शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
अध्याय–2
दूसरे दिन ड्यूटी जाते समय फिर निर्धारित समय पर वेताल ताल पेड़ से उलटी गुलाची खाकर विक्रम के कंधों पर बैठ गया और पूछने लगा, “क्या बात है, विक्रम? आज तुम्हारे चेहरे पर कल जैसी आभा नहीं हैं। क्या रात भर सो नहीं पाए?”
“शहीद बिका जी, मैं रात भर तुम्हारे बारे में सोचते हुए सोने की कोशिश कर रहा था, लेकिन आँखों में नींद नहीं थी। तालचेर के राजा ने जिस तरह अपनी जनता का शोषण-दमन किया, वह मेरे लिए कल्पनातीत है। राजा को हम भगवान का अवतार मानते हैं, मगर वे लोग इतने निष्ठुर निकलेंगे, यह किसे पता था! मेरा मानना था कि उनके पुण्य कर्मों के कारण भगवान उन्हें राजघराने में जन्म देता है, ताकि वे राजा बन सके। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि राजा का जन्म पाकर वे प्रजा पर इतने अत्याचार क्यों करते हैं? ऐसे तरह-तरह के विचारों ने मुझे रात भर सोने नहीं दिया।” विक्रम ने अपने कंधे पर बैठे वेताल को उत्तर दिया और धीरे से पूछा, “बिका भाई, आज आप कौनसी गाथा सुनाओगे?”
“आज मैं अँग्रेज़ों के हाथों की कठपुतली राजाओं की मनमानी के बारे में सुनाऊँगा।” वेताल ने विक्रम से आँखों देखे हाल सुनाने की इजाज़त माँगने से पूर्व अपनी पहले की शर्तें ज्यों-की-त्यों दोहरा दी।
“आज हम चलते हैं तालचेर के निकटवर्ती रजवाड़े ढेंकानाल की ओर। वहाँ का राजा तो तालचेर के राजा से भी क्रूर था। उसने मौखिक निर्देश दिए थे कि पुरुष अपनी मूँछें नहीं सजाएँगे, राजा जैसी छतरी का प्रयोग नहीं करेंगे, अच्छे कपड़े नहीं पहनेंगे और राजा को तीन बार प्रणाम करेंगे। ज़मीन, छाती और सिर को छूकर। इस प्रकार के प्रणाम का अर्थ होगा–यह पृथ्वी, यह पिंड और यह प्राण राजा को समर्पित है। अगर किसी ने राजा के इन नियमों का पालन नहीं किया तो उनकी दाढ़ी-मूँछ निकाल दी जाती थी। गुप्त अंग के बाल खींच लिए जाते थे, पुरुष के लिंग में सुई चुभो दी जाती थी और स्त्री की योनि और स्तन क्षत-विक्षत कर दिए जाते थे।
इतने ज़्यादा ज़ुल्म सहने के बाद भी प्रजा के मुँह से कोई आवाज़ नहीं निकल पाती थी। कारण था राजकुमार सुरक्षा अधिनियम। यह अधिनियम था, भारतवर्ष के राजा-महाराजाओं का एक प्रकार से सुरक्षा-कवच। इस अधिनियम के तहत राजा के कुशासन की निन्दा, उनका अपमान और आलोचना करने पर दस वर्ष की सश्रम कारावास का प्रावधान था।”
यह बात सुनते ही विक्रम ने वेताल से कुछ कहने की आज्ञा माँगी, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। विक्रम कहने लगा, “क्या उस समय तालचेर में वही अवस्था थी, जैसी कभी फ़्राँस और इंग्लैंड में हुआ करती थी? मुझे लगता है कि जिस तरह फ़्राँस की क्रान्ति और इंग्लैंड में जेम्स द्वितीय, चार्ल्स द्वितीय और हेनरी द्वितीय जूलियस सीजर जैसे राजाओं के मनमुखी शासन और अत्याचार के ख़िलाफ़ वहाँ की जनता ने आवाज़ उठाकर राजतंत्र को उखाड़ फेंका था, वैसी ही परिस्थतियाँ तालचेर में पैदा हो रही थीं। फ़्राँसीसी क्रांति में किसानों की हालात के बारे में किसी कवि ने लिखा था:
‘ब्राह्मण पूजते आराध्य, क्षत्रिय करते युद्ध
किसान बेचारों के कौन दुख समझे, लगान देते, होकर बाध्य।’
“क्या वैसे ही क्रांति के कुछ बीज पैदा हो रहे थे तालचेर की धरती पर?”
वेताल ने हामी भरते हुए उसकी पीठ थपथपाई और अपनी गाथा को जहाँ पर छोड़ा था, वहीं से शुरू किया, “जैसा कि मैं कह रहा था कि राजा के कुशासन की निन्दा, उनका अपमान और आलोचना करने पर दस वर्ष की सश्रम जेल की सज़ा का प्रावधान था। इसके बावजूद प्रजा ने अँगड़ाई लेना शुरू कर दिया था। सन् 1921-22 और 1930-31 में पूरे देश में भारत में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस सत्याग्रह आंदोलन कर रही थी, नमक जैसे क़ानूनों को तोड़ रही थी। महात्मा गाँधी यह अच्छी तरह जानते थे कि भारत के राजा-महाराजा आततायी ब्रिटिश सरकार के पृष्ठ पोषक हैं, जो उनके लिए ढाल बनकर खड़े हुए हैं। और इन राजा-महाराजाओं से कर वसूलने के लिए उनके अत्याचारों का समर्थन करती है ब्रिटिश सरकार।”
यह कहते हुए वेताल ने विक्रम से एक सवाल पूछा, “क्या आपको लगता है कि ऐसे राजाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए महाभारत के कृष्ण की तरह कोई अवतार इस धरा पर आया होगा?”
“बिल्कुल, मुझे तो तत्कालीन युग में ऐसे अवतार के अंश महात्मा गाँधी में नज़र आते हैं। महात्मा गाँधी ने अपनी पुस्तकें ‘द मैजिक स्पेल ऑफ़ ए बुक’ और ‘माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ’ में यद्यपि अपने अवतारवाद के बारे में नहीं लिखा हैं, लेकिन मुझे लगता है कि उनके उन मानवीय गुणों के कारण मोहन दास करमचंद गाँधी एक महात्मा के रूप में परिणित होते हुए नज़र आते हैं और मेरे लिए उस महात्मा का अर्थ किसी अवतार से कम नहीं हैं, जिसके बारे में दक्षिण अफ़्रीका की प्रसिद्ध लेखिका फातिमा मीर लिखती है, ‘सन् 1914 में जब गाँधीजी भारत लौटे, तो उनमें एक संत के सारे उज्ज्वल लक्षण विद्यमान थे। जैसे जीसस क्राइस्ट मसीहा का प्रतीक और गौतम बन गए थे बुद्ध; ठीक वैसे ही शर्मीला और अँधेरे से डरने वाला छोटा लड़का महात्मा में रूपांतरित हो गया था।’ इसलिए मेरा मानना है कि मनुष्य के रूप में महात्मा गाँधी का अवतरण न केवल अँग्रेज़ों, बल्कि ऐसे दुष्ट राजाओं के विनाश हेतु हुआ था।”
वेताल के चेहरे की भाव-भंगिमा बदलने लगी। कुछ समय तक वह चुप रहा, मगर बाद में कहना शुरू किया, “पहला, आज के ज़माने में हमारे देश में गाँधी को अवतार मानना तो बहुत दूर की बात है! उन्हें तो देश के बँटवारे का मुख्य कारण माना जाता है। दूसरा, उन पर महिलाओं के साथ यौन-प्रयोगों की निंदा की जाती है। तीसरा, मेरा प्रश्न तालचेर जैसे ओड़िशा के गड़जात क्षेत्रों से संबंधित था। फिर भी, यह बताओ कि महात्मा गाँधी की पुस्तकों ‘द मैजिक स्पेल ऑफ़ ए बुक’ और ‘माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ’ में ऐसा क्या लिखा है कि आप जैसे लोग उसे महात्मा, दूसरे शब्दों में अवतार मानने लगे थे?”
“गाँधी जी ने उन किताबों में लिखा था कि ‘मैं सर्दियों की शाम, अँधेरे और ठंडे में, जोहान्सबर्ग शहर में सिमटकर बैठा हुआ था। उस समय मैं गया हुआ था अपने पसंदीदा शाकाहारी भोजनालय में। कुछ समय पहले प्लेग की प्रचंड महामारी फैलने के दौरान, मेरे किए गए कामों ने मुझे कुछ प्रसिद्धि मिली थी। शाकाहारी भोजनालय में बैठे समय एक सज्जन ने आकर मुझे अपना परिचय दिया था, ‘मेरा नाम हेनरी पोल्क है . . . मैं ‘द क्रिटिक’ का एसोसिएट एडिटर हूँ। आपके काम और लेखन ने मुझे काफ़ी प्रभावित किया है।’ उसी दिन से हेनरी पोल्क मेरे निजी दोस्त बन गए। कुछ दिनों बाद मुझे मेरी पत्रिका ‘इंडियन ओपिनियन’ के प्रभारी मिस्टर वेस्ट का संदेश मिला कि पत्रिका की वित्तीय स्थिति इतनी अच्छी नहीं है। जैसे कि मैंने पहले ही कहा बताया था कि जोहान्सबर्ग से डरबन जाने के लिए बाहर निकला ही था कि हेनरी पोल्क मुझे रेलवे स्टेशन पर विदा करने आए। ट्रेन छूटने से पहले, मेरे दोस्त हेनरी पोल्क ने मुझे ‘अन टू द लास्ट’ नामक पुस्तक उपहार में दी, जिसके लेखक थे जॉन रस्किन।
जोहान्सबर्ग से डरबन तक ट्रेन से जाने में चौबीस घंटे लगते है। मैंने समय पास करने के लिए वह किताब पढ़ना शुरू किया। लेकिन किताब के हर पन्ने, हर पंक्ति और हर शब्द में एक असाधारण प्रेरणा भरी हुई थी। धीरे-धीरे ट्रेन की रफ़्तार बढ़ती गई तो उस समय किताब के धुँधले स्पर्श के भीतर खो गया। मैंने पूरी रात जागते हुए काटी और एक की बैठक में ‘अन टू द लास्ट’ पूरी पढ़ ली। उसी रात मैंने यह दृढ़ निर्णय लिया कि इस किताब में निहित संदेशों को अपने जीवन में व्यवहार में लाऊँगा और मैं अपना जीवन परिवर्तित करूँगा।”
वेताल द्वारा रस्किन की पुस्तक की प्रशंसा करने पर विक्रम ने पूछा, “समाज के अंतिम पंक्ति के इंसान की पहचान कराने वाली ‘अन टू द लास्ट’ किताब में ऐसा क्या था कि गाँधी जी उसे अपने 24 घंटे की जोहान्सबर्ग से डरबन की रेलयात्रा के दौरान निर्निमेष नयनों से पढ़ते रहे?”
वेताल ने हँसते हुए प्रत्युत्तर में कहा, “गाँधी जी ने अपनी आत्म-जीवनी में लिखा है कि यद्यपि मैंने अपने छात्र जीवन और कैरियर की शुरूआत के बारे में कुछ किताबें अवश्य पढ़ीं थी, मगर रस्किन की ‘ऑन टू द लास्ट’ की जादुई अपील ने मेरी आत्मा को छू लिया। किताब ने मुझे तुरंत परिवर्तित कर दिया। पुस्तक में वर्णित मार्मिक संदेशों ने मुझे इतनी गहराई से प्रभावित किया कि मैंने इसका गुजराती भाषा में अनुवाद किया, ‘सर्वोदय’ के नाम से।”
विक्रम ने वेताल की ओर स्नेहिल निगाहों से देखते हुए कहा, “इस किताब की अंतर्वस्तु क्या थी?”
वेताल ने इधर-उधर झाँकते हुए उत्तर दिया, “गाँधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि रस्किन की ‘अन टू द लास्ट’ पुस्तक की हर पंक्ति ने मेरे हृदय को आंदोलित किया था। उस पल से मेरी ज़िन्दगी बदल गई थी। जॉन रस्किन की इस उत्कृष्ट कृति में तीन महत्त्वपूर्ण सबक़ थे:
1) किसी का भी व्यक्तिगत विकास सभी के समग्र विकास में निहित है।
2) जीवन में श्रम का मूल्य बहुत ऊँचा और महत्त्वपूर्ण होता है।
3) सभी शारीरिक श्रम समान मूल्य के होते हैं।
जिस क्षण से मैंने इस पुस्तक को पढ़ा, तभी से इसके आप्त वाक्यों को अपने निजी जीवन में लागू करने के लिए प्रेरित हुआ। गाँधी के ये कथन इस बात की पुष्टि करते हैं कि किस तरह एक शर्मीले लड़के में महात्मा बनने की अंकुर फूटने लगे थे।”
गाँधी की बात सुनकर वेताल के चेहरे पर चमक उभरी, मानो उसे कोई खोया हुआ ख़ज़ाना मिल गया हो। वेताल कहने लगा, “विक्रम! आज तो ऐसा लग रहा है मानो आप गाँधी साहित्य का विशेष अध्ययन करके आए हो। शायद प्रोफ़ेसर सुजीत पृषेठ की ‘गाँधी: सत्यधर्मी एवं महात्मा’ अथवा सुरेश पटवा, कुमार प्रशांत के ‘गाँधी दर्शन’ पर लिखे आलेख पढ़े होंगे, अन्यथा इतनी बारीक़ी और सफ़ाई से उनके बारे में बताना मुश्किल है। जैसे कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ तालचेर का राजा किशोर चंद्र वीरवर हरिचंदन बहुत ही दुर्दान्त और दुष्ट राजा था, लेकिन इतिहासकार उसे प्रगतिशील विचारधारा वाला राजा मानते हैं। उसके शासन काल में बेठी, भेटी, बेगारी, मागण, रसद, धमक-चमक, अन्याय, अत्याचार, ज़ोर-ज़ुल्म, शोषण-पोषण, हाकिमगिरी और एक छत्रवाद शासन कुछ ज़्यादा ही था। राजा अपने आपको चलता-फिरता भगवान समझता था। सारी शक्तियों का वह अधिकेन्द्र था। उसका मानना था कि वह कभी ग़लती नहीं करता था। और इधर ‘राजकुमार सुरक्षा अधिनियम’ की सज़ा के डर से बड़े-बड़े वकील, बैरिस्टर, कवि, लेखक, गायक, चित्रकार, परिव्राजक सभी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे। सिवाय गाँधी जी और उनके अनुयायियों को छोड़कर। प्रजामंडल आंदोलन भी गाँधी जी द्वारा अनुप्राणित था। उनका मानना था कि ब्रिटिश सरकार ने देशी रियासतों के राजाओं के साथ एक अनुबंध किया है, जिसे आप ट्रीटी कहो, संधि कहो, सनद कहो, कुछ भी कहो। जिसके अनुसार राजा सुशासन चलाने के लिए बाध्य था। अगर वह ऐसा नहीं करता तो कभी ब्रिटिश सरकार उसके राज्य को अपने अधीन कर सकती थी। इस वजह से ये राजे-रजवाड़े ब्रिटिश सरकार से डरे हुए रहते थे। उन्हें अच्छा ख़ासा टैक्स देते थे, बदले में वे देते थे कुशासन और शोषण। राजाओं का राज संचालन देखने के लिए ब्रिटिश सरकार भेजती थी, अपने पॉलिटिकल ऐजेंट और देश के प्रजामंडल के नेता कहो या फिर कांग्रेस के नेता; महात्मा गाँधी भेजते थे उन्हें अपने प्रतिनिधी के रूप में।”
विक्रम ने वेताल की ओर निगाहें घुमाते हुए कहा, “एक बात पूछूँ? मैं देख रहा हूँ कि शुरू से लगाकर अभी तक हर बात में आप गाँधी का नाम रट रहे हो, ऐसा लग रहा है कि इस उपन्यास के मुख्य पात्र गाँधी जी हैं, न कि शहीद बिका। ऐसा क्यों? क्या मुझे इस उपन्यास का शीर्षक बदलना होगा?”
“गाँधीजी के सामने तो मैं उनकी चरण रज भी नहीं हूँ। इसलिए आपको मेरी खोज के चप्पे-चप्पे पर गाँधीजी चिपके मिलेंगे। सच कहूँ तो आपके उपन्यास का मुख्य पात्र गाँधीजी ही हैं, न कि मैं और न ही पवित्र बाबू; जबकि पवित्र बाबू का किरदार भी बहुत बड़ा है,” कहकर वेताल ने दीर्घ श्वास ली।
विक्रम ने कहा, “मैं पूछना चाहता था कि आप गाँधीजी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित क्यों हैं?”
“सच में, गाँधीजी की एक घटना ने मुझे उनका परम भक्त बना दिया। एक बार गाँधी जी सपरिवार पुरी आए थे। उनकी पत्नी कस्तूरबा गाँधी उन्हें बिना पूछे जगन्नाथ मंदिर चली गई तो मंदिर से लौटने पर गाँधीजी ने उन्हें बहुत डाँटा यह कहकर कि, ‘सच में ये जगन्नाथ होते तो सारे दलित, ग़रीब लोग भी उनके दर्शन कर पाते। उनके लिए मंदिर निषिद्ध है, फिर वह जगत का नाथ कैसे हुआ?’” वेताल ने हृदयस्पर्शी अनुभव बताया।
विक्रम ने अपने दोनों हाथ आपस में रगड़ते हुए प्रश्नवाची निगाहों से वेताल की तरफ़ देखते हुए कहा, “यह ऐतिहासिक घटना मुझे मालूम हैं। वे पूरे देश में छुआछूत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे थे। इस घटना के बाद छोटी जाति वालों के लिए भी जगन्नाथ मंदिर के दरवाज़े हमेशा के लिए खुल गए। जैसा कि पहले आपने कहा था कि आपने गाँधीजी के चरण-स्पर्श किए थे? आपकी उनसे किस जगह व्यक्तिगत रूप से भेंट हुई थी?”
“अंगुल में। 5 मई 1934 को गाँधी जी सम्बलपुर से अंगुल आए थे, हरिजन फ़ंड-संग्रह करने के लिए। फिर उन्हें अंगुल से पुरी जाना था। सोचिए तो प्रजा में उनके प्रति कितनी श्रद्धा और सम्मान था! जब ट्रेन रवाना हुई तब तीसरे कक्षा के डिब्बे के दरवाज़े के पास हथेली फैलाकर खड़े रहे, तब भी लोग उनकी हथेली में तांबे के सिक्के डालने के लिए उमड़ पड़े थे। गिरते-पड़ते लहूलुहान होने के बाद भी दौड़ते हुए जा रहे थे, ट्रेन के साथ-साथ। उनके अंगुल आने पर, इधर ब्रिटिश शासन ने उधर तालचेर के राजा ने नोटिस जारी कर दिया था कि तालचेर गड़जात अंचल का कोई भी व्यक्ति उनका भाषण सुनने नहीं जाएगा। इस नोटिस की अवहेलना करते हुए भी कुछ लोग वहाँ गए थे, उनमें एक मैं भी था। गाँधी जी को भाषण देने के लिए किसी जगह पर स्टेज बनाने की इजाज़त नहीं मिली थी। वे किसी कार के हुड पर खड़े होकर एकत्रित भीड़ को संबोधित कर रहे थे। जिस जगह पर आप अंगुल में ‘गाँधी मार्ग’ पर गाँधी जी की प्रतिमा देख रहे हैं, उसके पीछे वाले मैदान की बात कर रहा हूँ। उस मैदान में भीड़ इतनी ज़्यादा इकट्ठी हुई थी कि उनका भाषण ख़त्म होने के बाद गाँधी जी के पाँव छूने की होड़ मची, मगर उनके पास कोई जा नहीं पा रहा था। लोग दूर से अपनी लाठी लंबी कर उनके इर्द-गिर्द की ज़मीन स्पर्श कर रहे थे जैसे वे सच में गाँधी जी का चरण-स्पर्श कर रहे हो। इसी तरह लाठी लंबी कर चरण-स्पर्श मैंने भी किए थे।” अपने अतीत की कहानी सुनाते-सुनाते वेताल की आँखें नम हो गई।
विक्रम की जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी। उसने पूछा, “महात्मा गाँधी ने उस दिन क्या भाषण दिया था?”
एक दीर्घ-श्वास लेते हुए वेताल ने कहना जारी रखा, “उनका भाषण तो मुझे पूरी तरह याद नहीं है, मगर यह अच्छी तरह याद है कि उनकी थर्राती आवाज़ में अहिंसा, असहयोग और शारीरिक श्रम के महत्त्व पर बोल रहे थे। सच कहूँ तो गाँधी जी के दर्शन से मेरा जीवन धन्य हो गया। गाँधीजी का अंगुल दौरा अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ था। गाँधीजी ने पहली बार हमारी जाति के लोगों के लिए हरिजन यानी ईश्वर की संतान नाम का प्रयोग किया था। इस प्रकार उन्होंने हमें सामाजिक प्रताड़ना से उभारने के लिए एक सुंदर अभिनव नाम दिया। मुझे लगता है कि गाँधी जी के उसी भाषण ने गड़जात में प्रजामंडल आंदोलन को जन्म दिया था। जानते हो, प्रजामंडल क्या हैं?”
“प्रजामण्डल के बारे में मुझे ऐसी कोई ख़ास जानकारी नहीं हैं।”, विक्रम ने अपने कंधे पर बैठे हुए वेताल की ओर देखने के लिए नज़रें घुमाई तो देखा कि वेताल उड़कर ताल के पेड़ की ओर जा रहा था। शायद वेताल उसकी आवाज़ सुन नहीं पाया या फिर प्रजामंडल के बारे में अनभिज्ञता दर्शाने के कारण विक्रम समझ गया कि शायद उससे कुछ ग़लती हुई हैं, जिससे वेताल रुष्ट होकर चला गया। बाक़ी बातें तो कल होगी।
<< पीछे : अध्याय– 1 क्रमशःविषय सूची
लेखक की कृतियाँ
- अनूदित कहानी
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
-
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज
- विडियो
-
- ऑडियो
-