पैसा
डॉ. परमजीत ओबराय
पैसे के पीछे—
मनुष्य भाग रहा ऐसे,
पकड़म-पकड़ाई का—
खेल, खेल रहा हो जैसे।
पुकार रहा उसे—
आ—
आ छू ले मुझे।
सुन उसकी ललकार—
मानव है पाने को,
उसे बेक़रार।
कराता यद्यपि यही—
भेद-भाव संबंधों का,
बन रहा आज—
यही आधार।
अपने लगने लगे—
समक्ष इसके पराए,
संसार से आगे—
साथ न यह दे पाए।
माना पैसा ज़रूरी है—
जीवन के लिए,
पर सब कुछ नहीं है—
यह हमारे लिए।
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