शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली

शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय– 1

 

अमावस की आधी रात को तालचेर से तीस किलोमीटर दूर चंद्रबिल गाँव से गुज़रते समय सिंगड़ा नदी के पुल के पास ताल के पेड़ से उलटे लटके एक वेताल ने अपने हाथों के बल गुलाची खाते हुए नीचे उतरकर वहाँ से, अपनी सरकारी गाड़ी से अपने घर जा रहे कणिहा महाप्रबंधक कार्यालय के अधिकारी विक्रम के कंधे पर धीरे से सवार हो गया और कहने लगा, “मैं वेताल हूँ। इस अंचल में चौरासी-पचासी साल से रह रहा हूँ। पहले एक बड़े बरगद के पेड़ के खोखल में रहा करता था। मगर बीस साल पहले जब तुम्हारी कंपनी महानदी कोलफ़ील्डस लिमिटेड ने कणिहा खुली खदान खोलने के लिए यहाँ की ज़मीन का अधिग्रहण किया और मेरे निवास स्थली बूढ़े बरगद (जिस पर तुम्हारे प्रिय कवि हलधर नाग ने अपनी पहली कविता लिखी थी) के पेड़ को डोज़िंग कर भूमिसात कर दिया गया, तब से मैं इस लंबे ताल के पेड़ की उस डाली पर अपने वायवीय शरीर के साथ उलटा लटका हुआ हूँ।” ऐसा कहते हुए उसने दीर्घ साँस ली और फिर कहना शुरू किया, “मित्र! आपको मुझसे किसी प्रकार से डरने की कोई ज़रूरत नहीं हैं। मैं कोई ब्रह्म-राक्षस नहीं हूँ। तुम्हारे शरीर पर लगे इत्र की ख़ुश्बू और चेहरे की रक्तिम आभा से मुझे लगता है कि तुम्हारे भीतर एक अति संवेदनशील हृदय है और ऐसा लगता है कि आप अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति का ख़तरा उठाने के लिए सदैव तैयार रहते हो। इसलिए मैं तुम्हारे कंधें पर बैठ गया हूँ।” 

वेताल की बात को बीच में ही काटते हुए विक्रम ने उससे सवाल पूछा, “आप कौन हो? मुझसे क्या चाहते हो? इस बारे में सविस्तार बताएँ।” 

“मेरे बारे में तो ओड़िशा के लोग भी बहुत कम जानते हैं, फिर आप तो बाहर के रहने वाले हो; आप मेरे बारे में क्या जानोगे? मैं शहीद बिका नाएक का वेताल हूँ। दलित होने के कारण मुझे मेरा यथायोग्य सम्मान नहीं मिला, इसलिए आपको मेरी सम्पूर्ण गाथा सुनाना चाहता हूँ, ताकि आप उसे लिपिबद्ध कर वर्तमान पीढ़ी के समक्ष रख सको।” वेताल ने अपना परिचय देते हुए विक्रम से अपने संवाद स्थापित करने के लिए एक सजग नेता की तरह फिर से कहने लगा, “आज जब हमारे देश में दलितों की हालात दयनीय हैं तो राजा-रजवाड़ों के शासन में कितनी ख़राब रही होगी, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है! एक अंत्यज शूद्र परिवार में मैंने जन्म लिया था। मेरे पिता जातक नाएक और मेरी माता चंद्री नाएक थे। सुकुमारी से मेरी शादी हो गई, लेकिन वैवाहिक जीवन का वह आनंद ज़्यादा दिन नहीं ले पाई और जल्दी विधवा हो गई। तीस साल की उम्र में अँग्रेज़ सैनिक की गोली ने मेरा सीना छलनी कर दिया और सिंगड़ा नदी के बालू तट पर मैं हमेशा के लिए यह लोक त्यागकर परलोक सिधार गया। वहाँ भी मुझे कोई स्थान नहीं मिला, इसलिए लौटकर बरगद की खोखल में मेरी मुक्ति होने तक मैंने अपना घर बनाया। दीर्घ समय तक वह बरगद भी साथ नहीं दे पाया और मैं वेताल बन गया और ताल पेड़ पर लटका हुआ, तुम्हारे जैसे किसी विक्रम के गुज़रने का इंतज़ार करने लगा। इसी दौरान मेरी तुमसे मुलाक़ात हो गई।” 

बस, फिर चल पड़ा वेताल और विक्रम के संवाद का अंतहीन सिलसिला, अतीत से वर्तमान की ओर, अलग-अलग कालखंडों को अपने भीतर समेटे हुए। बातों-बातों में विक्रम ने वेताल से पूछा, “तुम्हारी वर्तमान पीढ़ी क्या कर रही है? तुम्हारे अपने बाल-बच्चे, तुम्हारे सगे-संबंधी क्या करते हैं और कहाँ रहते हैं?” 

वेताल ने विक्रम की ओर मृदु दृष्टि से देखते हुए कहा, “मुझे तुम्हारी खोजी प्रवृत्ति बहुत अच्छी लगी। सच में, मुझे अपना सारा परिचय देना चाहिए, ताकि आप मेरी बातों पर विश्वास कर सको।” 

यह कहते हुए वेताल ने एक सड़क की ओर इशारा करते हुए कहा, “यह सड़क, जो कणिहा से हिंगुला मंदिर की ओर जाती है। रास्ते में एक गाँव पड़ता है, उसका नाम है कुमुण्डा। इस गाँव में मेरी शादीशुदा बेटी खईराणी नाएक रहती थी, वह अब परलोक सिधार चुकी है, उसके दो बच्चे गोलेख और गुड़िया ज़िन्दा है और तीसरा लड़का—धरणी नाएक—इस दुनिया में नहीं है। स्वर्गीय धरणी नाएक का एक पुत्र हेमंत नाएक और पुत्री बांधवी नाएक हैं; गोलेख नाएक के दो पुत्र दुश्मंत और सुशांत एवं पुत्री भारती है, और गुड़िया नाएक के चार पुत्र दिलेश्वर, पांडव, विद्याधर और कान्हू हैं। इसके अलावा, खईराणी की और दो बेटियाँ थीं—कलावती नाएक एवं धलावती नाएक। आप चाहो तो उन सबसे मिल सकते हो।” 

“अवश्य मिलूँगा।” मन ही मन सोचा विक्रम ने, “ताकि शहीद बिका के अतीत की जानकारी मिल सके।” 

वेताल ने कहना जारी रखा, “मेरे सहोदर भाई लक्ष्मण नाएक के वंशज अभी भी इस धरती पर मौजूद हैं। लक्ष्मण नाएक और उसकी धर्मपत्नी सोनू नाएक के दो बेटे थे—धन नाएक और महार नाएक। धन नाएक के तीन बेटे हैं—भरत, आर्तत्राण और नाथ नाएक।” 

उनका नाम सुनते ही विक्रम ने कहा, “भरत और आर्तत्राण से तो मैं कई बार मिल चुका हूँ और टूटा-फूटा घर भी देख चुका हूँ। बाक़ी?” 

“महार नाएक का एक लड़का गोपाल नाएक और दो बेटियाँ बारी नाएक और सारी नाएक है। बेचारे अनपढ़ हैं, बीपीएल के तौर पर मिलने वाली राशन-सामग्री के अतिरिक्त मज़दूरी कर अपना पेट पालते हैं। उनके भी चार-चार बच्चे हैं। भरत के दो बेटे—त्रिनाथ, जग; दो बेटियाँ–ठाकुराणी, वैशाली, जबकि आर्तत्राण के लीलावती, लक्ष्मी-दो बेटियाँ, विनय, समय, बिमल-तीन बेटे हैं। मेरी प्रपोत्र वधू कक्षा आठ तक पढ़ी है, इस बात का मुझे गर्व है।” वेताल ने अपना सीना फुलाते हुए गर्व से कहा। 

ऑफ़िस की छुट्टी होते ही विक्रम पहले चंद्रबिल में आर्तत्राण के घर और फिर कुमुण्डा में उसकी बेटी के वंशजों के घर जाकर मिला। दोनों जगह कच्चे खपरैल वाले घर थे, गारे-मिट्टी से बने और गोबर से लिपे हुए मकान। दीवार में ईंटों की अस्थियाँ साफ़ दिख रही थीं। खपरैल वाले इन घरों में कूलर या ऐसी के बारे में सोचना तो दूर की बात, पंखें तक नहीं थे। परकोटे की जगह टूटी-फूटी तार वाली फेंसिंग लगी हुई थी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है, बीपीएल की तालिका में सबसे नीचे होंगे उनके वंशज। 

वेताल के वंशजों की दयनीय स्थिति देखकर विक्रम के मन में शंका जागी। उसके समाधान हेतु वेताल की ओर देखकर कहने लगा, “मैं राजस्थान से यहाँ काम करने आया हूँ। तालचेर आज हमारी भी कर्मभूमि बन गई हैं। देश आज़ादी के बाद तालचेर में उद्योग-धंधों की बाढ़-सी आ गई थी। देखते-देखते कोयले की खदानें सरकार के हाथों में आ गई थी। तालचेर कोल फ़ील्ड्स की कणिहा खदान तो आपके घर के बिलकुल नज़दीक है। इधर एनटीपीसी का विद्युत उत्पादन वाली कंपनी की गगनचुंबी चिमनियों को देखकर मुझे तृप्ति होती है तो आपको भी अवश्य ख़ुशी होती होगी। पास में जिंदल वाले ने भी जिंदल नाम से अपनी बिजली उत्पादन का संयंत्र खोला है। अंगुल की तरफ़ जाते हैं तो नालको मिलेगा। बअँरपाल चौक की तरफ़ जाते है तो टाटा स्टील जैसी अनेक कंपनियाँ खुली हुई है। लेकिन तुम्हारी पीढ़ी के उत्थान के लिए क्यों कुछ भी नहीं हुआ?” 

वेताल की ललाट पर तीनों रेखाएँ साफ़ दिखने लगी। भृकुटी तानकर वह कहने लगा, “क्या आपने कभी समाज शास्त्र नहीं पढ़ा है? हमारी नीची जाति आर्थिक स्थिति से कमज़ोर होने के कारण न मेरे वंशजों की पढ़ाई हुई, न ही उन्हें किसी प्रकार का रोज़गार मिला। बेरोज़गारी के कारण उनकी हालत ख़स्ता है। इस वजह से आज भी मेरी अतृप्त आत्मा भटकती रहती है।” 

कुछ समय रुककर वह फिर से कहने लगा, “व्यापार के लिए कोई अगर छोटी-मोटी दुकान खुलवा भी दें तो क्या आज भी गाँव वाले हमारे यहाँ से सामान ख़रीदेंगे? नहीं, कभी नहीं। निम्न अस्पृश्य जाति में पैदा होने का ठप्पा आज भी हमारे सिर पर लगा हुआ है, अभिशाप बनकर।” 

फिर दीर्घ साँस लेते हुए वेताल ने अपने मन की अंतिम इच्छा ज़ाहिर की, “मैं आपको इस अंचल की अज्ञात कहानियाँ सुनाऊँगा, लेकिन मेरी शर्त यह रहेगी कि आप केवल सुनोगे और जब तक मैं नहीं कहूँगा, तब तक आप मुझे बीच में नहीं टोकोगे। सारी कहानियाँ सुनाने के बाद मैं आपको एक सवाल पूछूँगा। जिसका आपको सही उत्तर देना होगा, नहीं तो मैं फिर से ताल के पेड़ पर उलटा लटकने के लिए चला जाऊँगा, हमेशा-हमेशा के लिए पहले की तरह भटकती आत्मा बनकर।” 

“सही उत्तर देने की मैं भरसक प्रयास करूँगा।” विक्रम ने गंभीरता से उत्तर दिया। 

विक्रम के मुँह से वाक्य के अंतिम तीन शब्द सुनकर गाड़ी में उनके साथ बैठे उनके मित्र अजय ने पूछा, “सर, क्या आप कोई स्वप्न देख रहे हो? किससे बात कर रहे हो? खदान के कोयले और ओवरबर्डन के टार्गेट पूरे नहीं हो रहे हैं, इसलिए क्या आज दिन में बॉस की डाँट पड़ी है? इसलिए कह रहे हो कि टार्गेट हासिल करने की भरसक कोशिश करूँगा।” 

विक्रम ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह जानता था कि अजय को वेताल नज़र नहीं आ रहा है, जो उसके कंधे पर बैठा हुआ है। विक्रम को चुप देखकर अजय ने कोई और प्रश्न नहीं किया। और वेताल ने कहानी सुनाने से पहले अपनी मनोव्यथा के बारे में बताना शुरू किया, “देश की आज़ादी के बाद मैंने जो-जो सपने  देखे थे, वह चूर-चूर हो गया। मुझे लगा था कि पूरा भारत ही मेरा परिवार है। महात्मा गाँधी अस्पृश्यता को दूर करना चाहते थे तो भीमराव अंबेडकर हमें जातिहीनता से मुक्ति दिलाकर संवैधानिक पदों पर देखना चाहते थे। मगर न तो महात्मा गाँधी का सपना साकार हुआ और न ही भीमराव अंबेडकर का। आज तक दलित जाति के होने के कारण मेरी शहादत को वह सम्मान नहीं मिल पाया, जिसका मैं हक़दार था। न मेरे गाँव वालों ने मुझे सम्मान दिलवाने के लिए कोई ख़ास क़दम उठाया और न ही देश की आज़ादी के बाद से आज तक की सरकारों ने कोई वित्तीय सहयोग दिया। यद्यपि आज भी मेरी पीढ़ी मेरी शहादत पर गर्व अनुभव करती है, मगर दूसरे शहीदों की तरह मुझे उचित सम्मान नहीं मिलने से दुखी होकर उन्होंने महिमा धर्म अपना लिया। यही वह धर्म है, जिसमें जातिवाद का दंश नहीं झेलना पड़ता है।” यह कहकर वेताल चुप हो गया, मगर उसके चेहरे से लग रहा था कि वह कुछ और कहना चाहता था। 

“कुछ कहना चाहते थे?”, अपनी पीढ़ी के धर्मांतरण के कारण बताकर विक्रम ने वेताल की ओर देखते हुए कहा। 

“हाँ, मैं यह जोड़ना चाहता था कि न केवल मुझे ही जातिवाद का दंश नहीं झेलना पड़ा, बल्कि इस अंचल के प्रसिद्ध भक्त कवि भीम भोई भी इस ज़हर के शिकार हुए। उनके आदिवासी होने के कारण तत्कालीन साहित्यकारों ने उन्हें भी उचित सम्मान नहीं दिया। उनके समय में ‘छह माण आठ गुंठ’ जैसे प्रसिद्ध उपन्यास लिखने वाले फ़क़ीर मोहन सेनापति, ‘तपस्विनी’ जैसे प्रसिद्ध ओड़िया महाकाव्य के रचियता गंगाधर मेहेर, राधनाथ राय जैसे विद्वानों ने भी उनकी रचनाओं में भीम भोई का ज़िक्र नहीं किया। ऐसा नहीं था कि उन्हें भीम भोई के बारे में जानकारी नहीं रही थी। उन्हें जानकारी थी, मगर उन दरबारी लेखकों और कवियों के पास इतना सामर्थ्य कहाँ था कि वे अंधे आदिवासी कवि की सारस्वत वाणी को सहन कर पाते! जो अपनी वाणी से लगातार ब्राह्मणों और राजाओं को चुनौती दे रहा था। एक जगह शायद गंगाधर मेहेर ने किसानों के बारे में अपनी कविता में उल्लेख किया है कि कपास की खेती करो, नहीं तो महिमा साधु बन जाओ।” वेताल ने अभी अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि उसे रोकते हुए विक्रम ने कहा, “आप कहना चाहते हो कि उन्हें महिमा धर्म के बारे में जानकारी थी। इस धर्म में साधु दिगम्बर रहते हैं, वल्कल धारण करते हैं। उन्हें कपड़ों की क्या ज़रूरत? तो फिर कपास की खेती क्यों करनी है? यही न?” 

विक्रम को वेताल की बातों में शत-प्रतिशत सच्चाई नज़र आई, इसलिए वह तत्कालीन घटनाओं की पृष्ठभूमि के बारे में जानना चाहता था। विक्रम ने वेताल से अपने अतीत की गाथाओं पर आलोकपात करने के लिए अनुरोध किया तो वेताल ने कहना शुरू किया, “जानते हो न, तुम्हारे जन्म से पहले हमारा देश अँग्रेज़ों का ग़ुलाम था। हम सभी राजे-रजवाड़ों और तरह-तरह की जातियों में बँटे हुए थे। उसी समय एक नेता ने जन्म लिया, जिसने पूरी दुनिया को इस क़द्र प्रभावित किया कि आज सबसे ज़्यादा पुस्तकें उन्हीं पर लिखी गई हैं और विश्व में सबसे ज़्यादा मूर्तियाँ भी उन्हीं की बनी हैं। उस नेता का नाम था महात्मा गाँधी, जो सन् 1889 से 1891 में लंदन से बेरिस्ट्री की परीक्षा पास करके भारत लौटे। सेठ अब्दुल्ला ने भारत में गाँधी जी से कहा कि उनका व्यापार दक्षिण अफ़्रीका में है, उनके कुछ प्रकरण अफ़्रीकी न्यायालय में विचाराधीन हैं। जिन पर ब्रिटिश क़ानून ही लागू है। आप लंदन से क़ानून की पढ़ाई करके आये हो। आप उनकी देख-रेख संयोजन करने में हमारी सहायता कर सकते हैं और वे दक्षिण अफ़्रीका चले गए।” 

प्रश्नवाची निगाहों से वेताल की बात को बीच में काटते हुए विक्रम ने पूछा, “मुझे यह समझ में नहीं आया कि गाँधी जी के प्रसंगों का आपकी शहादत से क्या ताल्लुकात है?” 

“बहुत बड़ा ताल्लुकात है। जिस तरह जातिभेद के कारण हमें नीचा देखना पड़ता है, यहाँ तक कि मरने के बाद भी; उसी तरह गाँधीजी को भी रंगभेद के कारण नीचे देखना पड़ा था। 1893 में मोहनदास करमचंद गाँधी दक्षिण अफ़्रीका पहुँचे। वहाँ उन्होंने भारतीयों की दुर्दशा, रीति रिवाज़, परंपराओं, व्यवसाय, महिलाओं की दुर्दशा, शिक्षा, स्वास्थ्य सभी का गहराई से आकलन किया। उन्होंने प्रवासी भारतीयों को संगठित किया। शिक्षित करने पर ज़ोर दिया, साथ ही स्वच्छता, स्वास्थ्य पर ज़ोर दिया। दक्षिण अफ़्रीका में अँग्रेज़ों द्वारा रंगभेद की नीति अपनाई जाती थी। महात्मा गाँधी अपने काम के सम्बन्ध में डरबन से प्रोटोरिया जाने के लिए प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सफ़र कर रहे थे। डिब्बे में अधिकतर अँग्रेज़ थे, उन्होंने गाँधीजी का डिब्बे से उतर जाने पर ज़ोर दिया और बीच में एक स्टेशन में गाड़ी रुकने के बाद गाँधी जी को डिब्बे से बाहर धकेल दिया, सामान भी प्लैटफ़ॉर्म पर फेंक दिया था। गाँधी जी ने कहा था कि आप मुझे आज रंगभेद नीति के कारण रेल के डिब्बे से प्लैटफ़ॉर्म पर बाहर फेंक रहे हो, एक दिन मैं आपको हिंदुस्तान से बाहर फेंक दूँगा।” 

“जानता हूँ। अँग्रेज़ गोरी चमड़ी के थे। उन्हें गाँधी की काली चमड़ी पसंद नहीं आई। इसलिए उन्होंने ट्रेन से नीचे धक्का दे दिया।” विक्रम ने कहा, “यही नहीं, दक्षिण अफ़्रीका में कई होटलों को उनके लिए वर्जित कर दिया गया। इसी तरह की बहुत-सी घटनाओं में से एक यह भी थी जिसमें अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था, जिसे उन्होंने नहीं माना।” 

“हाँ, ये सारी घटनाएँ गाँधीजी के जीवन में एक नया मोड़ बन गईं और विद्यमान सामाजिक अन्याय के प्रति जागरूकता का कारण बनीं तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या करने में मददगार सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय और अत्याचर को देखते हुए गाँधी ने अंग्रेज़ी साम्राज्य के अन्तर्गत अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाये। दक्षिण अफ़्रीका में गाँधी जी द्वारा अँग्रेज़ों से अलग-अलग संघर्षों से जूझना पड़ा। दक्षिण अफ़्रीका गाँधीजी की कर्मभूमि बन गई थी। सन् 1906 में महात्मा गाँधी जी ने वहाँ प्रथम बार सत्याग्रह का प्रयोग किया था। सन् 1905 में बंगाल विभाजन स्वदेशी आंदोलन के कारण उग्रवादी दल सक्रिय हो उठा था और देश में उस दल का नेतृत्व लाल-बाल-पाल कर रहे थे।” कहते हुए वेताल ने विक्रम की ओर तिरछी निगाहों से देखा जैसे वह पूछना चाह रहा हो कि तत्कालीन उग्रवाद के समय में गाँधी जी ने उदार दल के अस्तित्व को कैसे बचाया होगा? हमारे पास तो खाने के लिए अनाज नहीं था, पहनने के लिए कपड़े नहीं थे, फिर हथियार कहाँ से आएँगे? कहाँ गाँधी जी और कहाँ बिका नाएक! कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली! गाँधी जी रंगभेद नीति के शिकार हुए तो शहीद बिका नाएक जातिभेद नीति का!! वेताल के मुँह से गाँधी जी के बारे में सुनना विक्रम को अच्छा लग रहा था। विक्रम के सिर हिलाने को सहमति समझकर वेताल ने कहना जारी रखा, “9 जनवरी 1915 को महात्मा गाँधी जी भारत लौटे। उनकी राष्ट्रीय चेतना इतनी बलवती थी कि वे अंग्रेज़ी राज्य को समाप्त करने का मन बना चुके थे। गाँधी जी उदार दल के नेता गोपाल कृष्ण गोखले से मिले। उन्होंने कांग्रेस दल में शामिल होने की इच्छा ज़ाहिर की। गोखले जी ने गाँधीजी से कहा, “पहले आप एक वर्ष तक पूरे देश में घूम कर ग़रीबों, किसानों हर वर्ग के लोगों की दशा हालत का अध्ययन करो।” आज भारत की स्थिति में राष्ट्रीय चेतना नागरिकों से में जागृत हो चुकी है। महात्मा गाँधी पूरे वर्ष तृतीय श्रेणी के डिब्बे में बैठकर अलग-अलग स्थानों का भ्रमण कर लोगों से मिलते-जुलते रहे।” 

“उसके बाद?” विक्रम ने अपनी जिज्ञासा शमन हेतु प्रश्न पूछा। 

“फरवरी 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन कार्यक्रम में महात्मा गाँधी जी को भी वक़्ता के तौर पर आमंत्रित किया गया। गाँधी जी ने उद्घाटन वक्तव्य में कहा कि आपने विश्वविद्यालय का निर्माण कर सराहनीय कार्य किया है, स्वदेशी शिक्षा आम जनता तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है। लेकिन मैं इस सभा में देख रहा हूँ कि उच्च वर्ग, अमीर, राजे-रजवाड़े के सम्मानित लोग उपस्थित हैं। लेकिन देश का वह 85% ग़रीब, किसान, मज़दूर का एक भी प्रतिनिधि यहाँ उपस्थित नहीं है। पहले हमें अपने वैभव, दम्भ को छोड़ कर शोषित पीड़ित वर्ग के लोगों तक पहुँच बनानी होगी। तभी हम अपने लक्ष्य तक पहुँच सकेंगे।” कहकर वेताल चुप हो गया। वेताल का इस तरह चुप हो जाना विक्रम को खलने लगा। बात को आगे बढ़ाने के लिए वह कहने लगा, “मेरी नज़रों में भी गाँधीजी का जन्म ग़रीब तबक़े के हितों की रक्षा के लिए हुआ था। है न?” 

वेताल ने हामी भरते हुए अपनी गाथा जारी रखी, “हाँ, सही कह रहे हो, विक्रम। सन् 1916 के दिसंबर माह में लखनऊ कांग्रेस के अधिवेशन में चंपारण से आये राजकुमार शुक्ला से भेंट हुई। वह बार-बार आग्रह कर रहा था कि गाँधीजी उसके साथ किसानों की दशा सुधारने हेतु चंपारण चलें। वह उनके पीछे कानपुर, अहमदाबाद तक पहुँचा। वर्ष 1917 में महात्मा गाँधी चंपारण पहुँचे। वहाँ-वहाँ वे गाँव-गाँव, शहर-शहर में किसानों से मिले। सभी जगह के किसानों ने उन्हें बताया कि अँग्रेज़ जबरन उन्हें उनकी ज़मीन पर तीन कठिया नील की खेती करने को मजबूर करते हैं। फ़सल के बाद उन्हें अँग्रेज़ों से कुछ भी लाभ नहीं होता। इससे छोटे किसान भुखमरी, ग़रीबी से पीड़ित है। गाँधीजी ने जगह-जगह क़ानून उल्लंघन का सहारा लिया। अंत में, किसानों की जीत हुई। शोषण से मुक्ति मिली।” 

वेताल की बात पर सिर हिलाकर सहमति जताते हुए विक्रम ने कहा, “किसानों के अलावा मज़दूरों के लिए भी गाँधी जी का बहुत बड़ा अवदान था।” 

“हाँ! सन् 1918 में गाँधीजी अहमदाबाद पहुँचे। वहाँ मज़दूरों को बेहतर बोनस और अच्छी मज़दूरी देने के लिए सत्याग्रह किया। मज़दूरों को मालिकों से 35 प्रतिशत बोनस प्राप्ति का समझौता हुआ। इसी वर्ष 1918 में खेड़ा में किसानों की फ़सल तथा बड़ी लगान के विरुद्ध आंदोलन हुआ। गाँधीजी की अगवाई में सरदार पटेल भी शामिल हुए। किसानों की लगान माफ़ हुई। महात्मा गाँधी अभी क्षेत्रीय नेता के रूप में उभरे थे। द्वितीय विश्व युद्ध 1914 से 1918 तक चला। गाँधी जी के आग्रह पर अँग्रेज़ों की सेना में 30 लाख भारतीय सैनिक युद्ध में लड़े। गाँधी जी को भरोसा था कि युद्ध समाप्ति के बाद भारतीयों को अँग्रेज़ अधिक सुख, सुविधा और अधिकार देंगे। लेकिन अँग्रेज़ मुकर गये। अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय चेतना और तेज़ी से बढ़ी।” कहकर वेताल ने दीर्घ साँस ली। 

विक्रम मन ही मन सोचने लगा कि वेताल का ऐतिहासिक ज्ञान बहुत ही ऊँचे दर्जे का हैं, मगर इस ज्ञान का इस अंचल से क्या ताल्लुकात? वह प्रश्न पूछने ही जा रहा था कि अचानक उसे वेताल की शर्त याद आ गई। वेताल उसके मन के भावों को अच्छी तरह समझ चुका था। फिर भी अनजान रहने की कोशिश करते हुए कहने लगा, “मुझे अच्छी तरह याद हैं, उस समय में ओड़िशा में दो प्रकार के शासन चलते थे। पहला, सीधा अँग्रेज़ों द्वारा और दूसरा, अँग्रेज़ों के एजेंट बने राजाओं के द्वारा। राजाओं द्वारा शासित उन अंचलों को ओड़िशा की स्थानीय भाषा में कहा जाता था गड़जात क्षेत्र।” 

“दो प्रकार का शासन क्यों?” विक्रम ने पूछा। 

वेताल ने उत्तर दिया, “पहाड़ी इलाक़ों पर अँग्रेज़ नहीं जा पा रहे थे। इसलिए वहाँ देशी राजाओं के माध्यम से राज्य का संचालन होता था। भारत में अँग्रेज़ों का शासन इंग्लैंड के सम्राट द्वारा संचालित होता था, जिसका प्रतिनिधि होता था वायसराय। जिसे स्थानीय भाषा में लाट साहब या लाड साहब कहते थे। आज भी कई गाँवों में यह मुहावरे के रूप में प्रयुक्त होता है, उदाहरण के तौर पर ‘वह अपने आपको लाड/लाट साहब समझता है। यह राजन मंडली का सभापति होता था।” 

“आपके समय में ओड़िशा में कितने गड़जात अंचल थे? मुझे आपके गड़जात अंचल की कहानी सुनाइए। आपके शब्दों में ‘गड़जात गाथा।’, हँसकर विक्रम ने वेताल को अपनी आपबीती सुनाने के लिए कहा। 

“मेरे समय में ओड़िशा के 26 गड़जात अंचल थे। मेरा अंचल था तालचेर। पहले आपको तालचेर के इतिहास के बारे में बताता हूँ, फिर मेरी आपबीती। सही रहेगा न?” वेताल ने प्रश्नवाची मुद्रा बनाते हुए विक्रम से पूछा। 

“हाँ, मेरे लिए तालचेर का इतिहास जानना ज़रूरी है,” विक्रम ने सिर हिलाते हुए उत्तर दिया। 

वेताल ने एक शिक्षक की तरह कहा, “तब ध्यानपूर्वक सुनिए। तालचेर के वर्तमान राजघराने के वंशज राजा राजेन्द्र चन्द्र देव के पूर्वजों ने पंद्रहवीं शताब्दी में यहाँ एक राज्य की स्थापना की थी। तब उसका नाम तालचेर नहीं था। उस समय जयपुर राणा ठाकुर राजघराने के चार भाई तीर्थयात्रा पर पुरी आये। उनके नाम थे नरहरि सिंह, विजय सिंह, अजय सिंह और मान सिंह। उन्होंने पुरी के राजा को उचित सम्मान नहीं दिया। इसलिए उन्हें जगन्नाथ जी के दर्शन नहीं करने देने तथा जेल में डालने का आदेश दिया गया। नरहरि सिंह अपने छोटे भाई उदय सिंह के साथ भागकर ढेंकानाल राज्य ‘नाधरा’ जगह पर पहुँचे और ब्राह्मणी नदी के तट पर ‘भीमनगरी’ में क़िले का निर्माण करवाया। इस तरह राजा नरहरि सिंह भीमनगरी के पहले राजा बने और उन्होंने 1471 से 1480 तक शासन किया।” 

“यह तो अकबर-बीरबल से पहले के ज़माने की बात है। उसके बाद के इतिहास पर दृष्टिपात कीजिए,” विक्रम ने अँगड़ाई लेते हुए कहा जैसे वह और इतिहास सुनने के लिए अनिच्छुक है। 

“धीरज मत खोइए। आपको अगर मेरी जीवनी पर उपन्यास लिखना है तो आपको यहाँ के इतिहास-बोध की विस्तृत जानकारी होनी चाहिए। जैसे कि मैं कह रहा था नरहरि सिंह के पुत्र तेज बहादुर, उदय नारायण सिंह ने भीमनगरी में 1480 से 1520 तक शासन किया। उन्होंने ओड़िशा की मुस्लिम आक्रमणों से रक्षा की, इसलिए उन्हें गजपति महाराज ने ‘वीरवर हरिचंद्रन’ की उपाधि से विभूषित किया। उनके पुत्र गोविंद चरण राउतराय तीसरे राजा थे, जिन्होंने भीमनगरी पर 1520 से 1527 तक शासन किया। उनके शासनकाल में चैतन्य महाप्रभु का पुरी आगमन हुआ था।” वेताल ने विक्रम को टोकते हुए कहा, फिर भी विक्रम यह कहने से नहीं चुका, “जहाँ तक मुझे याद है कि चैतन्य महाप्रभु के समकालीन तुलसीदास, रैदास, सूरदास थे। वह भक्तिकाल था।” 

“कृपया मुझे अपने विषय से मत भटकाइए। मैं कह रहा था कि इस वंश के नौवें राजा पद्मनाभ वीरवर हरिचंद्रन ने सन् 1575 में ढेंकानाल के राजा से हारने के कारण ब्राह्मणी नदी के इस तरफ़ रेमुआं के ज़मींदार को युद्ध में परास्त कर राज्य का नाम उनकी कुलदेवी तालेश्वरी के नाम पर तालचेर रखा। यहाँ एक तालेश्वरी मंदिर है। तालेश्वरी केवट जाति के लोगों की देवी है। वहाँ ताल के पेड़ के नीचे शेर बैठा रहता है। और शेर तो हिंगुला का वाहन है। इसे हमारे पूर्वजों ने शक्ति-स्थल समझा और शक्तिपीठ होने के कारण यह जगह तालचेर कहलायी। राजा पद्मनाभ वीरवर हरिचंद्रन धार्मिक राजा थे। उनकी मृत्यु 1598 में हुई। उन्होंने अपने शासनकाल में कई मंदिरों की स्थापना की। तालचेर की स्थापना से पहले वे हिंगुला देवी की पूजा करते थे।” कहते हुए वेताल ने दीर्घ साँस ली। 

हिंगुला देवी का नाम सुनते ही विक्रम ने वेताल की गाथा को रोकने का संकेत करते हुए कहा, “कवि ब्रह्मशंकर मिश्रा ने ‘माँ हिंगुला’ कविता में लिखा है: ‘तू ही अधिश्वरी/ गडजात तालचेर की/ तुम्हारी दया कृपा की भीख। आश्रय माँगता हूँ बारंबार।’ ब्रह्मशंकर मिश्रा की कविता से अब मुझे समझ में आया कि तालेश्वरी देवी से हिंगुला देवी की मान्यता इस अंचल में पुरानी है, मगर कृपया बताएँ कि इस अंचल का नाम हिंगुलापुर, हिंगुलेश्वर या हिंगुलानगरी क्यों नहीं पड़ा?” 

“इसकी मुझे जानकारी नहीं है। मेरी नज़रों में सब देवी-देवता बराबर होते हैं। आपकी इस शंका का समाधान और कभी समय देखकर किसी इतिहासकार से करवाएँगे। हाँ, तो मैं कह रहा था कि बारहवें राजा रामचंद्र वीरवर (1711-1729) की उदारता और सुशासन के कारण उनकी तुलना त्रेता युग के भगवान रामचंद्र से की जाती है। चौदहवें राजा लालसिंह का शासनकाल (1740 से 1752) मुसीबतों से भरा रहा। उस दौरान मराठों के बार-बार आक्रमण होते रहे। वे ज़बरदस्ती पेटिका वसूल करते थे। मना करने पर उन्होंने तालचेर के कई गाँवों में भारी तबाही मचाई। कई गाँव जला दिये। उनके उत्तराधिकारी कृष्णचंद्र (1752-1765) के शासन सँभालने के समय ओड़िशा पर मराठों का राज हो गया था, इसलिए उन्हें वार्षिक लगान देने की संधि पर हस्ताक्षर करने पड़े। उन्हें ‘नीम कोली’ कहा जाता था, नीम के पके फल कोली की तरह सफ़ेद पीत गौरवर्ण यानी अत्यधिक सुंदर होने के कारण।” 

विक्रम ने वेताल की बात काटते हुए कहा, “आप इतिहास बताने के साथ-साथ नीम कोली जैसे स्थानीय शब्दों का प्रयोग कर नीरस विषय को सरस बना देते हैं। लेकिन एक बात मुझे पूछनी है, वेताल जी! आपका जन्म तो उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ था, जबकि आप तालचेर के इतिहास के पंद्रहवीं, सोलहवीं, सत्रहवीं, अठारवीं शताब्दी की घटनाओं का इस तरह वर्णन कर रहे हो जैसे उन घटनाओं को आपने अपनी आँखों से देखी हो। यह कैसे सम्भव है?” 

मुस्कुराते हुए वेताल ने उत्तर दिया, “विक्रम! आपने कभी गीता पढ़ी है? अगर हाँ तो कभी ऐसा सवाल नहीं पूछते।” 

“गीता का इस सवाल से क्या सम्बन्ध है?” विक्रम ने हिचकिचाते हुए पूछा। 

वेताल ने उत्तर दिया, “गीता में ऐसा ही सवाल अर्जुन ने कृष्ण से पूछा था कि हे योगेश्वर वासुदेव! आप तो मेरे समकालीन है, फिर आप यह कैसे कह सकते है कि राजयोग का ज्ञान आपने पहले सूर्य भगवान, फिर इक्ष्वाकु, फिर मनु को दिया, जो हमसे सहस्रों वर्ष पूर्व इस धरती पर आए थे? 

“भगवान कृष्ण ने कहा था कि मुझे मेरे सारे जन्म याद हैं, मगर अर्जुन तुम्हें नहीं,” हँसते हुए विक्रम ने अपने गीता ज्ञान की जानकारी देने का प्रयास किया। 

“हाँ! मैं यही कह रहा हूँ। भले ही, मैं कृष्ण भगवान नहीं हूँ, मगर वेताल हूँ त्रिकालदर्शी। इसलिए मुझे मेरे सारे जन्म याद हैं और तत्कालीन इतिहास भी,” कहकर वेताल चुप हो गया। 

विक्रम ने वेताल को आगे की गाथा सुनाने की मनुहार करते हुए कहा, “आप सही कह रहे हैं। मैंने डॉ. ब्रायन विश की पुस्तक ‘मैनी लाइव्स, मैनी मास्टर्स’ में ऐसा ही कुछ पढ़ा था। अब मैं समझ गया हूँ कि आप कोई वेताल नहीं, बल्कि एक मुक्त जीवात्मा है। मुझे क्षमा करें, तालचेर के आगे के इतिहास पर आलोकपात करें।” 

किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया किए बिना वेताल ने कहना शुरू किया, “सुनिए, 17वें राजा रामचंद्र मानसिंह का शासनकाल 1766 से 1774 तक रहा। उस समय दो बड़े-बड़े दुर्भिक्ष पड़े, जिसमें लाखों लोगों की जानें चली गयी। इनकी कोई संतान नहीं थी। उनके बाद राजा भागीरथी (1778-1846) को गोद लिया गया, जिन्होंने 1803 में अँग्रेज़ों के साथ संधि की। अपने शासन में तालचेर में जगन्नाथ मंदिर तथा बिजीगोल में रामचंद्र जी का मंदिर बनाया था। बीसवें राजा दयानिधि देव (1846-1873) धार्मिक पुस्तकों के गंभीर अध्येता थे। सन् 1847 में अंगुल विद्रोह को कुचलने में मदद करने के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘महेन्द्र बहादुर’ की उपाधि से नवाज़ा। 

इक्कीसवें राजा रामचंद्र देव (1873-1891) ने चौदह वर्ष की उम्र में (9 नवम्बर, 1873) शासन की बागडोर सँभाली। संस्कृत साहित्य से उन्हें काफ़ी लगाव था, उनके दरबार में संस्कृत के विद्वान नियुक्त थे। उन्होंने ‘भारत का संक्षिप्त इतिहास’ भी लिखा, जिसे ओड़िशा के कई वर्णाकुलर विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। उनके शासन के दौरान तालचेर में कचहरी, लेखा-विभाग, निजारत सदन, पुलिस स्टेशन, जेल आदि निर्मित हुए। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। सन् 1887 में रानी विक्टोरिया के सम्मान में विक्टोरिया हॉल सर्किट हाउस का भी निर्माण करवाया गया।” 

राजा रामचंद्र देव का नाम सुनते ही विक्रम ने कहा, “कविवर राधानाथ राय ने अपनी कविता ‘ऊषा’ लिखने से पूर्व राजा रामचंद्र देव की प्रशंसा की—‘मैंने ऐसा राजा अपने जीवन में कभी नहीं देखा, जिन्होंने इतने भिखारी और भूखों को खाना खिलाकर सेवा की हो।’, मगर अत्यंत दुख की बात है कि ये वरेण्य कवि मेरे समकालीन आराध्य अंध-कंध-संत कवि भीम भोई के व्यक्तित्व और कृतित्व का अपनी रचनाओं में कहीं उल्लेख नहीं करते हैं। आख़िर मेरी नज़रों में दरबारी कवि जो ठहरा।” 

विक्रम को निरुत्तर देखकर वेताल ने कहना जारी रखा, “मेरी बात ध्यान से सुन रहे हो न, विक्रम! तालचेर के बाइसवें राजा थे किशोरचंद्र देव। उनका शासनकाल 1891 से 1945 तक रहा। उनके प्राइवेट ट्यूटर थे बाबू राव किशोर पटनायक और क़ानूनी सलाहकार थे मधुसूदन दास। रेवेंसा कॉलेजिएट स्कूल, कटक से पढ़े किशोरचंद्र की शादी बामुण्डा के राजा वासुदेव सुढ़लदेव की चौथी कन्या सरस्वती से हुई। वे संगीत कला में निपुण थे। साथ ही फुटबॉल और क्रिकेट के अच्छा खिलाड़ी, घुड़दौड़ में प्रवीण, आखेट के शौक़ीन होने के साथ-साथ ओड़िया भाषा के लेखक भी थे। हर रविवार को लेखक-कवियों से संगोष्ठी करते थे। उन्होंने तालचेर में 1901 में ‘किशोर प्रेस’ की स्थापना की और 1903 में एक साप्ताहिक पत्र ‘गडजात वासिनी’ निकालना शुरू किया। सन् 1906 में उत्कल सम्मेलिनी के बालेश्वर अधिवेशन की अध्यक्षता की। सन् 1923 से 1934 तक ओड़िशा राज्य के राजकुमारों ‘चैम्बर ऑफ़ प्रिंसेज’ में मनोनीत सदस्य थे। वह रायपुर के ‘राजकुमार कॉलेज’ के निर्वाचित अध्यक्ष थे और आजीवन इस पद पर बने रहे। दिल्ली में जॉर्ज पंचम के सम्मान में 1912 में तालचेर में जॉर्ज अस्पताल का निर्माण करवाया और उसके बाद इंग्लिश हाईस्कूल, मिडिल गर्ल्स स्कूल, प्राथमिक विद्यालय, पंडितों के लिए संस्कृत एवं मुस्लिमों के लिए मुक्ताब विद्यालयों का निर्माण करवाया। उन्होंने ‘व्यवस्था परिषद’ का गठन किया, जिसमें आधे से अधिक सदस्य उनके द्वारा मनोनीत होते थे। राज्य के प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए 3 पार्षदों को भी नियुक्त किया, स्वयं उसके अध्यक्ष थे। तीन पार्षद थे दीवान बहादुर प्रमोद चंद्र देव (उपाध्यक्ष), बाबू जगन मोहन मिश्र और बाबू ब्रज बिहारी मोहंती। धार्मिक मामलों के निपटारे के लिए ‘धर्म अदालत’ चलती थी। मुख्य पुरोहित कपिलेश्वर पाटजोशी इसके प्रभारी थे। तालचेर में म्यून्सिपल सिस्टम तथा प्रत्येक गाँव में पंचायत प्रथा भी शुरू किया। तालचेर के सौंदर्यीकरण के लिए उन्होंने जगह-जगह पर गेट (दरवाजे) बनवाये। 64 वर्ग किलोमीटर में ‘राणी पार्क’ के रूप में प्राकृतिक अजायबघर भी बनवाया। इस पार्क के चारों तरफ़ दीवारें खींची गयीं। देश के कोने-कोने और विदेशों से जंगली जानवर और पशु-पक्षी मंगवाये गये। पार्क में फूल और फल वाले पेड़-पौधों की भरमार थी। आपने ‘हरित पट्टी’ का नाम सुना है?” विक्रम की ओर देखते हुए वेताल ने पूछा। 

“हाँ, हरित पट्टी, जिसे अंग्रेज़ी में ‘ग्रीन बेल्ट’ कहते हैं। मैंने केवल सुना ही नहीं, बल्कि राणी पार्क की हरित पट्टी देखी भी हैं।” विक्रम ने सिर ऊपर उठाते हुए उत्तर दिया, “यह पार्क हरित पट्टी का ही काम करता है। यह एक प्राकृतिक अजायबघर है, जो 64 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है और रॉयल पैलेस के पीछे है, जिसमें अलग-अलग क़िस्म के पशु-पक्षी रखे गये थे। भारत के विभिन्न प्रांतों तथा विदेशों—अफ़्रीका, जर्मनी से जानवरों को लाया गया था। चीता, तेंदुआ, भालू, लकड़बग्घा, ऊँट, बारहसिंघा, श्वेत हिरण आदि-आदि। कई लोग उनकी देखभाल में लगे रहते थे। उनके खाने की समुचित व्यवस्था होती थी। राजा, रॉयल फ़ैमिली के सदस्य, रॉयल विजिटर तथा शासकीय और विदेशी मेहमान ही पार्क देख सकते थे। दूसरी तरफ़ पक्षियों का अभ्यारण्य भी 9000 वर्गफीट क्षेत्र में फैला हुआ था। भारतीय प्रजाति के पक्षियों के अतिरिक्त चीन, जापान, जावा, मलाया से कबूतर, बतख, मोर संरक्षित थे। पूरे ओड़िशा में चिड़ियाघर बनाने का यह पहला प्रयास था।” 

राणी पार्क के बारे में विक्रम का ज्ञान देखकर वेताल हतप्रभ रह गया और उसके कंधों पर उछलते हुए ख़ुशी से कहने लगा, “हाँ, सही कह रहे हो। राणी पार्क के जंगली जानवरों को नज़दीक से देखने के लिए पार्क में सड़कें भी बनवायी गयी थीं। कई पुल, सड़कें बनाने के साथ-साथ अपनी राजधानी में पोस्ट एवं टेलीग्राफ ऑफ़िस भी खोला। उनके समय में कई कोयले की खदानें भी खुलना शुरू हो गयी थीं। हंडीधुआ, डेरा तथा देऊलबेरा (1921-1930) खदानों को उन्होंने मैसर्स विलिअर लिमिटेड, मद्रास, सदर्न मराठा रेल्वे तथा बंगाल नागपुर रेल्वे को लीज़ (पट्टे) पर दिया था। सन् 1911 में जिस समय उन्होंने पीएन बोस, जियोलॉजिस्ट तथा हरिशचंद्र राव, माइनिंग सर्वेयर को तालचेर कोयलांचल में अनुसंधान हेतु नियुक्त किया गया था, उस समय पुरंदर पाणी, राजगुरु वनमाली, सुदर्शन रथ आदि ब्राह्मणों ने विद्रोह किया था। राज्य के अन्य भागों में कोयला पहुँचने हेतु 1927 में कटक से तालचेर के लिए रेल्वे लाइन बिछायी गयी तथा बंगाल-नागपुर रेल्वे की शाखा खोली गयी। सन् 1923 में तालचेर पॉवर हाउस फील्डस में थर्मल बिजली पैदा होकर राजमहल और तालचेर के क़स्बे में पहुँचना शुरू हो गयी थी।” 

कणिहा ऑफ़िस में विक्रम ने किसी से सुना था कि शहीद बिका नाएक पवित्र मोहन प्रधान से बहुत प्रभावित थे तो वेताल से स्पष्टीकरण के लिए पूछा, “हे दिव्य-प्रेतात्मा! सच-सच बताना, उस समय आपके गुरु पवित्र मोहन प्रधान क्या कर रहे थे?” 

“वे उस समय राजा के घर पढ़ाने जाते थे, युवराज हाई स्कूल में अध्यापक थे। मगर उसके बावजूद गाँव आने के बाद लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करते थे। 1935 से गुप्त विप्लव कर रहे थे, और गाँधी-दर्शन और उनके व्यक्तित्व-कृतित्व से प्रभावित होकर 6 सितंबर 1938 को तालचेर प्रजामंडल की स्थापना की थी, ” कहते हुए वेताल अपने अतीत में खो गया, “मुझे याद है वह दिन जब मैंने अंगुल में गाँधी जी के पाँव छूए थे और कुछ वर्षों बाद पवित्र मोहन प्रधान की सभा में दर्शक बनकर गया था। उनके भाषणों ने मुझे मंत्र-मुग्ध कर दिया था और तबसे मैं उनके कहने पर कुछ भी करने के लिए तैयार था। तालचेर प्रजामंडल की स्थापना के पंद्रह दिन बाद ही मैं अँग्रेज़ों की गोली से शहीद हो गया। इस पर कभी विस्तार से चर्चा करूँगा।” 

विक्रम ने अपनी जिज्ञासा के समाधान हेतु वेताल से पूछा, “पवित्र मोहन प्रधान ने आजीवन शादी क्यों नहीं की?” 

“देश-प्रेम के ख़ातिर। उन्होंने आपने आपको देश की आज़ादी की लड़ाई में झोंक दिया था। इस वजह से उन्हें शादी करने का समय ही नहीं मिला था, मगर लोगों ने झूठी अफ़वाह फैला दी कि उन्हें राजकुमारी से एकतरफ़ा प्रेम हो गया था, इस वजह से उन्होंने शादी नहीं की थी,” वेताल ने उत्तर दिया। 

“फिर राजा किशोरचंद्र का देहावसान कब हुआ?” विक्रम ने अगला सवाल पूछा। 

“7 नवंबर, 1945 को उनका देहावसान हुआ। और उसके बाद तेइसवें राजा हृदयचंद्र (राजा किशोरचंद्र के वरिष्ठ पुत्र) ने प्रशासन की बागडोर 7 नवंबर, 1945 को सँभाली। 27 फरवरी, 1902 को उनका जन्म हुआ और पढ़ाई रेवेंसा कॉलेज से संपन्न हुई। अपने पिता के शासनकाल में राज्य में सत्र न्यायाधीश के पद पर रहे। वे ‘चैंबर ऑफ़ प्रिंस’ के सदस्य भी थे। एक अच्छे टेनिस प्लेयर और शूटर होने के साथ-साथ घुड़दौड़ में अव्वल स्थान प्राप्त करने के कारण उन्हें कई उत्कृष्ट ट्रॉफियाँ भी मिलीं। वे तालचेर के अंतिम शासक थे। उनके शासनकाल में 1 जनवरी, 1948 को तालचेर का ओड़िशा राज्य में विलय हो गया। 11 सितंबर, 1970 को उनका देहावसान हुआ। चौबीसवें राजा सौभाग्य चंद्र देव की शादी रानी मंजुश्री देवी (सरायकेला के नृपेन्द्र नारायण देव की पुत्री) से हुई। तालचेर के पचीसवें राजा साहब राजेन्द्र चंद्र देव हैं, जिससे आप अपने पत्रकार मित्र, प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिका ‘दुनिया इन दिनों’ के संपादक सुधीर सक्सेना के साथ 2019 में उनसे मिलने गए थे।” 

अभी तक विक्रम की गाड़ी अपने घर तक नहीं पहुँची थी, वेताल अभी-अभी उसके कंधों पर बैठा हुआ था। गाड़ी में बैठे स्टाफ़ और ड्राइवर, भले ही, उसे देख नहीं पा रहे थे, मगर विक्रम के हाव-भाव और बीच-बीच में उसके इधर-उधर ताँकने-झाँकने से उसे असहज अनुभव ज़रूर कर रहे थे। विक्रम ने अपने सहयात्रियों के साथ हिंगुला मंदिर के पास एक होटल में चाय-बिस्कुट का नाश्ता किया, तो वेताल ने उसे अच्छे मूड में देखकर कहना शुरू किया, “कितना बड़ा इतिहास था इसके पीछे, किस तरह एक व्यापारिक कंपनी ईस्ट इंडिया ने देखते-देखते पूरे भारत पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया और ओंडिशा में उनका राजत्व सन् 1803 से फैला। तालचेर के राजा भागीरथी बीरवर हरिचंदन ने ईस्ट इंडिया कंपनी के तत्कालीन कमिश्नर से ट्रीटी इंगेजमेंट पर उनके प्रति वफ़ादार रहने, 6715 कौड़ी प्रति वर्ष उन्हें भुगतान करने तथा अन्य कुछ शर्तों के साथ क़ुबूलनामा पर हस्ताक्षर किया। फिर 1894 में ब्रिटिश सरकार के वायसराय एवं गर्वनर जनरल एल्गिन ने राजा किशोर चंद्र बीरवर हरिचंदन को 1039 रुपए 10 आना और 5 पाई प्रतिवर्ष देने का निश्चय हुआ था, जिसमें यह भी तय हुआ था कि राजा प्रजा के साथ न्याय और अच्छा व्यवहार करेगा, उनका दमन नहीं करेगा। पॉलिटिकल एजेंट की बातों को मानेगा। जैसा कि मैंने तालचेर के इतिहास के बारे में विस्तार से बताया कि राजा किशोरचंद्र देव प्रगतिशील विचारधारा के होते हुए भी बहुत ही निर्मम और अत्याचारी थे। ओड़िशा के इतिहास में उसके अत्याचारों के अनेक क़िस्से दर्ज हैं, जिसमें से एक क़िस्सा सुनाता हूँ। एक दिन, तालचेर राजवाटी में राजा किशोरचंद्र देव अपने सिंहासन से उठकर हाथ में चाबुक हिलाते हुए उसके सामने बाँधकर लाए गए तीन किसानों पर गरज रहा था। 

“क्या हुआ, भागवतिआ साहू? इस बार आप महल की दीवार बनाने क्यों नहीं आए?” 

“घर में माँ-बेटे बीमार थे, हुज़ूर,” यह कहकर भागवतिआ ने अपना सिर नीचे झुका लिया। वह जानता था कि अगर उसने मुँह खोला तो राजा का साँप की तरह इधर-उधर हवा में घूमने वाला चाबुक उसके बदन को छलनी कर देगा। 

फिर राजा किशोर चंद्र ने दूसरे किसान की ओर इशारा किया और कहने लगा, “वृन्दावन, तुम्हें क्या हुआ था इस बार कि अभी तक चार आना का खजना जमा नहीं करवाया है? तुम्हारे गाँव कंसमुंडा वाले, ऐसे ही हरामख़ोर हैं। तुम्हारे गाँव के लिए सड़कें मैं बनवा रहा हूँ, तालाब खुदवा रहा हूँ, मगर आप लोग चार आने जितना न्यूनतम ‘खजना’ तक नहीं देते हो तो कैसे चलेगा यह राज-पाट?” 

यह कहकर राजा कुत्सित हँसी हँसने लगा। मगर उसकी आँखों में निर्ममता का ख़ून उतर आया था, मानो किसी ख़ूँख़ार शेर की तरह वह उस पर कभी भी झपट पड़ेगा। 

“हुज़ूर, इस बार खेत में हाथी और भालू आए थे। सारी फ़सल कुचल गए, इसलिए कुछ भी पैसा नहीं बच पाया। इधर मैं चार महीने से रानी पार्क में ‘बेठी’ पर काम कर रहा था और उधर जंगली जानवर खेत में घुसकर फ़सल रौंद रहे थे। क्या करता, हुज़ूर!” हाथ जोड़कर वृंदावन प्रधान राजा के सामने हकला-हकलाकर अपनी विवशता के बारे में बता रहा था। 

रस्सी से हाथ बाँधकर लाए हुए तीसरे किसान की ओर इशारा करते हुए राजा बिजिगोल गाँव के मुखिया सुदर्शन सामंत से पूछने लगा, “यह कौन है?” 

“वनमाली खटुआ, हुज़ूर! गाँव में अपने बेटे की शादी की है और रसद माँगने पर देने से इनकार कर रहा है।” 

“ओह!, अपने बेटे की शादी की है और हमें मालूम तक नहीं। बहू तो कमसिन और सुंदर होगी। राज्य की प्रथा भी भूल गया कि किसी भी नवविवाहिता की सुहागरात से पहले राजा के साथ मनाई जाती है, फिर बाक़ी रातें अपने पति के साथ,” कहते हुए राक्षसी अट्टाहास करने लगा वह नरपिशाच राजा। 

कुछ समय नीरव रहकर फिर से हंटर हिलाते हुए वह कहने लगा, “जब अपने बेटे की शादी कर रहा है तो घर में धन तो बहुत आया होगा। उस धन का हिस्सा देने में भी क्यों कंजूसी कर रहा है?” 

“इन तीनों हरामख़ोरों को राजवाटी में खूंटों से बाँध दो। ब्राह्मणी नदी के तट पर खड़ी प्रजा आज अपनी आँखों से देखेगी कि राजा को ‘बेठी’, “बेगारी’ पर काम करने से मना करने और ‘रसद’ नहीं देने वालों का अंजाम क्या होता है?” कहते हुए राजा ने अपने पुलिस और सिपाही की ओर इशारा करते हुए उन्हें वहाँ से ले जाने का आदेश दिया। कुछ ही समय बाद तीनों को राजवाटी के प्रांगण में खूंटों से बाँधकर राजपुलिस ने हिंसक जंगली जानवरों पर चाबुक चलाने की तरह उनके बदनों को चाबुक से दनादन मारकर लहूलुहान कर दिया। तालचेर के सारे गाँव वाले भगवतिया साहू, वृंदावन प्रधान और वनमाली खटुआ को मिली सज़ा से भयभीत हो गए थे और मन ही मन सोचने लगे कि उनके जैसी अवस्था तो हम सभी की है, इसलिए हमारी बारी कभी भी आ सकती है। यह सोचकर गाँव की चौपाल और भागवत टूँगी में लोग इकट्ठे होकर रोज़ की इस समस्या के समाधान के लिए चिंतन-मनन करने लगे कि क्या कोई हमें इस नर्क से मुक्ति दिलाने के लिए कृष्ण बनकर अवतार लेगा, जो कंस जैसे दुष्ट राजा का संहार कर सके। इसके लिए हम सभी को एक रहना होगा और साथ ही साथ, हमारी दुखती रगों पर नमक छिड़कने वाले राजा को हमेशा के लिए पदच्युत करना होगा। 
इतना कहकर वेताल चुप हो गया और विक्रम को कुछ बोलने का मौक़ा देते हुए कहने लगा, “अब तक की गाथा में आपको कुछ पूछना हैं?” 

“हाँ, मुझे यह पूछना है कि क्या गड़जात अंचल में केवल तालचेर का राजा ही अत्याचारी था? या प्रजा का भी कुछ दोष था? क्योंकि मैंने जितना इतिहास पढ़ा है, उसके अनुसार तो इतिहासज्ञ राजा किशोरचंद्र देव को दूरदर्शी और प्रगतिशील विचारधारा वाला राजा बताते हैं। ओड़िया में एक कहावत है, बगुले की चोंच बड़ी होने से मछलियों को दिक़्क़त होती हैं।” प्रत्युत्तर में विक्रम ने अपने मन की आशंका प्रकट की। 

वेताल बिका ने उसके बाएँ कंधे पर दबाव डालते हुए दीर्घ-श्वास ली और कहने लगा, “मैं जानता था कि अक्सर बुद्धिजीवियों के साथ तर्क-वितर्क-कुतर्क करने की अजब प्रवृति होती हैं। मैंने तो उस समय के समाज को जिया है, सारी घटनाओं का मूक-साक्षी रहा हूँ। ऐसी अवस्था में आपको, अपने किताबी ऐतिहासिक ज्ञान के आधार पर मुझ पर रंच मात्र भी अविश्वास नहीं करना चाहिए।” 

विक्रम कुछ बोलने ही जा रहा था कि वेताल ने अपने मुँह पर अंगुली रखते हुए चुप रहने का निर्देश दिया और अपनी बात जारी रखी, “यह केवल तालचेर के राजा की बात नहीं थी, इस अत्याचार से ग्रसित थे गड़जात क्षेत्र के सारे प्रांत जैसे तालचेर, पाललहड़ा, बणाई, रेढ़ाखोल, सुंदरगढ़, बामंड़ा, आठमल्लिक, हिंदोल, नयागड़, आठगड़, केंदुझर, खंडपड़ा, मयूरभंज, बड़ंबा, ढेंकानाल आदि—सभी के यही हाल थे। जहाँ बेठी, बेगारी, भेंट, मांगण और रसद जैसे अन्याय-अत्याचार सुरसा की तरह मुँह फैलाए हुए बढ़ते जा रहे थे—प्रजा को अपने बचने का एक ही उपाय नज़र आता था—’छोड़ पितृ कार्य, कर राजकार्य।” केवल राजा की ग़ुलामी के सिवाय उनके पास अपनी जान बचाने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। राजतन्त्र ने किसानों के जान की क़ीमत मच्छरों की जान से भी कम आँकी थी। मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि मध्य यूरोप में हो रहे किसानों पर अत्याचार की तुलना में ओड़िशा के गड़जात क्षेत्रों के किसानों पर राजा द्वारा ज़्यादा ज़ुल्म ढाए जा रहे थे। विक्रम, क्या आपको मेरे किसी कथन पर कोई टिप्पणी करनी हैं?” 

अपने सिर के बाल खुजलाते हुए विक्रम ने अपनी सहमति जताते हुए कहा, “शहीद बिका जी, आपके वर्णन-शैली से मैं स्तब्ध और अभिभूत हूँ। फिर भी मैं यहाँ कुछ कहना चाहूँगा कि आपके तालचेर के प्रजा-मण्डल के प्रवर्तक पवित्र मोहन प्रधान ने अपनी जीवनी ‘मुक्तिपथे सैनिक’ में विदेशों के किसानों का उदाहरण देते हुए लिखा है कि किसी अख़बार में हंगरी के किसान को राजा द्वारा दी गई फाँसी की ख़बर छपी थी कि राजा को लगान नहीं देने के कारण उसे मृत्युदंड की सज़ा सुनाई गई थी। फाँसी के तख़्ते पर झूलने से पहले उस किसान ने राजा से कुछ कहने की अनुमति चाही। अनुमति मिलने पर उसने कहा, ‘हुजूर सप्ताह में सात दिन होते हैं। जिसमें से चार दिन आपके खेतों में बिना पगार लिए (बेठी) पर काम करता हूँ। पाँचवें दिन, आपके लिए जंगली जानवर भालू, शेर, हाथी पकड़ने जाता हूँ। छठवें दिन, आपके लिए नदी किनारे मछली पकड़ने जाता हूँ और सातवें दिन मैं गिरिजाघर में उपासना करने जाता हूँ। अब बताइए, अब मुझे समय कहाँ से मिलेगा कि मैं अपने घर-परिवार का भरण-पोषण करूँ और फिर पैसे बचाकर आपकी लगान भर दूँ? खाने के बिना घर वाले अनाहार मृत्यु का शिकार हो रहे हैं। फिर लगान नहीं देने से आपके अधिकारी गाँव में आकर हमें और हमारे घरवालों को मारते-पीटते है। बेइज़्ज़त करते हैं, बहू-बेटियों से छेड़ख़ानी करते हैं। अच्छा हुआ कि आज आपने मुझे फाँसी की सज़ा सुना दी ताकि मैं चिर शान्ति को प्राप्त कर सकूँ। रोज़-रोज़ मार खाने की तुलना में तो मृत्यु-वरण करना ज़्यादा अच्छा है।’ इतना कहने के बाद भी राजा को दया नहीं आई और उसने किसान को फाँसी पर लटका दिया। यह तो हंगरी की घटना थी, मगर आप कह रहे हो कि ओड़िशा के तालचेर राज्य में तो हालात और ज़्यादा गंभीर थी, तो उस पर प्रकाश डालने का कष्ट करें।” 

विक्रम के मुँह से ‘कष्ट’ शब्द सुनकर वेताल ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। कुछ समय रुककर घड़ी की ओर देखते हुए कहने लगा, “कष्ट! महाकष्ट!! हमारे राजा हमें ही मार रहे थे, हमारा शोषण कर रहे थे तो मलेच्छ और फिरंगी लोगों से मदद की क्या उम्मीद की जा सकती थी! उस समय एक टके में चावल 30-40 सेर, दाल 20-22 सेर, तेल 5-6 सेर, गुड़ 30-32 सेर और घी डेढ़ सेर मिलता था। साग-सब्ज़ी तो कोई ख़रीदता नहीं था। कृषि-उत्पादों का मूल्य कुछ भी नहीं मिलता था। कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। तालचेर के राणी पार्क की 24 मील लंबी, 10 फ़ुट ऊँची, 35 इंच मोटी दीवार बनाने के लिए तालचेर की प्रजा ने पाँच-छह साल बेठी पर काम किया था, जिसमें मेरे पिताजी और मैं भी एक भुक्तभोगी था। यही नहीं, ढेकानाल शहर के नज़दीक पहाड़ पर बने ‘जतन नगर’ नामक महल, सिंचाई वाली नहर, देवगढ़, बामन्डा के ‘बसंत निवास’, ‘ललित निवास’, ‘डाक बंगला’, ‘कचहरी’ जैसे कई भवन अट्टालिकाएँ प्रजा के ख़ून-पसीने से बने हैं, उसके बाद भी प्रजा की सम्पत्ति और बहू-बेटियों पर कुदृष्टि डालना यहाँ के शोषक-शासकों की रोज़मर्रा की आदत बन गई थी।” 

इतना कहते हुए वेताल ने ऑफ़िस की घड़ी की ओर नज़र घुमाई। पश्चिम में सूरज अपना सप्तवर्णी रश्मि-पुंज समेटने लगा था। उसके अपने ताल के पेड़ की डाल वाले निवास-स्थान पर लौटने का समय हो रहा था। जाने से पूर्व उसने विक्रम की राय जाननी चाही और उसके लिए उसने संकेत करते हुए कहा, “क्या आपको लगता कि राजाओं के ज़माने में प्रजा के श्रम की कोई क़ीमत होती थी? अपने सारे काम मुफ़्त में करवाते थे और रजवाड़ों के विकास का श्रेय वहाँ के अय्याश राजा लेते थे। मैं सही कह रहा हूँ? हैं न?” 

“शहीद बिका जी, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। आपके इस सवाल ने मुझे गाँधी जी की याद दिला दी। सन् 1904 में गाँधीजी जोहान्सबर्ग से डरबन की यात्रा कर रहे थे। गाँधीजी को विदा करने के लिए जोहान्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर उनके दक्षिण अफ़्रीका से उनके मित्र हेनरी पोल्क आए थे। विदा देते समय हेनरी पोलक ने गाँधीजी को जॉन रस्किन द्वारा लिखित ‘अन टू द लास्ट’ नामक एक मूल्यवान और अद्भुत पुस्तक पढ़ने के लिए उपहार स्वरूप प्रदान की। ट्रेन में रात भर जागते हुए गाँधी जी ने एक ही बैठक में उसे पढ़ लिया था। जॉन रस्किन की इस पुस्तक में दर्शाए ‘श्रम का मूल्य', ‘सामाजिक कल्याण द्वारा सभी का मांगलिक उन्नयन’ आदि विचारों को व्यावहारिक अनुप्रयोग में लाने के लिए गाँधीजी दृढ़ संकल्पित थे, ताकि हमारे देश के राजाओं को प्रजा को बेठी-बेगारी पर काम नहीं करवाने पड़े। श्रमिकों को अपने श्रम का उचित मूल्य मिल सकें। 

शारीरिक श्रम की महत्ता और ‘समान समय के श्रम का समान पारिश्रमिक’ नीति को गाँधीजी के अर्थनैतिक चिंतन और सामाजिक समानता की दिशा में अन्यतम योगदान के बारे में विवेचना की जाती है। परवर्ती समय में, गाँधीजी ने अपने द्वारा स्थापित ‘फीनिक्स सेटलमेंट’ में इन सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप से अपने जीवन में लागू करने के लिए आश्रमवासियों को निर्देश दिए। इसके साथ ही इस पुस्तक की मार्मिक भावनाओं का ‘सर्वोदय’ नामक गुजराती पुस्तक में स्वयं गाँधीजी ने अनुसृजन किया था। रस्किन की पुस्तक उनकी चेतना के उन्नयन के लिए कितनी मूल्यवान थी, इस बारे में गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा के एक परिच्छेद में ‘एक पुस्तक का जादुई स्पर्श’ के रूप में उल्लेख किया है।” 

ऐसे इंसान के बारे में सुनकर वेताल बहुत ख़ुश हुआ, जिसके बारे में दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को विश्वास नहीं होगा कि कभी इस धरा पर किसी हड्डी-माँस वाले एक ऐसे इंसान ने जन्म लिया था; जिसने लोगों के शारीरिक श्रम की क़ीमत समझाकर असहयोग आंदोलन की नींव डाली थीं। 

आकाश में सूरज की लालिमा ख़त्म होते-होते चाँद दिखने से पूर्व ही वेताल ने हिंगुला मंदिर के चौक पर विक्रम से विदा ली और अगले दिन चन्द्रबिल के उसी ताल के पेड़ के नीचे मिलने का वचन दिया। 

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