झूमका सँभाल गोरी

15-11-2020

झूमका सँभाल गोरी

संदीप कुमार तिवारी 'बेघर’ (अंक: 169, नवम्बर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

पवित्र गंगा सी  पावन
तुम्हें मिला है ये यौवन 
मधु रस  का ये जीवन
और उसपे  चंचल मन
रसभरी गगरिया को ऐसे ना उछाल गोरी!
झूमका सँभाल गोरी, झूमका सँभाल गोरी।
 
कुछ जाने कुछ पहचाने हैं। 
पर सभी यहाँ  अनजाने हैं। 
किसकी  नियत  कैसी  है,
नादान! ये तू नहीं  जाने है।
 
उल्टी गंगा अक़्सर बहती 
यहाँ होता झूठा ही संगम 
तू काहे चले डगर पनघट 
अब  नहीं  रहें वो आदम
जाने कब आ जाये कहाँ पल में भूचाल गोरी! 
झूमका सँभाल गोरी, झूमका सँभाल गोरी।
 
ये  शैतानों  की बस्ती है। 
तुम रूप ये दिखाओ ना।
नहीं कोई अब मजनूँ रे,
तुम मीरा बन जाओ ना।
 
झूठा है शृंगार ये झूठे हैं आभूषण। 
भोग मात्र तेरा  सुंदरता का ये तन।
तू ना जाने यहाँ पे कैसे किस क़दर,
अंधों के पैरों से मसला जाए कुंदन।
ख़ुद पे इतराना छोड़ ख़ुद को सँभाल गोरी! 
झूमका सँभाल गोरी, झूमका सँभाल गोरी।

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