ रहकर उन शरणार्थी शिविरों का दायित्व सँभाला था। वे गाँधी जी के प्रतिनिधि थे। सारे शिविरों का जायज़ा लेने के बाद उनकी समस्याओं के बारे में महात्मा गाँधी जी को अवगत कराते थे। उदाहरण के तौर पर ठक्कर बापा ने गाँधी जी के पत्र का उत्तर दिया था कि शरणार्थी भयंकर दुख झेल रहे थे, अगर कोलकाता के मारवाड़ी रिलीफ़ समाज की सहायता नहीं मिली होती और मालती चौधुरी का ‘चरखा कार्यक्रम’ नहीं हुआ होता तो शरणार्थियों की हालत और ज़्यादा ख़राब हो जाती। बहुत सारे लोग अनाहार मृत्यु के शिकार हो जाते। तालचेर दरबार अपनी ज़िद पर अड़ा हुआ है और सोच रहा है कि अंगुल में तेज़ बारिश होने पर शरणार्थी राजा के पाँव पड़कर अपने घर लौटेंगे, मगर मुझे यक़ीन है ऐसा कभी नहीं होगा, क्योंकि शरणार्थियों के दुख दूर करने के लिए ओड़िशा सरकार तत्पर है।”
यह सुनकर विक्रम समझ गया था कि गाँधी जी के पास तालचेर के प्रजामंडल आंदोलन की सारी ख़बरें मिल जाने से वहाँ के राजा ने नाराज़ होकर ज़रूर कुछ कठोर क़दम उठाए होंगे। इसलिए अपनी शंका के समाधान हेतु उसने पूछा, “तालचेर के लोगों के इस तरह पलायन पर राजा की क्या प्रतिक्रिया थी?”
“राजा अपने राज्य के लोगों को बाहर ब्रिटिश ओड़िशा में शरण लेते हुए देखकर वह बहुत नाराज़ हुआ था। और उनके घर वापसी नहीं करने की ज़िद के कारण राजा ने अपना आपा खोकर आतंकवाद का सहारा लिया और पलातक शिविरों में अपने गुंडे भेजकर उनकी घास-फूस की कुटियाओं में आग लगवा दी, जिसमें अनेक लोगों की जलकर मौत हो गई। अंग्रेज़ी अख़बार ‘स्टेटमैन’ के अनुसार 500 झोपड़ियाँ उस अग्नि-विभीषिका की शिकार हुईं।” वेताल ने जानकारी दी।
“शरणार्थियों की गाँधी जी किस तरह से सहायता कर रहे थे?” विक्रम ने अगला सवाल पूछा।
“जैसा कि मैंने पहले ही कहा था कि ठक्कर बापा गाँधी जी के प्रतिनिधि थे। शिविरों में घूम-घूमकर उनकी रिपोर्ट गाँधीजी को भेजते थे। जैसे ही एक बार उन्होंने गाँधीजी को तार किया, कि ‘14 नवंबर से तीन गाँवों में रह रहे शरणार्थियों की संख्या 31341 पहुँच गई। खाने-पीने के सामानों और स्वास्थ्य रक्षा के लिए दवाइयों की कमी है। उसकी व्यवस्था की जाए। सरकारी स्तरों पर मिलने वाली ‘रिलीफ़’ लालफीताशाही के तले में दबकर अपना दम घोंट रही है। सहायता प्रक्रिया बहुत ही धीरे चल रही है।’ – ठक्कर बापा की तार पाते ही महात्मा गाँधी ने जुगल किशोर बिरला को मारवाड़ी रिलीफ़ सोसायटी द्वारा शरणार्थियों की मदद करने के लिए निर्देश दिए। तुरंत ही कटक से ट्रक भर-भरकर चावल, दाल, आटा, तेल उन शिविरों में पहुँच गया। बारदौली से 26 जनवरी 1938 को गाँधी जी ने इस समस्या को उजागर करने के लिए तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो को अपना गोपनीय पत्र लिखा कि ओड़िशा की स्थिति दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है। इधर रणपुर में मेजर बेजेलगेट की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या ने मामले को और ज़्यादा जटिल बना दिया है, इसलिए मेरा मानना है कि रेज़िडेंट के द्वारा स्थानांतरण के कारण खोज कर लोगों को न्याय दिया जाए। महात्मा गाँधी ने ओड़िशा के प्रधानमंत्री विश्वनाथ को 19 जनवरी 1939 को टेलीग्राम किया कि ‘ठक्कर बापा के रिपोर्ट के मुताबिक़ तालचेर में शरणार्थी भूखे हैं, बहुत कष्ट में है और चिकित्सा सहायता चाह रहे हैं। कृपया सहायता दीजिए।’”
वेताल का यह उत्तर सुनकर विक्रम समझ गया कि गाँधी जी इस आंदोलन के मुख्य-धुरी बने हुए थे, मगर तत्कालीन दूसरे नेताओं की भी तो कुछ भूमिका रही होगी, यह जानने के लिए विक्रम ने एक बार फिर से वेताल से पूछा, “तत्कालीन दूसरे राष्ट्रीय या स्थानीय नेताओं ने इस आंदोलन में किस तरह मदद की?”
“दूसरे नेताओं का इस आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था। कांग्रेस सभापति मानवतावादी प्रोफ़ेसर ऐन.जी. रंगा के निवेदन पर रिलीफ़ फ़ंड शुरू करने के लिए गड़जात प्रजासंघ से लेकर सुभाष चंद्र बोस और डॉ. पट्टाभी रमैया तक शरणार्थियों ने संपर्क साधने का प्रयास किया, मगर उनकी कोई प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं हुई।” वेताल ने बेहिचक उत्तर देते हुए अपनी बात जारी रखी, “शरणार्थियों ने प्रोफ़ेसर रंगा को कहा था कि जब उनकी औरतों को अपमानित किया जा रहा था, निर्यातना दी जा रही थी, उनके साथ बलात्कार किए जा रहे थे, उनके नाक-कान से गहने छीने जा रहे थे; ऐसी अवस्था में कान-नाक से ख़ून बहते समय उनके मन में अपने पैतृक गाँव की ममता कैसे पैदा होगी? जब उनकी फ़सल ज़ब्त की जा रही थी, उनका धन गहने लूटे जा रहे थे, उनके घर खेत नष्ट किए जा रहे थे, तब उनके पास और क्या बचा हुआ था!”
“आपके मुँह से शरणार्थियों पर निर्यातनाओं की मार्मिक घटनाओं को सुनकर मेरे शरीर में सिहरन-सी उठ रही है, तो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के कान अवश्य खड़े हो गए होंगे?” विक्रम ने अपनी शंका ज़ाहिर की।
“यह सारी ख़बरें सुनकर नृशंस विज्ञान के पत्रकार सीएफ एंड्रयूज़ ने कटक पहुँचकर प्रधानमंत्री विश्वनाथ के साथ नित्यानंद कानूनगो, राजस्व मंत्री, नवकृष्ण चौधरी, एमएलए से मिलकर तालचेर के शरणार्थियों की समस्याओं के बारे में गहन विचार-विमर्श किया था। यही नहीं, लंदन में भारतीय समन्वय समिति की सचिव तथा ब्रिटिश सांसद मिस अगाथा हैरिसन ख़ुद जनवरी 1939 के अंत में, अंगुल पहुँचकर शरणार्थियों के शिविर में चार महीनों तक रही और उनकी समस्याओं के बारे में नई दिल्ली में ब्रिटिश सरकार को अवगत कराया। ये ख़बरें इंग्लैंड और अमेरिका के अख़बारों में छपी, इस वजह से तालचेर के राजा और ब्रिटिश सरकार की मिली-भगत से साधारण प्रजा पर अत्याचार विश्व पटल पर उजागर हुआ।” यह कहते हुए वेताल ने तत्कालीन ओड़िशा सरकार पर महात्मा गाँधी की कटु टिप्पणी के बारे में भी जानकारी दी, “4 फरवरी 1939 को महात्मा गाँधी ने अपनी पत्रिका ‘हरिजन’ में लिखा कि सुरक्षा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक और राजनीतिक वैचारिक आदान-प्रदान का आश्वासन देने के बावजूद ओड़िशा के मंत्री तालचेर के 26000 शरणार्थियों को अपने घर नहीं भेज पा रहे हैं तो उन्हें अपनी कुर्सी पर आराम से बैठने का कोई अधिकार नहीं है।”
“जब महात्मा गाँधी ने तत्कालीन ओड़िशा सरकार की अवहेलना और अकर्मण्यता को देखते हुए लताड़ा तो फिर परवर्ती समय में ओड़िशा सरकार क्या किया?” विक्रम ने पूछा।
“अवश्य, ओड़िशा सरकार ने कुछ स्वास्थ्य सुविधाएँ और पुलिस प्रशासन की सुविधा मुहैया कराई थी। शरणार्थियों की आर्थिक सहायता के लिए 10 मील रास्ते का निर्माण करवाया था, जिसे आज भी ‘हिजरात रास्ते’ के नाम से जाना जाता है।” वेताल ने नई जानकारी प्रदान की।
विक्रम-वेताल संवाद अपने चरम को पारकर नीचे की ओर उतरते-उतरते विक्रम ने पूछ ही लिया, “तालचेर के प्रजामंडल आंदोलन में और कौन-कौन प्रमुख स्वयंसेवक थे, जो रिलीफ़ कार्य कर रहे थे?”
“इस आंदोलन में तालचेर और अंगुल के आस-पास से अनेक स्वयंसेवक सेवा कार्य कर रहे थे। जिसमें गोपबंधु चौधुरी, रमादेवी, नवकृष्ण चौधुरी और मालती देवी के नाम प्रमुख हैं। गोपबंधु चौधुरी और अखिल भारतीय चरखा संघ की अध्यक्षा रमादेवी ने शरणार्थी शिविरों में बहुत सारे रिलीफ़ कार्य किए। तालचेर के आंदोलन में नवकृष्ण चौधुरी और मालती देवी की भूमिका के बारे में पद्मचरण नायक अपनी पुस्तक ‘अनिर्वाण’ में लिखते है कि ओड़िशा के मुग़ल बंदी अंचल में अंगुल एक टापू की तरह था। जहाँ ओड़िशा के अन्य गड़जात राजाओं द्वारा अँग्रेज़ों की ग़ुलामी स्वीकार की, वहीं अंगुल के राजा ने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। इस वजह से अँग्रेज़ों ने उसे हथिया लिया और वहाँ चतुर अधिकारियों को दायित्व दे दिया था। यही कारण था कि नवकृष्ण चौधुरी ने अंगुल को प्रजा आंदोलन का केंद्र बिंदु बनाया, उस समय वहाँ गिरजा भूषण दत्त एमएलए हुआ करते थे। और दोनों मिलकर ढेंकानाल और तालचेर के प्रजामंडलों पर नियंत्रण कर रहे थे। महिला कर्मियों को आकर्षित करने के लिए रमादेवी और मालती देवी नेतृत्व कर रही थी। उस समय मालती देवी की बेटी 2 महीने की थी, जिसे किसी पेड़ की डाल से रस्सी बाँधकर, उसमें कपड़े की चादर का झूला बनाकर, उसमें अपनी बेटी को सुलाकर वह प्रजा की सहायता में लगी रहती थी”
“ये सारी वारदातें लगातार अख़बारों में फोटो के साथ प्रकाशित हो रही थी। गाँधी जी ने अपनी बुलेटिनों के माध्यम से दुनिया के सामने तालचेर के सत्य को उजागर किया था। अँग्रेज़ सरकार को भनक लग गई थी कि भारत चाहता है कि अँग्रेज़ भारत छोड़ें और तालचेर के आततायी राजाओं का शासन लुप्त हो। जिससे ब्रिटिश पार्लियामेंट में हलचल शुरू हो गई थी, इसलिए ब्रिटिश सरकार की प्रतिनिधि के रूप में मिस आगाथा हैरिसन कोशला गाँव आकर शरणार्थी कैंपों का जायज़ा लेने लगी थी। अगर देखा जाए तो तालचेर के इस प्रजामंडल आंदोलन ने पूरे भारत को हिलाकर रख दिया था। अप्रत्यक्ष तौर पर यह आंदोलन महात्मा गाँधी और भारत के राज प्रतिनिधि गर्वनर के मध्य चल रहा था। मार्च महीने में महताब-हेनसी समझौता हुआ।”
विक्रम ने सिर खुजलाते हुए पूछा, “महताब-हेनसी समझौता क्या था? इस पर थोड़ा प्रकाश डालें।”
वेताल ने हँसते हुए इस तरह कहना शुरू किया, मानो इतिहास के पन्नों को कुरेद रहा हो, “गाँधी जी की पैनी नज़र तालचेर की इन गतिविधियों पर थी, जिसे वे अपने अख़बार ’हरिजन’ में लगातार प्रकाशित कर आततायी राजाओं और उनके पृष्ठ-पोषक राजाओं को विश्व दरबार के सम्मुख नंगा कर रहे थे। शर्म के मारे, तालचेर के राजा के पॉलिटिकल एजेंट मेजर हेनसी और प्रजामंडल के ओड़िशा-प्रमुख डॉ. महताब की 12 मार्च 1939 में संधि हुई, जिसमें कटक कलेक्टर पर्यवेक्षक के रूप में उपस्थित हुए थे। इस संधि में 2 आणा लगान कम करने, अंगुल की तर्ज़ पर तालचेर की ज़मीन का लगान वसूलने, गाँजा, भाँग, अफ़ीम, चमड़े के अतिरिक्त अन्य सभी द्रव्यों से पट्टा प्रथा हटाने, जाति धर्म, वर्ण में राज्य हस्तक्षेप न करने, सार्वजनिक कार्यों के अतिरिक्त बाक़ी सारे कार्यां में मज़दूरी देने, प्रजा के घर लौटने के बाद उनसे प्रतिशोध नहीं लेने, फ़सल को नष्ट करने वाले जानवरों को मारने के लिए अनुमति नहीं लेने के साथ-साथ प्रजा द्वारा सभा समिति करने की स्वतंत्रता जैसे कई मुद्दे शामिल थे।”
“उन मुद्दों को कैसे उजागर किया जा रहा था और किसने इस कार्य का बीड़ा अपने कंधों पर उठाया था?” विक्रम ने पूछा।
“इस पर कल चर्चा करेंगे। अब मुझे इजाज़त दें।” कहकर वेताल विक्रम के कंधे से उठकर अपने दोनों हाथ फैलाते हुए आकाश में उड़ने लगा। अब वह सिंघड़ा नदी के उस पार तालपेड़ पर अपने बसेरे की ओर गमन करने लगा।
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