सफ़र और हमसफ़र . . .

01-10-2021

सफ़र और हमसफ़र . . .

मनोज शाह 'मानस' (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

ऐ ज़िंदगी तू ही बता 
मैं   जाऊँ   किधर?
आगे सफ़र है और 
पीछे है हमसफ़र 
 
रुक जाऊँ राहों में 
सफ़र छूट जाता है 
चलता रहूँ मंज़िल की ओर 
हमसफ़र छूट जाता है ।
 
देखता हूँ मैं पीछे मुड़ मुड़कर
ऐ ज़िंदगी तू ही बता 
मैं   जाऊँ   किधर?
 
बरसों का सफ़र है 
कई बरसों से हमसफ़र है
 
रुक जाऊँ पनाहों में 
वो बिछड़ जाती है 
चलता रहूँ राहों में 
सब कुछ बिखर जाता हैं 
 
अजीब कशमकश है 
दिल बेपरवाह बेख़बर 
ऐ ज़िंदगी तू ही बता 
मैं   जाऊँ   किधर?
 
प्यास लगी प्यासा ही चला 
पानी में जो ज़हर मिला 
ना पीऊँ तो मर जाऊँ 
पी लूँ तो भी मर जाऊँ
 
इन्हीं तो मसलों पर 
जीता रहा ज़िंदगी भर 
ऐ ज़िंदगी तू ही बता 
मैं   जाऊँ   किधर?

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