मैं ऑटो वाला और चेतेश्वरानंद – 1

01-12-2020

मैं ऑटो वाला और चेतेश्वरानंद – 1

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 170, दिसंबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

दुष्यंत ने ऑटो रिक्शा चलाना तब से शुरू कर दिया था जब वह क़ानूनी रूप से बालिग़ भी नहीं हो पाया था। ऐसे में जब भी ट्रैफ़िक पुलिस द्वारा पकड़ा जाता तो तुरंत जितने रुपए उसके पास होते वह फट से निकाल कर उसे थमा देता। पुलिस वाला सारे नोट जेब में ठूँस-ठाँस कर रख़ते हुए कहता, ‘चल भाग, जल्दी बड़ा हो जा।’ ऑटो की स्पीड अपनी मर्ज़ी से घटाने-बढ़ाने वाले दुष्यंत के पास उम्र बढ़ाने की स्पीड पर कोई कंट्रोल नहीं था। वह अपने ही हिसाब से बढ़ती रही और दुष्यंत को बालिग़ बनाने में पूरे ग्यारह महीने ले लिए। वह रोज़ बड़ी बेसब्री से ग्यारहवें महीने की इक्कीसवीं तारीख़ की प्रतीक्षा करता था। 

और जब यह तारीख़ आई तो उसने ख़ुशी मनाई। लेकिन अन्य लोगों की तरह नहीं कि ख़ुशी मनाने के लिए छुट्टी ले ली, काम नहीं किया। बल्कि इस ख़ुशी को उसने अपनी तरह से अकेले ही मनाया और ऑटो रोज़ से भी चार घंटे ज़्यादा चलाया। मालिक को उसने सवेरे ही बता दिया था कि, ‘आज ज़्यादा चलाऊँगा और ज़्यादा कोटा दूँगा।’ मालिक उसकी ईमानदारी, मेहनत, अच्छी ड्राइविंग के कारण ही उस पर आँख मूँदकर विश्वास करता था। 

उसने उसे काम पर रखने के हफ़्ते भर बाद ही कह दिया था कि, ‘तुम चलाओ, पकड़े जाओगे तो मैं छुड़ा लूँगा।’ लेकिन दुष्यंत पकड़े जाने की बात मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाने के कई दिन बाद ही बताता था। मालिक को वह कोटा पूरा देता। जो बच जाता उसी से अपना काम चलाता। उस दिन अपना कोटा वह भूल जाता था। यूँ तो क़ानूनन किसी ड्राइवर को ही ऑटो का परमिट मिलता है। वह भी कॉमर्शियल ड्राइविंग लाइसेंस होने पर ही। लेकिन दुष्यंत के मालिक ने और कई आर्थिक रूप से सक्षम लोगों की तरह फ़र्ज़ीवाड़ा करके कई परमिट ले रखे थे। वो कई बेरोज़गार युवकों का हक़ मारे हुए था। 

ऑटो वाले और चेतेश्वरानंद की यह कहानी पढ़ने वाले मेरे मित्रों, मैं एक सच आपको इसी समय बता देना उचित समझता हूँ कि मैं कोई कहानी लेखक या कहानी नैरेटर नहीं हूँ। पूरा सच यह है कि मैं ही ऑटो वाला हूँ। मतलब कि था। था इसलिए क्योंकि काफ़ी समय पहले मैंने ऑटो चलाना छोड़ दिया है। जब चलाता था तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऑटो चलाना छूट जाएगा। और चलाना शुरू करने से पहले सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऑटो चलाऊँगा और आगे वह करूँगा जो अब कर रहा हूँ। 

मित्रों मैं अब आपको वह सच बताने जा रहा हूँ कि मुझसे ऑटो छूटा कैसे और मैं यहाँ तक पहुँचा कैसे। एक चीज़ आप से बहुत साफ़-साफ़ कहता हूँ कि अगर आप बहुत प्रगतिशील विचारों के हैं, जीवन की हर बात को, हर काम को विज्ञान के तराजू पर तौलते हैं, उसके मापदंडों पर ही कसते हैं, उससे मिले निष्कर्षों पर ही सही ग़लत का निर्णय करते हैं, तो मित्रों माफ़ करना, मैं बहुत साफ़ कहता हूँ, कि आपका विज्ञान भी उतना ही अधूरा, अस्पष्ट है, जितना कि अन्य बातें, पौराणिक आख्यान आदि-आदि। 

देखिए ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि न जाने कितने ऐसे उदाहरण हैं कि विज्ञान का कोई सिद्धांत बरसों-बरस सही माना जाता है। लेकिन फिर अचानक ही कोई दूसरा वैज्ञानिक पिछले को झुठलाते हुए नया सिद्धांत, नए नियम लेकर सामने आ जाता है। पिछला ग़लत हो जाता है। इसका अर्थ आप यह न लगा लें कि मैं विज्ञान को नहीं मानता। मित्रों मैं विज्ञान को उतना ही मानता, अहमियत देता हूँ, जितना ज्योतिष शास्त्र एवं पौराणिक आख्यानों को। 

देखिए मैं जहाँ-जहाँ से होता हुआ आज जहाँ पहुँचा हूँ और आपसे जिस तरह मुख़ातिब हूँ इसे मैं विधि का विधान मानता हूँ। जिसके लिए बहुत से नास्तिक वैज्ञानिकों की तरह आप भी कह सकते हैं कि ना विधि होता है, ना विधि का विधान। या प्राचीन काल में सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि की तरह कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की है बल्कि सतत् विकास की प्रक्रिया का परिणाम है यह। अर्थात् जब उनकी सृष्टि ही नहीं तो उनका विधान कैसे? आप एक बात और सोचें कि डार्विन का विकासवाद इससे इतर है क्या? हाँ कुछ वैज्ञानिकों की तरह आप भी कह सकते हैं कि विज्ञान के सिद्धांतों की तरह विधि भी है और उसका विधान भी। 

आप कुछ तर्क रखें, सोचें उसके पहले मैं यह साफ़ कर दूँ कि मैं तब विज्ञान को कंप्लीट मान लूँगा जब विज्ञान भविष्य में झाँक कर यह बता दे कि कब, कहाँ, क्या, किस लिए होने वाला है। एकदम सटीक बता दे। नहीं तो फिर कहूँगा कि पौराणिक आख्यान, विज्ञान सब एक समान हैं। ज्योतिषाचार्य भविष्य में क्या होने वाला है यह बता देने का पूरा दावा करते हैं। मेरे लिए भी आश्चर्यजनक दावा किया गया था कि भविष्य में मेरे साथ क्या होने वाला है। जिसे आप आगे जान पाएँगे। 

उस विधि के विधान को ज्योतिष शास्त्र के ज़रिए ज्योतिषाचार्य पढ़ लेने का दावा करते हैं, जिसके बारे में ख़ुद पौराणिक आख्यान यह कहते हैं कि विधि का लिखा अब तक महान शिवभक्त, प्रकांड पंडित रावण ही पढ़ सका है। वह अपने दरबार में अंगद से संवाद के समय बहुत ही घमंड के साथ कहता भी है, ‘जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला॥ नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥’ अर्थात् मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाता की वाणी असत्य जानकर मैं हँसा। रावण आगे कहता है कि, ‘उस बात को समझ कर भी मेरे मन में डर नहीं है। बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है।’ 

तो मित्रों जब मेरे पिताजी ज़िंदा थे, तब उनकी मृत्यु से कुछ वर्ष पहले, मुझे एकदम सटीक तो नहीं याद है कि कितने वर्ष क्योंकि तब मैं छठी में पढ़ता था। उम्र यही कोई ग्यारह-बारह वर्ष रही होगी। तभी संयोगवश ही किसी ज्योतिषाचार्य से उनकी मुलाक़ात हो गई। उसकी बातचीत से प्रभावित होकर उन्होंने उसे अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, जिसे उस ज्योतिषी ने उनकी जन्मतिथि के हिसाब से ग़लत बताया और नई कुंडली बना दी। साथ ही यह भी बताया कि, ‘आप पर ‘कालसर्प’ योग है। और आपकी राशि आज इन-इन भाव में है, और फला-फल ग्रह फलाँ फलाँ जगह हैं। इस कारण जो बला-बल निकल रहा है वह आपके लिए बहुत विनाशक है। यह बला-बल शुभ वाला नहीं अपितु अशुभ वाला है। यह जीवन को समाप्त कर देने वाला है।’ 

यह सुनकर माता जी घबरा गईं। पिताजी भी सशंकित हो गए। माता-पिता की इस हालत पर ज्योतिषाचार्य जी और मुखर हो उठे। बड़े विस्तार में जाते हुए बताया कि, ‘पिछले जन्म में आप से एक साथ कई अक्षम्य अपराध हो गए थे। जिनका परिणाम दोष फल आपको इस जन्म में मुख्य रूप से मिल रहा है। पिछले में इसलिए ज़्यादा कष्ट में नहीं रहे क्योंकि उसके पिछले वाले जन्म में आपके सद्कर्म बहुत थे। जिनका परिणाम पिछले जन्म में आप सुखी जीवन जी के भोग चुके हैं। 

आपके इस जीवन में प्रारंभ से ही क़दम-क़दम पर शारीरिक-मानसिक कष्ट, नौकरी में कष्ट, पारिवारिक जीवन में कष्ट है तो इस ‘कालसर्प’ योग के कारण ही है। आपकी कुंडली के हिसाब से राहु बारहवें भाव में है। और यजमान, कर्मों का व्यापक प्रभाव देखिए कि केतु छठे भाव का है। जिससे आप हज़ार-हज़ार कोशिश करके भी अपना ट्रांसफर होम डिस्ट्रिक्ट में नहीं करवा पा रहे हैं। 

आपके प्रतिद्वंद्वी ऑफ़िस से लेकर हर जगह आप से दो क़दम आगे ही रहते हैं। मन का कोई भी काम आप समय से नहीं कर पाते हैं। जब-तक मन का होता है, तब-तक उसके होने की सारी ख़ुशी, उत्साह सब समाप्त हो चुका होता है। आपको शारीरिक, मानसिक कोई ख़ुशी मिल ही नहीं पाती। आपकी सारी ख़ुशी हमेशा आपका यह डर छीन लेता है कि आपकी नौकरी ख़तरे में है। जबकि सच यह है कि तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भी आप की नौकरी बची रहेगी लेकिन...।’ 

ज्योतिषाचार्य जी ने अपना यह वाक्य बड़े रहस्यमय ढंग से अधूरा छोड़ दिया तो अम्मा घबड़ाकर हाथ जोड़ती हुई बोलीं, ‘पंडित जी लेकिन क्या? कोई अनहोनी तो नहीं है? पंडित जी बताइए ना।’ अम्मा के आँसू निकलने लगे। पिताजी भी गंभीर हो गए। प्रश्न-भरी दृष्टि से पंडित जी की तरफ़ देखने लगे। तो पंडित जी बोले, ‘देखिए मैंने पूरी कुंडली का बहुत ही ध्यान से समग्र अध्ययन किया है। जो समझ पाया हूँ उसके अनुसार पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि आपके ऊपर ‘शेषनाग कालसर्प योग’ का प्रचंड प्रभाव है। 

मैं निःसंकोच यह मानता हूँ कि बारहों कालसर्प योगों में यह सबसे विनाशकारी योग है। इसका प्रभाव जातक की संतानों पर भी पड़ता है। विशेष रूप से छोटे पुत्र पर। उनके जीवन की भी ख़ुशियाँ नष्ट हो जाती हैं। जबकि स्वयं उसका जीवन भीषण संकट में होता है। कुंडली के हिसाब से आपके जीवन का यह जो साल चल रहा है, यह इस योग की दृष्टि से सबसे ज़्यादा प्रभावित वर्ष है।’ 

ज्योतिषाचार्य जी का यह कहना था कि अम्मा जी रो पड़ीं। और ऐसी हालत में जो होता है वही हुआ, अम्मा हाथ जोड़कर बोलीं, ‘पंडित जी जो भी उपाय हो वह करिए। जैसे भी हो इस अनिष्ट से बचाइए।’ लगे हाथ ‘शेषनाग कालसर्प योग’ के अनिष्ट से बचने के लिए यज्ञ करवाना सुनिश्चित हो गया। आनन-फोनन में तैयारी की गई। यज्ञ ज्योतिषाचार्य पंडित जी ने अपनी टीम के साथ आकर पूरा किया। डेढ़ लाख रुपए का खर्चा आया। फिर भी पिता-अम्मा और घर के अन्य सदस्यों के मन से भय नहीं गया। 

अम्मा का हर क्षण पिताजी के जीवन को लेकर अनिष्ट की आशंका से काँपता ही बीतता था। लेकिन उस वर्ष कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ तो अम्मा-पिताजी सहित सभी के मन से भय का प्रेशर कम हो गया। मगर यह हल्कापन बस कुछ ही दिन रहा। अगले वर्ष में प्रवेश किए महीना भर भी ना बीता था कि पिताजी ऑफ़िस के किसी काम से अचानक ही भुसावल गए। लौटते समय किसी ज़हर-खुरान गिरोह के शिकार बन गए। अम्मा को एकदम बाद में बताया गया जब पिताजी का पार्थिव शरीर लेकर बड़े भाई घर पहुँचे। 

अम्मा बदहवास हो गईं। पछाड़ खा-खा कर गिरतीं। बेहोश हो जातीं। पूरे घर का यही हाल था। दरो-दिवार लॉन के पेड़-पौधों से लेकर पापा के प्यारे कुत्ते चाऊ तक का। मगर बीतता है हर क्षण तो यह भी बीत गया। सब अतीत बन गया। मित्रों इसके अलावा जो रह गया वह पहले सा ना होकर तेज़ी से बदलता चला गया। 

पिताजी की जगह बड़े भाई नौकरी वाले बने। अम्मा ने पूरी ताक़त से अपने होशो-हवास क़ायम किए, रात-दिन एक करके दोनों बहनों की, फिर बड़े भाई की भी शादी करवा दी। इतना सब कुछ बदला लेकिन ज्योतिषाचार्य जी की बताई बातों के भय का घटा-टोप कुहासा नहीं छँटा। एक दिन भैया-भाभी अपने बच्चों सहित बड़ी बहन के यहाँ गए थे। उनके बच्चे का मुंडन था। मैं घर पर ही रुका था। क्योंकि अम्मा की तबीयत ख़राब थी। उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकते थे। 

बहन-बहनोई ने मुंडन एक मंदिर में करवाने के बाद घर पर ही पार्टी दी थी। छोटी बहन भी परिवार के साथ वहीं थी। फोन पर उससे मैंने बड़ी देर तक बात की थी। वहाँ सब पार्टी में व्यस्त थे, कि तभी अम्मा की तबीयत अचानक ख़राब हो गई। वह साँस नहीं ले पा रही थीं। मुँह से अजीब सी आवाज़ निकल रही थी। मैंने पड़ोसी को बुलाया, किसी को कुछ समझ में नहीं आया। 

घबराकर मैंने भैया की कार निकाली। नज़दीक के ही एक डॉक्टर के पास ले गया। उसने अम्मा को एक बड़े हॉस्पिटल के लिए रेफ़र कर दिया। वहाँ गया तो संयोग से डॉक्टर जल्दी मिल गए। लेकिन उन्होंने देखते ही कह दिया कि, ‘बहुत देर हो चुकी है। यह अब नहीं रहीं।’ मैं स्तब्ध अम्मा को देखता रह गया। डॉक्टर ने ख़ुद अपने हाथ से अम्मा की साड़ी का आँचल उठाकर उनके चेहरे को ढँक दिया। मेरे कंधे को हल्के से थपथपाया और आगे बढ़ गए। अब पड़ोसी आगे आए। मुझे ढाढ़स बँधाने लगे। मुझसे भाई-बहनों, सभी को फोन करने के लिए कहा। लेकिन मैंने सोचा अभी तो पार्टी वहाँ पूरे चरम पर होगी। सब ख़ुश होंगे, खा-पी रहे होंगे। ऐसे में उन पर यह वज्रपात करना समझदारी नहीं है। 

अब जो भी होना है सब अगले दिन ही होना है। सूचना मिलने पर सभी चार-पाँच घंटे में आ ही जाएँगे। यह सोचकर मैं गाड़ी का इंतज़ाम कर अम्मा को घर ले आया। पड़ोसी बड़ी मदद कर रहे थे। मेरी आँखों में आँसू बिल्कुल नहीं थे। घर पहुँचने पर और बहुत से पड़ोसी भी मदद को आ खड़े हुए। बर्फ़ सहित अन्य जो कुछ ज़रूरी सामान था, सब आ गया। रात क़रीब बारह बजे मैंने भाई-बहनों अन्य सारे रिश्तेदारों को फोन करके सब से कहा कि अंतिम साँसें चल रही हैं, बस जितनी जल्दी हो सके आ जाएँ। 

अगले दिन घाट पर अंतिम संस्कार करके लौटने पर मुझे घर में फिर वही सन्नाटा, फिर वही उदासी दिखी हर तरफ़ जो पिताजी के जाने के बाद तारी थी। इस बार एक और बात थी जो मुझे भीतर तक झकझोर रही थी। वह यह कि पिताजी के बाद अम्मा थीं। मुझे घर, घर लग रहा था। लेकिन अम्मा जी के बाद ऐसा एहसास हो रहा था कि जैसे घर, घर ही नहीं रह गया है। बस दीवारें, छत, दरवाज़े ही हैं। जो हर तरफ़ से घेरे हुए हैं। 

इन सब से मनहूसियत ऐसे निकलती दिख रही थी कि कुछ घंटे पहले तक जिस मकान में मुझे एक जीवंतता नज़र आती थी, लगता था जैसे इसमें भी आत्मा है। यह भी सजीव है। उसी में अब ऐसा लग रहा था कि जैसे अम्मा के साथ घर की भी आत्मा चली गई है। जीवंतता ख़त्म हो गई है। एकदम भुतहा मकान, मनहूसियत, साँय-साँय करतीं दरो-दिवार। मुझे लगा जैसे मैं भी इन्हीं की तरह मनहूस दरो-दिवार होता जा रहा हूँ। मुझ में भी लोग हर तरफ़ मनहूसियत, साँय-साँय करतीं आवाज़ महसूस कर रहे हैं। दूर भाग रहे हैं। रास्ता बदल रहे हैं। दो हफ़्ता पूरा होते-होते घर सन्नाटे के अथाह समुद्र की तलहटी में जा डूबा। 

अम्मा के जाने के तीन हफ़्ते बाद ही पापा का प्रिय चाऊ भी चल बसा। उस बेजुबान जानवर ने अम्मा के जाने के बाद ही खाना-पीना छोड़ दिया था। इस ओर मेरे सहित सबका ध्यान जब-तक गया तब-तक वह चल बसा था। उससे एक गहरा लगाव परिवार के हर सदस्य को था। यह मेरे लिए एक और झटके से कम नहीं था। 

मगर जो निर्णायक झटका मैंने महसूस किया वह तो महीने भर बाद उन्हीं ‘कालसर्प’ वाले ज्योतिषाचार्य जी के आने के बाद लगा। वह भाई-भाभी के साथ उनके कमरे में लंबा समय बिता कर गए तो उसके बाद ही मैंने महसूस किया कि भाई-भाभी एकदम बदले हुए हैं। ऐसा लग रहा था जैसे वह मेरी छाया से ही दूर भाग रहे हैं। बच्चों का मुझ तक आना ही एकदम बंद हो गया। दो-तीन दिन बीतते-बीतते वातावरण इतना भयानक, इतना तनावपूर्ण हो गया कि मुझे लगा मानो मेरा रोम-रोम विदीर्ण हो रहा है। 

लेकिन फिर सोचा एक कोशिश करूँ कि घर में व्याप्त यह अथाह तनाव ख़त्म हो जाए। छोटा हूँ तो क्या? कुछ कामों की पहल छोटों को भी कर लेनी चाहिए। मगर मेरे सारे प्रयास विफल रहे। भाई साहब, भाभी हज़ारों कोशिशों के बाद भी खुलकर नहीं बोले। मैं साफ़ समझ गया कि ‘कालसर्प’ योग की छाया मुझ पर भी कहीं पड़ रही है। यह अम्मा के समय ही मालूम हो चुका था। लेकिन कर्मकांड के लिए उनके पास लाखों रुपए नहीं थे। भाई झमेले में पड़ना नहीं चाहते थे तो अम्मा अंदर ही अंदर घुटती रहीं। कभी-कभी मन को यह दिलासा भी दे लेतीं थीं कि कराया तो था यज्ञ। कहाँ बचा उनका सुहाग। 

अपनी विवशताओं के चलते वह भीतर ही भीतर घुल रही थीं। यह सारी बातें और विस्तार से मुझे दोनों बहनों से मालूम हुईं थीं, जब घर के तनाव को ख़त्म करने में असफल होने, अम्मा के ब्रह्मलीन होने के कुछ दिन बाद मैं बड़ी बहन के यहाँ मदद के लिए पहुँचा था। 

हालाँकि इन बातों को जानने के बाद मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। क्योंकि मेरे विचार में यह सब बातें बस बातें ही हैं। लेकिन दूसरी बात जिसका स्पष्ट अनुभव मैं कर रहा था उसने मुझे हिला कर रख दिया। मुझे साफ़ दिखा कि भाई-भाभी की तरह बहन-बहनोई भी मेरे पहुँचने से आक्रांत हैं। जैसे कह रहे हों कि अरे यह क्यों आ गया। यह बात मैं घंटे भर में समझ गया। मुझे वहाँ कहीं और जाने का कोई भी साधन मिल जाता या मुझे पता हो जाता तो मैं चल देता। एक तो वहाँ के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी, दूसरे पैसे भी ज़्यादा नहीं थे। 

उनके यहाँ से रेलवे, बस स्टेशन क़रीब-क़रीब बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर थे। और अँधेरा होने के बाद अपने साधन, अपने रिस्क पर ही जाया जा सकता था। वह हज़ारीबाग का एक नक्सल प्रभावित एरिया है। तो मजबूरी में मुझे रात वहीं बितानी पड़ी। मजबूरी ही में बहन को मुझे रात भर के लिए शरण देनी पड़ी। 

चिंता उलझन के कारण मैं बहुत देर रात तक जागता रहा। सोचता रहा कि ज्योतिषाचार्य जी के ‘कालसर्प योग’ के गुल्ली-डंडा खेल ने क्या मुझे घर वालों के बीच अभिशप्त प्राणी के रूप में स्थापित कर दिया है। जिसकी छाया से भी सब दूर भाग रहे हैं। पूरी तरह छुटकारा पाना चाहते हैं। डरते हैं। ऐसे में क्या मुझे ख़ुद ही इन सब से दूर चला जाना चाहिए। त्याग देना चाहिए हमेशा के लिए। 

अगले दिन सवेरे नौ बजे तैयार होकर मैं बहन को प्रणाम कर चल दिया। हल्का-फुल्का चाय-नाश्ता इतनी फ़ॉर्मेलिटी के साथ मिला कि मन में आया कि उसे हाथ ना लगाऊँ, प्रणाम कर चल दूँ। लेकिन मैं बहन को कोई कष्ट नहीं देना चाहता था। तो कहने भर को थोड़ा सा खा-पी कर चल दिया। अपनी पूर्वांचल की गँवई भाषा में मुँह जुठार कर चल दिया। 

बहन ने कहने के लिए भी यह नहीं कहा कि रुको, खाना बना दूँ, खा कर जाना। यह तक नहीं कहा दोनों लोगों ने कि इलाक़ा सुरक्षित नहीं है। थोड़ा और दिन चढ़े तब जाना। आश्चर्य तो यह कि अपने बच्चों को एक बार बुलाया तक नहीं कि मामा जा रहा है मिल लो। मैंने भी नाम नहीं लिया कि क्यों उन्हें धर्म-संकट में डालूँ। यही मामा जब एक बार पहले आया था तो ऐसी ख़ातिरदारी हुई थी कि घर वापस जाने का मन ही नहीं कर रहा था और आज . . .

— क्रमशः

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