शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली

शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय–4

 

विक्रम और वेताल के मिलते हुए चार दिन हुए थे। निर्धारित समय के अनुरूप ‘वेताल बत्तीसी’ की तरह आज भी वेताल ताल वृक्ष की डाली पर लटके हुए, उस रास्ते पर विक्रम की गाड़ी के आने का इंतज़ार कर रहा था। अपनी अतीत को अभिव्यक्त करने के लिए वेताल ने भी आठ दशक से ज़्यादा समय तक इंतज़ार किया था और अब वह कैसे छोड़ सकता था विक्रम को, अपनी पूरी बात कहने से पहले। जैसे ही उसकी गाड़ी वहाँ से गुज़री, वेताल ने दो बार उलटी गुलाची खाते हुए धम् से उसके बाएँ कंधे पर आकर बैठ गया और मंद-मंद मुस्कराने लगा। 

विक्रम ने कल की अपूर्ण गाथा को उसी जगह से याद दिलाते हुए कहा, “आपके शहीद होने के दौरान बचे हुए घायल लोगों का क्या हुआ? क्या वे जीवित रहे या वे भी परलोक सिधार कर शहीद हो गए?” 

“घायलों को मेरामंडली से कटक भेज दिया गया। मागता महाराणा के जाँघ में फँसी गोली बहुत समय तक रहने के कारण गहरा गड्ढा बना रहा। देश की आज़ादी के बाद वह उसे अपने बच्चों और नई पीढ़ी को दिखाता था।” यह कहते हुए वेताल बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोने लगा। बहुत सांत्वना देने के बाद भी उसकी आँखों के आँसू साफ़ दिखाई दे रहे थे। विक्रम से रहा नहीं गया और कहने लगा, “वेताल भाई! मैं आपको कोई सवाल नहीं पूछूँगा, मगर एक बात जानना ज़्यादा ज़रूरी है कि अपने अतीत की गाथा सुनाते-सुनाते आप बीच-बीच में फफक-फफकर क्यों रोते हो? कल भी मैंने आपको कई बार रोते हुए देखा था। हिम्मत वाले जीव ही तो शहीद होते हैं, मगर शहीद होने के बाद हिम्मत कहाँ चली जाती हैं?”

अपनी सारी बिखरी हुई हिम्मत एकत्रित कर वेताल ने अपने आँसुओं को पोंछते हुए कहा, “मुझे मेरी मौत का कोई दुख नहीं है। आज नहीं तो कल मुझे तो मरना ही था। अँग्रेज़ों की गोली से मरने के कारण मुझे शहीद का दर्जा मिला। ऐसे अगर मर जाता तो कोई नहीं जानता। शहीद होने से मेरे परिजनों और घर वालों का सीना फूल गया और गर्व से उनका सिर ऊपर उठ गया। मगर मुझे दुख है मेरी जाति का, न कि मौत का। मौत तो एक ही बार आती है, मगर जाति? जाति तो क़दम-क़दम पर इस बात का अहसास दिलाती है कि हम नीच थे, नीच हैं और नीच ही रहेंगे। जन्म-जन्मांतर तक, युगों-युगों तक। दुख की बात तो यह है कि मरने के बाद भी मेरी जाति मेरा और मेरे घर वालों का पीछा नहीं छोड़ती है। अब देखिए, पवित्र बाबू! मुझे इतना प्यार करते थे। मुझे कभी अहसास नहीं होने देते थे कि मैं नीच जाति का हूँ। मुझे अपना सैनिक समझते थे। मेरी जलती चिता पर उन्होंने क़सम खाई थी कि इतिहास में मेरा नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। मगर हुआ क्या? देश आज़ाद होने के बाद वे मंत्री बने, उपमुख्यमंत्री बने, तालचेर, अंगुल, ओड़िशा का नाम विश्व-पटल पर रोशन किया। पूर्वजों और अपने वंश का नाम सुशोभित किया। मगर उनकी आत्मजीवनी ’मुक्तिपथे सैनिक’ में मेरे बलिदान के ज़िक्र की बात तो दूर रही, किसी भी जगह पर मेरा नाम तक भी नहीं आया, जबकि ढेंकानाल में मेरी तरह ही शहीद हुए बाजिराउत का नाम उनकी जीवनी में आया है। मेरा क्यों नहीं? जबकि पहले ही मैं बता चुका हूँ, उन्होंने अवश्य अपने हस्तलिखित अख़बार में मेरे नाम और मेरी शहादत का ज़िक्र करते हुए प्रजामंडल आंदोलन के बीज बोए थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित ओड़िया कवि सच्चिदानंद राउतराय ने ’बाजिराउत’ कविता लिखकर उसे कालजयी बना दिया, मगर मेरे पाण जाति में तो ऐसा कोई कवि पैदा नहीं हुआ, जो मुझ पर कविता या कोई आलेख लिख पाते। न ही मेरी जाति का कोई नेता तब तो क्या अब तक पैदा नहीं हुआ, जो मेरे नाम का यानी ‘बिका नायक छात्रावास’ बना पाता और न ही कोई ऐसा भामाशाह सेठ पैदा हुआ, जो अपनी ज़मीन दान कर उस पर मेरी स्मृति में कोई भवन बना देता। इसलिए तो हम द्राक्ष की तरह दलित दरिद्र कहलाते हैं, जबकि बाक़ी जन, जन ही नहीं; महाजन कहलाते हैं, जबकि तत्कालीन अंगुल प्रजामंडल के नेताओं जैसे मालती चौधुरी और नवकृष्ण चौधुरी ने देश की आज़ादी से एक साल पहले ही ‘बाजीराऊत छात्रावास’ बना दिया, ताकि देश आज़ाद होने के बाद स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चे वहाँ रहकर पढ़ सके।” 

“यह बाजिराउत कौन है? और उनकी शहादत की कहानी क्या है?” विक्रम ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा। 

“ढेंकानाल ज़िले के भुवन निकटवर्ती निलकंठपुर गाँव में 5 अक्‍टूबर, 1926 को बाजिराउत का जन्‍म हुआ था। उन्होंने बाल्‍यावस्‍था में ही अपने पिता को खो दिया था। उनका लालन-पालन उनकी माँ ने दूसरों के घर में नौकारानी का काम करते हुए किया, क्‍योंकि उनके परिवार में खेती करने के लिए उनके पास कोई ज़मीन-जायदाद नहीं थी। दुखियारी माँ के संसार में 12 वर्ष का अबोध शिशु अपने परिश्रम से जीविका निर्वाह कर अपनी माता की सहायता कर रहा था। बाजि ब्राह्मणी नदी पर नौका घाट में नौका वाहक का काम कर धनोपार्जन करता था। माँ व बेटे अपने छोटे से संसार में सुख व दुख से गुज़ारा कर रहे थे।” 

वेताल की बात को बीच में काटकर विक्रम ने कहना शुरू किया, “उस समय तालचेर की तरह ढेंकानाल में प्रजामण्‍डल आन्‍दोलन हुंकार भरने लगा होगा। शिक्षित युवा वर्ग गाँव-गाँव घुमकर क्रान्ति का विद्रोही स्‍वर बुलन्‍द करने लगे होंगे। उत्‍कल मिट्टी के अबाल-वृद्ध वनिता सभी क्रान्ति की लहर में कूदे होंगे, नवयुग के नए प्रतिनिधि बनकर। क्या उस समय तालचेर और ढेंकानाल में इस क्रान्ति की चिंगारी धीरी-धीरे सुलगी या तुरंत?” 

“जिस तरह तालचेर में 21 सितंबर 1938 को मैंने अग्निपुंज बनकर स्‍वतंत्रता संग्राम का प्रथम रण हुंकार भरी थी, वैसे ही 11 अक्‍टूबर 1938 ढेंकानाल के इतिहास में बाजिराउत ने। वह कालिमा भरा दु:खद दिन था। घनी अँधेरी रात, ठिठुरती ठण्‍ड, आकाश में बिजली चमकने के साथ रुक-रुक कर बारिश हो रही थी। पिछले तीन दिनों से लगातार मौसम ख़राब था। ब्राह्मणी नदी का पानी काफ़ी तेज़ रफ़्तार से बह रहा था। साथ-ही साथ वह सीमा लाँघने में तुला हुआ था। बाजिराउत प्रजामंडल के निर्देश से नदी घाट पर रखवाली कर रहा था। अफ़ीम की तरह काली थी वह कालरात्रि। निर्भीक बाजि निर्भय हृदय से प्रजाबन्‍धु क्रान्तिकारियों के आह्वान से देश की सेवा में दृढ़ संकल्‍प-बद्ध होकर नौका बहाने के लिए घाट पर अकेले रुका हुआ था। लोभ-मोह की तनिक भी चिन्‍ता न करते हुए जीवन को हँसते हुए बलिदान देने के लिए वह तत्‍पर था। बाजीराउत तूफ़ान से भी शक्तिशाली, बादल से भी ज़्यादा शक्तिमान, पौराणिक अभिमन्‍यु शिशु की तरह, इतिहास का शिशु, धर्मपद की अशरीर आत्‍मा, शीत लहरी आत्‍मा भासमान होकर बाजीराउत के बालपन मन को चट्टान की तरह कठोर व लोहे की तरह सशक्‍त कर रही थी। 

“एडिकि से अमानिआ पिला, फउजर गुळि, गुळा, 
रज़ा, झड किच्छि न मानिला
धूळि खेळ छाडि, गुळि आगे जीवन कु हसि हसि देला सिना बाड़ि, 
झड ठारू से जे बड, मेघ ठारू आहुरि से कळा
सान देहे खेळे तार, जीवनर अलिभा चपला
राति परि हुए बाटबणा, पथ भूलि एणे तेणे बोहिजाए से परा झरणा॥” 

ठीक उसी समय पर शासक के निर्देश से लाल फिरंगी पुलिस फ़ौज भुवन गाँव में क्रान्ति के दमन करने के लिए, ख़ून-मुँहे बाघ की तरह गोली से प्रजामंडल को भूनकर नदी घाट पार होने के लिए घाट पर पहुँचे। 12 वर्ष का बाजिराउत अकेले घाट की रखवाली कर रहा था। निर्देश दिया गया कि इन लोगों को नदी पार कर दो, परन्‍तु बाजिराउत ने उनके हुक्म की तालिम नहीं की। जैसे मैंने कहा था कि सिंघड़ा नदी के बालू तट पर कि पवित्र बाबू ने हमें निर्देश दिया है, पुलिस की गाड़ी और नहीं ठेलेंगे, उसी तरह उसने भी कहा कि हम नाँव से नहीं ले जाएँगे। यह प्रजामंडल का निर्देश नहीं है, घाट नहीं छोड़ेंगे। यह जवाब अँग्रेज़ शासन पुलिस फ़ौज सहन नहीं कर सका। दैनिक नर रक्‍त से होली खेलना जिनकी जीविका हो, उनके सामने उस छोटा से बालक का उत्‍तर देना कितने समय तक सहन होता। पाशविक दल निष्‍पाप बाजि को संगीन मून से ख़ून कर डाला। ख़ून से लथ-पथ शरीर लिए बाजीराउत वीर बालक देश के लिए अपनी जाति के लिए अपने अन्तिम ख़ून के बिन्‍दू झरने से पहले अपने करुण कंठ से चित्‍कार कर सूचना दी थी: भाईयो! दौड़ कर आओ, पुलिस हमारे घाट पर है। आवाज़ सुनते ही दौड़ आए जीवन सखा नट मलिक, फगु साहू, हुरूषि प्रधान, गुरि नायक, रघु नायक व लक्ष्‍मण मलिक। सभी साथियों ने मिलकर पुलिस का प्रतिरोध किया। कितना महान था उनका देश-प्रेम। कितना अपूर्व इनकी राष्ट्र-प्रीति। कितना महान थी इनकी कर्तव्‍य निष्‍ठा। सामने मौत लाल वस्‍त्र पहन कर खड़ी है, हाथ में कालदंड बंदूक, बिजली चमक रही है, पुनः दिखाई पड़ रही है, प्राण सखा बाजि का ख़ून से सना लथ-पथ शरीर अवस पड़ा है। उनकी आँखें इशारा कर कर रही है: 

मरो पर डरना नहीं, मारो यह पशुदल को। 

कुछ ही पल के अन्‍दर अँग्रेज़ों की गोलियों से एक-एक करके सात महारथी महा संग्राम में प्राण गँवा बैठे। ख़ून से लथपथ सप्‍तरथियों का शरीर रक्‍त करवी, अंग्रेज़ी शासन से मुक्ति पाने के लिए यह था अन्तिम अर्घ्‍य। देशवासियों के लिए अंग्रेज़ी शासन हुकूमत गोष्ठियों के विरुद्ध यह था एक सशक्‍त चेतावनी। कवि राउतराय के हृदय कंठ से नि:सृत होने लगा शोक वाक्‍य:

“लहू ढ़ाळी तहीं परे लेखिले से मुकतिर छवि
छवि नुँहे, तुळी नुँहे, नुँहे रंग से रक्‍त करबी, 
ए माटिर स्‍तन्‍य पिई गाइला से ए माटिर जय
विश्‍वर दुरन्‍त शिशु मृ‍त्रिकार चिर स्‍तनन्‍दय॥” 

सप्‍तरथियों का पार्थिव शरीर को लेकर प्रजामंडल विराट शोभायात्रा के साथ राजधानी कटक खान नगर श्मशान ले गये, जहाँ उनका अन्तिम संस्‍कार किया गया।” 

बाजिराउत के शहादत पर वेताल की काव्यमयी ओजस्वी भाषा सुनकर विक्रम की आँखें भर आई। अपनी आँखों को पोंछते हुए पूछने लगा, “जिस तरह आपकी अन्त्येष्टि कर्म 22.09.38 को पवित्र बाबू, गिरिजाभूषण दत्त, एमएलए, अंगुल और प्रजा मंडल के नेताओं ने आपके परिजनों और गाँव वालों की उपस्थिति में लिंगराजोड़ी गाँव के पास से होकर बहने वाली लिंगरा नदी के किनारे किया था, उसी तरह बाजिराउत का अन्तिम संस्‍कार तत्कालीन राजधानी कटक के खान नगर श्‍मशान में किया गया था, तब उस समय वहाँ कौन लोग उपस्थित थे?” 

“यह बहुत महत्त्वपूर्ण सवाल है, यह अवश्य आपके उपन्यास का कथानक बनेगा। क्रान्तिकारी कवि अनन्‍त पटनायक, रवि घोष, मोतीलाल त्रिपाठी, गोविन्‍द चन्‍द्र मोहन्‍ती व कवि सच्चिदानन्‍द राउतराय ने उस सप्तरथियों के पार्थिव शरीर को आहुति दी। उस चिता अग्नि लेलीहान जिह्वा ने कवि के अन्तर्मन को उद्वेलित किया एवं हृदय के प्रति स्‍पन्दित होकर अग्‍नेय दीपशिक्षा काव्‍य बाजीराउत सृजित हुई। अँग्रेज़ द्वारा किए गए अत्‍याचार व शोषण एवं बालक बाजिराउत को गोली से भूनने का दिल दहलाने वाला दृश्‍य से कवि हृदय काँप उठता है, जिसमें आवेग के साथ अनेक भावनाएँ प्रस्‍फुटित हुई। भावावेग होकर कवि सचिदानन्‍द राउतराय के हृदय से अनायास नि:सृत होता है ‘बाजीराउत’ खंड-काव्‍य:

“नूहें बँधूँ, नुहें यहाँ चिता, ए देश तिमिर तळे, ए अलिभा मुकति सळिता, 
नुहें एहा जळि जिबा पाइिं, एहार जनम एथि जाळि पोडी देबाकु धसाई॥” 

केवल गडजात राज्‍य ही नहीं वरन्‌ संपूर्ण भारतवर्ष आज अंध शासन व अँधेरी गुफा में बन्‍दी होकर पड़ा है। अँग्रेज़ शासकों के शासन से मुक्ति पाने के लिए ये अग्निशिखा सभी को आग्‍नेय आह्वान देती है। एक साधारण मृतशरीर के चिताग्नि की ज्योति से भरी पड़ी है क्रान्ति की चिंगारी। स्वतंत्र मानव की मुक्ति के लिए यह आह्वान है। भारत के स्‍वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्‍वतंत्रता सेनानी कनिष्‍ठ शहीद बाजिराउत का नाम स्वर्णाक्षरों में लिपिबद्ध हुआ।” कहकर वेताल फफक-फफक कर रो पड़ा। 

“पहले तो मुझे इस बार फिर आपके रोने का अर्थ समझ में नहीं आया। दूसरा, बाजि राउत मेरे उपन्यास का कथानक कैसे बनेगा, जबकि मैं तो आपकी जीवनी पर लिख रहा हूँ?” विक्रम ने अपने मन की बात वेताल के सामने रखी। 

“आप लेखक होकर भी अगर मेरी बातों को नहीं समझ पा रहे हो तो यह आपकी ग़लती है, मेरी नहीं। सीधी-सी बात है, हम दोनों शहीद हुए। एक ही उद्देश्य से, प्रजामंडल आंदोलन के स्फुलिंग बनकर दोनों चिता की आग में जले। बस फ़र्क़ इतना ही है, एक अंगुल में जला तो दूसरा कटक में। 21.09.38 को मैं शहीद हुआ तो 11 सितंबर 1938 बाजि राउत। केवल पंद्रह दिन का फ़र्क़ है, मगर मैं कहाँ और बाजि राउत कहाँ! सच्चिदानंद राउतराय के ‘बाजि राउत’ सन्‌ 1943 में प्रकाशित लघु काव्‍य ने उसे अमर बना दिया, मगर मेरे लिए किसी साहित्यकार की क़लम आज तक क्यों नहीं उठी? ज़रा सोचो, सहस्रों साहित्यकार आए और चले गए, मगर मेरी जाति ने उनकी क़लम को पंगु बना दिया। अन्यथा हम दोनों को अँग्रेज़ों ने अपनी गोलियों से भून दिया था। हम दोनों ने सामन्‍तवादी समाज द्वारा किए जा रहे अत्‍याचार व शोषण के विरोध और अँग्रेज़ हुकूमत के विरोध अपनी जान देकर नई क्रांति का सूत्रपात किया था। फिर दोनों में इतना विभेद क्यों? ज़रा सोचिए, पहला, इस बात को कहने के लिए मुझे आठ दशक तक इंतज़ार करना पड़ा। दूसरा, बारह साल के शहीद बाजि राउत बच्चे से मुझे लगाव हैं, लेकिन मन-ही-मन उसके नाम की तरह मेरा नाम नहीं होने से मुझे ईर्ष्या होने लगी है। उसके प्रशंसकों, वंशजों ने उसके नाम से चौराहे, सड़क, खेलकूद की ट्रॉफी आयोजित कर उसे अमर बना दिया। मेरे वंशज में कौन है ऐसा लिखने वाला? या कौन है जो मेरे नाम के लिए आवाज़ उठाए? नीची जाति में जन्म लेने के कारण बहुत कुछ खोना पड़ा है मुझे। पूरे विश्व का इतिहास उठाकर देख लो, क्या कभी शहीद की जाति भी पूछी जाती है? आपके उपन्यास में मुझे उसका उत्तर चाहिए।” इस तरह वेताल के संवेदनशील वार्तालाप विक्रम के मन में हुए झंझावात से कई सवाल पैदा हो गए। इस संवाद में नए-नए नाम सुनकर अपनी अनभिज्ञता प्रदर्शन करने से वह आख़िरकार अपने को रोक नहीं पाया और पूछने लगा, “सच्चिदानंद राउतराय, मालती चौधुरी और नवकृष्ण चौधुरी के बारे में मुझे जानकारी नहीं हैं। कृपया उनके बारे में थोड़ा आलोकपात करें।” 

“अवश्य, पहले मैं आपको सच्चिदानंद राउतराय के बारे में जानकारी देता हूँ।” वेताल ने उत्तर दिया और एक साहित्यकार की तरह बताने लगा, “सच्चिदानंद राउतराय (1916-2004) ओड़िया साहित्य जगत में ‘सच्ची राउतराय’ या ‘सच्ची बाबू’ के नाम से जाने जाते हैं। ओड़िया प्रगतिशील साहित्य के इस महान रचनाकार ने कविता तथा कहानी दोनों क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। आपका जन्म खुर्दा के पास गुरुजंग में 13 मई 1916 को हुआ, लालन-पालन और शिक्षा बंगाली में हुई और तेलगू के शाही परिवार गोलापल्ली में एक राजकुमारी के साथ आपका विवाह सम्पन्न हुआ। स्वतंत्रता के बाद ओड़िया साहित्य में आधुनिक कविता को नई दिशा प्रदान करने में ‘सच्ची बाबू’ का विशिष्ट योगदान रहा। ओड़िशा के ग्राम्य-जीवन को प्रस्तुत करने वाली कविता ‘पल्लिश्री’ जितनी प्रसिद्ध है, उतनी ही शहरी लड़की के दुखों का दर्शाती कविता ‘प्रतिमा नायक’। आपके प्रसिद्ध कविता संग्रह-पाथेय (1931), पूर्णिमा (1933), अभियान (1938), रक्तशिखा (1939), पल्लीश्री (1941), बाजिराउत (1943), पांडुलिपि (1947), हसंत (1949) स भानुमतीर देश (1949), अभिज्ञान (1949), स्वागत (1958), कविता (1961 से 1988), एशियार स्वप्न (1970) हैं। इसके अलावा, ‘माटिर ताज’, ‘मशानिर फूल’, ‘छाई’, ‘माकंड ओ अन्यान्य गल्प’, ‘नूतन गल्प’ इत्यादि आपके बीस कहानी-संग्रह हैं। अपने साहित्य सर्जन के लिए उन्हें पद्मश्री (1962), साहित्य अकादमी पुरस्कार (1963), सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (1965) तथा ज्ञानपीठ अवार्ड (1986) से नवाज़ा गया है। प्रस्तुत कहानी ‘श्मशान के फूल’ आपकी एक कालजयी प्रतिनिधि कहानी है।” 

“ये तो ओड़िया भाषा के बहुत बड़े प्रतिष्ठित कवि हैं। अभी-अभी मैंने विकिपीडिया में देखा कि वे पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, ज्ञानपीठ अवार्ड आदि से नवाज़े गए थे।” विक्रम ने कहा। 

“लेकिन मुझे उनसे बहुत ईर्ष्या हैं। उन्होंने शहीद बाजि पर अपनी लम्बी कविता “बाजि राउत” लिखी और ओड़िया पाठकों में काफ़ी लोकप्रिय हुए। काश! वे मेरे ऊपर भी कविता लिख दिए होते तो क्या ओड़िया साहित्य में इतने प्रसिद्ध हो जाते या उनकी इस कविता पर इतनी चर्चा होती! शहीद की कोई जाति नहीं होती। राष्ट्र को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाला शहीद होता है। ‘सच्ची बाबू’ न सही, कोई दूसरा कवि भी तो मेरी शहादत पर कविता लिख सकता था। लेकिन ओड़िशा में ऐसा और कोई कवि अभी तक पैदा नहीं हुआ?” वेताल ने अपने मन के कोह को विक्रम के सामने प्रकट किया। 

सांत्वना देते हुए विक्रम ने कहा, “आपको सच्चिदानंद राउतराय से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि शायद उन्हें आपके बलिदान के बारे में जानकारी नहीं होगी। और ऐसे भी यह मानव स्वभाव है, चाहे कवि हो या चाहे प्रधानमंत्री, अपने परिजनों, सगे-संबंधियों और स्वजाति बंधुओं के प्रति मन के किसी कोने में प्रेम छुपा रहता है। मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि हमारी पीढ़ी के कवि अवश्य आपके ऊपर सैकड़ों कविताएँ लिखेंगे।” फिर कुछ समय रुकने के बाद कहने लगा, “मालती चौधुरी और नवकृष्ण चौधुरी के बारे में थोड़ी जानकारी देने का कष्ट करें।” 

“नवकृष्ण चौधुरी और मालती चौधुरी यानी चौधुरी दंपती का नाम भारत के इतिहास में अपनी निष्ठा, त्याग और निडरता वाले स्वतंत्रता संग्रामियों के अग्रिम पंक्ति में और स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। गड़जात आंदोलन, क़ानून अमान्य आंदोलन, वाणी सत्याग्रह के समय बार-बार वे लोग अंगुल आते थे, स्वाधीनता सेनानियों के उत्साह-वर्धन के लिए। जैसे ही उन्होंने ‘बाजीराउत छात्रावास’ बनाया तो वह अंगुल वासियों के हृदय में सदा के लिए बस गए।” भृकुटियों को तानते हुए वेताल ने कहा, “लोग उन्हें प्यार से ‘नुआ’ और ‘बापी’ कहकर पुकारते थे। केवल स्वतंत्रता संग्राम ही नहीं, बल्कि शिक्षा, सामाजिक, आर्थिक अभ्युदय में भी उनका अतुलनीय योगदान था।” 

वेताल की बात को बीच में काटकर विक्रम ने पूछा, “बिका भाई, नवकृष्ण चौधुरी और मालती चौधुरी के बारे में बताते हुए आपके चेहरे की भाव-भंगिमा क्यों बदल गई, जबकि आप तो उदार हृदय आत्मा हो?” 

“बात मेरी उदारता की नहीं है। मेरे चिंतन की है। आज भी देश के दिग्गज नेताओं के लिए भी मेरा बलिदान कोई मायने नहीं रखता है। मौत से पहले जाति और फिर मौत के बाद जाति—ये सब क्या जंजाल है! महात्मा गाँधी मुझे ‘हरिजन’ कहते थे, जबकि इन लोगों के लिए मैं ‘मनु जन’ भी नहीं। इतना भेदभाव क्यों? मेरी मौत के आठ दशक बाद भी जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ मेरा संघर्ष जारी है और शायद हमारे देश में यह मोर्चा जारी रहेगा, अनंत काल के लिए।” 

कहीं वेताल अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित जातिवाद के चिंतन को और ज़्यादा आगे न बढ़ाए, यह सोचकर विक्रम ने वार्तालाप को दूसरी दिशा में ले जाने के लिए कहने लगा, “क्या नवकृष्ण चौधुरी का जन्म अंगुल में नहीं हुआ था?” 

“नहीं, नवकृष्ण चौधुरी का जन्म कटक में हुआ था।” 

“और माता-पिता?” 

“खेरसर ज़मींदार और कटक के विधिवेत्ता श्रीयुक्त गोकुल आनंद के दूसरे पुत्र के रूप में उनका जन्म 13 नवंबर 1901 को कटक में हुआ था।” 

“और मालती चौधुरी का?” 

“उनका जन्म 13 जुलाई 1904 को कोलकाता में हुआ था। उनके पिता थे बैरिस्टर कुमुदनाथ सेन और माँ थी स्नेहलता, जो बिहारी लाल गुप्ता आईसीएस ऑफ़िसर की लड़की थी।” 

इस तरह विक्रम-वेताल संवाद और आगे बढ़ रहा था, लेकिन तभी विक्रम ने अपने आपको नियंत्रित करते हुए कहा, “यह चौधुरी दंपती गाँधी जी के संपर्क में कैसे आई?” 

“गाँधी जी से नवकृष्ण चौधुरी साबरमती आश्रम में मिले थे और शान्ति निकेतन में पढ़ते समय उनकी मुलाक़ात मालती चौधुरी से हुई, जो आगे जाकर प्रेम-परिणय में बदल गई। इस दंपती पर रविंद्रनाथ टैगोर और महात्मा गाँधी—इन दोनों महापुरुषों के व्यक्तित्वों का बहुत प्रभाव पड़ा। इस वजह से देश के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।” कहते हुए वेताल नीरव हो गया, मगर उसके मन में अभी भी उथल-पुथल चल रही थी। एक दीर्घ-श्वास लेते हुए कहने लगा, “एक बात और कहना चाहूँगा, कि मेरा नाम सरकारी वेबसाइट पर अवश्य हैं मगर वह भी, चार-पाँच लाइन का, अँग्रेज़ों की नज़रिए से लिखा हुआ। एकदम ग़लत-सलत। पवित्र बाबू मुझे भूल गए? या मुझे शूद्र एकलव्य समझकर द्रोणाचार्य की तरह पवित्र बाबू ने मुझे अपना शिष्य ही नहीं माना?” 

“आप ऐसे ही भावुक हो रहे हो? पवित्र मोहन प्रधान जी हमारे देश के अग्रपंक्ति के स्वतंत्रता-संग्रामी थे। अपनी आत्मकथा लिखते समय वे हमारे आज़ाद देश के आज़ाद ओड़िशा राज्य के उपमुख्यमंत्री थे। अपने व्यस्ततम समय में उन्होंने अपनी आत्म-कथा लिखी, इस वजह से शायद यह घटना उनके दिमाग़ में नहीं आई होगी?” प्रत्युत्तर में विक्रम ने उसे समझाने का प्रयत्न किया। 

विक्रम अपना स्मार्टफोन निकालकर वेताल के बारे में गूगल पर आँकड़े-संग्रह करने में लगा हुआ था। इंटरनेट, यू ट्यूब, इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक, ट्विटर के अलावा मंत्रालयों के अभिलेखागारों को भी खंगालने में वह पीछे नहीं था। विक्रम कहने लगा, “मैंने इंटरनेट अर्काइव पर देखा है कि भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय एवं भारत की ऐतिहासिक शोध परिषद द्वारा प्रकाशित ’डिक्शनरी ऑफ़ मार्टयर्स: इंडियाज फ़्रीडम स्ट्रगल (1857। 1947 के भाग-4 के पृष्ठ 71 पर अंकित है, जिसमें आपको प्रजामंडल का सक्रिय कार्यकर्ता दर्शाया गया है-जिसकी तालचेर राज्य में समांतर पंचायती राज की स्थापना हेतु जनता को सचेतन करने के दौरान गोली कांड में मृत्यु हो गई। यही नहीं, एक वेबसाइट में आपको सिंगड़ा नदी का नाविक बताया है, जिसने अँग्रेज़ों की सेना को नदी के उस पार ले जाने से इंकार कर दिया था। इस वजह से अँग्रेज़ सैनिक ने उसे गोली मारी थी।” 

वेताल ने इंटरनेट अर्काइव की इस सामग्री का खंडन करते हुए कहा, “ये दोनों कथन पूरी तरह ग़लत है। मैं तो बिल्कुल अनपढ़ था। पवित्र बाबू से प्रभावित होकर राजा और अँग्रेज़ों के अत्याचार से दुखी होकर उनके कार्यों में अहिंसात्मक असहयोग करना ही मेरा मूल उद्देश्य और धर्म था। वेबसाइट पर किसी ने बाजीराउत पर लिखे आलेख को मेरी विकिपीडिया पर नाम बदलकर ‘कट पेस्ट’ कर दिया होगा, अन्यथा इतनी बड़ी ग़लती कैसे सम्भव हो सकती है?” उसके बाद वेताल ने अपने मन के किसी कोने में छुपी व्यथा को उजागर करते हुए कहा, “आप देख सकते हैं कि तत्कालीन राजे रजवाड़े अपना सिंहासन बचाने के लिए और अँग्रेज़ों को ख़ुश करने के लिए किस तरह निम्नतम स्तर पर उतर जाते थे। सही ख़बर को भी झूठी ख़बर बताकर, मनगढ़ंत कहानी-कविता बनाकर अपने पुत्र-पुत्री समान प्रजा का शोषण-दमन करते थे। अपनी सारी मशीनरियों के भरपूर प्रयोग करते थे। राजा की माँगें पूरी करते-करते जनता बेचारी थक-हारकर भूखी-प्यासी रहती थी और फिर भी गिद्ध दृष्टि लगाए रहते थे शोषक शासक। ऐसी अवस्था में ईश्वर को गाँधी, सारंगधर दास, पवित्र मोहन प्रधान के रूप में इस धरती पर अपने दूत भेजकर प्रजा का परित्राण करना पड़ा। एक तरफ़, अँग्रेज़ों के ग़ुलामी की मार, दूसरी तरफ़ राजाओं द्वारा शोषण-कषण और तीसरी तरफ़ मनुष्य और मनुष्य के बीच में दरार डालने वाली जाति की नंगी तलवार सिर पर लटकती थी।” कहकर वेताल अन्तर्धान हो गया। 

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