शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
अध्याय—6
विक्रम अगले दिन जब उस ताड़ के पेड़ के नीचे से गुज़रा तो उसकी डाली से लटका हुआ वेताल नज़र नहीं आया। मन ही मन वह सोचने लगा कि कहाँ चला गया वह? क्या उसकी प्रेत योनि से मुक्ति हो गई? मुझे अपनी सारी वीर गाथा सुनाने से उसका मन हल्का हो गया होगा और वह हमेशा के लिए अनंत में विलीन हो गया या क्या कहीं उसके प्रारब्ध पूरे हो गए होंगे और उसे नया जन्म मिल गया होगा। तरह-तरह की आशंकाएँ उसके मन में उठने लगीं थी, तभी उसने सामने से देखा कि एक हाथ से गाय की पूँछ पकड़कर अपना दूसरा हाथ हिलाते हुए हिलते-डुलते उसकी तरफ़ आ रहा था, मानो वह कोई वैतरणी नदी पार कर रहा हो। “कहाँ गए थे?” पूछने से पहले ही वेताल ने कहा, “आज मैं बड़त्रिबिड़ा का स्कूल देखने गया था। उसके नाम-फलक पर कभी मेरा नाम अंकित हुआ करता था। इसलिए उधर जाने के लिए मेरा मन हुआ।”
“एक बात बताओ, वेताल जी! क्या मरने के बाद भी इच्छा होती है कुछ मान-सम्मान पाने की या मरने के बाद यश-अपयश अन्त्येष्टि की आग के साथ जलकर स्वाहा हो जाता है?” विक्रम ने मज़ाक़ के लहजे में पूछा।
“अरे! आप ग़ज़ब बात कर रहे हो! मैं मरा कहाँ हूँ! जहाँ आसक्ति होती हैं, वहाँ मेरा मन चला जाता है। भटक रहा हूँ, तीव्र इच्छा लिए, जिस देश के लिए मैंने प्राण दिए, आज भी वह अदृश्य रूप से ग़ुलाम हैं। जातिवाद से, भ्रष्टाचार से। उनकी मुक्ति से ही मुझे मोक्ष मिलेगा और मेरी सही अर्थों में मृत्यु होगी। मुझे नया जीवन मिलेगा, इसी चन्द्रबिल में, नए भारत के प्रांगण में।” कहते हुए वेताल ने गाय की पूँछ छोड़कर बंदर की तरह छलाँग लगाते हुए विक्रम के कंधे पर आ बैठा और उसके कान को खुजलाते हुए कहने लगा, “बताओ, दोस्त! और कुछ जानना चाहते हो? या फिर अपनी गाथा का इतिश्री किया जाए।”
“मित्र! बहुत युगों बाद तो हम मिले हैं इस धरती पर, विक्रम और वेताल बनकर। नई ‘वेताल बत्तीसी’ लिखेंगे। अभी तो शुरूआत हुई हैं। अभिनव विक्रम-वेताल की शृंखला बाक़ी है। बहुत कुछ लिखना है। मुझे लगता है कि मेरा स्थानांतरण भी कणिहा में शायद तुमसे मिलने के लिए ही हुआ होगा।” प्यार भरे लहजे से विक्रम ने वेताल की टुड्डी पर हाथ लगाते हुए कहा, “आज आप अपने गुरु पवित्र मोहन प्रधान के बारे में सुनाओ।”
“यह गाथा मैं आपको उनके गाँव पोईपाल में सुनाऊँगा। उनकी जन्म-भूमि में पोईपाल चलिए,” वेताल ने विक्रम से अनुनय की मुद्रा में हाथ जोड़ते हुए कहा।
आधे घंटे में वे पोईपाल की धरती पर थे। सामने बनी हुई थी पवित्र मोहन प्रधान जी की आदम-क़द प्रस्तर प्रतिमा। आस-पास घूम रहे थे गायों के झुंड। इधर-उधर गोबर के कंडे रखे हुए थे। ज़मीन पर यहाँ-वहाँ गीला गोबर भी बिखरा हुआ था। पूरी तरह से ग्राम्य-अँचल लग रहा था। पवित्र बाबू ने शादी नहीं की थी, इसलिए वहाँ पर उनके अपने वंशज नहीं थे। एक घर की ओर इशारा करते हुए कहने लगा वेताल, “इस घर में रहते थे पवित्र बाबू। अब सुनिए, मेरे शहीद होने के बाद 8 नवंबर 1938 मुझे अच्छी तरह याद है। पवित्र बाबू के गाँव पोईपाल से 25 लोगों ने अपने घर-बाड़ी की मोह-माया त्यागकर अपने पालतू मवेशियों के साथ अंगुल के कोशला गाँव की ओर चले गए थे, जहाँ प्रजामंडल का मुख्यालय था। कोशलावासियों ने उनका तहे दिल से स्वागत किया था और उनके रहने और खाने-पीने की व्यवस्था की थी। इस गाथा में जहाँ भी मैं ‘हम’ का प्रयोग करूँगा तो आप उसे समझना मेरे सभी समकालीन लोगों के बारे में कह रहा हूँ, क्योंकि मेरे पार्थिव शरीर का तो देहावसान हो चुका है।
जैसा कि मैं कई बार बता चुका हूँ कि हमारे प्रजा-मंडल का मुख्य आर्दश था गाँधीवाद। गाँधी जी की अहिंसा, सत्य-नीति से सत्याग्रह, फिर असहयोग फिर राजत्याग और अंत में, सर्वस्व त्याग। हमारी प्रजा ने ऐसा ही किया था। यह देखकर गाँधी जी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी तरफ़ से ठक्कर बापा को भेजा उन शरणार्थी कैंपों में लोगों की सुध-बुध लेने के लिए, उन्हें देखने के लिए और अँग्रेज़ों की ओर से एसिस्टेंट पॉलिटिकल एजेंट मि. हेनेसी ने संबलपुर से अपना ऑफ़िस उन कैंपों के पास स्थानांतरित किया था।
गाँधी जी के ओड़िशा प्रतिनिधि डॉ. महताब का मार्गदर्शन भी हमें मिल रहा था। यह घटना पूरे भारतवर्ष के अख़बारों में छा गई, जिस वजह से राजा और ब्रिटिश पार्लियामेंट की सदस्या मिस अगाथा हैरिसन को शिविरों में शरणार्थियों को समझा-बुझाकर उन्हें अपने घर लौटने के लिए प्रेरित करने हेतु यहाँ आकर चार महीनों तक रुकना पड़ा था।
अंगुल के कलंडापाल के कवि राधामोहन गड़नायक नियमित कोशला समेत सभी शिविरों में जाते थे और उन शरणार्थियों के दुखों पर अपनी संवेदना जताते थे। उनके बुझे दिलों में नव-उत्साह संचारित करने के लिए उन्होंने एक कविता लिखी थी, ‘बजाएँगे आज मानवता का जयशंख’। सभी शरणार्थी शिविरों में प्रार्थना के बाद सैकड़ों लोग इस गीत को समवेत स्वर में गाते थे, जो आगे जाकर प्रजामंडल का राष्ट्रीय गीत बना। यह दृश्य जिन आँखों ने देखा होगा, वे आँखें धन्य हैं। यह गीत इस प्रकार था:
“बजाएँगे आज मानवता का जयशंख
राज्य छोड़कर किया हमने पलायन
भीरु सोच रहे होंगे हमें बाक़ी जन
नहीं हमें चिंता, मगर अपने प्राणधन
हम सभी बजाएँगे आज
मानवता का जयशंख
नहीं हमें चिंता अपने प्राणधन
मनुष्य जहाँ धर रहा पिशाच बदन
अपने क़दमों से दबा रहा दूसरों की गर्दन
वहाँ कैसे बनाएँगे घर
इससे सौ गुना बेहतर
यह हाड़ कँपाती शीत काकर
यह खुला तरुतल।
जितने दिनों तक होगा अत्याचार
जब तक नहीं होगा सुविचार
पड़े रहेंगे यहीं पर
नहीं लौटेंगे घर
नहीं लौटेंगे घर
नहीं लौटेंगे कभी घर।”
राधा मोहन गड़नायक की ‘बजाएँगे आज मानवता का जयशंख’ कविता सुनकर विक्रम का कवि-मन चंचल हो उठा और वह सोचने लगा कि आपदा-विपदा के समय में वीर रस वाले गीत मनुज मन को धीरज देने में अवश्य सफल सिद्ध होते हैं। अंगुल के कलंडापाल के कवि राधा मोहन गड़नायक के बारे में विक्रम को कम जानकारी थी, इसलिए उसने वेताल से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में बताने का अनुरोध किया, “मैंने राधा मोहन गड़नायक का नाम सुना अवश्य है, मगर उनके बारे में मुझे कोई ख़ास जानकारी नहीं है। और आप तो ठहरे त्रिकालदर्शी, क्या उनके बारे में कुछ प्रकाश डालने का कष्ट करेंगे।”
त्रिकालदर्शी की उपमा देने पर वेताल पहले ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। फिर कहने लगा, “राधा मोहन गड़नायक ओड़िशा के बहुआयामी प्रतिभाशाली कवि थे, इसलिए उन्हें किसी भी विशिष्ट वर्ग में बाँटकर नहीं देखा जा सकता। एक तरफ़ वह रोमांटिक कवि है तो दूसरी तरफ़ क्लासिक, एक तरफ़ गाथा कवि है तो दूसरी तरफ़ गीति कवि, एक तरफ़ छंदमुक्त कविताएँ लिखते हैं, तो दूसरी तरफ़ छंदबद्ध। उनकी अधिकांश कविताओं में तीव्र कल्पना शक्ति और प्रबल मनोवेगों के कारण उन्हें उच्च कोटि का रोमांटिक कवि कहा जाए तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यही नहीं, गाथा कविता में भी उनका कोई सानी नहीं है। विषय-वस्तु की विविधता, नाटकीयता, भाषा-शैली और नए-नए छंदों का प्रयोग कर गाथा कविता में भी प्राण फूँक दिए हैं। देखा जाए तो गाथा कविता वस्तुनिष्ठ और वैयक्तिक होती है, जबकि गीति कविता अंतरंग और आत्माभिव्यक्ति से भरपूर। राधामोहन जी की दोनों प्रकार की कविताओं में ये गुण देखने को मिलते हैं। उनकी मुख्य कृतियों में मेघदूत (1931), विप्लवी राधानाथ (1938), काव्यनायिका (1943), उत्कलिका (1945), स्मरिणका (1950), मौसूमी (1951), दूइटि ताहार डेना (1954), पशु पक्षीर काव्य (1959), धूसर भूमिका (1960), कुमार सम्भव (1960), शामुकार स्वप्न (1961), कौशोरिक, दीपशिखा आदि प्रमुख हैं।” उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते-डालते वेताल ने सिर पर हाथ रखकर कहा, “अरे! मैं तो यह भूल ही गया था कि राधामोहन गड़नायक को कविता-संग्रह ‘सूर्य और अंधकार’ पर केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार, ओड़िशा साहित्य अकादमी का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘अतिबाड़ी जगन्नाथ सम्मान’ के अतिरिक्त भारत सरकार के पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। सच में, अंगुल वरेण्य कवियों की धरती है।”
“कवि राधा मोहन गड़नायक के बारे में जानकर मुझे अत्यंत हर्ष हुआ। कणिहा खुली खदान के बुज़ुर्ग कर्मचारी आज भी बताते हैं कि यहाँ की प्रसिद्ध हिंगुला यात्रा की शुरूआत शरणार्थियों ने की थी। क्या यह बात सही है?” विक्रम ने बातचीत को नया मोड़ देते हुए अगला प्रश्न किया।
“बिल्कुल सही बात हैं कि हिंगुला यात्रा भी इन शिविर वालों ने शुरू की थी। जब राजा ने मार्च महीने में हुई महताब-हेनसी समझौते की शर्तों को नहीं माना तो कोशलावासियों और शरणार्थियों ने 3 अप्रैल 1939 को गोपाल प्रसाद के पास सिंगड़ा नदी के पास खुले पड़े हुए कोयले के ढेर में से कुछ बोरे भरकर बैलगाड़ी में लादकर हिंगुला मंदिर के बाहर जलाकर सभी ने हिंगुला माँ के समक्ष क़सम खाई थी कि हे माँ! जब तक तुम हमारी माँगें पूरी नहीं करोगी; भले ही, हम मर जाएँगे, मगर अपने घर तालचेर कभी नहीं जाएँगे। उस दिन से आज तक उनके सम्मानार्थ कोशला गाँव में हिंगुला यात्रा अनवरत होती आ रही है।” वेताल ने गंभीरता से उत्तर दिया।
“नए-नए तथ्य जानकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। मगर एक बात जानने के लिए अति आतुर हूँ कि आपकी शहादत का तालचेर के राजा पर क्या कोई प्रभाव पड़ा? क्या वह प्रजा के सामने झुका या ऐसे ही अड़ियल बना रहा? इसके बारे में आपने अभी तक कुछ नहीं बताया।” विक्रम ने इस बार वेताल को साहित्य और संस्कृति पर हो रही चर्चा की तरफ़ मोड़ने के लिए बाध्य किया।
स्थितप्रज्ञ भाव से वेताल कहने लगा, “शुरू-शुरू में तालचेर का राजा अड़ियल बना रहा, मगर बाद में उसे झुकना ही पड़ा। आख़िरकार महात्मा गाँधी के सत्याग्रह के परीक्षित नुस्ख़े पर प्रजा आंदोलन कर रही थी। 1 मई 1939 को तालचेर दरबार में एक बैठक आयोजित की गई थी। इस बैठक में, राजा किशोर चंद्र वीरबर हरिचंदन, शासक, सी. एस. सिर्ले (राजनैतिक एजेंट), राय साहब एम. ऐन. बसु (कटक के कलेक्टर), कांग्रेस कमेटी के सदस्य हरेकृष्ण महताब और शरणार्थी शिविरों के 7 प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। जिसमें राजा ने यह घोषणापत्र जारी किया, जिसे तुरंत तालचेर के राज्य राजपत्र में प्रकाशित किया गया, मगर राजा ने उसे नहीं मानकर प्रजा को धोखा दिया।” वेताल अभी और कुछ कहने ही जा रहा था कि बीच में टोकते हुए विक्रम ने पूछ लिया, “उस घोषणा पत्र की मुख्य शर्तें क्या थीं?”
वेताल ने प्रत्युत्तर में कहा, “मैं आपको बताने ही जा रहा था, मगर आपने बीच में ही मेरी बात काट दी। यह विक्रम-वेताल के निर्धारित संवाद प्रणाली के अनुरूप नहीं है। इस घोषणा-पत्र में कहा गया था कि राज्य लोगों की न्यायसंगत कठिनाइयों को दूर करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। वर्तमान समय में कुछ अराजक तत्वों ने अहिंसा की आड़ में हिंसा और भ्रष्टाचार फैलाया है, राज्य की शान्ति भंग की है। पान, गुड़ाखू (दंत गोंद), तम्बाकू, नमक, केरोसिन, नारियल, बेंत, सोडा और साबुन से पट्टा उठा दिया गया है। धार्मिक शुल्क माफ़ कर दिया गया है। सामाजिक एवं धार्मिक विवादों की स्थिति में लोग अपनी इच्छानुसार धर्म कोट, पंचायत अथवा दीवानी न्यायालय की शरण ले सकते हैं। बेठी या गैर-भुगतान प्रथा हटा दी गई है। घर लौटने वाले शरणार्थियों के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाएगा, उन्हें किसी भी प्रकार की यातना नहीं दी जाएगी। जिनके ख़िलाफ़ प्रत्यार्पण का वारंट जारी किया गया है, उन्हें माफ़ कर दिया जाएगा और रिहा कर दिया जाएगा। शासन सुधार हेतु लोगों को प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन में भाग लेने का अधिकार दिया गया है। सभा या भाषण पर कोई रोक नहीं होगी, बशर्ते कि यह वैध हो और इसमें राजा, शाही परिवार या सरकार के ख़िलाफ़ कोई देशद्रोही या प्रतिक्रियावादी भाषण न हो। लोगों को अपने खेतों में फ़सलों को बचाने के लिए जंगली जानवरों को मारने का अधिकार है, आदि-आदि।”
“यह घोषणा पत्र सही लग रहा है, मगर यह समझ में नहीं आया कि इस घोषणा पत्र में राजा ने किस तरह प्रजा के साथ धोखा किया?” जानने के लिए विक्रम ने अपनी जेब से क़लम निकालते हुए कहा, मानो वह जैसे कोई ख़ास बिन्दु नोट करने जा रहा हो।
“धोखा ऐसे हुआ कि 1 मई, 1939 को तालचेर दरबार ने यह घोषणा-पत्र जारी किया था, लेकिन इसमें हेनसी-महताब समझौते का उल्लेख नहीं था। सभी को आश्चर्य हुआ कि इस बार पहले के वादों और रियायतों का ज़िक्र नहीं किया गया, जिसके परिणामस्वरूप समझौता विफल हो गया। राजा ने राजनैतिक विभाग से सहायता माँगी। ओड़िशा सरकार उनसे नाख़ुश थी, क्योंकि उन्होंने समझौते की सभी संभावनाओं को नष्ट कर दिया था।” वेताल ने विक्रम की ओर देखते हुए कहा, “फिर इस संदर्भ में बनारस जाते हुए 9 मई, 1939 को महात्मा गाँधी ने लॉर्ड लिनलिथगो को पत्र लिखा था कि जब आप छुट्टियों की यात्रा पर थे तो मैंने जानबूझकर आपको असुविधा पहुँचानी नहीं चाही। तालचेर की स्थिति विश्लेषण लायक़ नहीं है। पहले दिन ठीक होने की आशा होने लगती है, मगर दूसरे दिन टुकड़े-टुकड़े हो जाती है। अब राजा अपने वचन से मुकर गया है, जबकि ये वचन संप्रभु सत्ता के प्रतिनिधि द्वारा दिए गए है। मुझे विश्वास है आपके हस्तक्षेप से, बारिश शुरू होने से पहले, तालचेर के लोगों की घर वापसी हो जाएगी और उन्हें अपनी परेशानियों से मुक्ति मिल जाएगी।”
विक्रम ने वेताल की ओर तिरछी निगाहों से देखते हुए पूछा, “गाँधी के लॉर्ड लिनलिथगो को लिखे पत्र पर इस आंदोलन पर क्या प्रभाव पड़ा?”
“जैसे कि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि कांग्रेस ने प्रजामंडल आंदोलन का पुरज़ोर समर्थन किया। ओड़िशा सरकार ने प्रतिशोधात्मक 12 मई 1939 को प्रत्यर्पण वारंट वापस ले लिया और 12 राजनैतिक क़ैदियों को रिहा कर दिया, जिनमें तालचेर प्रजामंडल के सचिव दासरथी पाणि भी शामिल थे, जो लगभग छह महीने से कटक जेल में क़ैद थे। और तो और, वायसराय लॉज, शिमला से 15 मई, 1939 को लॉर्ड लिनलिथगो ने महात्मा गाँधी को पत्र लिखा था, कि ‘मैं तालचेर पर भी कड़ी नज़र रख रहा हूँ और मुझे उम्मीद है कि समस्या जल्द ही हल हो जाएगी।” जिसका आनंद भवन, राजकोट से 23/24 मई, 1939 को महात्मा गाँधी ने जवाब दिया था कि ‘मैं तालचेर के बारे में कहना चाहूँगा कि श्री हरेकृष्ण महताब द्वारा प्रस्तुत और मिस अगाथा हैरिसन और अन्य द्वारा दिए गए सभी साक्ष्य यह दर्शाते हैं कि मेजर हेनेसी राजा और उसके अधिकारियों के साथ काम कर रहे थे। लेकिन फिर भी मुझे उम्मीद है कि ग़रीब किसानों को अब ज़्यादा परेशानी नहीं झेलनी पड़ेगी।’ वेताल ने तत्कालीन राजनैतिक परिदृश्य पर प्रकाश डालते हुए विरोधाभाषी तथ्यों की ओर ध्यान आकर्षित किया कि तालचेर के राजा ने राज्य के भीतर अशान्ति और अराजकता का मुक़ाबला करने के लिए अपने पुलिस बल में भी वृद्धि करनी शुरू कर दी थी।
“कैसा विरोधाभास? समझा नहीं,” प्रत्युत्तर में विक्रम ने पूछा।
“तालचेर के प्रजामंडल आंदोलन के सारथी हरेकृष्ण महताब ने अपनी आत्म-कथा ‘साधनार पथे’ में इस घटना की संक्षेप में चर्चा की है कि राजा कुछ हद तक सतर्क थे और उन्होंने अपने समर्थन के लिए ‘नरेंद्र मंडली’ या ‘एसोसिएशन ऑफ़ किंग्स’ से अपील की और उन्हें भारतीय मूल के शासकों के नैतिक समर्थन और मदद की उम्मीद थी। राजा अपने निर्णय पर अटल रहे और जनता की माँगों के विरुद्ध अपने निर्णय से पीछे नहीं हटना चाहते थे। उस समय उनका मानना था कि तालचेर के लोग राज्य से बाहर रहने के कारण मानसिक रूप से थक चुके हैं और दोबारा बाहर नहीं जाना चाहेंगे। जेठ महीना आधा बीत चुका था और आगे की खेती के लिए बहुत कम समय बचा था। इसलिए राजा का मानना था कि शरणार्थी अपनी खेती के लिए अपने गाँवों में लौट आएँगे, अन्यथा वे इस वर्ष की फ़सल खो देंगे। राजा को अपने ऊपर पूरा भरोसा था। अपने प्रशासन की मदद से, अनुगोल में कुछ साहूकारों को शरणार्थी शिविरों में चालाकी से उनके बीच कलह पैदा करने के लिए भेजा गया था। वे शरणार्थियों को अपने घरों में लौटने के लिए मजबूर करने लगे। इन एजेंटों ने शरणार्थियों को पवित्र मोहन प्रधान और उनके नेताओं या कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ भड़काया।” वेताल ने सविस्तार से इस विरोधाभास के कारणों पर दृष्टिपात किया और उसके अनछूए पहलू पर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि “प्रजामंडल द्वारा राजा के प्रस्ताव को अस्वीकार करने का कारण यह था कि इसमें बेठी एवं व्यवस्था परिषद् पर स्पष्ट लिखा हुआ नहीं था। सीएफ़ एंड्रूज ने तालचेर के शासक द्वारा दिया गया खुला धोखा कहा। वास्तव में, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने पहले ही एक सम्मेलन में जबरन श्रम को समाप्त कर दिया था और उसमें भारत सरकार की सहमति थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा बार-बार घोषणा करने के बावजूद भी शरणार्थियों का मानना था कि घोषणा निश्चित रूप से लागू नहीं होगी।”
“जैसा कि आप कह रहे हो कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने जबरन श्रम को जल्दी समाप्त करने पर ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाला, तब जाकर तालचेर राज्य को घुटने टेकने पड़े?” अभी भी विक्रम ऊहापोह की स्थिति में था। यह देखकर वेताल ने स्पष्ट किया कि “तालचेर राजा, जो इतने लंबे समय से लोगों की माँगों को नज़रअंदाज़ कर रहा था, उसे कुछ माँगों को पूरा करना था, हालाँकि सभी माँगें नहीं। राजा के आंतरिक समर्थन और जनता की पीड़ा के लिए ब्रिटिश प्रशासन को खुले तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया गया और विभिन्न दबावों के आगे झुकते हुए प्रशासन ने राजा से सुलह की शर्तों को स्वीकार करने के लिए कहा। कोई अन्य विकल्प न होने पर, सैन्य ख़ुफ़िया शाखा के प्रमुख मेजर स्टीफेंसन ने मदद के लिए वायसराय के सामने तथ्य प्रस्तुत किये। गाँधीजी ‘हरिजन’ में वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो को पत्र लिख रहे थे। सैन्य ख़ुफ़िया सी. स. सीलर्क की रिपोर्ट के आधार पर, राजनीतिक एजेंट को 24 घंटे के भीतर स्थानांतरित कर दिया गया, जिससे राजा दबाव में आ गया था।”
“फिर क्या प्रजामंडल के नेताओं और राजा के बीच किसी तरह की कोई सुलह हुई?” विक्रम ने शांत भाव से पूछा।
“नहीं, मगर सुलह के लिए कुछ तरीक़े खोजे जा रहे थे। इधर पवित्र मोहन प्रधान कह रहे थे कि तालचेर के प्रत्येक गाँव के प्रत्येक परिवार ने प्रतिज्ञा की है कि वे अपनी सभी माँगों को पूरा किए बिना राज्य में लौटने के बजाय भूख से मर जाना पसंद करेंगे, उधर नित्यानंद कानूनगो और गोपबंधु चौधरी जैसे ओड़िशा के कांग्रेस नेता शरणार्थी शिविरों का दौरा कर रहे थे और शरणार्थियों को अपने राज्य में वापस नहीं आने के अपने संकल्प की पुष्टि कर रहे थे। इसलिए, सरकार के सामने एक प्रस्ताव रखा गया कि चूँकि शरणार्थी वापस लौटने के लिए अनिच्छुक थे, इसलिए उन्हें अंगुल में ज़मीन दे दी जाए और उन्हें वहाँ स्थायी रूप से बसने की अनुमति दी जाए।” वेताल ने तत्कालीन सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत किया।
विक्रम ने शरणार्थियों को अंगुल में ज़मीन देकर उन्हें वहाँ स्थायी रूप से बसाने वाले सुझाव पर सहमति जताते हुए कहा, “वेताल भाई, मुझे सरकार के सामने रखा गया यह प्रस्ताव सही लगा।”
वेताल ने गर्दन हिलाते हुए असहमति जताई, “यह सुझाव इतना व्यवहारिक नहीं था क्योंकि इस शरणार्थी समस्या ने तालचेर के लोगों के साथ हुए अन्याय के ख़िलाफ़ जनमत तैयार किया। देश के नेताओं ने राजा के प्रतिक्रियावादी एवं साम्राज्यवादी रवैये पर असंतोष व्यक्त किया। उन्होंने तालचेर में तत्काल समाधान के लिए मामले को ब्रिटिश सरकार के पास भेज दिया। ओड़िशा के प्रधानमंत्री विश्वनाथ दास ने शिमला में महारानी के प्रतिनिधि वायसराय और राजनीतिक सलाहकार सर बर्टलैंड ग्लैंसी से मुलाक़ात की और तालचेर की स्थिति से अवगत कराया। सर बर्टलैंड ने ओड़िशा के प्रधान मंत्री को आश्वासन दिया कि प्रजा की शिकायतों को राजनैतिक विभाग द्वारा नज़रअंदाज़ नहीं किया जाएगा। इसके अलावा, गाँधीजी के पत्र अँग्रेज़ सरकार की चूलें हिला रहे थे। गाँधी जी ने निडरता से जहाँ अपने आलेख ‘ट्रेजेडी ऑफ़ तालचेर’ में एक्सिसटेंट पॉलिटिकल एजेंन्ट मेजर हेनसे और तालचेर राजा के बीच हुए पैक्ट-जिसमें सेस घटाने, जीवन उपयोगी आवश्यक वस्तुओं की मोनोपॉली ख़त्म करने, बेठी-बेगारी और विशेष करों के उन्मूलन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संवैधानिक, सुधारों, बिना पैनेल्टी दिए जंगली जानवरों को मारने आदि शर्तें रखी थी—को मानने से इंकार करने का उल्लेख किया था, वहीं राजा के साथ अंग्रेज़ी सरकार के ‘सनद’ प्रावधानों में—राज्य में अपराधों को ख़त्म करने, निष्पक्ष और उचित न्याय देने, अपने राज्य के अधिवासियों के लिए कल्याणकारी कार्य करने और वायसरॉय की तरफ़ से नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट की सलाह मानने जैसे प्रावधानों का ज़िक्र किया गया था। उचित शरण और भोजन नहीं मिलने के कारण तालचेर के लोगों की ज़िन्दगी ख़तरों से जूझ रही थी। गाँधी जी के शब्दों में, इतिहास में यह बहुत बड़ा मानवीय अपराध था।
गाँधी जी ने अपने अख़बार ’हरिजन’ में अपने आलेख ’ट्रेजेडी ऑफ़ तालचेर’ में ’सनद’ के प्रावधानों का राजा द्वारा उल्लंघन किए जाने की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। कोशला में पलायनवादियों की जाँच के लिए जब इन्क्वायरी कमेटी आई थी तो उसमें यह स्पष्ट लिखा गया था कि शासक राजा, शासक का बड़ा पुत्र सेशन जज, छोटा पुत्र पट्टायत साहब-मजिस्ट्रेट एवं समस्त विभाग नियंत्रण अधिकारी एवं राजस्व अधिकारी, शासक का भाई राजस्व अधिकारी, अन्य दूसरे भाई तहसीलदार, मुख्य पुलिस अधिकारी, आबकारी अधिकारी आदि बने हुए थे, भले ही, वे पढ़े-लिखे हों या नहीं। राजाओं के पास डोम (हरिजन) जाति का दल होता था, जिसका काम होता था लोगों को तड़पा-तड़पाकर मारना। उसके द्वारा किसी के मुँह पर थूकना ‘थर्ड डिग्री टार्चर’ माना जाता था। राजा कभी भी स्टेट मैनुअल के अनुसार शासन नहीं चलाता था। मैनुअल में शादी की फ़ीस, धार्मिक शुल्क, अनादेय बाध्यता मूलक श्रम नहीं लिखे हुए थे। तरह-तरह के टैक्स लगाए गए थे। विवाह शुल्क, पुनः विवाह शुल्क, विधवा विवाह शुल्क, बाल्य विवाह शुल्क, व्रतोपनयन शुल्क, मृत्यु समारोह शुल्क, गोवध के लिए प्रायश्चित्त शुल्क के अतिरिक्त रसद यानी कुछ धन देने के साथ-साथ चावल, घी आदि देना भी शामिल था। विधवाओं से सोना-चाँदी लूटने पर भी उन्हें संतुष्टि नहीं मिलती थी। किसान ज़मीन पर लगान देते थे, मगर ज़मीन पर उनका कोई अधिकार नहीं था। इतना कुछ करने के बाद भी, सत्याग्रहियों को जेल में बुरी तरह पीटने के बाद हाथों पर ’निमक हराम’ लिखना भी एक बहुत बड़ी त्रासदी थी। ओड़िशा के प्रधानमंत्री विश्वनाथ दास ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को उनके अंगुल दौरे के दौरान इस सारी घटनाओं से अवगत कराया था।” कहकर वेताल ने दीर्घ साँस ली और कुछ देर रुकने के बाद कहने लगा, “20 मई, 1939 को राजकोट से महात्मा गाँधी ने अगाथा हैरिसन को पत्र लिखा कि ‘फ़ेडरेशन के बारे में मुझसे ज़्यादा उम्मीदें न रखें। मेरे और सुभाष के काम करने के तरीक़ों में फ़र्क़ है। व्यक्तिगत तौर पर युद्ध की स्थिति में हिस्सा न लूँगा, मगर कांग्रेस के बारे में नहीं कह सकता हूँ। शायद आपको पता होगा कि तालचेर का बुरा हाल हो रहा है। चार्ली को कष्ट नहीं तो दुख ज़रूर हो रहा होगा। धोखा हुआ है। हम सभी आशा करते हैं कि वायसराय इसे सुचारु रूप से देखेंगे।” राजा और राजनैतिक विभाग ने चतुराई से संधि से बचने की कोशिश की और इसके कार्यान्वयन में देरी की। अतः गाँधीजी ने 20-5-1939 की ‘हरिजन’ पत्रिका में हरेकृष्ण महताब का लेख 'कन्फ्यूजन ओर्स कॉम्प्लिकेटेड' प्रकाशित किया और अपनी कटु आलोचना व्यक्त की। यही नहीं, तालचेर के महत्त्वपूर्ण अध्याय के बारे में महात्मा गाँधी ने ठक्कर बापा को पत्र लिखा था कि “27 मई, 1939 को आपका पत्र प्राप्त हुआ। क्या वे मुझे कोमिला आश्रम के काम पर प्रकाश डालने की अनुमति देंगे? बंगाली राजनीति अजीब स्थिति में है। वे स्वयं नहीं खाएँगे और न ही अन्य बिल्लियों को खिलाएँगे। ऐसी स्थिति में कोई क्या कर सकता है? तालचेर का अध्याय जटिल है। मुझे देखने दो।”
गाँधी जी के पत्र का सारांश बताने के बाद वेताल इस तरह नीरव हो गया, मानो जैसे कोई अपना भाषण समाप्त करते समय कहता है कि अब मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ। भले ही, वेताल ने अपनी वाणी को विराम दिया था, मगर विक्रम के मन में अंतर्द्वंद्व उसी गति से चल रहा था। वेताल के बार-बार गाँधी का नाम लेने से विक्रम ऊब गया था। अतः उसने पूछा, “गाँधी जी के अलावा तालचेर आंदोलन में और किसी राष्ट्रीय नेता ने भाग लिया? जवाहरलाल नेहरू ने कोई भूमिका निभाई थी? या ऐसे ही दिखावटी चाचा नेहरू बने रहे?”
“नेहरू जी की भूमिका अवश्य थी, मगर बहुत कम। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तालचेर आंदोलन के प्रति काफ़ी सहानुभूति दिखाई है। ठक्कर बापा के पत्र के जवाब में 30 मई, 1939 उन्होंने इलाहाबाद से लिखा था कि मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ कि ओड़िशा राज्यों की स्थिति बहुत कठिन और चिंताजनक है। पिछले कई हफ़्तों से मैं इस बात से परेशान हूँ क्योंकि मुझे नहीं पता था कि मैं कैसे मदद कर सकता हूँ। मुझे पता चला कि गाँधीजी की ओड़िशा के लोगों में गहरी रुचि थी और मैं जो करने जा रहा था, उसे करने के लिए दुविधा में था। गांगपुर गोलीबारी के तुरंत बाद, मैंने पूर्वी राज्य के रेजिडेंट को जाँच का सुझाव देते हुए टेलीग्राफ किया और उन तीन व्यक्तियों के नाम भी बताए, जिनसे मैंने वहाँ जाने का अनुरोध किया था। ये तीन नाम थे; डॉ. डिसौजा, सिंध के सेवानिवृत्त न्यायिक आयुक्त, श्री हरेकृष्ण महताब और श्री बी. एस. गिलानी, अखिल भारतीय कैथोलिक सम्मेलन के पूर्व अध्यक्ष। काफ़ी देर बाद मैंने रेजीडेंट से सुना कि वह ऐसी जाँच को ज़रूरी नहीं समझते। मैं इस बारे में उन्हें फिर से लिख रहा हूँ और सुझाव दे रहा हूँ कि वह कम से कम हमारे एक प्रतिनिधि को वहाँ जाने और लोगों से मिलने की अनुमति दें। मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ कि तालचेर और गंगपुर दोनों ऐसे घृण्य उदाहरण हैं, जहाँ हमारी ओर से पूरी जाँच और कार्रवाई होने के लायक़ हैं। मेरे या किसी और के लिए इस विषय पर सलाह देना सहज है, किन्तु मुझे कुछ और करने में दिलचस्पी थी। यदि आप मुझे इस मामले में कोई प्रभावी सलाह दे सकें तो मैं आभारी रहूँगा।” वेताल ने जवाहरलाल नेहरू जी की सच्चाई बता दी।
विक्रम ने वेताल के सिर पर अपना हाथ रखते हुए कहा, “वेताल भाई! आज के लिए कुछ और सवाल पूछता हूँ कि जैसे शरणार्थी आख़िर कब घर लौटे? और कैसे?”
“हाँ, यह बहुत महत्त्वपूर्ण सवाल है। 25 जून 1939 को राजा की संशोधित उद्घोषणा शरणार्थी शिविर में पहुँची। इस मुद्दे पर तालचेर प्रजामंडल के कार्यकर्ताओं ने अध्यक्ष पवित्र बाबू से विस्तृत चर्चा की। ओड़िशा के राजस्व मंत्री नित्यानंद क़ानूनगो तुरंत अंगुल शिविर में आए और शरणार्थियों को आश्वासन दिया कि “वह और राज्यपाल प्रजा की शेष माँगों को जल्द ही पूरा करेंगे।” गाँधीजी की सलाह पर और अन्य माँगों की पूर्ति के बारे में कांग्रेस नेताओं और ओड़िशा मंत्रालय के पूर्ण आश्वासन के साथ, संगठन के कार्यकर्ताओं ने प्रवासियों को अपने गाँवों में लौटने के लिए कहने का फ़ैसला किया। ओड़िशा गवर्नर सर जान हबाक की सलाह के अनुसार, शरणार्थियों ने 26 जून 1939 को घर लौटना शुरू कर दिया। शरणार्थियों की वापसी राजा की माँगों की अस्थायी पूर्ति के कारण नहीं, बल्कि फ़सल की ऋतु नज़दीक होने के कारण हुई थी। नवंबर 1938 से जून 1939 के अंत तक प्रजा अंगुल के विभिन्न शिविरों में शरणार्थी के रूप में रही।
“पहले ही बता चुका हूँ कि सितंबर 1938 में तालचेर की प्रजा ने तालचेर दरबार को अपनी समस्याओं के निदान के लिए रिप्रजेंटेशन दिया था, जिसकी एक कॉपी भारत सरकार के पॉलिटिकल विभाग को भेजी गई थी। मगर इस रिप्रजेंटेशन को राजा ने अवैध क़रार देते हुए दमन की घटनाएँ शुरू कीं, उल्टा उसने ब्रिटिश ट्रुप्स (फौजें) मँगवाए। फिर गोलियाँ चली, जिसमें आधिकारिक तौर पर एक आदमी की मृत्यु हुई। इसमें गाँधी जी ने मेरी मृत्यु की ओर संकेत किया था।” कहकर वेताल कुछ समय के लिए चुप हो गया और फिर दीर्घ श्वास लेते हुए कहने लगा, “मुझे वेताल बने हुए 8 दशक बीत गए। इतनी दीर्घ अवधि में तो सामान्य प्राणी तीन-चार बार जन्म ले लेता है, मगर मैं अभी भी ब्रह्म राक्षस की तरह ताल के पेड़ से चिपका हुआ हूँ। उस पेड़ के नीचे से कितनी सारी अर्थियों को मैंने गुज़रते देखा है और मेहँदी रंगे हाथों वाली नव वधुओं की बैलगाड़ियों में सवार बारातों को आते देखा है। लेकिन अब बहुत कुछ बदल गया है। जैसा कि मैंने बताया कि मेरी मृत्यु के उपरांत तालचेर की लगभग आधी आबादी कोशला गाँव में पलायन कर गई थी। इधर 1 सितंबर 1938 से द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ। भारत की इच्छा के विरुद्ध अँग्रेज़ सरकार ने भारत को युद्ध में लिप्त किया और एक क़ानून पास किया कि किसी भी तरह का संदेह होने पर प्रजा को नज़रबन्द किया जा सकता था। तालचेर के राजा को इस क़ानून के तहत प्रजामंडल के नेताओं को गिरफ़्तार करने का मौक़ा मिल गया और उसने प्रजामंडल के नेताओं पर मिथ्या मुक़द्दमे लगाना शुरू किया।”
वेताल को बीच में ही रोकते हुए विक्रम ने पूछा, “वेताल भाई, आपके नेता के गिरफ़्तार होने के बाद तो प्रजा की हालत और ख़राब हो गई होगी?”
वेताल ने खीझते हुए विक्रम से कहा, “मुझे बीच में टोकते क्यों हो? यह सही नहीं हैं। अगली बार अगर टोका तो मैं हमेशा के लिए चला जाऊँगा। फिर अपने मन से काल्पनिक उपन्यास लिखते रहना। बीच में टोकने से न केवल मेरी भाषा-शैली टूट जाती है, बल्कि घटनाओं को सिलसिलेवार प्रस्तुत करने में भी दिक़्क़त आती है।”
“मुझसे बड़ी भूल हुई। अगली बार ऐसा कभी नहीं करूँगा।” कहते हुए विक्रम ने क्षमा याचना की। तब जाकर वेताल ने कहना शुरू किया, “मैं फिर से दोहरा रहा हूँ कि 21 मार्च 1939 को प्रजामंडल के प्रतिनिधि हरेकृष्ण महताब और अँग्रेज़ सरकार के पॉलिटिकल एजेंट मिस्टर हेनसी के बीच समझौता हुआ था। 23 जून 1939 को तालचेर के राजा ने घोषणा की कि लगान पाँच आना से दो आना होगा, बेठी और धर्म अदालत नहीं होगी आदि-आदि। 25 जून को शरणार्थी अपने घर लौटे। मगर 26 नवंबर 1940 को ‘भारत रक्षा क़ानून’ के तहत प्रजामंडल के सारे वरिष्ठ कार्यकर्ता गिरफ़्तार कर लिए गए और प्रजामंडल के संचालन का भार युवाशक्ति के कंधों पर आ गया। जिसमें थे सर्वश्री कृतिवास रथ, विच्छंद प्रधान, आनंदचंद्र प्रधान, कालिंदी चंद्र प्रधान, पवित्र बेहेरा, महेश्वर प्रधान, परशुराम प्रधान जैसे अनेक नवयुवक। इधर वरिष्ठ नेता जेल के भीतर अपनी गुप्त योजनाएँ बनाने लगे। 1940 में सात सदस्यों की एक समिति बनायी गयी। इस समिति में दरमोहन पटनायक अध्यक्ष, लक्ष्मीधर साहू उपाध्यक्ष और लक्ष्मण महापात्र संपादक बने। हाँडीधुआ की विलियर्स कोयला खदानों में संगठन को मज़बूत किया गया था। राजा किशोर चंद्र हरिचन्दन तालचेर कोलफ़ील्ड के निदेशक थे। कंपनी से बड़ा मुनाफ़ा मिल रहा था। उन्हें अन्य कोयला खदानों को दिए गए भूमि पट्टों से भी वार्षिक आय प्राप्त होती थी। यह समिति शासकों के दुर्व्यवहार के विरुद्ध किसी भी आंदोलन के लिए श्रमिकों को किसी भी समय किसी स्थान पर एकत्रित होने में सहायता करती थी। श्रमिक संगठन न केवल अपनी माँगों के लिए खड़े हुए, बल्कि आम लोगों के साथ मिलकर राजा के ख़िलाफ़ भी आवाज़ बुलंद करने लगे। जिससे प्रजामंडल आंदोलन में काफ़ी मदद मिली और चालीस साल तक चले साम्राज्यवाद विरोधी विद्रोह में कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया। बड़ी संख्या में कोयला खदानों में काम करने वाले मज़दूरों ने खदानें बंद कर आंदोलन में हिस्सा लिया। अंगुल शिविर से लौटने के बाद, श्रमिकों को 'पुनः रोज़गार पाने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया।”
“क्या भारत रक्षा क़ानून ने तालचेर प्रजामंडल आंदोलन को शिथिल किया?” विक्रम ने पूछा।
“इस क़ानून ने प्रजामण्डल आंदोलन को शिथिल नहीं किया, मगर तालचेर के राजा की शक्ति को मज़बूत कर दिया। प्रजामण्डल आंदोलनकारियों को सताने और दंडित करने के लिए कई तरीक़े खोजे गए। राज्य प्राधिकरण की अवज्ञा करने और राजा के ख़िलाफ़ आंदोलन के नाम केस होने लगे। तालचेर के लोगों ने अपना आंदोलन जारी रखने का फ़ैसला किया और प्रजामंडल कार्यालय से काम करना जारी रखा।” वेताल ने कहते हुए दीर्घ साँस ली।
“प्रजामंडल नेताओं के इसके ख़िलाफ़ कुछ क़दम उठाए?” विक्रम ने पूछा।
वेताल ने शून्य की ओर निहारते हुए कहा, “हाँ, जनवरी 1940 में तालचेर प्रजामंडल के अध्यक्ष पवित्र मोहन प्रधान ने ओड़िशा राज्य के पॉलिटिकल एजेंट के सामने एक याचिका प्रस्तुत की, जिसमें राज्य के अधिकारियों द्वारा उनके ख़िलाफ़ किये जा रहे अत्याचारों का वर्णन किया गया। इसके बाद, फरवरी 1940 में, तालचेर प्रजामंडल के अध्यक्ष और ईस्टर्न स्टेट्स एजेंसी के अध्यक्ष पवित्र मोहन प्रधान ने भारत के वायसराय, पॉलिटिकल एजेंट, रेजिडेंट, ईस्टर्न स्टेट्स एजेंसी के गृह विभाग को एक ज्ञापन भेजा, जिसमें उनकी कुछ माँगें थीं:
1. प्रजा परिषद या जन प्रतिनिधि सभा का सुधार।
2. विविध करों का व्यापक उन्मूलन।
3. फ़सल आदि नष्ट करने वाले जंगली जानवरों को मारने का अधिकार।
प्रजामंडल के माँग पत्र के बावजूद ब्रिटिश सरकार ने राजा के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की क्योंकि वह ब्रिटिश शासन के प्रति बहुत वफ़ादार थे। राजा ने अपनी पिछली घोषणा में किये गये वादे पूरे नहीं किये। इससे प्रजा का रवैया राजा के प्रति कटु हो गया। उसे प्रजा को गुमराह करने के लिए राजा द्वारा उठाया गया क़दम माना गया। पवित्र मोहन ने प्रधानमंत्री की कड़ी आलोचना की और ब्रिटिश सरकार पर हमला बोला, यह कहकर कि वे ऐसा जानबूझ कर कर रहे हैं।”
“अवश्य ही, पवित्र मोहन प्रधान और अन्य नेताओं को इस विरोध का ख़म्याज़ा भुगतना पड़ा होगा?” विक्रम ने अंदाज़ा लगाते हुए कहा, मगर उसकी गोली सही निशाने पर टकराई। वेताल ने कहा, “ओड़िशा के सहायक राजनैतिक एजेंट ने फ़सल क्षति का पता लगाने के लिए 12 नवंबर 1940 को तालचेर का दौरा किया। उन्होंने स्टेट मजिस्ट्रेट की मदद से कुछ गाँवों का दौरा किया, जहाँ फ़सलों को बहुत कम नुक़्सान हुआ था। प्रजामंडल से बहस होने के कारण तालचेर प्रजामंडल के अध्यक्ष पवित्र बाबू 30 नवंबर के दिन स्थानीय पुलिस ने राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम की धारा 33 के तहत गिरफ़्तार कर लिया और साथ में, तालचेर प्रजामंडल के सचिव श्री मागुणी चरण प्रधान और श्री दयानीधि रथ गिरफ़्तार कर लिए गए। 2 दिसंबर 1940 के “द इंडियन एक्सप्रेस” अंक में यह समाचार प्रकाशित हुआ था। अंगुल में श्रीमती मालती चौधुरी और कृपासिंधु भोक्ता, विधायक की पुलिस के समक्ष पवित्र मोहन प्रधान से पहचान हुई। तालचेर में सूखे के कारण हुई फ़सल क्षति का विवरण एकत्र करते समय तीनों को अपने-अपने क्षेत्रों से गिरफ़्तार किया गया था। उन्हें जानबूझकर गिरफ़्तार किया गया, फिर अदालत में पेश किया गया और इस मुद्दे पर प्रजा को संगठित करने का आरोप लगाया गया, क्योंकि उनके ख़िलाफ़ भारत सुरक्षा अधिनियम के तहत एक झूठी शिकायत दर्ज की गई थी। द्वितीय विश्व युद्ध की घोषणा होते ही राजाओं के हाथ और मज़बूत हो गए। तालचेर के राजा ने इसका भरपूर लाभ उठाया। दरबार ने उन लोगों के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई की, जो अतीत में या उस समय जन आंदोलन में शामिल हुए थे।”
“फिर पवित्र बाबू को जेल से कब रिहा किया गया? और उसके बाद उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?” विक्रम के इस सवाल का वेताल ने उत्तर दिया, “1942 जनवरी को पवित्र बाबू जेल से बाहर निकले, मगर तालचेर की म्यूनिपालिटी सीमा के भीतर नज़रबन्द कर दिए गए। पवित्र बाबू को भी 26 मार्च 1941 को एक्स्ट्राडीशन वारंट के तहत मिथ्या आरोप लगाकर गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर तो उनकी तांडव लीला शुरू हुई। इस वजह से धीरे-धीरे पवित्र बाबू का मन गाँधीवाद से उचटने लगा। और मन ही मन सोचने लगे कि तालचेर के राजा के विरुद्ध हम अहिंसावादी आंदोलन के माध्यम से हमारे अधिकार माँग रहे हैं, मगर वह अत्याचार पर अत्याचार किए जा रहा है। सच में, लातों के भूत बातों से नहीं मानते। यानी दूसरे शब्दों में, शठम् शाठयम् समाचरेत। ऐसे राजा को तो जान से मार देना चाहिए। उधर पवित्र बाबू को पता चला कि देश की आज़ादी के लिए एक सशस्त्र सेना ’आज़ाद हिंद फौज’ का गठन सुभाष चंद्र बोस कर रहे थे। उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि किसी भी क़ीमत पर, भले ही, प्राण क्यों न चले जाएँ—मगर जीवन में कम से कम सुभाष चंद्र बोस से एक बार मुलाक़ात अवश्य करूँगा।” कहकर वेताल नीरव हो गया।
“यहाँ मेरे मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि पवित्र बाबू का उदार गाँधीवाद से मोह भंग होना और सुभाष चंद्र बोस के ‘तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ जैसे उग्रवाद विचारधारा की ओर अग्रसर होना क्या तत्कालीन बुद्धिजीवियों के अस्थितप्रज्ञ होने का सूचक है। उदाहरण के तौर पर पवित्र मोहन प्रधान की तरह हिन्दी साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद और रामधारी सिंह दिनकर अपने उम्र के ढलान पर गाँधीवाद से ऊबकर उग्रवाद की ओर अग्रसर हुए थे।” विक्रम ने अपनी दलील दी।
“हाँ, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। गाँधीजी को हमारे देश के बुद्धिजीवियों ने कभी अपने मन से सपोर्ट नहीं किया। भले ही, दिखावे के लिए बाहर से क्षणजीवी सपोर्ट किया होगा। इसके पीछे क्या कारण रहे होंगे, यह तो मुझे मालूम नहीं। शायद परिस्थितियाँ कुछ ऐसी रही होगी। जहाँ पूरे विश्व को गाँधीजी का व्यक्तित्व प्रभावित कर रहा था, वहीं हमारे देश के युवा वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग उनके प्रभाव क्षेत्र से दूर भागता जा रहा था। यही वजह रही होगी कि नाथूराम गोडसे ने उन्हें गोली मारकर मौत के घाट उतारा।” उत्तर देकर वेताल ने अपनी गाथा सुनाना शुरू किया, “जेल में वार्डन से पवित्र बाबू ने दोस्ती कर ली थी। वह छह-सात दिन का पुराना अख़बार उन्हें पढ़ने के लिए दे देता था। अगस्त 1942 में जब महात्मा गाँधी के ’करो या मरो’ के आहवान की ख़बर अख़बार में पढ़ी तो उन्होंने मन ही मन जेल से भागने का निश्चय कर लिया। और मौक़ा देखकर अपने दोस्तों ने जेल की दीवार के पास मानव-पिरामिड बनाया, जिसके ऊपर चढ़कर 31 अगस्त 1942 को जेल की दीवार फाँदकर भाग गए। इधर पवित्र बाबू को पकड़ने के लिए राजा ने 5000 रुपये, 500 एकड़ ज़मीन, पाँच गाँवों के प्रशासनिक अधिकार (राजस्व वसूली अधिकार) देने के साथ-साथ पदोन्नति देने का फ़रमान जारी कर दिया। उधर, लोगों का मानना था कि राजा ने पवित्र बाबू की हत्या कर दी है। परिणामस्वरूप, आंदोलन ने और अधिक उग्र रूप धारण कर लिया। 3 सितंबर को कुमुंडा गाँव में तालचेर प्रजामंडल कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई और भारत छोड़ो आंदोलन के उद्देश्य के अनुसार राज्य में समानांतर सरकार स्थापित करने का निर्णय लिया गया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी ने निर्णय किया कि ‘पहले राजा को मारेंगे, फिर मरेंगे’, ‘राजवंश का सर्वनाश करेंगे’, ‘अंग्रेजों को देश से भगार!ंगे’, ‘देश को आज़ाद करेंगे’ और ‘रामराज्य की स्थापना करेंगे’। गाँव-गाँव में ‘गड़जात सरकार ख़त्म करो’, ‘गाँधी के आदेश के अनुसार पंचायत सरकार बनाओ’ और ‘अंग्रेजों को मार डालो’, ‘करेंगे-मरेंगे’ ’मरेंगे या मारेंगे’, ‘भारत छोड़ो’, ‘तालचेर छोड़ो’, ‘राजा को मारो’, ‘किसान-मजदूरों की सरकार बनाओ’ जैसे नारों की गूँज सुनाई देने लगी। क्या आपको यह मालूम है कि महात्मा गाँधी का 1942 का ‘करो या मरो’, ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरूआत के दृष्टिकोण से तालचेर का पूरे भारत में छठा स्थान दर्ज है और 652 देशी रियासतों में तालचेर का प्रथम स्थान है? महात्मा गाँधी के छोटे पुत्र श्री देवदास गाँधी ने अपनी पुस्तक ’इंडिया रिकॉन्साइल्ड’ में तालचेर के इस आंदोलन की खुले मन से प्रशंसा की थीं। जयप्रकाश नारायण ने तालचेर के इस प्रजामंडल आंदोलन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। पवित्र बाबू ने एक गीत भी लिखा:
जाग गया बंग, न जागा कलिंग, जाग उत्कल वीर
जागा भारत, सारे प्रांत, जागा बोम्बे, बिहार।
जूझ रहा आसाम, जूझ रहा मद्रास, जूझ रहा मध्यप्रांत
लड़ रहा सिंधु, लड़ रहा पंजाब, लड़ रहा सीमाप्रांत।
विजयी बलिया, विजयी बिहार, विजयी मेदनीपुर
विजयी अस्ती, विजयी चिमूर, विजयी भागलपुर।
सतारा जीता, शत्रु हारा, भागे बोम्बे बंदर
कोरापुट जीता, वरी लड़ रहा, संग्राम बालेश्वर।
मुक्ति-आर्त, ब्रिटिश भारत, नहीं जागा देशी भारत
जीवन मोह त्याग, अस्त्र पकड़, उठ-उठ गड़जात
जागा भारत और गड़जात चंचल, जाग आज जुड़
मुक्ति युद्ध के संहार हेतु जेल की दीवार तोड़।
पवित्र बाबू तालचेर जेल की दीवार फाँदकर हाटतोटा, देऊलबेरा कोलियरी से होते हुए रेमुआ, बालूंगा खमार पार कर पहुँच गए जेल की उत्तर पूर्व दिशा में स्थित स्कॉटलैंडपुर की तरफ़, जहाँ राजा के भाई पटायत की आलीशान हवेली बनी हुई थी। इसे देखकर पवित्र बाबू के मन में बेठी, बेगारी द्वारा तालचेर की जनता के शोषण की मार्मिक घटनाएँ आँखों के सामने गुज़रने लगी। फिर इधर से अपने आपको बचते-बचाते अपने जन्म स्थान पोईपाल और टिटिरिमा मौजा के बीच स्थित पहाड़ पर जाकर एक गुप्त शिविर लगाया। 3 सितंबर 1942 को सभी राजनैतिक बंदियों को छोड़ दिया गया। पोईपाल और टिटिरिमा मौजा के बीच स्थित पहाड़ पर हुए गुप्त शिविर में एक प्रस्ताव पास किया गया कि प्रजामण्डल स्थापना दिवस के दिन यानी 7 सितंबर को तालचेर के राजमहल पर आक्रमण किया जाएगा। सारी तैयारी कर ली गई थी, मगर उस दिन भारी बारिश होने की वजह से 6 सितंबर के आक्रमण की योजना एक दिन के लिए स्थगित कर ली गई। 7 सितंबर 1942 को दोनों सेनाएँ युद्ध क्षेत्र में पहुँच गई। उधर से पट्टायत प्रमोद चंद्रदेव अपने और अँग्रेज़ सैनिक लेकर कृषक सेना के विरुद्ध लड़ रहे थे। कृषक सेना के सेनापति का दायित्व प्रजामंडल के विच्छंद प्रधान के कंधों पर था और उप-सेनापति का भार सँभाल रहे थे नीलमणि प्रधान। किसान सेना में 40,000 लोग थे, जो राजा और अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे थे। इधर बम और गोलाबारूद, उधर लाठी, टांगिया, कुल्हाड़ी, देशी बंदूक, तलवार, ढाल, बरसा, तीर, धनु, हँसिया, कुदाल, शंकु, शावल, हथौड़ी, केरोसिन के डिब्बे। इसके अतिरिक्त, राजमहल तोड़ने के लिए कोयला खदानों से बारूद भी अलग से संगृहीत किया गया था।
अँग्रेज़-सेना ने कुछ केमिकल फेंककर धुएँ की दीवार खड़ी कर दी और कृषक-सेना पर अंधाधुंध गोलियाँ चलाई, मगर कृषक सेना राइफ़िल रेंज से दूर होने के कारण उनका प्रयास विफल रहा। फिर तीन बमवर्षक सामरिक विमानों ने ऊपर से उन पर बम गिराना शुरू किया, लेकिन जंगल और आम के बग़ीचे होने के कारण उन्हें आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिली।
भीड़ ने सरकारी इमारतों और घरों को तोड़ दिया। हमले से पुलिस स्टेशन और वन विभाग का कार्यालय भी नहीं बचा। टेलीफोन का तार काट दिए गए। उन्होंने राज्य को जोड़ने वाली सड़क के पुलों को नष्ट कर दिया और तालचेर-कटक रेलवे लाइन को जगह-जगह से उखाड़ दिया। उस दिन से राज्य में किसान मज़दूर पंचायत सरकार की स्थापना हुई। जैसे ही यह सरकार राज्य के गाँवों में लागू हुई, राजा की सरकार पूरी तरह ख़त्म हो गयी। पवित्र बाबू के अलावा, मागुणी चरण प्रधान, बनमाली प्रधान, कालिंदी चरण प्रधान, दासरथी पाणि, झूलूदास, कृतिवास रथ, पवित्र बेहरा और गोवर्धन साहू ने महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। सैकड़ों व्यक्ति घायल ज़रूर हुए, और कुछ व्यक्तियों जैसे डअँरा के वासुदेव, कृतार्थ प्रधान और हंडीधुआ के भगवान साहू की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। ब्रिटिश सरकार की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पाँच स्थानों पर सेना द्वारा बंदूक से हमले किए गए थे, उनमें से एक तालचेर था। ऐसा कहा जाता है कि तालचेर की लड़ाई के दौरान मरने वालों की संख्या आठ थी। इनमें से चार लोगों की जान हाटतोटा गोलीबारी में गई, दो की अंगुल-तालचेर सीमा के पास गोलीबारी में और दो की जेल के अंदर यातना के दौरान मौत हो गई। लेकिन अनौपचारिक रिपोर्टों के अनुसार शवों को ट्रकों में लादकर ब्राह्मणी नदी के पानी में फेंक दिया गया था।” वेताल ने तालचेर आंदोलन का मानो आँखों देखा हाल प्रस्तुत कर लिया हो।
विक्रम के इस आंदोलन के बाद की घटनाओं को जानने के लिए सवाल पूछा, “इस आन्दोलन का तालचेर के राजा ने कैसे दमन किया?”
“राजा ने घर-घर चेकिंग करवाई। इस समय जापान समर्थक प्रचार तालचेर के गाँवों तक पहुँच गया था और जापानी समर्थक पर्चे एक गुमनाम लेखक के घर प्राप्त हुए जिसे, राज्य अधिकारियों को सौंप दिए गए। और उस लेखक को कठोर सज़ा दी गई। आम लोगों के अलावा राज्य के कुछ जागीरदार भी आधिकारिक हैसियत से आंदोलन में हिस्सा लेते देखे गये। उनमें से कुछ को नौकरी से निकाल दिया गया और बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ़्तार किया गया। कुछ पर महाभियोग चलाया गया, कुछ पर जुर्माना लगाया गया और कुछ को उनकी जागीरें बचाने के लिए मुचलका हस्ताक्षर करने पड़े। हाड़ी पाण जाति के लोगों को जुर्माने से छूट दी गई और उन्हें जन आंदोलन में भाग न लेने के लिए पुरस्कृत किया गया। मार्च 1943 तक जनता पर अकथनीय अत्याचार जारी रहा।” वेताल ने राजा की दमन लीला के बारे में सविस्तार से बताया। लेकिन विक्रम सोच रहा था, इस युद्ध में कुछ लोगों को पुरस्कार दिया गया तो कुछ लोगों पर अकथनीय अत्याचार किया गया। राजा के इस तरह दोहरे मापदंड के बारे में विक्रम ने पूछा, “राजा ने युद्ध के बाद दोहरी नीति क्यों अपनाई? किसी को पुरस्कार तो किसी पर अत्याचार? ऐसा क्यों?”
“चतुराई से राजा ने ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का सहारा लिया, इस वजह से ब्रिटिश भारत सरकार ने अगस्त क्रांति के दौरान पूरे तालचेर के सशस्त्र आंदोलन के ख़िलाफ़ शासक की सफलता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस शुभ अवसर पर रेजिडेंट ने अपने भाषण में राजा की कार्यकुशलता की प्रशंसा करते हुए कहा, “राजा साहब ने अपने लोगों के स्नेह और उनकी भावनाओं पर भरोसा करते हुए, ऊर्जा, कौशल और साहस के साथ, अंतिम विद्रोह को दबा दिया और राज्य में शान्ति स्थापित की।” एक समाजशास्त्री की तरह राजनैतिक विश्लेषण करते हुए वेताल ने बताया।
वेताल के उत्तर से संतुष्ट नहीं होने पर विक्रम ने अगला सवाल पूछा, “भारत के इतिहासकार इस आंदोलन को किस दृष्टि से देखते हैं?”
“इस संदर्भ में इतिहासकार मन्मथ नाथ गुप्ता और ए. मोईन जैदी की टिप्पणियाँ उल्लेखनीय है। जहाँ ‘भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास’ पुस्तक में मन्मथ नाथ गुप्ता तालचेर आंदोलन के बारे में लिखते हैं: ‘तालचेर राज्य में आंदोलन बहुत तेज़ था, जहाँ प्रजा को विद्रोह का सामना करना पड़ा, जो गाँधी के उपवास के बाद भी जारी रहा। गाँव के मुखिया, चौकीदार और ज़िलादार द्वारा एक समानांतर सरकार बनाई गई थी। चौकीदारों और अन्य लोगों ने अपनी वर्दियों में आग लगा दी और नई सरकार के तहत काम करना शुरू कर दिया। रेलवे लाइनें ध्वस्त कर दी गईं और सारा परिवहन राष्ट्रीय सरकार के नियंत्रण में आ गया, जिसकी अपनी सैन्य शक्ति थी। गाँवों के अधिग्रहण के बाद शहर पर कब्ज़ा करने का प्रस्ताव रखा गया। राज्य सरकार ने ब्रिटिश सरकार से मदद माँगी। विमान से भीड़ पर आँसू गैस के गोले छोड़े गये। लोगों को तितर-बितर करने के लिए सरकार ने वायुसेना के विमानों से उन पर बमबारी की। पुलिस की बर्बरता तीव्र थी। 85,000 की आबादी वाले इस ग़रीब राज्य से 10 लाख रुपये लूट लिए गए और भारी जुर्माना लगाकर प्रताड़ित किया गया।’ वहीं इस आंदोलन के बारे में ‘द वे आउट टू फ़्रीडम’ पुस्तक में ए. मोईन जैदी लिखते हैं कि—‘सितंबर में इस छोटे से राज्य में विद्रोह की लहर दौड़ गई थी, जिसे आसमान से मशीनगन की गोलियाँ बरसाकर बेरहमी से बुझाने का प्रयास किया गया था। तीन ए.आर.पी. मशीनगनों से कम ऊँचाई से गोलीबारी करके लोगों को मारा गया। ऐसे ही बम फेंके गए थे। लगभग 80 पुलिसकर्मियों को उनके अस्त्रों समेत जनता ने बंदी कर लिया था। भविष्य में स्वतंत्रता संग्राम में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, कहने पर उन्हें छोड़ा गया था।” वेताल ने स्पष्ट किया, मगर पवित्र बाबू के बारे में जानने के लिए विक्रम व्यग्र था। एक दीर्घश्वास लेते हुए उसने प्रश्न किया, “पवित्र बाबू के जेल से भागने के बाद यह आंदोलन हुआ, उस दौरान पवित्र बाबू की क्या भूमिका रही?”
“प्रजामंडल के फ़रार कार्यकर्ता और स्वयं सेवक—जो जंगलों में छुप गए थे—गोरिल्ला युद्ध के माध्यम से अंग्रेज़ों की शक्ति क्षीण कर रहे थे। नाम रखा गया था—’तालचेर गोरिल्ला सेना’ मगर जल्दी ही गोरिल्ला सेना के कुछ कार्यकर्ता गिरफ़्तार कर लिए गए और गोरिल्ला सेना के कमांडर जरडा निवासी महेश्वर प्रधान को 25.04.1943 को घंटिआनाली गाँव के पास पुलिस मुठभेड़ में मार दिया गया। उनका भी नाम मेरी तरह भारत सरकार की शहीद तालिका में अंकित है। बाद में पवित्र बाबू ने बचे हुए कार्यकर्ताओं के साथ पहले साम्यवादी नेता जयप्रकाश नारायण के दल के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खंड युद्ध करने का निश्चय किया। इस हेतु वे कुछ अपने साथियों के साथ टाटानगर चले गए।” वेताल ने पवित्र बाबू की भूमिका पर प्रकाश डाला।
“मैं यह पूछना चाहता हूँ कि तालचेर प्रजामंडल के नेताओं को टाटानगर जाने में भी तो बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा होगा?” विक्रम ने अपनी शंका जाहिर की।
वेताल ने स्पष्ट किया, “छोटी-मोटी दिक्कतें नहीं, बहुत खतरनाक संघर्ष करना पड़ा था उन्हें। 19 सितंबर, 1942 को प्रजामंडल के एक वफ़ादार कार्यकर्ता गोवर्धन को पवित्र बाबू ने अपने साथ लिया और बिहार भागने के इरादे से गिरफ़्तारी के भय से जंगल में पैदल यात्रा करते हुए संबलपुर से झारसुगुड़ा पहुँचे। रास्ते में विछन्द और कालिंदी चंद्र प्रधान भी उनके साथ हो गए। इन चारों लोगों के हाथ में सिर्फ 18 रुपये थे। उन्होंने तीन दिनों में 125 मील जंगलों और पहाड़ियों को पार किया और 22 तारीख को झारसुगुड़ा पहुँचे। वहाँ से वे रेल मार्ग से टाटानगर पहुँचे और अपने मित्र हृषिकेश, नंद के निवास शांतिनिकेतन होटल पहुँचे। हृषिकेश ने नंद, पवित्र प्रधान और उनके साथियों के लिए टाटानगर में एक गुप्त स्थान पर रहने की व्यवस्था की। दरअसल, तालचेर में प्रतिबंधित प्रजामंडल ने अपना कार्यालय टाटानगर में स्थापित किया। प्रजामण्डल सरकार और सैनिक अब टाटा नगर छावनी में रह रहे थे। ये साथी सेनानी थे सुधाकर रथ, कालिंदी चंद्र प्रधान, विछन्द चरण प्रधान, बनमाली प्रधान, फिरिंगी प्रधान, मुकुंद साहू, गांडु साहू, परशुराम प्रधान, दीनबंधु साहू। इन सबका उद्देश्य कोई राष्ट्रीय या अंतरप्रांतीय क्रांतिकारी संगठन या अखिल भारतीय क्रांतिकारी संगठन से संबंध स्थापित कर सुव्यवस्थित तरीके से ओड़िशा में आंदोलन जारी रखना था।”
“प्रजामंडल के नेताओं को टाटानगर से तालचेर के प्रजामंडल आंदोलन को संचालित करने में परेशानियाँ आईं होंगी?” विक्रम ने अपने मन की बात वेताल से पूछी।
“प्रजामंडल के नेताओं को टाटानगर भाग जाने के कारण तालचेर में प्रजामंडल आंदोलन अपनी ताक़त खो बैठा। 1942 के तालचेर संघर्ष ने प्रजा को उस बिंदु पर ला खड़ा किया, जहाँ उन्हें एहसास हुआ कि दुश्मन केवल राजा ही नहीं, बल्कि उसका समर्थन करने वाली ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार भी थी। जून 1943 तक ओड़िशा में लगभग सभी आंदोलन दबा दिये गये थे, लेकिन तालचेर में ब्रिटिश अधिकारियों की मदद से राज-दरबार ने क्रूर दमन शुरू कर दिया। अधिकांश नेता गुप्त थे। राज्य के अधिकारियों का मुख्य उद्देश्य राज्य से भागे हुए जन आंदोलन के नेताओं और आयोजकों को गिरफ़्तार करना था। बाद में उन्हें गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया। यहाँ तक कि, पवित्र बाबू की जान भी ख़तरे में थी। उनके नाम पर भी गिरफ़्तारी वारंट जारी हो गया था। वह सभी घटनाओं के मुख्य अपराधी थे।” कहते हुए वेताल ने दीर्घ साँस ली और चेहरे की आकृति ऐसे बनाई, जैसे वह अभी-का-अभी रो पड़ेगा।
टाटानगर में रहकर पवित्र बाबू की तालचेर की गतिविधियों के नियंत्रण के बारे में जानने के लिए उत्सुक होकर पूछा, “टाटानगर में पवित्र बाबू की क्या योजना थी?”
जब पवित्र बाबू टाटा शहर में थे, तब तक जयप्रकाश नारायण अपने साथियों के साथ भागलपुर सेंट्रल जेल से सफलतापूर्वक भाग निकले थे। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होने और भारत सरकार के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष जारी रखने के उद्देश्य से उनसे संपर्क करने का प्रयास किया गया। लेकिन उस समय वे सफल नहीं हो पाए। समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण की गिरफ़्तारी के बाद पवित्र मोहन प्रधान बिहार और संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) छोड़कर बंगाल और असम चले गए।”
“टाटानगर के बाद पवित्र बाबू का बंगाल जाने का क्या उद्देश्य था?” विक्रम ने पूछा।
“कोलकत्ता में पाँच रुपये प्रति माह के वेतन पर एक बंगाली सज्जन के घरेलू नौकर के रूप में, काम करते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ संपर्क स्थापित करने का प्रयास किया। आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने के लिए उत्सुक थे, लेकिन कोलकत्ता में आज़ाद हिन्द फ़ौज के गुप्त कार्यालय को विश्वास नहीं था कि पवित्र बाबू एक स्वतंत्रता सेनानी थे। इस बीच, जब ठक्कर बापा राहत मिशन के लिए कोलकत्ता गए हुए थे, तो उन्होंने उनकी महान स्वतंत्रता सेनानी और जेल से भागे हुए सक्रिय कांग्रेसी के रूप में पहचान कार्रवाई। पवित्र बाबू का प्रस्ताव था कि तालचेर के स्वतंत्रता सेनानी बाद में सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो जाएँगे और बंगाल के दक्षिण-पूर्व में युद्ध में शामिल होंगे। उनका उद्देश्य था नेताजी सुभाष चंद्र बोस को गड़जात राजाों के ख़िलाफ़ युद्ध शुरू करने, पूरे ओड़िशा पर क़ब्ज़ा करने और फिर मध्य प्रदेश और बिहार को मुक्त कराने के लिए उकसाना था।” कहते हुए वेताल ने दीर्घ श्वास ली और कुछ समय नीरव रहने के बाद फिर से कहना शुरू किया, “कोलकत्ता में अपने गुप्त-प्रवास के दौरान सुभाष चंद्र बोस से सैन्य समर्थन के लिए पवित्र बाबू ने कोलकत्ता में अपने छद्म नाम रामचन्द्र से उन्हें एक पत्र लिखा था: ‘हमारा तालचेर प्राकृतिक ओड़िशा के केंद्र स्थल में है। ट्रेन और सड़क मार्ग द्वारा कटक से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। टाउन के पास एक बड़ा एयरोड्रम है। लेकिन बालू के कारण सहयोगियों ने इसका उपयोग नहीं किया। यदि हमारे लोग बंगाल की खाड़ी से ब्राह्मणी नदी के तट पर तालचेर के इस मैदान या किसी अन्य स्थान पर या ढेंकानाल और पाल्लहारा में कहीं भी उतरेंगे तो हम उन्हें ससम्मान रिसीव करेंगे, क्योंकि 1942 के आंदोलन के सिलसिले में प्रजा राजा के अत्याचार में इतनी पीड़ित है कि यह जानकर कि वे आपके सैनिक हैं, हमारी प्रजा अपने प्राणों से ज़्यादा उनके प्रति सहानुभूति रखेगी। यदि मैं स्वयं या मेरे दो-तीन फ़रार साथी सैनिकों के साथ जाते, तो काम बिल्कुल सुचारु रूप से सुरक्षित होता। यदि आप आदेश दें तो मैं स्वयं अथवा मेरे मित्र जाने को तैयार हैं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, अगर आपके 500 सैनिक हथियार और गोला-बारूद के साथ आते हैं, तो मैं उन्हें सुरक्षित जगह पर रख सकता हूँ और एक महीने के भीतर तालचेर, पाललहडा, ढेंकानाल, क्योंझर, बणाई, बामंड़ा, रेढ़ाखोल, अनुगोल और इसके आसपास के इलाक़ों में ले जा सकता हूँ। हम आठमल्लिक, दसपल्ला, नरसिंहपुर, हिंडोला जैसे राज्यों पर कब्ज़ा करके ओड़िशा की मुक्ति में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे। यदि पाँच सौ सैनिक अच्छी तरह से प्रशिक्षित हैं, तो हम हज़ारों की संख्या में एक स्वयंसेवी बल तैयार कर लेंगे। हम निर्बल राजाओं को आसानी से परास्त कर देंगे और उनके हथियार छीनकर उनका प्रयोग करेंगे। इन सैनिकों की मदद से आप पूरे ओड़िशा पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और मध्य प्रदेश और बिहार की मुक्ति के लिए इस तरह ओड़िशा अहम भूमिका निभा सकता है। आपकी साधना की सफलता की आशा में आपकी अनुमति की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।’
वेताल के चुप हो जाने के बाद विक्रम ने कहा, “इस पत्र में पवित्र मोहन प्रधान ने बहुत उत्साह और दृढ़ता से सुभाष चंद्र बोस को अपने इरादे बताए थे, मगर आज़ाद हिन्द फ़ौज तालचेर आंदोलन को कैसे आगे बढ़ाती?”
“पवित्र बाबू कह रहे थे कि यदि 500 सैनिकों की एक सेना गड़जात क्षेत्र में मिलती है तो वह उन्हें सुरक्षित रखने और भोजन उपलब्ध कराने का कार्य करेंगे। यह सेना तालचेर, पाल्लहड़ा, ढेंकानाल, क्योंझर, हिंडोल आदि राज्यों को स्वतंत्र करा देगी और यह पूरे ओड़िशा को अँग्रेज़ शासन से मुक्त कर देगी और एक मज़बूत और निर्विवाद स्वतंत्र सरकार की स्थापना करेगी। इस मामले पर चर्चा करने के लिए, सुभाष चंद्र बोस ने पवित्र मोहन प्रधान को एक व्यक्तिगत बैठक के लिए आमंत्रित किया। पवित्र मोहन प्रधान को लिखे अपने पत्र में नेताजी ने स्वतंत्रता संग्राम में इस स्वयंसेवी संगठन को पूर्ण समर्थन देने का आश्वासन दिया। सन् 1944 अप्रैल-मई महीने में सुभाष चंद्र बोस ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ लेकर आसाम और दक्षिण पूर्व बंगाल से आक्रमण करने की योजना बनाते समय पवित्र बाबू और उनके कुछ फ़रार दोस्तों ने इस युद्ध हेतु छद्मवेश में गुप्तचर सैनिक के रूप में बहुत काम किया। कलकता में नौकर के रूप में रहते समय उन्होंने बहुत अत्याचार झेले, मगर न्याय पाने के लिए जिस तरह नल राजा ने घोड़ाघास काटी, और जन्मगत अधिकार पाने के लिए पांडवों नें विराट नगर में गोड़, घोड़ा, सइस, नर्तक, रसोइया, ब्राह्मणी और द्रोपदी ने नौकरानी की तरह कार्य किया था—उसी तरह पवित्र बाबू भी अपने मुक्ति पथ पर अडिग रहे। आसाम में सुभाष चंद्र बोस के कैंप में उनसे मिलने के लिए गुप्तचर बनकर चिट्ठी पहुँचाने के उद्देश्य से ब्रह्मपुत्र नदी को दो जगहों को तैरते हुए पार कर कैंप तक पहुँचे, मगर जगह-जगह पर पुलिस लगी हुई थी और थोड़ी सी ग़लती उनकी जान ले सकती थी। इस वजह से सुभाष बोस ने संदेश भिजवाया कि सही परिस्थिति होने पर वे उनसे अवश्य मिलना पसंद करेंगे। मगर दुर्भाग्य से वह दिन उनके जीवन में और नहीं आया। पवित्र बाबू के इस पत्र से पता चलता है कि वह तालचेर और पूरे गड़जात की मुक्ति के लिए कितने चिंतित थे। नेताजी का पवित्र बाबू से सीधा संपर्क नहीं हो सका। नेताजी के भारत हमलों में व्यस्त रहने के दौरान संयुक्त सेना की जीत ने जापानी सेना और आज़ाद हिंद फ़ौज को पीछे धकेल दिया। अगस्त 1944 के प्रथम सप्ताह में प्रजामण्डल नेताओं को कोलकत्ता लौटने की सलाह दी गयी। पवित्र बाबू के कोलकत्ता में रहने के दौरान आज़ाद हिंद फ़ौज के साथ उनका संवाद ख़त्म हो गया और इधर द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति हो गई, तो वे भारत की राष्ट्रीय राजनीति और कांग्रेस की भविष्य की कार्रवाई के बारे में जानने के लिए दिल्ली चले गए।” वेताल ने पवित्र बाबू की रणनीति पर बारीक़ी से प्रकाश डाला।
“कुल मिलाकर पवित्र बाबू की न तो सुभाष चंद्र बोस से व्यक्तिगत भेंट हुई और न ही उन्हें आज़ाद हिन्द फ़ौज का सपोर्ट मिला। उसके बाद कोलकत्ता छोड़कर दिल्ली चले गए, दिल्ली में उनकी क्या रणनीति थी?” विक्रम ने अपने मन की उलझन वेताल के सामने रखी।
“दिल्ली में पवित्र बाबू की मुलाक़ात गड़जात प्रजा सम्मेलन के अध्यक्ष पट्टाभी सीतारमैया से हुई। चूँकि पवित्र बाबू के नाम पर गिरफ़्तारी वारंट था, इसलिए उन्होंने भेष बदलकर दिल्ली गड़जात प्रजा सम्मेलन के कार्यालय में चपरासी के रूप में काम किया। यह बात केवल पट्टाभी सीतारमैया ही जानते थे। पवित्र बाबू दिल्ली में गिरफ़्तारी के डर से, एक मुस्लिम मित्र की मदद से, बुर्क़ा पहनकर ख़ुद आठ घंटे में 40 मील पैदल चले।” वेताल अपने गुरु पवित्र बाबू के संघर्षों पर प्रकाश डाल रहा था तो विक्रम ने जानना चाहा, “द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तालचेर के प्रजामंडल आंदोलन की क्या स्थिति रही?”
“गड़जात राजाओं की शासक परिषद की बैठक 16 और 17 अगस्त 1945 को कोलकत्ता में कलाहाँडी के महाराजा साहब की कोठि में आयोजित की गई थी, जिसमें बौध के राजा को फिर से इस शाही मण्डली का अध्यक्ष और सोनपुर के महाराजा को उपाध्यक्ष चुना गया। अध्यक्ष ने यह प्रस्ताव रखते हुए शुरूआत की कि महामहिम सम्राट को जापान पर अपनी जीत के लिए बधाई दी जाए, जिसे सर्वसम्मति से पारित किया गया। सम्मेलन में पटना, कलाहाँडी, शडेईकला, ढेंकानाल, आठमल्लिक, बामंडा, खड़पड़ा, दसपल्ला और तालचेर राज्यों के राजा उपस्थित थे और उन्होंने अलग तार के माध्यम से लाडसाहब और गड़जात के पूर्व रेजिडेंट को बधाई दी। यह बैठक तालचेर के राजा किशोर चंद्र की आख़िरी बैठक थी, क्योंकि राजा का 14.11.1945 को 72 वर्ष की आयु में निधन हो गया था।” कहकर वेताल ने उसके कंधे पर थाप मारी और कुछ समय शांत रहकर फिर से कहने लगा, “1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद राष्ट्रीय राजनीति में तेज़ी से बदलाव आया। जेल में बंद कांग्रेस नेताओं को जेल से रिहा कर दिया गया। विभिन्न राज्यों में कांग्रेस सत्ता में लौट आई। तालचेर में प्रजामंडल के 400 कार्यकर्ताओं को क़ैद कर लिया गया। पवित्र मोहन प्रधान और 20 अन्य प्रमुख नेता तालचेर से बाहर फ़रार थे। जब तालचेर में प्रजामंडल का संगठन शिथिल हो रहा था, उस समय तालचेर के राजा किशोर चंद्र की मृत्यु हो गई और युवराज हृदय चंद्र देव अगले राजा बने। हृदय चंद्र देव तालचेर के राजा बनने से पहले राज्य के सत्र न्यायाधीश थे। विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भी स्वतंत्र राज्यों में बलपूर्वक शोषण किया जाता था। चूँकि राज्य में दाह-संस्कार और अन्य अंत्येष्टि, श्राद्ध आदि की मुफ़्त वाली पुरानी व्यवस्था चल रही थी, इसलिए पट्टायत श्री प्रमोद चंद्र देव अपने मृत पिता के अंतिम संस्कार कार्य के लिए जनता से चंदा इकट्ठा करना चाहते थे। उन्होंने वर्तमान राजा युवराज साहब को यह काम अपने हाथ से करने की सलाह दी। इस वित्त संग्रह ने तालचेर राजपरिवार के गिरते मनोबल के मक़सद का सबूत दिया।”
“द्वितीय विश्व युद्ध में जापान पर जीत के लिए हमारे राजा ब्रिटिश सरकार को बधाई क्यों दे रहे थे?” विक्रम ने पूछा।
वेताल ने एक इतिहासविद की तरह जानकारी दी, “द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र शक्तियों की जीत का जश्न प्रजामंडल कार्यकर्ताओं के लिए जानबूझकर दी गई धमकी थी। तालचेर के दरबार ने इस तथ्य के बावजूद भी 19 और 20 अगस्त, 1945 को सार्वजनिक अवकाश ‘धन्यवाद दिवस’ मनाने के लिए अधिसूचना जारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस दिन के जश्न के लिए राज्य में नृत्य, संगीत और मिठाइयाँ बाँटकर उत्सव का आयोजन किया गया। दरबार की ओर से सभी सरकारी कार्यालयों को झंडों और लाइटों से सजाने के लिए सभी विभागाध्यक्षों को पत्र जारी किया गया था। इस अवसर पर राज्य में गठबंधन की जीत का जश्न भव्य तरीक़े से मनाने के लिए विभिन्न संस्थानों से धन एकत्र किया गया। राज्य की तीन कोयला खदानों एम एंड एस एम रेलवे कोलियरी, डेरा ने 260 रुपये, बीएन रेलवे कोलियरी, देउलबेड़ा ने 167 रुपये और विलियर्स कोलियरी, हंडीधुआ ने 197 रुपये दान दिए और इसके अलावा, अन्य संस्थाओं ने भी राज्य को दान दिया।”
यह कहकर वेताल ने अपनी गाथा समाप्त की और विक्रम से गाड़ी में रखी बिसलेरी की बोतल माँगकर, ढक्कन खोलकर पानी पीने लगा। विक्रम को यह गाथा किसी शौर्य पर बनी हिन्दी फ़िल्म के महत्त्वपूर्ण दृश्य से कम नहीं लग रही थी। देश के आज़ाद होने के आस-पास के कालखंड के बारे में वेताल ने बताया दिया था। लेकिन मन में एक सवाल अभी भी नाग की तरह फन उठा रहा था। कहीं वेताल नाराज़ न हो जाए, इसी डर से अत्यंत ही सहमे लहजे में कहने लगा, “मेरे वीर पूर्वज! 15 अगस्त 1947 को हमारा देश आज़ाद हो गया। आप जानते ही है कि सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द योजना फ़ेल हो गई थी, ऐसी अवस्था में पवित्र बाबू क्या करते रहे? और तालचेर कब लौटे?”
“आपने यह महत्त्वपूर्ण सवाल किया हैं। प्रमुख समाजवादी नेता सुरेंद्र नाथ द्विवेदी की आत्मकथा ‘मो जीवन संग्राम’ पढ़िए, तब आपको पता चलेगा कि चार साल और सात महीने के भगोड़े जीवन के बाद, पवित्र मोहन ओड़िशा आये और 12 मई 1947 को पुरी पहुँचे।
“15 अगस्त 1947 को हमारा देश अँग्रेज़ों की ग़ुलामी के चंगुल से आज़ाद हुआ। प्रथम स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाने के लिए मैं भी तत्कालीन बरगद की खोखल से अपने वायवीय शरीर के साथ बाहर निकला। तालचेर, कणिहा, चंद्रविल, बड़त्रिविडा, सानत्रिविड़ा, कोशला-सारी जगह घूम-घूमकर आकाश में तिरंगे को लहराते हुए देखा तो मेरा मन खूशी से झूम उठा। पहली बार मुझे लगा कि मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं गया। देश को आज़ादी का सूर्य दिखाने में काम आया। प्रजामंडल की पहली मेरी शहादत नें तालचेर में प्रजामंडल आंदोलन के नेतृत्व में नई जान फूँक दी थी और पवित्र मोहन प्रधान जी ने तो तालचेर का नाम पूरे विश्व में अमर कर दिया।”
सवालों की अगली कड़ी में विक्रम ने हँसते हुए वेताल से पूछा, “15 अगस्त 1947–हमारे देश की आज़ादी का प्रथम दिवस तालचेर में कैसे मनाया गया?”
“सच कहूँ तो वह दिन हमारी आज़ादी का नहीं, बर्बादी का दिन था। सरकारी भवनों पर तालचेर के प्रजामंडल के स्वयं सेवकों द्वारा क़ब्ज़ा कर लिया गया। राजा के महलों पर आक्रमण करने की साज़िश होने लगी। चारों तरफ़ अराजकता फैल गई। शहरों की सम्पत्ति लूट मार, घरों में तोड़फोड़ करने का क़ानून अपनें हाथों में ले लिए गए। प्रजामंडल के रक्षक ही प्रजा के भक्षक बन गए।” वेताल ने दोनों हाथ आकाश की ओर फैलाकर अपना चेहरा विकृत करते हुए कहना जारी रखा, “उस दिन तालचेर, राजा की उपस्थिति में काउंसिल हाउस पर तालचेर का झंडा और भारत का झंडा फहराया गया। सुबह पुलिस ने दोनों झंडे लेकर बैंड के साथ क़स्बे में मार्च किया। फिर नाम संकीर्तन हुआ। ग़रीबों को खाना खिलाना, छात्रों को मिठाइयाँ बाँटना, सभी मंदिरों में पूजा करना, क़ैदियों को खाना खिलाना, रात में मोमबत्तियाँ और दीपक जलाकर ख़ुशी का उत्सव मनाया गया। दरअसल, तालचेर के राजा हृदयचंद्र देव द्वारा स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने से पहले सुबह तालचेर में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता दिबाकर मिश्र ने तालचेर शहर के केंद्र में राष्ट्रीय ध्वज फहराया। इस समारोह के दौरान तालचेर शहर के कई बुद्धिजीवियों और पूँजीवाद विरोधी लोगों ने सामूहिक रूप से झंडे लहराए और राजशाही विरोधी भाषण दिए, जिसे राजा सहन नहीं कर सके। राजा के आदेश से तालचेर पुलिस कुछ लोगों को गिरफ़्तार कर थाने ले गई। उस गौरवशाली प्रथम स्वतंत्रता दिवस पर, तालचेर राज्य का झंडा आख़िरी बार फहराया गया था। देश की आज़ादी से पहले ही पवित्र मोहन प्रधान से तालचेर दरबार बहुत भयभीत हो गया था। हालाँकि तालचेर दरबार ने पवित्र मोहन प्रधान को छोड़कर बाक़ी सभी कर्मचारियों के वारंट रद्द कर दिए थे, उनका वारंट रद्द करने का बहुत दबाव था, लेकिन राजा ने ऐसा नहीं किया। देश के विभिन्न हिस्सों से तालचेर के शासक पर दबाव पड़ने के बाद राजा हृदयचंद्र पवित्र बाबू की युद्ध घोषणा से डर गए और उनके ख़िलाफ़ वारंट रद्द करने के लिए मजबूर हुए। जिसे 29 अगस्त 1947 को रद्द कर दिया गया और पवित्र मोहन प्रधान 6 सितंबर 1947 को तालचेर लौट आये। यह दिन तालचेर प्रजामंडल का स्थापना दिवस था। पवित्र बाबू तालचेर में अपने अतीत की स्मृतियाँ ताज़ा करते हुए हर जगह पैदल-पैदल घूमे। प्रोफ़ेसर नित्यानंद मिश्रा ने पवित्र बाबू को ‘एक वेगवान अश्वारोही’ के नाम से नवाजा।”
“पवित्र मोहन प्रधान के तालचेर में प्रवेश करने के बाद प्रजा की क्या प्रतिक्रिया थी?” विक्रम ने वेगवान अश्वारोही पवित्र बाबू के बारे में जानकारी लेनी चाही।
वेताल मानो इतिहास के पन्ने पलटते हुए कहने लगा, “तालचेर में प्रवेश करने के बाद, पवित्र मोहन प्रधान ने स्वयंसेवकों की एक बड़ी सेना को संबोधित किया, जिसमें 10,000 स्वयंसेवी सैनिक थे। ऐसी स्वयंसेवी सेनाएँ तालचेर की तरह अन्य गड़जात राज्यों में भी संगठित की गईं थी। ये स्वयंसेवक शासकों से, स्वेच्छा से अपने राज्य की राजनैतिक शक्ति प्रजा को सौंपने की अपील कर रहे थे। उन्होंने पूरे राज्य में पैदल मार्च किया और अपने समर्थन के लिए अन्य स्वयंसेवकों को इकट्ठा किया और ओड़िशा के लोगों से राज्य जन आंदोलन को बड़े पैमाने पर समर्थन देने की अपील की। उनके नेतृत्व में हज़ारों स्वयंसेवकों ने राजा के महल पर चढ़ाई करने की योजना थी।”
“आज़ादी के तुरंत बाद तालचेर में क्या परिवर्तन हुआ?” विक्रम ने अगला सवाल पूछा।
“आज़ादी के तुरंत बाद कुछ राज्य अधिकारी और सिविल सेवक दरबार के विरुद्ध प्रजामंडल में शामिल होने के इच्छुक थे, लेकिन अधिकांश राज्य अधिकारियों को प्रजामंडल के स्वयंसेवकों ने अपने कार्यालयों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी। कई सरकारी भवनों पर तालचेर प्रजामंडल के स्वयंसेवकों का क़ब्ज़ा हो गया। यह आरोप लगाया गया कि इन स्वयंसेवकोँ ने राज्यों ने अधिकांश क्षेत्रों में बड़ी अशांति पैदा की और प्रजा को दरबार से नाता तोड़ने के लिए मजबूर किया। उन्होंने पट्टायत महल पर भी हमला करने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। कुछ लोगों ने शहर में लूटपाट की, मकानों को तोड़-फोड़ कर क़ानून अपने हाथ में ले लिया। प्रजा के इस प्रयास से तालचेर के राजा के हृदय में भय उत्पन्न हो गया। जिसका प्रभाव पाल्लहडा, आठमल्लिक, हिंडोल, ढेंकानाल, आठगड़, तिगिरिया, नरसिंहपुर, नीलगिरी, नयागढ़, खड़पड़ा, रणपुर, सोनपुर, बौध आदि पर पड़ा और इन राज्यों में दो लाख से अधिक प्रजामंडल स्वयंसेवकोँ ने आंदोलन में भाग लिया। वे संगठित होकर अपने राज्यों को बचाने के लिए गाँधीजी के पास गए। गाँधीजी ने उन्हें सरदार पटेल के पास भेजा और प्रजामंडल के नेताओं को अगली सूचना तक धैर्य रखने की सलाह दी।” वेताल ने कहा।
“मैं यह जानना चाहता हूँ कि तालचेर कब ओड़िशा राज्य में विलय हुआ?” विक्रम ने प्रश्न पूछा। प्रत्युत्तर में वेताल ने कहा, “स्वतंत्र भारत में प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन क्षेत्रों के अलावा 654 छोटे, मध्यम और बड़े गढ़ वाले राज्य थे। ओड़िशा में अँग्रेज़ों ने गड़जात राज्यों और मुगलबंदी क्षेत्र पर शासन किया, लेकिन प्रशासनिक, आर्थिक विकास और लोकप्रिय सरकार की स्थापना को कोई महत्त्व नहीं दिया। जाँच समिति ने इन राज्यों के ओड़िशा के साथ विलय की पुरज़ोर सिफ़ारिश की। शासकों को दी गई सनदें रद्द कर उन्हें राज्य का स्थायी ज़मींदार स्वीकार करने का भी विचार था। राज्यों में जन आंदोलन की प्रगति के साथ, यह महसूस किया जाने लगा कि राज्यों का एकीकरण ही समस्या का अपरिहार्य समाधान मानकर गड़जात राज्यों के ओड़िशा शासकों को एक आधिकारिक पत्र भेजा गया, जिसमें राज्य विलय के प्रश्न पर उनकी स्थिति स्पष्ट करते हुए उनसे उनका समर्थन करने का अनुरोध किया गया, लेकिन इसका कोई परिणाम नहीं निकला। राज्यों के लिए अलग मंत्रालय बनाया गया। हरेकृष्ण महताब ने गढ़जात राज्य के सम्बन्ध में सरदार पटेल को एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें राज्यों द्वारा किए गए विभिन्न प्रशासनिक कदाचार शामिल थे। लोक प्रशासन में उन्होंने सुझाव दिया कि संचार, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, पुलिस, प्रशासन, बेरोज़गारी, वन, कृषि और उद्योग आदि को प्रांत के अधीन लाया जाना चाहिए। लेकिन केंद्र सरकार के राज्य मंत्रालयों द्वारा तत्काल कोई कार्रवाई नहीं की गई, क्योंकि उस समय केंद्र सरकार कश्मीर और हैदराबाद के एकीकरण से सम्बन्धित समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त थी। उस समय ओड़िशा में अराजक स्थिति पैदा हो गई। प्रजामंडल ने शासकों के चंगुल से मुक्ति पाने के लिए व्यापक आंदोलन शुरू किया। हज़ारों स्वयंसेवक राज्य अधिकारियों से सत्ता छीनने के आख़िरी प्रयास में लगे हुए थे। राज्य में क़ानून व्यवस्था की स्थिति ख़राब थी। तालचेर और अन्य राज्यों के लोग अपने ही राज्य में एक ज़िम्मेदार सरकार के लिए आंदोलन कर रहे थे। राजा अभी भी सत्ता में बने रहने का प्रयास कर रहे थे। केंद्र की सरकार जल्द से जल्द अखंड भारत बनाने में लगी हुई थी। इस समय तालचेर में अराजकता और भ्रम की स्थिति थी। अक्टूबर 1947 के अंत में नीलगिरि राज्य में अराजक स्थिति उत्पन्न हो गई थी। राज्य प्रमुख ने आदिवासी और मुसलमानों को अपनी सेना में भर्ती किया और प्रजामंडल के कार्यों का प्रतिकार करने के लिए आदिवासियों ने गाँवों को लूटा और कृषि भूमि पर कब्ज़ा कर लिया। वहाँ प्रशासन पूर्णतया अप्रभावी था तथा राज्य में अराजकता व्याप्त थी।”
“फिर क्या हुआ? अराजकता की स्थिति से कैसे उबरे?” विक्रम की आँखों ने वेताल की आँखों से सवाल किया मगर उत्तर वेताल ने अपने मुँह से दिया, “गाँधी जी ने तालचेर के प्रजा मण्डल नेताओं को सरदार वल्लभ भाई पटेल के पास भेज दिया था। उनके पास गड़जात राज्यों के लिए एक पृथक मंत्रालय था। मगर उस समय भारत सरकार कश्मीर और हैदराबाद के एकीकरण की समस्या से जूझ रही थी। उसके बावजूद भी सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 20 नवंबर 1947 को अपने सचिव वी.पी. मेनन को बुलाया और कटक में एक देशी राजाओं के साथ बैठक रखी। ओड़िशा के मुख्यमंत्री हरेकृष्ण महताब, वी.पी. मेनन और सीसी देसाई (विदेश विभाग के अतिरिक्त सचिव), बीडीएस बेदी (संबलपुर क्षेत्रीय आयुक्त) और नगेंद्र सिंह, आईसीएस इस बैठक में शामिल हुए। बैठक में वी.पी. मेनन ने कहा कि सबसे पहले ओड़िशा को भारतीय राष्ट्र में शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि संविधान के पाँचवें और छठे अनुच्छेद के अनुसार, जब तक उन्हें भारतीय राष्ट्र में शामिल नहीं किया जाता, भारत सरकार उन पर कोई अधिकार नहीं है। उस समय ओड़िशा में 26 देशी राज्य थे, जिसमें ’क’ वर्ग में मयूरभंज, सड़ेइकेला पाटना, कलाहांडी, केंदुझर, गाँगपुर, ढेंकानाल, सोनपुर, बामन्डा, नयागड़ और बौद्ध, ‘ख’ वर्ग में आठगड़, आठमल्लिक, खंडपड़ा, खरसुंआ, नरसिंहपुर, बडंवा, बणेई, दशपल्ला, हिंदोल, नीलगिरी, रेढाखोल एवं तालचेर तथा ‘ग’-वर्ग में रणपुर, पाललहड़ा और तिगिरिया थे। देश के आज़ाद होने के बाद 1 जनवरी 1948 को गड़जात शासन का भार प्रजामंडल के हाथों में आया। तालचेर आज़ाद हुआ। राजा-रजवाड़ों का शासन ख़त्म हुआ। प्रजा देश की मालिक बनी। इस आज़ादी में तालचेर प्रजामंडल के प्रथम शहीद होने का श्रेय मुझे दिया जाता है और उसके बाद तो अनगिनत शहीदों की लंबी शृंखला तैयार हो गई। जिसमें वासुदेव साहू, कृतार्थ प्रधान, भगवान साहू, भजना नाएक, महेश्वर प्रधान, पदिया बेहेरा, रवीन्द्र चंद्र प्रधान, बाजि सेठी, वनमाली प्रधान, रत्नाकर साहू, दीनबंधु साहू, बुधिया बेहेरा, श्रीमति रेखा देवी, श्रीमति अइठा पत्री आदि-आदि का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया।”
“भले ही देश आज़ाद हो गया, मगर उन राजाओं से राजपाट छीनना क्या इतना सहज था?” प्रश्न किया था विक्रम ने और उत्तर दिया था वेताल ने, “बिल्कुल सहज नहीं था। यह तो हमें हार्दिक धन्यवाद देना चाहिए, हमारे लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को, जिन्होंने अपने उद्बोधन में राजाओं को खुली चेतावनी दी थी कि ‘यदि वे शान्ति से रहना चाहते हैं तो वे अपने राज्य भारत सरकार को समर्पित कर दें और अपने-अपने आय-भत्ते लेते रहें। उनका मान-सम्मान की रक्षा भारत सरकार करेगी। वे अपनी इच्छा से नौकर, चाकर, मोटर रख सकते हैं, कुत्ते पाल सकते हैं और बंदूकें रख कर शिकार कर सकते हैं। उनकी व्यक्तिगत कोठा-बाड़ी और ज़मीन पर सरकार किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी। और अगर उन्होंने ये शर्त नहीं मानी तो उन्हें उनकी प्रजा ही उखाड़ फेंकेगी। इस प्रकार सारे राजे-रजवाड़े अपना अस्तित्व खोकर ओड़िशा प्रदेश का हिस्सा बने, जिसके प्रथम मुख्यमंत्री बने डॉ. हरे कृष्ण महताब और राज्यपाल बने एम. आसिफ़ अली।” यह कहते हुए मुस्कराकर वेताल ने विक्रम से अपने जाने की इजाज़त माँगी।
मगर विक्रम ने मना कर दिया, यह कहते हुए, “मित्र! अभी आपको न तो मुझे मुक्ति मिल सकती है और न ही आपको अपनी प्रेत योनि से। जब तक मेरा यह उपन्यास पूरा नहीं हो जाता और आपकी खोज पूरी नहीं हो जाती, तब तक आप किसी हालत में मुझे छोड़कर नहीं जा सकते हो। मैं आपकी खोज विगत दो सालों से कर रहा हूँ। और इस खोज के लिए किए गए मेरे सारे प्रयासों को पूरे देश के सामने रखना चाहता हूँ, तब तक आपको मेरे साथ रहने का वायदा करना होगा। हर घड़ी, हर पल। आपके जैसे अनेक शहीद अपनी अछूत जाति के कारण गुमनामी का दर्द झेल रहे होंगे और उनके दर्द भी आपकी इस औपन्यासिक गाथा के माध्यम से असहनीय सामाजिक विद्रूपताओं और विसंगतियों से भरे इतिहास बोझ के तले दबे उनके प्रसंग भी बाहर निकलेंगे। मुझे विश्वास है कि आपके जीवन पर लिखा गया यह उपन्यास देश के प्रजा-मंडल आंदोलनों का प्रतिनिधि उपन्यास बनेगा। फिर भी अगर आप जाना चाहते हो तो जाने से पूर्व एक बात बताते हुए जाइए, वेताल जी!” विक्रम ने वेताल से अनुरोध किया।
“क्या पूछना चाहते हो, विक्रम?” वेताल ने हँसते हुए कहा, “प्रजामण्डल आंदोलन की कहानी ख़त्म हो गई। क्या बचा अब?”
“ओड़िशा में तालचेर के विलय हो जाने के बाद पवित्र बाबू की राजनीति में क्या भूमिका रही?” यह सवाल अचानक विक्रम के मन में उठा। ऐसा लग रहा था जैसे फ़िल्म अभी तक ख़त्म नहीं हुई है।
वेताल ने अपनी कहानी को अंतिम रूप देने से पहले इस प्रश्न का उत्तर देना उचित समझा और वह कहने लगा, “गड़जात राज्यों के ओड़िशा में विलय हो जाने के बाद फरवरी, 1948 में राज्य विधानसभा में ओड़िशा स्टेट काउंसिल का गठन हुआ। ओड़िशा सरकार ने गड़जात के नेताओं में तालचेर के पवित्र मोहन प्रधान, नीलगिरी के कैलाश चंद्र मोहंती और बलांगीर पाटणा के कपिलेश्वर नंद को ओड़िशा स्टेट काउंसिल में काउंसिलर के रूप में नियुक्ति दी। जिसका दर्जा किसी राज्यमंत्री से कम नहीं था। इस तरह प्रजामण्डल आंदोलन के माध्यम से पवित्र बाबू ने सीधे ओड़िशा की राजनीति में क़दम रखा और हमारे तालचेर के नाम को ओड़िशा विधान सभा में सुशोभित किया। उस समय ओड़िशा की राजधानी हुआ करती थी कटक। देखते-देखते पवित्र बाबू कटक में बस गए। मुझे और कुछ सवाल मत पूछना। अब बारी मेरी है, मैं तुम्हें सवाल पूछूँगा, जिसका तुम्हें उत्तर देना है। जैसा कि मैंने कहा था।”
“आज मैं थक गया हूँ और उत्तर नहीं दे पाऊँगा। कल तालचेर की साहित्यिक संस्था ‘मने पकाअ’ तालचेर के प्रजामण्डल मैदान में कवि-सम्मेलन कर रही है। इसलिए कल तुम मेरे साथ रहोगे। कवि-सम्मेलन ख़त्म होने के बाद जो सवाल पूछना चाहो, मैं उसका उत्तर देने के लिए तैयार हूँ।” विक्रम ने वेताल के सम्मुख क्षमा याचना की मुद्रा बनाई और वेताल को कल होने वाले कवि-सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया।
तभी वेताल ने ऊँची छलाँग लगाते हुए आकाश की अनंत ऊँचाइयों में विलीन हो गया।
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