शहीद बिका नाएक की खोज दिनेश माली (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
पुरोवाक्
तालचेर अपने आप में अद्भुत है। मुझे पता नहीं, भारत के नक़्शे पर ‘तालचेर’ का नाम कितना विख्यात है। मगर जनमानस के मन में उद्योग-धंधों से संपृक्त तालचेर का नाम आते ही आँखों के सामने आ जाती हैं—कोयले की खदानें, कोयले से लदे लाखों ट्रक, एनटीपीसी की बड़ी-बड़ी गगनचुंबी चिमनियाँ, बिजली उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान उनसे निर्गत होने वाला धुआँ, नाल्को नगर, फर्टिलाइज़र कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया की बंद यूनिट का धकड़-चकड़ रास्ता, सड़क के दोनों किनारों पर लगे पेड़ों के पत्तों पर जमी धूल, नेहरू शताब्दी हॉस्पिटल, निर्माणाधीन मेडिकल कॉलेज, ब्राह्मणी नदी और उसके तट पर बसा तालचेर राज्य का क़िला। याद आने लगते हैं पवित्र मोहन प्रधान, भीमकांड, अनंत शयन, सारंग इंजीनियरिंग कॉलेज, बअँरपाल चौराहा और वज्रकोट शिव मंदिर। बहुत कुछ देखने को है तालचेर में, यही नहीं राजनैतिक उठा-पटक का मूक साक्षी भी है यह। पवित्र मोहन प्रधान और बीजेपी के सांसद और केन्द्रीय मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान का गृह क्षेत्र भी है यह। कोयले का बिज़नेस सेंटर होने के कारण बड़े-बड़े व्यापारियों, श्रमिक नेताओं, ठेकेदारों, उद्योगपतियों और पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग के अधिकारियों की जमघट स्थली भी है तालचेर।
तालचेर से 7 किमी दूर तालचेर थर्मल पॉवर स्टेशन (460 मेगावाट) है और दूसरी तरफ़ 45 किमी दूर कणिहा में सुपर थर्मल पॉवर स्टेशन (3000 मेगावाट)। इनसे पैदा हुई बिजली ओड़िशा, बिहार, सिक्किम, दामोदर वैली कॉर्पोरेशन, प. बंगाल, झारखंड तथा दक्षिणी राज्यों को भेजी जाती है। इन स्टेशनों को कोयले की आपूर्ति महानदी कोलफ़ील्ड्स की खदानों से होती है और पानी समल बैरेज रिज़र्वायर से। तालचेर कोयलांचल की खदानों में भुवनेश्वरी, अनंता, भरतपुर, लिंगराज, कणिहा, जगन्नाथ, हिंगुला, बलराम खुली खदाने हैं और नंदिरा और डेरा भूमिगत। अन्य खदानों की खोज के लिए एक्सप्लोरेशन चल रही है। फर्टिलाइज़र कॉर्पोरेशन का प्लांट तो 1999 में ही बंद हो गया था। मगर टाउनशिप और प्लांट के भग्नावशेष बचे हैं, जिनके जीर्णोद्धार का कार्य किया जा रहा है, तालचेर फर्टिलाइज़र लिमिटेड के नाम से नया संयंत्र स्थापित हो रहा है। आण्विक ऊर्जा मंत्रालय के तत्वावधान में तालचेर में भारी पानी संयंत्र भी काम करता है, जो देश के न्यूक्लियर पॉवर की आवश्यकताओं वाले केमिकल आदि का उत्पादन करता है।
ऐसी जगह पर अगर किसी सहृदय लेखक का आगमन होता है, तो यह क्षेत्र अपने विभिन्न रसों के इंद्रधनुषी रंगों से उसे आप्लावित कर देता है। चारों तरफ़ वरेण्य विषय ही विषय नज़र आने लगते हैं। एक तरफ़ ग़रीबों का शोषण उसकी नज़र मार्क्सवाद की ओर ले जाता है, तो दूसरी तरफ़ ट्रेड यूनियनों की गतिविधियाँ राजनैतिक संभाव्यता की ओर। एक तरफ़ पर्यावरण उसका ध्यान खींचता है, तो दूसरी तरफ़ ऐतिहासिक धरोहरें। कोल इंडिया के पूर्व चैयरमैन गोपाल सिंह ने अपने उद्बोधन में कहा था कि तालचेर समूचे हिन्दुस्तान की हृदयस्थली है।
हरिशंकर परसाई की कहानी ’भोलाराम का जीव’ तो हिन्दी पट्टी के यथार्थ पृष्ठभूमि पर लिखी गई काल्पनिक कहानी थी, मगर ‘शहीद बिका नाएक की खोज . . .” तालचेर अंचल की यथार्थ पृष्ठभूमि पर लिखा गया एक सच्चा ऐतिहासिक उपन्यास है, विक्रम-वेताल की शैली में लिखा हुआ, मगर कल्पना-लोक के दीर्घ कैनवस को अपने भीतर समेटे हुए। पहले मैं इस उपन्यास का शीर्षक ‘शहीद बिका का जीव’ या ‘शहीद बिका का वेताल’ रखना चाहता था। परन्तु पता नहीं क्यों, ऐसा लगा कि यह शीर्षक उपन्यास के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाएगा। इसलिए शहीद बिका के मुँह से ही हमारे देश के स्वतंत्रता आंदोलन की तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक विप्लवी परिस्थितियों का सामना करने वाले शहीदों के बारे में आधुनिक पीढ़ी को अवगत करवाया जाए।
मगर शहीद बिका हैं कहाँ? उसे तो खोजना पड़ेगा, उसके गाँव में, गाँव की माटी-पानी-पवन में, उसके परिजनों में, उसके समकालीन जीवित बुज़ुर्गों में, किताबों में, लोक-कथाओं में। क्या शहीद बिका की खोज इतनी सहज है? नहीं, बिल्कुल नहीं। यह उपन्यास उसी शहीद बिका की खोज करता है, जिसके बारे में किसी भी प्रकार की कोई ख़ास लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं है। भले ही, इस उपन्यास में कुछ पात्रों के नाम बदल दिए गए हों अथवा कुछ नाम इस उपन्यास के दीर्घ कलेवर होने की आशंका से नहीं आए हों, मगर यह उपन्यास न केवल ओड़िशा के गड़जात राज्यों में हुए प्रजा-मंडल आंदोलन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालता है, बल्कि महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटने के बाद पूरे देश में हो रहे स्वतंत्रता आंदोलन हेतु संकल्पबद्ध जन-चेतना की भी सम्पूर्ण व्याख्या करता है। इस उपन्यास में बिका नाएक ओड़िशा के तालचेर प्रजा-मंडल का प्रथम शहीद है, जिसका नाम भारत सरकार की शहीदों की विवरणिका में भी अंकित है, मगर आज तक जातिगत भेदभाव के कारण उसकी दिवंगत आत्मा को—जिस सम्मान का वह सच में हक़दार था—उसे आज तक नहीं मिला। यहाँ तक कि उसके गाँव चंद्रबिल में उसके नाम की स्कूल का नाम (शहीद बिका नाएक मिडिल स्कूल) को बदलकर ‘बड़त्रिबिडा मिडिल’ स्कूल रख दिया गया। जिस सिंगड़ा नदी के किनारे वह अँग्रेज़ों की गोली का शिकार हुआ था, उसकी स्मृतियों को अक्षुण्ण रखने के लिए उस नदी पर बने पुल का नाम ’शहीद बिका नाएक पुल’ रखा जा सकता था—मगर यहाँ भी जातिगत हीनता सामने आई और पुल का नाम रख दिया गया था—‘बीजू पटनाएक ब्रिज’। उसके गाँव से तालचेर जाने वाली सड़क का नाम ‘शहीद बिका नाएक मार्ग’ रखा जा सकता था, मगर आज शहादत के 86 साल बीत जाने के बाद भी किसी को उस शहीद की याद नहीं आई।
15 अगस्त 2023 को आज़ादी के अमृत महोत्सव के समय हमारी कंपनी महानदी कोलफ़ील्डस लिमिटेड ‘मेरा देश, मेरी माटी’ कार्यक्रम का आयोजन कर रही थी, स्थानीय शहीदों के सम्मानार्थ। एक ग्रेनाइट फलक पर शहीदों के नाम लिखे गए थे और उनके नाम पर वृक्षारोपण कर एक वाटिका तैयार की गई थी। नाम रखा गया था ’अमृत वाटिका’। यही ही नहीं, शहीदों के घर वालों को बुलाकर उन्हें अंगवस्त्र, पुष्प-गुच्छ और उपहार प्रदान कर सम्मानित किया गया था। उस समय शहीद के भाई के बेटे आर्त्रत्राण नाएक ने उन पर एक कविता सुनाई थी, जिसका अनुवाद उपन्यास में दिया गया है। इस कविता में तीन बार ‘हरिजन’ शब्द की आवृत्ति की गई है और यह शब्द आते ही आर्तत्राण नाएक की आँखों से आँसू छलक जाते थे। उसकी नीरव आँखें अपने शहीद पितर की प्रतिमूर्ति को तलाशती थीं, मगर शून्य आकाश में! जातिवाद के ज़हर का घूँट पीने के कारण आज भी समाज में अपने आपको हीन समझने वाला आर्तत्राण नाएक के परिवार ने दो दशक पूर्व ओड़िशा के कुछ अंचलों में प्रचलित ‘महिमा धर्म’ को स्वीकार कर लिया। जब उससे ‘हिंदू धर्म’ और ‘महिमा धर्म’ के अंतर के बारे में पूछा गया तो उसका उत्तर था महिमा धर्म हिंदू धर्म से कई गुना श्रेयस्कर है और उससे बहुत पुराना भी, यानी सनातन। कम से कम वहाँ छतीस कौमें एक साथ बैठकर खाना खाती है, परस्पर हाथ मिलाते हैं, गले मिलते हैं। यहीं से मन में बीज पड़ते हैं ‘बिका नाएक’ पर कुछ लिखने के लिए; मगर जिसे पल्लवित होने के लिए खाद-पानी मिलना शुरू होता है 6 सितंबर 2023 यानी तालचेर के 86 वें प्रजामंडल दिवस के दिन कणिहा खुली खदान की ओर से विशिष्ट अतिथि के प्रतिनिधि के रूप में कणिहा के प्रजामंडल मैदान में आयोजित स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान समारोह में भाग लेने के दिन से। इस समारोह में वक्ताओं के भाषणों से मुझे चन्द्रबिल के बिका नाएक, पोईपाल के जुझारू स्वतंत्रता-संग्रामी पवित्र मोहन प्रधान एवं अनेक संग्रामियों के बारे में जानने-सुनने का अवसर मिला। जिससे मेरे मन के किसी कोने में शहीद बिका के प्रति श्रद्धा भाव उमड़ पड़ा था। उस दिन से मेरे स्मृति-पटल पर संस्कार बिंदु बनकर उभरा था, उपन्यास की सर्जना हेतु। देखते-देखते एक साल के भीतर सुषुप्त ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ा भावोद्रेक, जिसका लावा अपने भीतर समेटने लगा तालचेर प्रजा-मण्डल आंदोलन के अतीत का इतिहास। यह थी मेरे उपन्यास के रचना-प्रक्रिया की पृष्ठभूमि।
महिमा स्वामी और उनके शिष्य ‘संत कवि भीमभोई’ को मैं शत-शत नमन करता हूँ कि उन्होंने कम से कम ओड़िशा के अत्यंत दलित वर्ग के भीतर आत्म-विश्वास, आत्म-प्रत्यय और अपने आपको ईश्वर की संतान समझने की चेतना प्रदान की। इस उपन्यास के पूर्वार्द्ध में 1893 से 1947 तक और उतरार्द्ध में 1948 से 2024 तक का इतिहास हमारी आँखों के सामने गुज़रता है। मुंशी प्रेमचंद के ’गोदान’, ”गबन’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘सेवाश्रम’ की तरह ही फ़क़ीर मोहन सेनापति के उपन्यास ’छः माण आठ गूँठ’ वाली पृष्ठभूमि में हमारे समाज के निचले जाति के लोग किस तरह क़ुर्बानियाँ देते थे—मगर क्या आज भी हमने उनके साथ पूरी तरह न्याय किया हैं? यह प्रश्न आज तक मुझे सालता रहता है। विक्रम और वेताल की कहानियों की तरह शहीद बिका का जीव वेताल बनकर विक्रम के कंधों पर विराजमान हैं और उससे तरह-तरह के प्रश्न करता है, आधुनिक सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं के बारे में। जब वह उसके सवाल का उत्तर ठीक-ठीक देने में अपने आप को समर्थ पाता है, तब तक वह उसके कंधों पर बैठकर यह उपन्यास लिखवाने में उसकी मदद करता है। उपन्यास के अंत में, वेताल अपने जाने से पूर्व अंतिम प्रश्न करता है, “क्या आप अपने जीवन काल में कहीं पर मेरी प्रतिमूर्ति लगवा सकते हो? किसी स्कूल या उसके छात्रावास, किसी पुल या सड़क का नामकरण मेरे नाम पर करवा सकते हो? कुछ नहीं तो, किसी खेलकूद के आयोजन का नाम ही सही?”
और जब वह उसके सवाल का कन्फ़र्म उत्तर नहीं दे पाता है तो वह उसे छोड़कर चला जाता है और यह उपन्यास अधूरा रह जाता है। लेकिन लेखक मन-ही-मन ईश्वर से यही प्रार्थना करता है कि शहीद बिका का वेताल विक्रम के साथ कम से कम तब तक रहने दें, जब तक वह उसके लिए न्याय का कोई मार्ग अपने लेखन के माध्यम से प्रशस्त नहीं कर देता। पता नहीं, इस उपन्यास से कोई मार्ग प्रशस्त होगा या नहीं, मगर आने वाली पीढ़ी के मन में शहीद बिका और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति सम्मान के भाव अवश्य पैदा होंगे।
राजस्थान में जन्म लेने के बावजूद तीन दशकों से ओड़िशा मेरी कर्मभूमि होने के नाते मेरा यह परम कर्त्तव्य बनता है कि मैं अपने देश के प्रजा मंडल के प्रथम शहीद की गाथा को विक्रम-वेताल के रूप में हिंदी जगत के सामने लाऊँ, ताकि मेरे संवेदनशील हृदय को कुछ हद तक शान्ति मिल सके। प्रोफ़ेसर सुजीत पृषेठ की ‘गांधीजी: सत्यधर्मी एवं महात्मा’, सुरेश पटवा जी के आलेख ‘गाँधी दर्शन’, पवित्र मोहन प्रधान की आत्मजीवनी ‘मुक्तिपथे सैनिक’ (ओड़िया में), प्रसिद्ध इतिहासकार विभूति भूषण साहू की ‘तालचेर गणसंग्राम’ एवं ‘प्रजामंडल (कांग्रेस) का इतिहास’, डॉ. प्रशांत रथ की ‘तालचेर प्रजा-आंदोलन’, डॉ. डी. पी. मिश्रा की पुस्तक ‘पीपल’स रिवोल्ट इन ओड़िशा: ए स्टडी ऑफ़ तालचेर’, शिक्षक कुलमणी बेहेरा का ऐतिहासिक नाटक ‘शहीद बिका’, तालचेर स्वाधीनता संग्रामी मेमोरियल ट्रस्ट, कणिहा द्वारा प्रकाशित सोवेनियर ‘आमे संग्रामी’ के विगत वर्षों के कुछ अंक पढ़ने के अतिरिक्त कुमुण्डा में बिका नाएक की बेटी खईराणी के बेटों के घर और चंद्रबिल में उनके भाई के बेटों आर्तत्राण के घर जाकर उनका साक्षात्कार कर प्राथमिक आँकड़े इकट्ठे करना इस उपन्यास की रचना हेतु अपरिहार्य शर्त थी।
अगर हिंदी के विपुल पाठक वर्ग को शहीद बिका की आत्मजीवनी पर आधारित यह उपन्यास मार्मिक लगा हो और देश के अमर शहीदों की प्रेरणादायक स्मृतियों को सँजोकर अक्षुण्ण रखने हेतु कुछ करना या कहना चाहते हो तो उनका खुले हृदय से स्वागत हैं, ताकि स्वतंत्रता आंदोलन के इस गुमनाम नाएक को उसके बलिदान का सही सम्मान मिले सकें। यह उपन्यास लिखने का मूल उद्देश्य है कि अगर उनके नाम पर कोई प्रतिमूर्ति बनती है, या किसी चौराहे या सड़क का नाम उसकी शहादत पर लिखा जाता है तो उपन्यासकार को लगेगा कि उसका श्रम सार्थक सिद्ध हुआ। इन्हीं शब्दों के साथ विक्रम और वेताल हाथ जोड़कर आपसे विदा लेते हैं। अब यह उपन्यास आपके हाथों में है। मेरी मेहनत कहाँ तक सार्थक हुई, यह आपको तय करना है।
दिनेश कुमार माली
तालचेर, ओड़िशा
06.09.24, प्रजामंडल दिवस
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