शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली

शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय—7

 

विक्रम को कल बहुत अच्छी नींद आई, ऐसा लगा जैसे पहली बार वह शान्ति से भरपूर सोया हो। प्रजामंडल की गौरवमयी गाथा और तालचेर के ओड़िशा राज्य में विलय होने की पृष्ठभूमि सुनकर मानो देश का स्वाधीनता-संग्राम उसकी आँखों के सामने गाँधी फ़िल्म के दृश्यों की तरह रेखांकित हो रहा हो। उसके हृदय के एक भाग अलिंद में ख़ुशी का माहौल था, मगर दूसरे भाग निलय में शहीद बिका को उचित सम्मान नहीं मिलने के कारण व्यथा की बारिश हो रही थी। भले ही, हमारा देश अँग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ाद हो गया, मगर सामाजिक विद्रूपताओं, विसंगतियों, भ्रष्टाचार और जातिवाद की अग्नि-विभीषिका से दग्ध होने का कोहराम अभी भी सुनाई दे रहा था। गहरी नींद के दौरान उसके अवचेतन मन में आइसबर्ग के पानी में डूबे भाग के रहस्य की तरह सपनों की दुनिया की सृष्टि होने लगी थी। सपने में वह देखता है कि वे दोनों-विक्रम और वेताल-अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में भाग लेने गए हुए हैं, जिसका आयोजन कर रही है तालचेर की साहित्यिक संस्था ‘मने पकाअ’ और स्थान है तालचेर के प्रजामण्डल मैदान में बना पांडाल। समय शाम के पाँच बजे, दिनांक 21 सितंबर 2024। बिका नायक का 87 वाँ शहीद दिवस। कभी इस मैदान में प्रजामंडल भवन था, जो अभी-अभी धूलिसात हो गया है, और आजकल इस मैदान में हर साल पुस्तक मेले का आयोजन किया जाता है। उसके परकोटे के सामने हैं तालचेर के उप ज़िलापाल का कार्यालय। इस कार्यालय के बाईं ओर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट और उसके सामने ‘पत्रकार भवन’। इस वर्ष इस संस्था ने अखिल भारतीय कवि सम्मेलन की रूपरेखा रखी थी, जिसमें देश के विभिन्न राज्यों के प्रसिद्ध कवियों में भोपाल से असंग घोष, नई दिल्ली से सुधीर सक्सेना, लखनऊ से हरिशंकर उपाध्याय भुवनेश्वर से प्रोफ़ेसर सुप्रिया मलिक, स्थानीय कवि-कवयित्रियों में ब्रह्मा शंकर मिश्रा, ओम ईश्वरी कविकन्या, डॉ. प्रशांत रथ, बिरंचि महापात्र, अनीता पाणी, शर्मिष्ठा साहू समेत अनेक साहित्य अनुरागियों ने इस कवि सम्मेलन में शिरकत की थी। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता का भार दिया गया था वेताल के परम मित्र विक्रम को, राजस्थान साहित्य अकादमी के देवराज उपाध्याय, दिल्ली की साहित्य शोध-संस्थान की ओर से नंद दुलारे वाजपेई पुरस्कार और नई दिल्ली की भारतीय अनुवाद परिषद की ओर से डॉक्टर गार्गी द्विवागीश पुरस्कार जैसे अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित। 

मंचासीन अतिथियों में है असंग घोष, हरे प्रकाश उपाध्याय, विक्रम, सुधीर सक्सेना, प्रशांत रथ, ब्रह्म शंकर मिश्रा, ॐ ईश्वरी कविकन्या, बिरंचि महापात्र और शहीद बिका के तीसरी पीढ़ी के प्रपोत्र कवि आर्त्त त्राण। उद्घोषक अजय साहू ने सर्वप्रथम सभी का स्वागत करते हुए इस राष्ट्रीय सम्मेलन के शुभारंभ के लिए सम्मानित अतिथियों को सरस्वती वंदना के लिए आमंत्रित करते हैं। और फिर उन्हें पुष्प-गुच्छ, शाल एवं श्रीफल देने के बाद अपनी मधुर आवाज़ में निम्न पंक्तियाँ गाते हैं: 

“शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले। 
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा॥” 

अभी उनकी ये पंक्तियाँ पूरी भी नहीं हुई थी कि प्रजामंडल मैदान में उपस्थित जनारण्य ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं और उसके बाद अजय साहू ने पहले पहल स्थानीय कवियों का नाम पुकारकर कवियों को अपनी कविताएँ पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। इन कवियों में सर्वप्रथम कवयित्री ॐ वाग्मयी कविकन्या ने अपनी कविता ‘शहीद की गीता’ पढ़ी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थी: 

“हिमालय से कन्या कुमारी तक
गंगा से गोदावरी तक
व्याप्त मेरी माँ का तिरंगा आँचल
यहाँ जीने के लिए करना होगा
मरने का व्रत। 

ओजस्वी कविता सुनकर उपस्थित भीड़ खड़े होकर ज़ोरदार तालियाँ से स्वागत करती है। मगर वेताल ने विक्रम के कानों में कहा, “यह भीड़ केवल तालियाँ बजाती है, मगर उसका अनुपालन बिल्कुल भी नहीं करती है। बड़त्रिविड़ा के हेडमास्टर कुलमणि बेहेरा ने मेरे जीवन पर आधारित एक नाटक ’शहीद बिका नाएक’ लिखा, मगर उन्हें भी पाठकों से वांछित आदर नहीं मिल पाया, जबकि उन्हें यह नाटक लिखने के लिए मेरी समकालीन पीढ़ी के जीवित लोगों से तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के आकलन हेतु तथ्य संग्रह करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी थी।” 

विक्रम ने वेताल को चुप रहने का संकेत किया। उसके बाद उद्घोषक अजय ने दूसरे, तीसरे, चौथे कवियों को आमंत्रित किया, जिनकी कविताएँ निम्न थी: 

प्रशांत रथ की कविता ‘मेरा शहर तालचेर’ याद आने लगी:

“यह शहर
मेरा शहर तालचेर
एक अदम्य शक्ति-स्थल
जहाँ श्वान भागे दुम दबाकर
जब सामने आया शशक दल
ब्राह्मणी के सुरम्य तट का पूजा-स्थल
‘तालेश्वरी’ के नाम पर नाम पड़ा तालचेर। 
 
यहाँ जल-थल-गगन
सबसे ऊपर पवन
खनिज खनन
कारख़ानों का अखंड उपवन
‘केकुला रथ’ की तरह
नहीं होता छोड़ने का मन
यही मेरा तालचेर। 
 
काली धूल, काले धुएँ
के घेरे में
अनेक सालों से
हृदयता की सफ़ेद चमक लिए
ब्राह्मणी नदी के तट की
रेतीली शय्या पर
अनंत शयन मुद्रा में
निश्चिंतता में सोया हुआ है
मेरा सुंदर शहर
मेरा शहर तालचेर
मेरा शहर तालचेर।”

यही सुंदर शहर अपने जन-प्रतिनिधियों तथा सामाजिक अव्यवस्था का शिकार होने लगा है। वक़्त-बेवक़्त हड़ताल कर उद्योग-धंधों का कार्य रोक दिया जाता है तो कवि देवानंद साहू का दुःखी मन ‘रो रहा मेरा तालचेर’ जैसी कविता लिखता है। एक पद्यांश:

“रो रहा मेरा अंचल, रो रहा तालचेर
कौन समझेगा इसका दु:ख-दर्द
उसके जनप्रतिनिधि, वीर संतति
हो गये सब विमुख।”

यह कविता सुनकर वेताल विक्रम से कहने लगता है, “तालचेर में कई शिल्प कल-कारखाने खुल जाने के बाद लोगों की ज़मीनें चली गयीं, मगर अच्छी तरह उनका रिसेटलमेंट नहीं हो पाया। इस वजह से राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण परिवेश संबंधित कई समस्याएँ पैदा हो गयी हैं। आपने ‘न्यूक्लियर वार’ फ़िल्म देखी होगी। सारे दृश्य उसी तरह हैं। फिर से जनता को उठकर खड़ा होना पड़ेगा।” कवि अजय कर ने अपनी कविता ‘पवित्र मोहन की याद में’ सुनाकर श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया, ये वही पवित्र मोहन प्रधान थे, जो शहीद बिका के गुरु थे: 

“प्रज्ज्वलित शिखा दुनिर्वार दीक्षा
चिर विप्लवी प्रजा-प्राण
अवतरित हो, हृदय में कर प्रवेश
निर्मूल करो कालिमा हमारी। 
करते हम आवहान, हे दिव्यात्मा! 
चरणों में समर्पित कोटि प्रणाम
तालचेर के खनिज, पानी-पवन
‘पोइपाल’ बही में शुभनाम
सुना कानों से, पढ़ा किताबों में
अँग्रेज़ों की नरक-यंत्रणा
यह तालचेर की भाग्य-विडम्बना। 
बंधुआ-मज़दूरी, बेकारी और अनेक अत्याचार
अंधा-शासन यातना
इस धरती के मनुष्य भूखे
प्रतिदिन भोग रहे प्रताड़ना। 
‘पवित्र मोहन’ अक्षय महान
प्रजामण्डल की वह्नि शिखा
पवित्र पथ पर ले मुक्ति-मशाल
भभक उठी थी अग्नि शिखा”

यह कविता सुनकर विक्रम-वेताल दोनों भाव विभोर हो गए। विक्रम सोचने लगा कि तालवृक्ष के तुंग पर बैठा वेताल आज भी अपना मुक्तिपथ खोज रहा है, जबकि वह पवित्र बाबू के ’मुक्तिपथ सैनिक’ का एक अन्यतम प्रारंभिक स्वरूप था, जो धूमिल की ये पंक्तियाँ याद दिलाती हैं: ‘ये आग मुझमें नहीं तो किसी के दिल में तो जलनी ही चाहिए।’ उसके बाद उद्घोषक ने प्रमुख कवयित्री ॐ ईश्वरी कवि-कन्या को अपने कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया, जो देश की परिस्थितियों से भी अपने आपको नहीं बचा पाती है, उन्हें अपने देश की बिगड़ती राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक विद्रूपताओं पर अफ़सोस होने लगता है, और दिल के किसी कोने में टीस-सी उठने लगती है। वह अपनी कविता ‘भारतवर्ष’ सुनाने लगती है:

“बहुत-कुछ फेंक रहे थे वे लोग? 
पत्थर, प्रेम
शब्द, स्वप्न
अहंकार, फूल
मगर निशर्त
सीने पर सहन किया, 
प्यार के भार से
क्रमश: झुकती चली गई
एक बूँद आँसू थोड़ी हँसी
अनुरंजित अभिमान, फिर भी
मेरा भारतवर्ष।” 

उसके बाद उद्घोषक अजय साहू ने शहीद बिका नायक के प्रपोत्र कवि आर्त्त त्राण को अपनी कविता ‘शहीद बिका’ के पाठ के लिए आमंत्रित किया। उसे माइक की ओर बढ़ते देखकर वेताल ने विक्रम के कान में धीरे से कहा, “आर्त्तत्राण ने ओड़िया भाषा में मेरे जीवन पर अत्यंत ही मार्मिक कविता लिखी है, जिसमें घोर जातिवाद और सामाजिक असहिष्णुता को उजागर किया है। पाठकों के लिए उसे आपको हिंदी में अनुवाद करना चाहिए, ताकि मेरे संदेश के साथ-साथ अभी तक हमारे देश में व्याप्त विद्रूपताओं की ओर भी समाज का ध्यान आकर्षित हो। इसलिए आप इसका हिन्दी अनुवाद सुना दीजिए।” 

आर्त्तत्राण की ओड़िया कविता ‘शहीद बिका’ के पाठ के बाद विक्रम ने उसका हिन्दी अनुवाद श्रोताओं को सुनाया। 

“हे शहीद वीर बिका नाम तुम्हारा, जन्म लिया तुमने क्षत्रिय गण 
धन्य तुम्हारे पिता, धन्य तुम्हारी माता, जन्म दिया चन्द्रबिल गाँव 
तुम वीरवर रणक्षेत्र में भर हुंकार हुए अग्रसर 
तुम वीरवर . . . ॥1॥
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उठाया तुमने फरसा अपने हाथ 
राज पुलिस की गाड़ी जाते-जाते धँसी सिंगड़ा नदी बालू तट 
ओह वृकोदर! तान सीना बोला, ‘ले गोली मार’ 
ओह वृकोदर . . . ॥2॥
फिरंगी सेना गई डर, चला दी गोली बिका पर 
वीर धनुर्धर हुआ रक्ताक्त, प्राण गँवाए देश के ख़ातिर 
आहे धनुर्धर चले गए तुम स्वर्गपुर 
आहे धनुर्धर . . . ॥3॥
आज तुम नहीं हमारे पास, हो गए अमर शहीद 
जाति हरिजन, कोई नहीं छोटा-बड़ा जन, हुआ अब देश आज़ाद 
हरिजन जाति का किया तूने सुनाम, धन्य-धन्य 
जाति हरिजन . . . ॥4॥
तुम्हारा जीवन हुआ नारखार, सुख भोगता यह संसार 
तुम्हारी महिमा कीर्ति नहीं रही शेष, यह है धर्म विचार 
तुम हो धर्महीन, तुम हो महापापी हीनजन 
तुम हो धर्महीन . . . ॥5॥

आर्तत्राण की इस कविता ने न केवल विक्रम के, बल्कि अपने सगे पूर्वज रहे वेताल के हृदय को भी स्पर्श किया। दोनों की आँखें भर आई। ‘धर्महीन’, ‘महापापी’, ‘हीनजन’, ‘जाति हरिजन’, ‘महिमा कीर्ति नहीं रही शेष’ आदि ने दोनों को झकझोर दिया था। विक्रम ने कवि आर्तत्राण से इन शब्दों का अपनी कविता में प्रयोग के बारे में पूछा तो उसने कहा, “मेरे पुरपुरुष की शहादत व्यर्थ गई है, क्योंकि हम नीची जाति हरिजन के लोग देश की आज़ादी के लिए भी अपना सिर काटकर या कटाकर आपकी थाली में रख देंगे तो भी आप उसकी तारीफ़ नहीं करोगे?” 

“क्या कहना चाहते हो?” विक्रम ने पूछा। 

“आज मेरे पुरपुरुष की शहादत को आठ दशक हो गए, किसी ने उनके सम्मान के लिए कुछ नहीं किया। हर साल बड़े-बड़े नेता आते हैं, मेरे घर की मिट्टी को नमन करते हैं, फिर भूल जाते हैं। शहीद की स्मृतियों को अक्षुण्ण रखने के लिए कुछ करना चाहिए, मगर नहीं। इसमें नेताओं की ग़लती नहीं है, हमारा सामाजिक ढाँचा ही ऐसा है। हर साल प्रजामंडल दिवस आता हैं, मगर बिका के परिवार की कहाँ कोई सुध-बुध लेता है! ऊँच जाति के लोग उन्हें बरगला देते हैं या फिर कुछ करना चाहते हैं तो भी उन्हें नहीं करने देते, इसलिए मैंने अपनी कविता में ‘तुम्हारी महिमा कीर्ति नहीं रही शेष’ कहकर अपने मन के विक्षोभ को उभारा है।” 

वेताल ने जब अपने प्रपोत्र के तर्क सुने तो उसे लगा कि आज भी हमारा देश सही अर्थों में आज़ाद नहीं हुआ। और लड़ाईयाँ बाक़ी हैं। मगर कब तक चलेगी, मालूम नहीं। 

इस तरह सभी आमंत्रित कवि अपनी-अपनी कविताएँ सुनाते गए। जन-प्रतिनिधियों को कवि ब्रह्मशंकर मिश्रा अपनी कविता ‘तालचेरवासियों का आह्वान’ में सकारात्मक ऊर्जा का प्रयोग करने हेतु आह्वान करते हैं। तालचेर के ग्रामवासियों की सादगी, सरलता और आत्मविश्वास की प्रशंसा करते हुए कवि ब्रह्मशंकर मिश्रा अपनी कविता ‘तालचेर ग्रामवासी’ में लिखते हैं:

“हर दिन खाते बासी पखाल
पत्रा-सब्जी खारा खट्टा
जला बैंगन, मगर ख़ुशहाल
आदमी का आदमी पर विश्वास
दुःख बाँटने में हमेशा अग्रसर
अडिग आत्मविश्वास के साथ।”

ब्रह्मशंकर मिश्रा जी के बाद बारी थी तालचेर के प्रसिद्ध कवि बिरंचि महापात्र की, जिन्होंने अपने खंड-काव्य ‘चकड़ोला की ज्यामिति’ से कुछ कविताएँ सुनाई। जिसकी समीक्षा प्रोफ़ेसर प्रशांत रथ ने की, जिसके मुख्य अंश इस प्रकार थे:

“इस समय के महत्त्वपूर्ण कवि बिरंचि महापात्र ने सनातन धर्म के मर्म को स्पर्श करते हुए ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना को अपनी कविताओं से विज्ञ पाठकों को परिचित कराया है और साथ ही साथ मानवता के ख़िलाफ़ लड़ रही विनाशकारी शक्तियों, जिसमें आधुनिक राजनीति, आतंकवाद, माओवाद को भी मिटाने के लिए चकाडोला से अश्रुल प्रार्थना भी की है। कुछ कविताएँ जो उनकी पारिवारिक एवं व्यक्तिगत हैं, जिसमें अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्री के असामयिक निधन से मर्माहत होकर ईश्वर की शरण में जाकर शान्ति खोजना ही तो परिस्थितियों के मारे कवि के स्थितप्रज्ञ होने का एकमात्र उद्देश्य तो नहीं है? या फिर गोस्वामी तुलसीदास की तरह बचपन एवं यौवन में भोगी गई पीड़ाओं के केंद्रीभूत हो जाने से राम को आराध्य मानकर अपनी समस्त रचनाओं में भक्ति का सहारा लिया यह कहना मेरे लिए मुश्किल है। ठीक इसी प्रकार कवि बिरंचि महापात्र ओड़िशा की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक व धार्मिक परिवेश से ओत-प्रोत अपने जीवन की खट्टी-मीठी स्मृतियों को अपने सामने रखकर दुखों से समझौता करने या उबरने के लिए सार्वभौमिक सत्ता ‘चकाडोला की ज्यामिति’ खींचने में अपना सारा जीवन गुज़ार दिया, जो उनकी मानसिक प्रक्रिया में आध्यात्मिक तत्त्वों की बहुलता के साथ-साथ विज्ञान के विषयों पर अपने जीवन-पर्यंत अध्ययन के अनुरूप मौलिकता को निखार कर नए तरीक़े से नव-संचरण किया है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि, कवि की कविताएँ बहुमुखी होकर विभिन्न धरातलों के वैविध्य फलकों जैसे सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक विरासत की प्रवाहमान सरिता की जल तरंगों को स्पर्श करती हुई शांत-भाव से विस्तृत सागर में प्रवेश करती है। पाँच दशक से अधिक के काल खंड में रची गई ये कविताएँ जीवन के व्यावहारिक पक्ष को दर्शाने के साथ-साथ सम-विषम परिस्थितियों में भी निरासक्त, निर्भय व उन्मुक्त भाव से मनुष्य को अपने जीवन जीने का संदेश देती है। तालचेर की साहित्यिक माटी को नमन करते हुए यहाँ के अमूल्य सांस्कृतिक विरासत को राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाने में सबसे ज़्यादा सहयोग करने वाले विक्रम तथा उनके सपरिवार को साधुवाद देता हूँ। 

उसके बाद अपनी जगह से उठकर उद्घोषक महोदय अजय साहू ने हिंदी की प्रसिद्ध राष्ट्रीय पत्रिका ‘दुनिया इन दिनों’ के संपादक, पत्रकार और सशक्त कवि सुधीर सक्सेना जी अपना उद्बोधन प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित करता है। सुधीर सक्सेना जी अपनी कुर्सी से उठकर माइक पर आकर अपना वक्तव्य देना शुरू करते हैं: 

“प्यारे तालचेरवासियों, साहित्य अनुरागियों, मंचासीन अतिथियों, भाइयों और बहनों! 

देश के कोयलाञ्चल की इस हृदयस्थली, तालचेर मैं अपने मित्र विक्रम के आमंत्रण पर दो दिन पूर्व आया हूँ। दो दिन के प्रवास के दौरान मेरा जिज्ञासु मन तालचेर के इतिहास, भूगोल, सांस्कृतिक विरासतें, आदिवासी जन-जीवन, कल-कारखाने, राजनैतिक सरगर्मियों की टटोला है। इस दो दिवसीय कार्यक्रम में बहुत ज़्यादा तो नहीं, मगर प्रतिनिधि कलाओं के रूप में हिंगुला मंदिर, केन्द्रीय वर्कशॉप का जगन्नाथ मंदिर, जगन्नाथ क्षेत्र, दूर से तालचेर कॉलेज, फर्टिलाइज़र कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया की भग्नावशेष कॉलोनी, डॉ. बराल से साक्षात्कार, अंगुल का जगन्नाथ मंदिर, डीएवी स्कूल के हिन्दी प्राध्यापक डॉ. के.के. आचार्य से भेंटवार्ता, ब्राह्मणी नदी के किनारे तालचेर का राजवाटी, तालचेर का प्रसिद्ध सिंहद्वार और राजा राजेन्द्र चंद्र देव का इंटरव्यू। सब घटनाक्रम मेरे लिए रिपोर्ताज के कथानक बन गए हैं। मेरी स्मृतियाँ तालचेर के इतिहास की पुरानी जड़ें टटोलती है कि तालचेर के व्यापारिक सम्बन्ध अफ़ग़ानिस्तान से थे या ईरान-इराक से? तालचेर के राजाओं की जड़ें राजस्थान से जुड़ी हैं या अन्य राज्यों से? किस-किस संक्रमण के दौर से गुज़रा है यह प्रदेश? 
हिंगुला मंदिर और जगन्नाथ मंदिर की स्थापत्य कला, नक़्क़ाशी, भास्कर्य कला ने जहाँ मुझे बहुत प्रभावित किया, वहीं कोयले से धूल-धूसरित रास्तों, पगडंडियों और सड़कों ने काफ़ी निराश भी किया। मन ही मन मैं तालचेर की तुलना अमेरिका से करने लगा। क्या आज भी हम प्रागैतिहासिक युग में रह रहे हैं? कहाँ अमेरिका और कहाँ तालचेर? तालचेर का अमेरिका के नगर जैसे बनने में दो-ढाई सौ साल लग जाएँगे। मेरा तात्पर्य केवल तालचेर से ही नहीं है, वरन् हमारे देश के सभी नगर, क़स्बों और महानगरों से है। आज भी हमारी मानसिकता धर्म, पाखंड, जातिवाद, भाषावाद, सांप्रदायिकता से कूट-कूटकर भरी है, तो किस तरह हम देश की उन्नति का वह सपना देख सकते हैं? मैं हिंगुला मंदिर का सम्बन्ध अग्निपूजक जरथुरष्ट्र के अनुयायियों से जोड़कर देखता हूँ। 

इतिहासकार कहते हैं कि बलूचिस्तान की हिंगोल नदी के नाम पर इस मंदिर का नामकरण ‘हिंगुला’ बताया जाता है। मगर मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ। मेरा मानना है, हिंगुला मंदिर की जड़ें ईरान-इराक तक जाती हैं। यह शोध का विषय है, इस पर मैं दिल्ली जाकर कार्य करूँगा। चलिये, यह काम मैंने अपने हाथों में ले लिया। ‘हिंगुला मंदिर’ की स्थापना से जुड़े तथ्यों पर छानबीन करने का। जगन्नाथ मंदिर के बारे में हिन्दुस्तान की आधी जनता ऐसी ही जानती है, हिन्दू धाम के नाम पर। बौद्ध संस्कृति, हिन्दू संस्कृति और परम्पराएँ तो विश्व प्रसिद्ध हैं, फिर जगन्नाथ मंदिर का इतिहास क्यों नहीं? मुझे डॉ. के.के. आचार्य के आलेख ‘जगन्नाथ, एक रहस्य’ पर ‘हरिकथा अनंता’ कहकर काफ़ी कुछ जानकारी प्राप्त हुई है। कुछ और जानकारियाँ मैंने विक्रम के साथ तालचेर के राजा राजेन्द्र चन्द्र देव (25वें राजा) से इंटरव्यू के दौरान ली थी। जिसे मैंने अपनी डायरी में लिपिबद्ध किया है। राजा जूदेव और उनके वंशज से सुधीर जी का अच्छा परिचय है, उनके रिश्तेदार हैं तालचेर के राजा। और तो और, उनके बड़े बेटे युवराज विजयेन्द्र की शादी तो राजस्थान के भीलवाड़ा के राजघराने में हुई है। कुछ रानियाँ तो जोधपुर के राजघरानों से हैं। इस तरह देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाले ये वैवाहिक सम्बन्ध दो भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के समन्वय का काम करती हैं। 

प्रजामंडल के प्रथम शहीद बिका की खोज को मैं अपनी पत्रिका ‘दुनिया इन दिनों’ के माध्यम से पूरे देश के सामने लाऊँगा, ताकि हमारी वर्तमान पीढ़ी को देश की आजादी के लिए अपने प्राण कुर्बान करने वाली गुमनाम शख्सियत, जो प्रजामंडल आंदोलन के नींव की ईंट हैं—के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके। इसी के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ। 

जय हिन्द, भारत माता की जय।” 

इससे पहले कि उद्घोषक किसी और वक्ता को आमंत्रित करता, विक्रम अपनी कुर्सी से उठकर माइक अपने हाथों में लेते हुए कहना शुरू करता है, “दोस्तो! मुझे यह कहते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि सुधीर जी मेरे अनन्य मित्र हैं। उनके उद्बोधन से ही मैं यह अंदाज़ा लगा सकता हूँ कि दो दिन के दौरान जितना सुधीर जी ने तालचेर के बारे में जाना होगा, शायद मैं यहाँ भारत सरकार के उपक्रम महानदी कोलफ़ील्डस लिमिटेड की खदानों में काम करने के दौरान तेरह सालों की दीर्घ अवधि में भी नहीं जान पाया। जहाँ सुधीर जी यायावर हैं, वहीं गंभीर प्रकृति के कवि भी। डॉ. प्रसन्न बराल को अपना साक्षात्कार देते समय उन्होंने कहा था  कि मैं क़लम हाथ में लिए ही मौत का वरण करूँ। ऐसे समर्पित पत्रकार-लेखक-कवि का तालचेर दौरा किसी ऐतिहासिक घटना से कम नहीं है। दो दिनों का उनका सान्निध्य मेरे लिए किसी ऊर्जा स्रोत से कम नहीं था। कभी ‘गीत गोविंद’ पर बात होती, तो कभी ‘गोविन्द की गति गोविन्द जाने’ पर। उनकी नज़रों में जयदेव का ‘गीत गोविंद’ दुनिया की सबसे प्रसिद्ध गीति-काव्य है। जो ध्वन्यात्मकता, लय और संगीत इस महाकाव्य में है, वह दुनिया के किसी भी महाकाव्य में नहीं है। ‘गीत गोविंद’ के प्रति उनकी श्रद्धा देखकर मेरा मन मंत्रमुग्ध हो गया। उन्हें तो ‘गीत गोविंद’ के कुछ संस्कृत श्लोक भी मुखस्थ थे। उनकी भाषा भी तो काव्यात्मक है और उनका उपन्यास ‘गोविंद की गति गोविंद जाने’ इसका जीता-जागता उदाहरण है। मार्जित भाषा अलंकार, छंद, भाषा-शैली, प्रवाहमयता, शिल्प, शब्दों के सटीक प्रयोग, प्रतीक और बिम्ब योजना और काव्यात्मकता, ये सभी इस उपन्यास को साहित्य में अभूतपूर्व दर्जा दिलाते हैं। सुधीर जी और राजा राजेन्द्र चंद्र देव के बीच तालचेर को लेकर विस्तृत वार्तालाप हुई। इस पूरे साक्षात्कार के दौरान औपचारिक-अनौपचारिक सारी बातें सुनने के बाद मुझे लगता है कि ‘दुनिया इन दिनों’ पत्रिका में दिल्ली से जब  यह साक्षात्कार प्रकाशित होकर हमारे पास आएगा तो मुझे उम्मीद है कि तालचेर को फिर से विश्व के मानचित्र पर पुन: प्रतिष्ठा प्रदान करवाने और शहीद बिका को जातिगत विभेदता से ऊपर उठकर सच्चा सम्मान दिलवाने में सहायक सिद्ध होगी। अवश्य ही,  डॉ. सुधीर सक्सेना की तालचेर यात्रा और उनका इस मंच से दिया गया उद्बोधन हमेशा के यादगार रहेगा।” यह कहते हुए विक्रम ने अपना माइक उद्घोषक अजय साहू को पकड़ा दिया। उन्होंने वक्तव्य  की अगली शृंखला में लखनऊ से पधारे हिन्दी के प्रसिद्ध कवि, रश्मि प्रकाशन के संस्थापक डॉ. हरे प्रकाश उपाध्याय को आमंत्रित किया। अपनी कुर्सी से उठकर बिना किसी औपचारिकता के डॉ. हरे प्रकाश उपाध्याय माइक अपने हाथों में लेते हुए सबसे पहले अपनी लंबी कविता ‘खंडहर’ सुनाई, जिसमें देश के दुर्दिनों की भविष्यवाणी साफ़  सुनाई दे रही थी। उसके बाद उद्घोषक ने समीक्षा के लिए प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर प्रशांत रथ को आमंत्रित किया गया। उन्होंने अपने काग़ज़ पर नोट किए हुए कुछ बिंदुओं का विस्तार करते हुए कहने लगे, “ सज्जनों! हम बड़े भाग्यशाली है कि आज बीच देश के प्रसिद्ध युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय मौजूद है। उनके अद्यतन कविता संग्रह ‘नया रास्ता’ में संकलित लंबी कविता ‘खंडहर’ देश की वर्तमान कुत्सित राजनीति और अनेकानेक सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर तीक्ष्ण प्रहार करती है और पाठकों के समक्ष कभी गौरवशाली और आलीशान रही देश की हवेली का जर्जर खंडहर, भग्नावशेष प्रस्तुत करती है।

इस दीर्घ कविता के सात भाग हैं। हर भाग में कवि ने स्वतंत्र रूप से वैचारिक मंथन भले ही किया हो, मगर रेल के डिब्बों की तरह उन्हें शुरू से लेकर अंत तक बाँध कर रखा है।

‘खंडहर’ के प्रथम भाग में आधुनिक भारत के भयावह दुर्दिनों का वर्णन है, जिसमें जहाँ यत्र-तत्र-सर्वत्र अव्यवस्था ही अव्यवस्था देखने को मिलती है, ऐसा लग रहा मानो मौत की काली छाया मँडरा रही हो। इधर मौत उधर मौत ! इधर लोगों का विलाप, उधर लोगों के क्रंदन-रूदन के स्वर। खुलेआम हत्याएँ, आतंकवाद, नस्लवाद। जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव। आज का पढ़ा-लिखा वर्ग जाति के बंधनों से ऊपर उठने का खोखला दावा करता है, उधर भीतर ही भीतर जाति और धर्म के नाम पर हर रोज़ नए-नए समाज-संप्रदायों का निर्माण कर रहा है। भले ही समाज में प्रेम-विवाह का प्रचलन बढ़ रहा है, मगर देश जाति के नाम पर अलग-अलग हिस्सों में बँटता जा रहा है। कहीं सवर्ण समूह, कहीं दलित समूह, कहीं ओबीसी, तो कहीं एससी, एसटी—तरह-तरह की सौपानिकी सुरसा की खुले मुँह की तरह समाज में पाँव पसारे जा रही है। एक तरफ़ विद्वान समाजशास्त्री वर्ग समाज में समरसता लाने के लिए प्रयत्नशील हैं, तो दूसरी तरफ़ स्वार्थी राजनेता खुलेआम जाति के आधार पर वोटों की ख़ातिर जातियों का ध्रुवीकरण करते नज़र आ रहे हैं। इससे ज़्यादा और क्या विसंगति हो सकती है ! यही कारण है कि हमारा देश बिका जैसे प्रजामंडल के प्रथम शहीद को उसके हक़ का सम्मान नहीं मिल पाता तभी तो कवि हरे प्रकाश उपाध्याय कहते है:

“जाति तोड़ो-तोड़ो जाति
सब कहते हैं तोड़ो जाति
छोड़ो जाति
सात दशक से देश आज़ाद है
सोचो सात दशक से देश आज़ाद है
पर्दे के पीछे मगर जोड़ो जाति
पर्दे के बाहर तोड़ो जाति
हमारा समाज कमज़ोर है
देखो कैसा चोर है
समता की ममता झूठी है।” 

कवि उपाध्याय की निम्न पंक्तियाँ पाठकों विचलित करती हैं:

“जाति के नाम पर हत्याएँ
मारकाट
हर कोई जाति के पीछे अंधा है
तरह-तरह के अत्याचार अनाचार।” 

डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जातिविहीन समाज का सपना देखा था। देश आज़ाद हुए पचहत्तर साल हो गए, अमृतोत्सव मनाया जा रहा है, क्या उनका सपना साकार हो गया? देश की आज़ादी का जश्न मनाते हमारी लगभग तीन पीढ़ियाँ बीत गईं, क्या हमारे देश को जातिवाद की समस्या से नजात मिला? न अम्बेडकर जी का सपना साकार हुआ, न राम मनोहर लोहिया का। स्वतंत्रता सेनानियों की क़ुर्बानी व्यर्थ गई। देश वहीं का वहीं है। उससे शायद ज़्यादा ही अधोपतन की ओर अग्रसर है। प्रजातंत्र में जाति राजनीति का धंधा होकर रह गई है। 

‘खंडहर’ कविता का दूसरा भाग धर्म के आधार पर मनुष्य के बँटवारे की अंतर्वस्तु को रेखांकित करता है। कवि उपाध्याय आधुनिक समाज में धर्म के नाम पर हो रहे भेदभाव, मारकाट और संवेदनहीनता को उजागर करते हुए कार्ल मार्क्स के कथन को पुष्टि करते हैं कि धर्म अफ़ीम की तरह है, जिसके नशे में मनुष्य आजीवन अपने वास्तविक उद्देश्यों से अलग-थलग रहते हुए सुषुप्तावस्था में पड़ा रहता है। विश्व की समस्त प्राकृतिक संपदाओं पर सभी विश्ववासियों का समान अधिकार है। मगर धर्म, जाति, भाषा और भौगोलिक सीमाओं का निर्धारण कर चतुर लोगों ने प्राकृतिक संपदाओं का अधिकाधिक अपने हिस्से में कर लिया। कहते हैं जो जीता, वही सिकंदर। वे लोग सिकंदर बन गए और अपने पीछे छोड़ गए असंख्य वंचित लोग। समाज के दो हिस्से बन गए, एक अमीर और दूसरा ग़रीब। कवि कहता है कि हमारा लोकतंत्र लोकतंत्र नहीं है, यह भीड़तंत्र है। पागल भीड़ हमेशा संवेदनहीन होती है, जो कभी भी अशान्ति का वातावरण तैयार कर सकती है। उस भीड़ में से कोई चिल्ला उठेगा, इस देश में रहना है, तो वंदे मातरम्‌ कहना है। कोई कहेगा यह खाना होगा, यह नहीं खाना होगा। कोई कहेगा इधर से जाना होगा, उधर से नहीं जाना होगा। संवेदनहीन समाज के लिए आज़ादी किस काम की? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अध्यक्ष मोहन भागवत ने अमृत महोत्सव पर बयान दिया कि पचहत्तर साल की आज़ादी के बाद भी देश वह उन्नति नहीं कर पाया, जो उसे करनी चाहिए था। करता भी तो कैसे? अनेकता में एकता या एकता में अनेकता? तरह-तरह की असमानताएँ। खान-पान, वेशभूषा, संस्कार, संस्कृति सभी में। शान्ति हो तो कैसे? संविधान-सम्मत जनतंत्र का स्वतंत्रता से क्या लेना-देना? अपने अतीत पर मिथ्या गर्व करनेवालों के सामने देश विचारधारा मात्र है लोगों के विविध समूहों का समुदाय नहीं। क्या धर्म आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुमराह पीढ़ियों को सही राह दिखा पाएगा? एम.एफ़. हुसैन जैसे कोई कलाकार हिंदू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीरें बनाएगा तो कोई और ‘शैतानिक वर्सेज’ लिखकर मोहम्मद को शैतान का दर्जा देगा, ऐसी अवस्था में मंदिर और मस्जिद के दंगे-फ़साद चलते रहेंगे। तस्लीमा नसरीन की ‘लज्जा’ में सारे धर्मों का आक्रोश फूटेगा। 

कोई बुद्ध की प्रस्तर प्रतिमाओं को तोप के गोले से दाग छिन्न-छत्तर करेगा तो कोई तालीबानी जीवित मानवता का संहार करेगा। क्या यही हमारी सामाजिक सभ्यता है, अपने अतीत का गौरव समेटे हुए? अगर है तो हमें ऐसे धर्म ऐसे समाज और ऐसी सभ्यता पर धिक्कार है। कवि उपाध्याय ख़ुद कहते हैं कि ऐसे धर्मों को धिक्कार है, जो हमें मानवता न सीखा पाए, जिसका मर्म हम समझ नहीं पाए और न ही आने वाली पीढ़ियों को समझा सकें। कवि के शब्दों में: 

“धन्य धिक्कार है आपके धर्म
जो समझ न पाए मर्म
आएगी क्या आपको कभी शर्म
तोड़ो अज्ञान का अँधेरा
वक़्त की करवट को देखो
समय की सलवट को देखो
भीड़ के पाँवों तले कुचलती इंसानी मुहब्बत को देखो।”

कवि हरे प्रकाश उपाध्याय जनता को अपने अधिकारों के लिए लड़ने का आहवान करता है मगर जनता पूरी तरह मौन है। राष्ट्रवाद, देशभक्ति के नाम पर सत्ताधारी तरह-तरह के हथियारों का प्रयोग कर देश को गुमराह कर रहे हैं। सही मायने में देश की अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। 

कवि इस तथ्य को अच्छी तरह जानता है कि कोई भी राजा हो, प्रजा को तो अपने दुःख सहने ही हैं। ऐसे देखा जाए, तो सभी राजा हमाम में नंगे होते हैं। जो सिंहासन पर बैठता है, रावण बन जाता है। वर्तमान में जनता के भाग्य में सिवाय त्राहिमाम के कुछ भी नहीं बचा है। प्रत्यदर्शी बन हम सभी अपनी आँखों से यथार्थ को देख रहे हैं, मगर मुँह से आवाज़ें बिल्कुल नहीं निकल रही हैं। 

ऐसे अनेकों उदाहरण भारतीय इतिहास में देखने को मिल जाएँगे, मगर आज जब देश आज़ाद हो गया, विश्व की महत्त्वपूर्ण शक्ति बनकर उभरा है। फिर भी इसका फ़ायदा देशवासियों को बिल्कुल नहीं मिला। ऐसा क्यों? 
विषैली सामाजिक विद्रूपताओं, ध्वंसकारी परंपराओं, आपसी वैमनस्य, घृणा, असहिष्णुता, अशांति की भावना, कुंठाग्रस्त मानसिकता की वजह देश में दलित-वंचित-पीड़ितों का नया वर्ग बन गया। अपनी राजसी प्रवृत्ति के कारण मध्यम वर्ग का अधोपतन होने लगा और वह निम्न वर्ग की ओर खिसकता चला गया। इस वजह से बेरोज़गारी और भुखमरी बढ़ने लगी। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय ने वर्ग-संघर्ष का निम्न पंक्तियों में जीवंत वर्णन किया है:

“खंडहर में अँधेरा मुस्कराने लगा
अजी खंडहर के कोने में उगे जंगल से
तड़-तड़ की आवाज़ें आने लगीं
गोली चलने लगी
लाशें आने लगीं
भूख से बौखलाए हुए जनों ने 
बारूद से खेलना शुरू कर दिया”

यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि जो कामरेड कभी कार्ल मार्क्स का अनुसरण किया करते थे ‘मज़दूर एकता ज़िंदाबाद’ के नारे लगाया करते थे। वे या तो घर-संसारी या अध्यात्मवादी बन गए। क्रांति के नाम पर उनका पेट भर गया और अब वे कंबल ओढ़कर घी पीने लगे। अपना-अपना उल्लू सीधा करने लगे। देश की उन्नति उनके लिए गौण होकर रह गई। उन्हें पहले ख़ुद की उदर-पूर्ति आवश्यक लगने लगी। लगी। उसमें अक्षम होने पर उनके चेहरों पर दीन-हीनता के भाव साफ़ नज़र आने लगे। लगे। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय के शब्दों में:

“भूल गए कामरेड अपना सपना
मोमबित्तयाँ जलाने लगे
दिन में चौराहे पर अपनी ख़ुद दीनता दिखाने लगे
लो उनका कारवाँ छिटक गया
चुनाव चिह्न अपना कैडर ही भूल गया . . .” 

‘खंडहर’ कविता के पाँचवे भाग में कवि उपाध्याय पुलिस की संदिग्ध कार्य-प्रणाली पर उँगली उठाते हुए उनकी बर्बरता पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं कि आतंकवाद के मुजरिमों को पकड़ने की आड़ में पुलिस किसी भी दीन-हीन-निर्दोष व्यक्ति को बंदी बनाकर उन्हें बेरहमी से पीटते हुए लहूलुहान कर देती है, फिर भी उन पर कोई शक नहीं करता। पुलिस केवल संदिग्ध के मैले-कुचैले कपड़े, क्षीण-हीन काया और चेहरे पर दाढ़ी देखकर उसकी देशभक्ति पर संदेह करने लगती है। यह देखकर कवि उपाध्याय का मन दुःख से कराह उठता है और वह अपने आप से पूछता है, क्या एक निर्दोष, ग़रीब, बेरोज़गार आदमी पर ज़बरदस्ती भ्रष्टाचारी या आतंकवादी होने का तमगा पहनाना शोभनीय कार्य है? क्या इस वजह से अंतरराष्ट्रीय पटल पर देश की छवि ख़राब नहीं हो रही? कवि के शब्दों में:

“वही है, वही है
सारी ताक़त की जड़
वही कर रहा देश की छवि ख़राब
मारिये, साहब मारिये
खाल उसकी खींचकर खंजरी बनाइये
उस पर अमन का गाना लगाइये”

‘खंडहर’ कविता के अंतिम अर्थात्‌ सातवें भाग में कवि ख़ुद सत्ताधारी के रूप में आत्मावलोकन करता है और आज देश की इस खंडहर अवस्था के मूलदायी तत्वों तक पहुँचना चाहता है। वह सोचने लगता है, आख़िर ऐसे क्या कारण थे कि देश के आज़ादी के साढ़े सात दशक बाद भी देश ने आशा के अनुकूल प्रगति नहीं की? वह महसूस करता है कि आज के युग में संगठन ही शक्ति है है—संघे शक्ति कलियुगे। हम सभी को संगठित होकर देश के गाँवों और क़स्बों में अलख जगानी थी। जनता के साथ विमर्श कर तरह-तरह के उपाय खोजने थे। हमें उनकी बातों पर भरोसा करना चाहिए था और परेशान, असहाय, दुखी लोगों की तन-मन-धन से सेवा करनी चाहिए थी। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जो कुछ हुआ, बिलकुल उसके विपरीत हुआ। हमने शहरों के नुक्कड़ों-नुक्कड़ों और चौराहों की ओर कूच किया। हम शहरी बनते चले गए। वातानुकूलित कक्षों में बैठकर ग़रीब लोगों की समस्याओं पर विमर्श करने लगे और वहीं से क्रांति का आगाज़ करने लगे। हवा में लहराते हुए हाथ किसी की मदद के लिए आगे नहीं बढ़े और न ही इन हाथों ने डूबते हुए लोगों को तिनके का सहारा दिया। हमारी वर्तमान शैली-शिल्प की वजह से हमने बहुत कुछ खोया। 

कुछ लोग मिलकर अपने ही विचारों को श्रेष्ठ मानकर आत्म-मुग्ध होने लगे। वे सोचने लगे कि वे अंतिम आदमी से बातचीत कर रहे हैं। इस वजह से उन्हें नाज़ है। बातचीत के नतीजे बातों में ही रह गए। तरह-तरह की विसंगतियों और विद्रूपताओं के राक्षस हमें रौंदते चले गए। हमने उनसे लड़ने का साहस ही नहीं किया, केवल काग़ज़ी ख़्यालों में डूबे रहे। बड़े-बड़े सभागारों, बड़े-बड़े प्रेक्षागृहों में स्वादिष्ट चाय-नाश्ता-भोजन और शराब सेवन के साथ वार्तालापों में व्यर्थ समय गँवाते रहे, निडर और निश्चिंत होकर। इस तरह ज़मीनी लोगों का हमारे ऊपर से भरोसा उठ गया। इसके बावजूद हम परेशान लोगों की बुद्धि और समझ पर तरस खाने लगे। यही वजह है कि आज हमारा देश अपनी गरिमा पूरी तरह खोकर भीतर ही भीतर पूरी तरह खोखला हो चुका है और जो नज़र आ रहा है-वे हैं कभी बुलंद इमारत के भग्नावशेष खंडहर। 

प्रोफ़ेसर प्रशांत रथ की हरे प्रकाश उपाध्याय की दीर्घ कविता ‘खंडहर’ की समीक्षा यद्यपि काफ़ी लंबी थी, मगर जिस तरह से उन्होंने प्रस्तुत की श्रोताओं को बाँधे रखी। इस कविता में शहीद बिका नायक के अभी तक सम्मान नहीं मिलने के सारे कारणों पर विस्तार से अपरोक्ष वर्णन किया गया था क्योंकि समझने वालों के लिए इशारा काफ़ी होता हैं। विक्रम ने अपने उन्मुक्त कंठ से प्रोफ़ेसर रथ की समीक्षा की तारीफ़ की और अपना स्थान-ग्रहण करते समय उठकर ‘बहुत अच्छा’ कहते हुए हाथ मिलाया। 

कार्यक्रम की अगली योजना के अनुरूप इस बार उद्घोषक महोदय ने भोपाल के दलित कवि असंग घोष को अपने कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने अपने कविता-संग्रह “हम गवाही देंगे” की कुछ चयनित कविताएँ सुनाई, जो श्रोताओं को बहुत पसंद आई। विक्रम के कंधे पर बैठे वेताल उनकी कविताओं पर लंबी प्रतिक्रिया दे रहा था, मगर विक्रम ने उसे अनसुना कर दिया, क्योंकि अंसगघोष जी की कविताओं से उसकी आँखों के सामने डॉ. सरोजिनी साहू के दलित विमर्श पर आधारित उपन्यास “पक्षीवास” के सारे पात्र अंतरा, सरसी, परबा, संन्यासी, डॉक्टर व वकील एक-एककर जीवित होने लगे, जिसका उसने अनुवाद किया था। राष्ट्रपति माननीय ए.पी.जे. अबुल कलाम आज़ाद के कर-कमलों द्वारा राहुल सांस्कृतायन पुरस्कार से पुरस्कृत व रांची विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष स्व. दिनेश्वर प्रसाद ने उस उपन्यास की भूमिका में लिखा था:
“डॉ. सरोजिनी साहू का ‘पक्षी-वास’ इस खोज-परम्परा की एक मज़बूत कड़ी है। उन्होंने समाज के निम्नतम स्तर पर जीने वाले उन सतनामियों का चित्रण किया है, जो ओड़िशा के कोरापुट से लेकर छत्तीसगढ़ तक फैले हुए हैं। ये सतनामी इतने विपन्न हैं कि इनकी जीवन कथा जाने बिना उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। सतनामी परम्परा से अपनी मूलजाति रविदास के पेशे से जुड़े हुए हैं लेकिन गुरु घासीदास के वैष्णव आन्दोलन से जुड़ने के बाद इनका एक आध्यात्मिक पक्ष भी विकसित हुआ है, किन्तु इनके जीवन का कटु सामाजिक यथार्थ इनको जातिगत पेशे से मुक्त होने का न अवसर देता है और न इनका अध्यात्म इन्हें वृहद्‌ समाज में सम्मान दिला पाता है। इन्हीं अंतर्द्वंद्वों में फँसे एक सतनामी परिवार की कथा ‘पक्षी-वास’ है। अन्तरा और सरसी के तीन पुत्र और एक पुत्री हैं। संन्यासी सबसे बड़ा पुत्र है जो क्रिस्टोफर बन जाता है, दूसरा पुत्र डॉक्टर बँधुआ मज़दूर और तीसरा पुत्र वकील नक्सली बन जाता है एवं पुत्री परबा वेश्या बन जाती है। जाति के परम्परागत ढाँचे से मुक्ति की कामना इन्हें अलग-अलग दिशाओं में ले जाती है। परन्तु समस्या के सीधे-सीधे साक्षात्कार और उसे मुक्ति की कामना नकारात्मक दिशा की ओर ले जाती है। भारत के विभिन्न राज्यों में नक्सलवाद क्यों पनप रहा है, इसका एक प्रामाणिक दस्तावेज़ पक्षी-वास है। पक्षी-वास समाज के जिस यथार्थ पर आधारित है, उसकी समस्त असहायता करुणा और विद्रोह का अविस्मरणीय दस्तावेज़ है।” 

“आज भी हमें बहुत कुछ बदलना होगा, उसके लिए उसे जनशक्ति की ज़रूरत होगी।”—यह सोचकर विक्रम ने वेताल से हुए आज के अपने संवाद को श्रोताओं के सामने रखना उचित समझा, “जैसे-जैसे मैं असंगघोष की कविताएँ पढ़ता गया, वैसे-वैसे शहीद बिका के वेताल के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदलता गया और मेरे मानस-पटल पर महात्मा गाँधी, कार्ल मार्क्स, राम मनोहर लोहिया आदि के अनेकानेक दृश्य उभरने लगे, जिन्होंने समाज के निम्न-वर्ग के उत्थान हेतु अपने आपको समर्पित किया। उन्होंने समाज के निम्न-वर्ग की समस्याओं को अपने भीतर आत्मसात कर अपनी अनुभूतियों का केंद्र बनाया, जैसे दक्षिण अफ़्रीका में नस्ल-भेद व रंग-भेद के आधार पर महात्मा गाँधी के साथ गोरे-लोगों द्वारा रिक्शा में बैठते समय दुर्व्यवहार करना। उस घटना से महात्मा-गाँधी के आहत-मन ने नस्ल-भेद के ख़िलाफ़ भारत आकर सत्याग्रह आंदोलन के अंग्रेज़ी शासन के उन्मूलन का संकल्प लिया। ठीक वैसे ही, जैसे कभी पुरातन ज़माने में काला-कलूटा ब्राह्मण कहे जाने पर चाणक्य ने शिखा-खोलकर मगध-राज्य को जड़ से उखाड़ने का संकल्प लिया था। इसी नस्ल–वाद के ख़िलाफ़ लड़ते-लड़ते नेलसन मंडेला ने अपने जीवन की आहुति दे दी। एक साथ दो विचार दिमाग़ में कौंधने लगे, पहला, भारत की “वर्ण–व्यवस्था” और दूसरा, विश्व-परिदृश्य पर मनुष्यता को दीमक की तरह चाटता “नस्ल–वाद।” 

अंसगघोषजी से मेरी पहली बार मुलाक़ात सृजनगाथा द्वारा चीन की राजधानी बीजिंग में आयोजित नौवे अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के दौरान हुई। भारतीय परिधान कुर्ता–पायजामा और साफ़ा पहने हुए वह भीड़ में सबसे अलग लग रहे थे। जब अंतरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन उनकी कविता “अबे ओ कनखजूरे . . .” का डॉ. जय प्रकाश मानस ने जिस अभिव्यक्तात्मक शैली में सस्वर पाठ किया तो मानो सारे श्रोतागण सम्मोहित-से हो गए हो। वर्ग–संघर्ष पर आधारित उनकी यह कविता युगों-युगों से दलित वर्ग के प्रति हो रहे अन्याय, शोषण व भेद भाव उजागर करने वाली अत्यंत ही मर्मांतक तथा हृदयस्पर्शी थी। चीन–सम्मेलन के दौरान मैंने उनको नज़दीक से जानने का प्रयास किया। अधिकतर समय उनके कंधे पर एक बड़ा-सा प्रोफ़ेशनल कैमेरा लटका हुआ रहता था। जब-तब मौक़ा मिलने पर प्रकृति के सुंदर नज़ारों का फोटो लेते हुए नज़र आते थे। मैंने मन ही मन सोचा कि प्रकृति के प्रति उनका काफ़ी अनुराग है या फोटोग्राफी का शौक़? मगर जब मैंने उनका कविता-संग्रह “हम गवाही देंगे” को दो-तीन बार पढ़ा तो मुझे लगा कि वह एक शौक़ नहीं है, बल्कि एक अंतर्दृष्टि है कि ईश्वर प्रदत्त सुनियोजित सुंदर प्राकृतिक व्यवस्थाओं को प्रदूषित करने वाले तत्त्वों के पहचानने की। उनकी कविताओं में मुझे भारतीय पारंपरिक वर्ण-व्यवस्था के ‘चौथे-वर्ण’ पर अत्याचार व उपेक्षा से उत्पन्न टीस की अनुभूति का अहसास होता है। उनकी अधिकतर कविताएँ चमार जाति से संबंधित है कि किस तरह सवर्ण वर्ग के लोग उन पर सदियों से अत्याचार करते आए हैं और गाँव से पृथक जगह मोचिवाड़ा। चमरोटी में रहने के लिए विवश करते हैं। अपनी कविता “नामकरण-संस्कार” में चमरोटी। मोचिवाड़ा नामकरण के लिए तथाकथित नियंता को कुटिल बुद्धिवाला कहते हुए उसकी निष्पक्षता पर प्रश्नवाचक खड़ा किया है। ‘आप भी’ कविता में जाति के बारे में यत्र-तत्र पूछे जाने पर आत्म-ग्लानि के स्वर प्रस्फुटित हुए हैं:

“मेरी जात वहीं की वहीं है, साली चमार जात! 
समय के साथ न बदलती है न छूटती है”

और अत्यंत दुखी होकर अपनी कविता “कहाँ हो ईश्वर?” में ईश्वर के न्याय पर अपना रोष भी प्रकट किया है। और बहुत-सारे बिंबो जैसे ‘पृथ्वी’, ‘दीमक’ ‘शैतान’, ‘दांव’ आदि का सहारा लेकर दलित–वर्ग पर हो रहे अत्याचार, भेद-भाव, वर्ग-भेद तथा मुख्य-धारा से विमुखता पर अपने आक्रोश को प्रदर्शित किया है। यह भी यथार्थ है कि सरकार के अथक प्रयासों के बाद भी आज भी हमारे समाज में सामंतवादी-प्रथा देश के विभिन्न भागों में बीच–बीच में अपनी कुरूपता का प्रदर्शन करती रहती है। जातिवाद आज भी कल्पनातीत है। आज राजनेता जातिगत समीकरणों को आधार बनाकर वोट बटोरने में लगे रहते हैं। समाज-सेवा तो बहुत दूर-दूर की बात, बल्कि समाज को टुकड़ों–टुकड़ों में बाँटकर अपना उल्लू सीधा करना उनका मुख्य लक्ष्य बन गया है।” अपनी टिप्पणी ख़त्म करने के बाद उसने कार्यक्रम के सुचारु रूप से संचालन हेतु विक्रम ने माइक उद्घोषक के हाथों में थमा दिया, ताकि वह उनकी कविताओं पर समीक्षा पढ़ने के भारत की प्रमुख शिक्षाविद प्रोफ़ेसर सुप्रिया मलिक को आमंत्रित करें। प्रोफ़ेसर सुप्रिया मलिक ने अपने लेख को पढ़ते हुए बहुत ही ओजस्वी समीक्षा प्रस्तुत की। 

“मंचासीन अतिथियों और मंच के सामने बैठे मित्रों! 

आज आपके बीच पाकर मैं अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रही हूँ। पूर्व कवियों और वक्ताओं द्वारा शहीद बिका के बलिदान पर सुनाई गई कविताओं का असंगघोष की कविताओं के साथ तुलना करते हुए अगर आप निष्पक्ष ढंग से मूल्यांकन करें तो हमारे देश की सामाजिक वर्ण-व्यवस्था की पृष्ठभूमि में झाँके बिना आप नहीं रह सकते हो। कुछ अनुत्तरित सवाल आज भी अनुत्तरित ही रहेंगे। जैसे मनुष्य की उत्पत्ति कैसे हुई? अंडा पहले या मुर्ग़ी पहले? मनुष्य की उत्पत्ति के बाद समाज का निर्माण कैसे हुआ? समाज में वर्ण-व्यवस्था की स्थापना किसने की? जातियों का निर्माण कैसे हुआ? इन जातियों के निर्माण का आधार क्या था? कर्म या गुण? असंगघोष की कविताएँ आपको ‘मनुकाल’ में झाँकने को प्रेरित करती है। सतयुग से लगाकर एक-एक युग आपकी आँखों के सामने से गुज़रने लगेगा। सतयुग, द्वापर, त्रेता और आज का कलियुग। महर्षि वाल्मीकि की ‘रामायण’, तुलसीदास की ‘रामचरित-मानस’, वेद–व्यास की ‘महाभारत’, स्वामी दयानन्द सरस्वती की ‘सत्यार्थ-प्रकाश’, ज्योतिबा फूले की ‘गुलामगिरी’—सारे बड़े-बड़े मनीषियों की शास्त्रों, संहिताओं व पुस्तकों के पन्ने मानस-पटल पर अभिकेंद्रित हो रहे तूफ़ानी-चक्रवात से पलटते हुए नज़र आएँगे। सदियों–सदियों से हमारे समाज में हो रहे ‘जातिवाद’ का प्रतिपादन तथा कुछ समाज सुधारकों द्वारा जातिवाद से संबंधित पाखंडों का विखंडन करने वाले अनेकानेक तर्क-वितर्क देखने को मिलेंगे। अब ज़रा नज़र डालें, गीता के चतुर्थ अध्याय के श्लोक 13 में भगवान श्री कृष्ण के कथन पर—“चातुर्वण्य मया सृष्टम गुणकर्म विभागशः” अर्थात्‌ गुणों के आधार पर मैंने चार वर्णों की रचना की। क्या यह ईश्वरीय कथन संतोषजनक लगता है? शायद ऊहापोह वाली स्थिति। गीता में कहा गया है तो झूठ नहीं हो सकता। अगर झूठ है तो फिर सच क्या होगा? ईश्वर का काम सृष्टि-निर्माण, पालन और विनाश करना है। पेड़-पौधे, नदी-पर्वत, जीव-जन्तु, खगोल-पाताल, ग्रह-उपग्रह आदि को बनाना, सँभालना और बिगाड़ना है। ‘सुप्रीम-पॉवर’ क्या वर्ग-वर्ण निर्धारित करने लगेगी? एक बार यह मान भी लेते हैं, अगर भगवान ने वर्ण निर्धारित किए तो दुनिया की अन्य सभ्यताओं में यह संरचना नज़र आनी चाहिए। क्या भगवान केवल भारत के लिए बने थे? समस्त ब्रह्मांड को सँभालने वाले ईश्वर के पास ऐसा रवैया क्यों होगा कि वह धरती के एक कोने भारत में आकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की स्थापना करेगा? विश्व के विकसित देशों जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, चीन, रुस, जापान आदि में यह वर्गीकरण नज़र क्यों नहीं आता? मनुष्य-उत्पत्ति के बाद चतुर समाजों ने अपनी चतुराई से अपनी बात धर्मग्रंथों में ‘भगवान-उवाच’ के नाम से जुड़वा कर हर नीतिसम्मत कार्य खोजने का आधार ईश्वर के नाम कर दिया ताकि सामान्य धर्मभीरु जनता इसे ईश्वर प्रदत्त समझकर सामाजिक गुत्थियों में हमेशा उलझी रहे। एक चमार का बेटा सदियों से चमार रहता आया है, करोड़ों में एकाध रैदास पैदा हुआ होगा और उसे भी हज़ारों परीक्षाएँ देनी पड़ी होगी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए। कबीर की बात कौन मानता है:

“जात न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान
काम है तलवार से, पड़ी रहेगी म्यान” 

मगर आज भी रैदास या कबीर के पंथ का अनुसरण करने वालों को उसी हीन दृष्टि से देखा जाता है, जिस दृष्टि से कबीर व रैदास को देखा गया होगा। आज भी रैदासपंथी या कबीरपंथी संप्रदाय निम्नकोटि या दलित वर्ग के लिए आरक्षित है। 

समाज के इस दृष्टिकोण को कवि असंगघोष ने अपने जीवन में अवश्य अनुभव किया होगा, तभी तो वह क्रोधित होकर कहते हैं कि अब मेरी जीभ भी आवाज़ करने के लिए प्रतिफल आतुर है और मैं ‘आपको रौदूँगा’ समय आने पर। ‘काट डालूँगा उन पैरों को’ जिसने आज तक समाज को बाँटकर जातिवाद का ऐसा ज़ख़्म दिया है, जो नासूर बनकर सड़ी वर्ण व्यवस्था से असहनीय पीड़ा देता हुआ लगातार रिस रहा है। ‘माँ कसम’ कविता में भी कवि का आक्रोश झलकता है कि वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज ने शूद्रों पर अनेकानेक ज़ुल्म ढाए, लाशों पर रोटियाँ सेकी, दाँत निपोरकर झूठी सहानुभूति दिखाई। मगर अब वे इस बहुरूपिएपन को बरदाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। कवि एक चुनौती देता है, और आप नहीं बच पाओगे। 
लगभग 5200 साल पहले से हिन्दू धर्म का पतन होने लगा था। हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों से नजात पाने के लिए लोग जैन और बौद्ध धर्म अपनाने लगे थे। ज्ञान-संकलिनी तंत्र के अनुसार वेदों को वेश्या के तुल्य गिना जाने लगा: “वेदशास्त्र पुराणानि सामान्य गणिका इव, एकैव शांभवी मुद्रा गुप्ता वधुरिव।” 

यही कारण है विश्व के कई हिस्सों में जापान, थाईलैंड, चीन, श्रीलंका, जावा, बोर्नियो, सुमात्रा के अधिकांश हिस्सों में बौद्ध धर्म फैलने लगा, जिसमें जातिवाद को बिलकुल भी महत्त्व नहीं दिया गया। मनुष्य मात्र ईश्वर की एक प्रजाति है। ‘जियो और जीने दो’ जैसे सिद्धान्त जन्म लेने लगे। चार्वाक का भौतिकवादी सिद्धान्त “यावत जीवेम सुखेम जीवेत ऋणकृत्म घृतम पिबेत” व्यापक होने लगा। जब तक जियो सुख से जियो, उधार करके घी पियो। मरने के बाद किसने देखा है कि क्या होता है?”बुद्धया निर्वत्तते स बौद्ध” अर्थात्‌ जो–जो बात अपनी बुद्धि में आए उन्हें मान लो और जो न आवे उन्हें नहीं माने। हिन्दू-धर्म के शूद्र अर्थात्‌ दलित-वर्ग छुआछूत, घृणा व अन्य कुरीतियों के कारण अपना धर्म बदलने लगे। डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे विद्वानों ने भी हिन्दू-धर्म का परित्याग कर बौद्ध-धर्म ग्रहण करना उचित समझा। 

सच कहूँ तो, शहीद बिका के असम्मान ने मुझे असंगघोष की कविताओं को पढ़ने के लिए प्रेरित किया, जिसने मेरे दिल के किसी कोने में वर्षों से सुषुप्त कथानक को एक बार फिर से क़लमबद्ध करने के लिए जगा दिया था। ‘तेरा प्रतिशोध’ कविता में मरी हुई गाय की खाल उतारकर लौटते सतनामी संप्रदाय के लोगों को धर्मोन्माद भीड़ गाय का हत्यारा समझकर प्रतिशोध लेने के लिए दशहरे के दिन रावण–वधोत्सव में मौत के घाट उतार देती है। बिना सोचे-समझे आम जनता उन दलितों को अपना शत्रु समझ लेती है। कवि असंगघोष ने इस विसंगति का उल्लेख करते हुए गीता के पन्द्र्हवें अध्याय के सातवें श्लोक में श्रीकृष्ण के संदेश की ओर ध्यानकृष्ट करते हैं “ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातन” अर्थात्‌ संसार के सारे जीव मेरे सनातन अंश है। ‘हाड़ीपान’ भी मेरे है तो महापात्र, ब्राह्मण भी मेरे अंश है। लेकिन यथार्थ संसार में असमानता है जहाँ ‘नाइकों के शनिपीठ’ और ‘महापात्रों के शनिपीठ’ में शनि महाराज बदल जाते हैं तो कवि का यह प्रश्न स्वाभाविक है कि “कहाँ हो ईश्वर?।” जहाँ भी हो, कम से कम आप अपना पता बता देते कि आप स्वार्थ लोलुपों की जिह्वा पर हो, भव्य प्रासादों में बैठे हो, कपटी बामनों धन्ना सेठों की तोंद में मरी गाय की खाल में हो या फिर भी मूर्त्तियों, पोथीओं भजनों, खाल सुखाने वाले चूने में? अगर ईश्वर का अस्तित्व वास्तव में होता तो क्या समाज में इस प्रकार की असमानता नज़र आने लगती? उपनिवेशवाद में मनुष्यों द्वारा मनुष्यों के शोषण को देखकर कभी सरदार भगत सिंह के मन में शहीद होने से पहले ‘नास्तिकवाद’ के विचार पनपने लगे थे। वर्ग-भेद की इस खाई को चौड़ा होता देखकर कवि अपने कविता ‘ओ पृथ्वी’ में पृथ्वी को बिंब बनाकर कहता है कि आप झुकी रहो, सीधी मत होना अगर सीधी हो गई तो विश्व में प्रलय मच जाएगा। बेहतर यही होगा, असमानता सदैव ज़िन्दा रहे। कवि के ऐसे उत्तेजक विचार उसके बागी होने का संकेत दे रहे है। ‘तेरी सरस्वती’, ‘अब भी चुप रहोगी’, ‘आखिर कब तक’, ‘क्यों सबको लें’ आदि उनकी कविताओं में हिन्दू-धर्म के द्विज पुत्रों द्वारा पैरों में जातिवाद की बेड़ियों जकड़े अत्याचार, अन्याय की मकड़-जाल से मुक्त होकर समाज के धुँधले आईने में अपना अक्स खोजना चाहता है। ‘आखरी कब तक’, ‘वह सहता रहेगा?’ जब तथाकथित विधाता हर-बार उसे अपने जबड़ों का ग्रास बनाकर अनंत आकाश में किसी टूटे तारे की तरह नष्ट होने के लिए छोड़ देता है। उस अवस्था में कौन इन मूलभूत प्रश्नों का उत्तर खोज पाएगा कि मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? मुझे क्यों कोई खोज रहा है? 

कवि असंगघोष का कविता संग्रह भले ही दिखने में छोटा है, मगर हिन्दू धर्म के ठकेदारों पर गंभीर घाव कर रहा है। मंडल कमीशन द्वारा अध्यारोपित आरक्षण के कारणों पर नए सिरे से प्रश्न खड़े कर रहा है। जहाँ साहित्यकार वर्ग समाज को जाति-विहीन बनाने का प्रयास करता है, वहीं राजनैतिक वर्ग अपनी निजी स्वार्थ के ख़ातिर जाति पर आधारित समाज का वर्गीकरण कर और ज़्यादा मकड़-जाल में फँसाते जा रहा है। जिस धर्म को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म माना जा रहा था, वह वर्ण-व्यवस्था के कारण पतन की ओर अनवरत अग्रसर हो रहा है। 

सनातन धर्म के आदि-देश भारत में कुरीतियाँ यहाँ तक पनपी कि मुसलमानों के आक्रमण के समय उनका धर्म आक्रामकों के हाथ का एक ग्रास चावल खाने से, दो घूँट पानी पीने से नष्ट होने लगा। धर्म-भ्रष्ट घोषित हज़ारों हिंदुओं ने आत्म-हत्या कर ली। धर्म के लिए वे मारना जानते थे, लेकिन धर्म समझें तब तो। धर्म तो हो गया छुई-मुई। छुई-मुई का पौधा छूने पर मुरझा जाता है, किन्तु छूटते ही पनप जाता है। उनका सनातन धर्म तो ऐसा मुरझाया कि कभी नहीं पनपा। जिस सनातन आत्मा को भौतिक वस्तुएँ स्पर्श भी नहीं कर पाती, वह कहीं छूने-खाने से नष्ट होता है? आप तलवार से मरें, मगर धर्म छूने से मर गया? क्या सचमुच धर्म नष्ट हुआ? कदापि नहीं, धर्म के नाम पर कोई कुरीति पल रही थी, वह नष्ट हुई। फिरोज तुगलक के शासन काल में बयाना के काज़ी मुगीसुद्दीन ने व्यवस्था दी कि हिंदुओं को अपना मुँह खोल देना चाहिए। यदि कोई मुसलमान थूकना चाहता है तो वह हिन्दू दीनदार हो जाएगा, क्योंकि उसके पास कोई धर्म नहीं है। बुरा क्या कहा उसने। मुँह में थूकने से तो एक ही मुसलमान बनता, कुएँ में थूकने से तो हज़ारों बन जाते थे। वस्तुतः वह आततायी था या उस समय का हिन्दू समाज? 

जिन्होंने इस प्रकार धर्म परिवर्तन कर लिया क्या कोई धर्म पा गए? हिन्दू से मूसलमान बन जाना या एक प्रकार के रहन-सहन से दूसरे रहन-सहन में चले जाना धर्म तो नहीं है। इस प्रकार योजनाबद्ध षड्यंत्र का शिकंजा बनाकर जिन्होंने उन्हें बदला क्या वे धर्मात्मा थे? वे तो और भी बड़ी कुरीतियों के शिकार थे। हिन्दू उसी में जाकर फँस गये। अविकसित और गुमराह क़बीलों को सभ्य बनाने के लिए मुहम्मद ने विवाह, तलाक़, वसीयत, लेन-देन, गवाही, क़सम, प्रायश्चित, रोज़ी-रोटी, खान-पान, रहन-सहन इत्यादि विषय में एक सामाजिक व्यवस्था दी तथा मूर्ति-पूजा, व्यभिचार, चोरी, शराब, जुआ, माँ, दादी इत्यादि से विवाह पर प्रतिबंध लगाया। समलैंगिक तथा रजस्वला मैथुनों का निषेध करके, रोज़े के दिनों में भी इसके लिए ढील दी। जन्नत में बहुत-सी समवयस्क, अनछुई हूरों और किशोर बालकों का प्रलोभन दिया। यह कोई धर्म नहीं था, एक प्रकार की सामाजिक व्यवस्था थी। ऐसा कुछ कहकर उन्होंने वासना में डूबे हुए समाज को उधर से घुमाकर अपनी ओर उन्मुख किया। स्त्रियों को जन्नत में कितने पुरुष मिलेंगे? इस पर उन्होंने सोचा ही नहीं। यह उनका दोष नहीं, दोष उस देश-काल और परिस्थिति था, जिसमें स्त्रियों की आकांक्षाओं पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। 

तुलसीदास की रामचरित मानस में एक पंक्ति आती है, “ढोल, पशु, शूद्र, गँवार और नारी; ये सब ताड़न की अधिकारी”। 

पता नहीं, शूद्रों ने तुलसीदास जी का क्या बिगाड़ा कि उन्हें प्रताड़ित करने का हक़दार बनाया। यह तो कोई ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। 16वीं सदी का बात रही होगी। महान दार्शनिक रजनीश ने एक जगह कहा कि हिन्दू देवी-देवताओं के सभी अवतार राजघराने से थे। कृष्ण, राम, महावीर जैन, गौतम बुद्ध, सभी तो क्षत्रिय राजकुमार थे। क्या किसी ग़रीब या शूद्र आदमी की ऐसी औक़ात कहाँ कि वह तथाकथित भगवान बन सके? महाभारत में एकलव्य का प्रसंग आता है कि शूद्र होने की कारण गुरु द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य नहीं बनाया वरन्‌ अपनी उँगली दक्षिणा में माँग ली? क्या यह वर्ण-व्यवस्था के घोर अत्याचार व पक्षपात का प्रतीक नहीं थी? इसी प्रकार कृष्ण के दाँव-पेंच में उलझकर सूतपुत्र कर्ण ने अपने कवच-कुंडल दान में दे दिए। जब-जब कोई दलित आदमी ऊपर उठने की कोशिश करता है, वैसे ही उसे किसी न किसी दाँव-पेंच में फँसा दिया जाता है। कवि असंग घोष की कविता “आपके दाँव” इसी दर्द का बयान करते हुए चुनौती देती है कि शूद्र अब इतने मूर्ख नहीं रखे, किसी के भी दाँव में फँस जाए। 

यजुर्वेद के 31 वें अध्याय का 11वाँ मंत्र आता है:

“ब्राह्मणोस्य मुखमासीद बाहू राजन्य: कृत:
उरु तदस्य यद्वैश्य पदमया शूद्रो अजायत।” 

अर्थात्‌ ब्राह्मण ईश्वर के मुख, क्षत्रिय बाहू से, वैश्य उरु (कमर) तथा शूद्र पगों से उत्पन्न हुआ है। इसलिए शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी क्रांतिकारी पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश” के चतुर्थ समुल्लास ने गुणों के आधार निराकार परमात्मा के सापेक्ष में, भले ही, दूसरा अर्थ क्यों नहीं किया हो, मगर अर्थ का अनर्थ करने वालों की यहाँ कमी नहीं है। इसी बात को उजागर करती है उनकी कविता:

‘तेरी सरस्वती’:
तेरे कथानुसार
शब्दों की धार ही सरस्वती थी
ऐसी दशा में भला सरस्वती
मेरी जिह्वा पर आती भी कैसे
तेरी ग़ुलाम जो थी”

मनुस्मृति जैसे कुछ धर्म-ग्रन्थों में लिखा गया है कि स्त्री और शूद्र वेदों को न पढ़े। “स्त्री शूद्रो नाधियातामिति श्रुते।” और अगर वे इसे पढ़ने का दुस्साहस करते हैं तो उनके कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया जाए। काली तंत्र में पाँच मकार (मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, और मैथुन) को युगों-युगों से मोक्ष का साधन माना जाने लगा। 

सारे श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर प्रोफ़ेसर सुप्रिया मलिक के समीक्षात्मक भाषण को सुन रहे थे। जैसे ही उनकी समीक्षा ख़त्म हुई, विक्रम ने अपने अर्जित अनुभवों को सबके सामने रखना उचित समझा। अपनी कुर्सी से उठकर कहने लगा, “दोस्तो! सुप्रियाजी के उद्बोधन ने मुझे न केवल स्तंभित किया है, बल्कि मेरे बचपन की यादों को भी तरोताज़ा कर दिया है, जो आज के युग में भी प्रासंगिक है, जिसे आप सभी के सम्मुख रखना चाहूँगा। बचपन के दिनों में जब सिरोही के आर्य-समाज में हवन करने जाया करता था, तो वहाँ मुझे कई लोग ऐसे मिलते थे जिनके नाम के पीछे उपनाम ‘आर्य’ लिखा जाता था। ऐसे ही स्व. कन्हैया लाल आर्य मेरे पिताजी के परम मित्र हुआ करते थे। एक दिन मैंने उनसे आर्य समाज में पूछा, “आप ‘आर्य’ टाइटल क्यों लगाते हो?” 

“आर्यसमाज को मानने के कारण। हम आर्यवृत्त के हैं, इसलिए आर्य लगाते हैं। हमारी जाति ‘मोची’ है, जिसे समाज घृणा की दृष्टि से देखता है। मोची सम्बोधन ख़राब लगता है। और स्वामी दयानंद सरस्वती वर्ण–व्यवस्था के पूर्ण ख़िलाफ़ थे। उन्होंने इस वर्ण-व्यवस्था को मिटाने के लिए आर्य समाज की स्थापना की।” बहुत ही सपाट शब्दों में उत्तर दिया था कन्हैयालाल जी ने। वह बहुत ही विद्वान व धार्मिक व्यक्ति थे। मुझे इस बात पर आश्चर्य होने लगा कि सिरोही के सवर्ण लोग धीरे–धीरे ‘मोची’ की जगह ‘आर्य’ शब्द को हीन भावना से देखने लगे और ‘आर्य-समाज’ को मोचियों का अड्डा। 

मैंने ओड़िशा में अपने सेवाकाल के दौरान अस्पृश्यता के कई ऐसे उदाहरण देखे कि आजकल के इस वैज्ञानिक-युग में अविश्वसनीय है। अस्पृश्यता की यह भावना आम जनता के मन-मस्तिष्क में पूरी तरह से घर कर बैठी है। महानदी कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड में राजभाषा विभाग के प्रचार के दौरान एक अनुवादक से मेरा परिचय हुआ। जब मैंने उसका परिचय पूछा तो उसने झेंपते हुए कहा, “मेरा नाम दिलेश्वर नाएक है।” 

“नाएक या नायक?” मैंने जानना चाहा, क्योंकि दो दशकों से ज़्यादा समय रहने के कारण थोड़ा-बहुत ओड़िशा की जातियों के बारे में मेरी जानकारी थी। 

“ओड़िशा में नायक तो ‘खंडायत’ होते हैं, जबकि नाएक ‘हाड़ीपाण’ कहलाते है।” नायक और नाएक का उच्चारण करते समय ऐसा लग रहा था मानो वह ‘य’ और ‘ए’ के अंतर को भाषायी तरीक़े से दिखाना चाह रही हो। 

‘खंडायत’ तथा ‘हाड़ीपाण’ दोनों शब्द मेरे लिए नए थे इसलिए मैंने जिज्ञासावश उससे पूछा, “‘खंडायत’ क्या होते है और ‘हाड़ीपाण’?” 

वह मुस्कुराते हुए कहने लगा, “खंडायत अर्थात्‌ युद्ध में खंडे (तलवार) धारण करने वाले अर्थात्‌ क्षत्रिय, जबकि ‘हाड़ीपान’ मरे हुए जानवरों जैसे गाय की लाश उठाते हैं तथा उनकी खाल उतारने का निष्कृष्ट कार्य करते हैं।” 

कुछ देर तक वह चुप रहा मानो उसने यह बताकर कुछ ग़लती की हो। उसे आत्म–ग्लानि का अनुभव होने लगा। मैं उसके मनोभावों को समझने की कोशिश कर रहा था। मेरा अंदाज़ सही था कि उत्तर–भारत में ‘चर्मकार’, ’चमार’ या राजस्थान में जिसे ‘मोची’ कहते हैं। मगर आजकल ये उपनाम कोई नहीं लगाता था, अपनी इच्छानुसार शर्मा, वर्मा, आर्य या कोई ऐसे गोत्रों के नाम का प्रयोग करते है, जिसके बारे में आपने सुना तक नहीं होगा। यही ही नहीं, मैंने ओड़िशा के झारसुगड़ा में एक धनाढ्य आदमी को अपने नाम के आगे ‘माली’ की जगह ‘श्रीमाली’ लगाते देखकर एक बार पूछा था, “‘माली’ जगह ‘श्रीमाली’ क्यों लगाते हो?” 

उसने उत्तर दिया, “माली शब्द का प्रयोग करने से मुझे हीन-भावना का बोध होता है इसलिए इसमें श्रेष्ठता-सूचक शब्द ‘श्री’ जोड़ दिया। ‘श्रीमाली’ शब्द क्या विसंगत लगता है?” 

मैंने अपना अर्जित अनुभव बाँटते हुए कहा, “जोधपुर में ‘श्रीमाली’ शब्द तो ब्राह्मण लोग प्रयोग में लाते हैं जैसे विख्यात लेखक नारायण दत्त श्रीमाली, जबकि ‘माली’ शब्द क्षत्रियों से पृथक हुई जाति आजकल सैनिक क्षत्रिय माली या सैनिक शब्द का इस्तेमाल करती हैं। अभी तक मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी, इसलिए मैंने और कुछ जानने के उद्देश्य से पूछा, “क्या जाति में छुआछूत का प्रचलन है?” 

“आजकल पढ़ाई-लिखाई की वजह से छुआछूत में कुछ कमी आई है। ऑफ़िस में तो फ़िलहाल इतना नहीं है। मगर तालचेर के बालुंगा खमार जैसे गाँवों में अगर आप जाओगे तो आपको यह जानकर आश्चर्य के साथ दुख भी होगा कि आज भी लोग हमारा छुआ पानी तक नहीं पीते हैं। साथ बैठकर खाने की बात तो बहुत दूर की है। एक बार जब लिंगराज कोयला खदान का विस्तार हो रहा था तो हमारे ‘शनि-पीठ’ (शनि भगवान का चबूतरा) को दूसरी जगह शिफ़्ट करना था। खदान-प्रबंधन हमें वह जगह दे रही थी जहाँ पहले से दूसरी जातियों का ‘शनि-पीठ’ मौजूद था। उन जातियों ने विरोध कर दिया कि ‘हाड़ीपाणों’ का शनिपीठ हमारे शनिपीठ के पास स्थापित नहीं किया जा सकता है।” कहते हुए वह एकदम नीरव हो गया। 

“क्यों विरोध किया उन लोगों ने?” मैंने पूछा। 

“क्योंकि हम नीची जाति के लोग है। वे लोग कहते है कि हम गाय का मांस खाते हैं। और अगर प्रबंधन ने यह फ़ैसला वापस नहीं किया तो हम आपकी खदान नहीं चलने देंगे।” 

उसकी आवाज़ में असहनीय पीड़ा झलक रही थी। उसकी प्रचंड नीरवता मुझे प्रेमचंद के ज़माने की ओर खींचने लगी। प्रेमचंद की कहानी का शीर्षक याद नहीं आ रहा था, मगर कथानक ‘शनिपीठ’ के विस्थापन से कुछ मिलता-जुलता था। वहाँ शनिपीठ न होकर एक कुआँ था। दलितों का कुआँ अलग, ज़मींदारों का कुआँ अलग। अगर कारणवश या परिस्थिति-वश किसी दलित ने ‘सवर्ण कुएँ’ से पानी भर लिया तो उसकी ख़ैर नहीं। काश! प्रेमचंद आज भी ज़िन्दा होते और इस संवेदना को अपने शब्दों में बाँध कर किसी कालजयी कहानी को जन्म देते। पानी अलग, भगवान अलग। जबकि रुद्रयामल तंत्र में लिखा हुआ है:

“रजस्वला पुष्करंतीर्थ, चांडाली तु स्वयं काशी चर्मकारी प्रयाग:
स्याद्रजकी मथुरामता। अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता” 

अर्थात्‌ रजस्वला स्त्री के साथ समागम करने से पुष्कर-स्नान, चांडाली से काशी की यात्रा, चमारी से प्रयाग-स्नान, धोबिन से मथुरा-यात्रा और कजरी से अयोध्या तीर्थ प्राप्त हो जाता है।” 

चमारी के हाथ का पानी नहीं पिएँगे, मगर ‘प्रयाग’ स्नान अवश्य करेंगे! 

संक्षेप में, कवि असंगघोष अपने धर्म-परिवर्तन की ओर इशारा कर रहे हैं। यही नहीं, मैंने देखा हैं कि शहीद बिका के वर्तमान वंशजों ने हिन्दू धर्म त्याग कर महिमा धर्म स्वीकार कर लिया है। हिन्दू-धर्म की इन कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाकर दूसरे धर्म हमारे दलित लोगों को अपने धर्म की ओर लुभाना शुरू कर देते हैं। ओड़िशा के केंदुझर ज़िले के आस-पास धर्म-परिवर्तन की इस प्रक्रिया को रोकने में स्वामी लक्ष्मणानन्दजी को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। छत्तीसगढ़ में राजा जूदेव ने भी इस तरह से होने वाले धर्म-परिवर्तन को रोकने का भरसक प्रयास किया। मुझसे धैर्यपूर्वक सुनने के लिए आप सभी का हार्दिक आभार।” कहते हुए विक्रम ने अपने मित्रों दर्शक दीर्घा में बैठे सतीश ओक, मुनिर अहमद, विपिन तिवारी और संजीव रेड्डी की ओर इशारा किया। मेरी सारी बातों को वेताल शांतिपूर्वक मनोयोग से सुन रहा था। पता नहीं, उसे कितना समझ में आया, मगर उसके सिर हिलाने की मुद्रा ने विक्रम को आश्वस्त कर दिया कि यह विक्रम-वेताल संवाद सदियों तक मानवता की आँखें खोलता रहेगा। वेताल की आत्मा को तुरंत न्याय मिलेगा या नहीं, यह तो मालूम नहीं; मगर आगामी पीढ़ियों को इसके सम्मान की लड़ाई के लिए तो अवश्य जागरूक करेगा। 

अन्तर्धान होने से पहले वेताल ने विक्रम के सामने अपने कुछ सवाल रखें, “विक्रम! आज यह मुलाक़ात, हमारी अंतिम मुलाक़ात होगी। मैं कुछ सवाल पूछ रहा हूँ, जो सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही नहीं हैं, वरन्‌ देश के हर नागरिक से हैं। क्या आप किसी चौराहे पर मेरी प्रतिमा लगा सकते हो? क्या किसी सरकारी या प्राइवेट स्कूल या अन्य संस्थान का नाम मेरे नाम के ऊपर रख सकते हो? क्या मेरे नाम पर किसी खेलकूद के टूर्नामेंट का आयोजन करवा सकते हो? सवाल बहुत छोटे हैं, लेकिन इनका उत्तर मेरे लिए बहुत मायने रखता है। ये कार्य मुझे आपके अकेले के बल पर नहीं, बल्कि प्रजा की सर्व-सम्मति से होने चाहिए। क्या आप सभी मुझे अपना नाम दिलवा सकते हो?” 

इससे पहले कि विक्रम उत्तर देता, तभी कहीं दूर से आवाज़ सुनाई देने लगी। 

“शहीद बिका तुम केवल अपनी बात कर रहे हो। इस देश ने गाँधी को क्या दिया? विक्रम ने तो उपन्यास लिखकर अपनी भूमिका समाप्त कर दी, मगर क्या गाँधी के बिना यह उपन्यास लिखना सम्भव था? सुभाष चंद्र बोस और सरदार वल्लभ भाई, जो गाँधीजी को अपना गुरु मानते थे, भले ही, उनके बीच में वैचारिक मतभेद क्यों न रहे हो। आज सुभाष बोस की मूर्ति दिल्ली के इंडिया गेट पर लगी हुई है, जहाँ कभी गाँधी की प्रतिमा लगाने की सरकार योजना बना रही थी, उसी तरह सरदार सरोवर पर सरदार वल्लभभाई पटेल की विश्व में सबसे ऊँची प्रतिमा लगाकर सम्मान दिया है। न्यूयॉर्क के ‘स्टैचू और लिबर्टी’ से भी ऊँची। क्या गाँधीजी की प्रतिमा इतनी ऊँची नहीं होनी चाहिए थी। तुम्हारे देश में आज भी बहुत विसंगतियाँ है। जहाँ शहीद बिका और पवित्र बाबू तालचेर जैसे एक छोटे राज्य-रजवाड़ों के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे, वहाँ गाँधी जी तो पूरे देश के सारे राज्य-रजवाड़ों और अंग्रेज़ी शासन की चूलें हिलाने में लगे हुए थे, वह भी पूरे विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए। आज जहाँ सारा विश्व उन्हें सम्मान देता है, वहाँ आज हमारे अपने देश में उनकी मूर्तियाँ तोड़ी जाती हैं, उन्हें मरने के बाद भी अपमानित किया जाता है, उनका चरित्र हनन किया जाता है। ज़रा सोचिए, क्या इस देश में गाँधी जी का पैदा होना सही था?” 

विक्रम ने वेताल की तरफ़ देखते हुए कहा, “यह कौन गाँधी भक्त बोल रहा है?” 

वेताल ने सिर हिलाकर उत्तर दिया, “यह ठक्कर बापा की आत्मा है। साथ में बहुत सारी आत्माओं का समूह आपको और मुझे ऐसे ही सुन रहा है, जैसे कभी महाभारत के कुरुक्षेत्र में कृष्ण और अर्जुन के संवाद को संजय और धृतराष्ट्र सुन रहे थे।” 

“आत्माओं का समूह में कौन-कौन हैं?” विक्रम ने अधीर होकर पूछा। 

“इस समूह में वे सारी आत्माएँ हैं, जिन्होंने प्रजा-मंडल आंदोलन में कभी सक्रिय रूप से भाग लिया था और वे दुष्ट आत्माएँ भी हैं, जिन्होंने इस आंदोलन को दबाने के लिए भरसक चेष्टा की थी। हमारे संवाद को ठक्कर बापा संजय की तरह आत्मों के प्रतिनिधि मंडल को सुना रहे हैं, जिसमें गाँधी जी, पट्टाभी सीता रम्मैया, प्रोफ़ेसर रंगा, मालती देवी, मिस अगाथा हैरिसन, नव कृष्ण चौधुरी, बलवंत राय मेहता, सीएफ एंड्रयूज, जुगल किशोर बिरला, पवित्र मोहन प्रधान राजा किशोर चंद्रदेव, राजा हृदय चंद्रदेव, जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, सुभाष चंद्र बोस, विश्वनाथ दास, गिरिजा भूषण दत्त, रमा देवी, हरे कृष्ण महताब, राधा मोहन गड़नायक, सच्चिदानंद राउतराय आदि की आत्माएँ मौजूद हैं।” कहकर वेताल चुप हो गया। 

“यह तो अच्छा हुआ कि सभी आत्माओं को पूर्व जन्म में अपनी-अपनी भूमिका की जानकारी हो पाए, कि उनके बारे में वर्तमान पीढ़ी क्या सोचती है?” विक्रम ने अपने मन की बात रखी, लेकिन एक सवाल अभी भी उसके मन में उठ रहे झंझावात को जन्म दे रहा था। उसके समाधान हेतु विक्रम ने पूछा, “आज तो आप चले जाओगे। मगर मुझे बताइए कि आपने मुझे ही अपनी गाथा सुनाने के लिए क्यों चुना?” 

“यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात हैं। बता देना चाहता हूँ कि मेरा असली नाम था विक्रम नाएक। विक्रम का उच्चारण ओड़िया भाषा में ‘बिक्रम’ होता है। मेरे घर वाले, आस-पड़ोस वाले, सगे संबंधी मुझे मेरे ‘विक्रम नाम’ से न पुकार कर प्यार से ‘बिका’ निकनेम से पुकारते थे, इसलिए मेरी शहादत के समय सरकारी काग़ज़ों में मेरा नाम दर्ज हो गया, शहीद ‘बिका’। और संयोग देखा, आपका नाम है विक्रम, यानी मेरे नाम का ही दूसरा इंसान। अगर आप दर्पण में देखोगे तो आपके चेहरे की जगह मेरा चेहरा नज़र आएगा। हमारे ओड़िशा में एक ही नाम वालों को ‘मेइत्र’ यानी मित्र की संज्ञा देते हैं, इस हिसाब से तुम मेरे आत्मिक मित्र हुए। यही वजह है कि मैंने अपनी सारी गाथा आपको सुनाई।” वेताल ने जैसे किसी विशेष रहस्य का उद्घाटन किया हो। 

“यह बात तो मुझे मालूम नहीं थी। लगता है कि हमारी दोस्ती पूर्व-जन्मों से रही होगी। मुझे आप पर गर्व हैं।” कहते हुए विक्रम ने वेताल के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त किया। 

“मैं एक और रहस्य का पर्दाफ़ाश करना चाहता हूँ। जिसे मैं ताल पेड़ कह रहा था, वह कोई बाहरी ताल पेड़ नहीं है। वह आपके शरीर के अंदर में है। जिस तरह कुंडलिनी हमारे शरीर के छह चक्र को पार कर सहस्रार तक पहुँचती है, वैसे ही मेरे निवास स्थान ताल पेड़ की जड़ आपका मूलाधार चक्र है और ताल पेड़ का गुंबद सहस्रार। इस गुंबद में रहते हुए मैंने आपको अपने अतीत की गाथा सुनाई है, क्योंकि आपकी कुंडली जागृत्त थी।” वेताल ने एक और रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा, “मुझे लगता है, अब आपका उपन्यास पूरा हो जाएगा, लेकिन अभी तक मेरे सवाल का आपने उत्तर नहीं दिया। मैं समझ गया कि मेरे सवाल का उत्तर आपके पास तो क्या, वर्तमान में अरबों की जनसंख्या वाले हमारे देश में किसी के पास नहीं है। इसलिए मुझे आपके शरीर में और रहने का कोई हक़ नहीं है। मैं जा रहा हूँ हमेशा-हमेशा के लिए। मुझे कहीं भी मत खोजना।” कह कर चला गया वेताल सूर्यास्त की लालिमा से परिपूर्ण दिग्वलय की ओर। विक्रम उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ा रहा था, मगर वह उतना ही दूर होते जा रहा था। देखते-देखते वह अपने सामान्य आकार से घटते-घटते एक छोटा-सा बिंदु बन गया था और फिर नज़र नहीं आने लगा। सूर्य की रश्मियों में विलीन हो गया। 

अछूत शहीद बिका अपनी कालजयी गाथा में उलझे कई प्रश्न हमारे लिए अनुत्तरित छोड़ गया। 

विक्रम को लगा जैसे वह कोई भयंकर सपना देख रहा हो। और जैसे ही उसका सपना टूटा। उसे लगा कि हमारे देश में कई ऐसे शहीद बिका होंगे, जिनके बारे में हमारी वर्तमान पीढ़ी को जानकारी नहीं होगी। वे अपने निम्न जाति के काले पर्वत के बोझ तले दबकर हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में खो गए होंगे। आज ज़रूरत है उन काले पर्वतों को उखाड़ फेंकने की, ताकि उनका सही इतिहास हमारी पीढ़ी के सामने आ सके। विक्रम तो क्या उसके जैसे सैकड़ों-हज़ारों साहित्यकार मिलकर भी इस उपन्यास को पूरा नहीं कर पाएँगे। 
यह उपन्यास अधूरा ही रहेगा, सदियों-सदियों तक। 

टूटे मटके में पानी भरने की तरह यह कभी भरा नहीं जाएगा। अधूरा ही रहेगा। अधूरा उपन्यास। अछूत बिका नाएक की खोज कभी पूरी नहीं हो सकती है। 

कभी पूरी नहीं हो सकती है। 
 

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