पैसा

डॉ. परमजीत ओबराय (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

पैसे के पीछे—
मनुष्य भाग रहा ऐसे, 
पकड़म-पकड़ाई का—
खेल, खेल रहा हो जैसे। 
 
पुकार रहा उसे—
आ—
आ छू ले मुझे। 
 
सुन उसकी ललकार—
मानव है पाने को, 
उसे बेक़रार। 
 
कराता यद्यपि यही—
भेद-भाव संबंधों का, 
बन रहा आज—
यही आधार। 
 
अपने लगने लगे—
समक्ष इसके पराए, 
संसार से आगे—
साथ न यह दे पाए। 
 
माना पैसा ज़रूरी है—
जीवन के लिए, 
पर सब कुछ नहीं है—
यह हमारे लिए। 

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