क्रोना

संदीप कुमार तिवारी 'बेघर’ (अंक: 154, अप्रैल द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

किस बात का रोना है
ये तो अभी  क्रोना है 

 

दुर्भाग्य न सब दिन सोता है 
अब देखो आगे क्या होता है
स्वच्छता को वनवास है 
ये नयी सदी का विकास है 
धर्म धराशायी है, पाप की सुनवाई है 
स्वार्थ वशीभूत है, नेता रामदूत है
एक दिन सबको होना है 
तो किस बात का रोना है  


स्वाद और हवस में व्यर्थ समय गँवाते हैं 
कुत्तों का भोजन इंसान भी अब खाते हैं 
अहिंसा परम धर्म है; पर कर्म सब कुकर्म है 
बेईमानों कि बस्ती में हक़ीक़त महज़ मर्म है
हमने जो किया वही मिल रहा है 
काँटा बोया काँटा खिल रहा है 
जो दिया वही सँजोना है 
तो किस बात का रोना है


कौन कहता है ये संताप है
सब अपना ही प्रेम प्रताप है 
जो बेजुबां जानवरों पे अत्याचार है 
अब तो शायद ये उन्हीं का प्यार है
छुरी से गला रेतना है 
साबुन से हाथ धोना है 
किस बात का रोना है 
ये तो अभी क्रोना है

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