आधी दुनिया की पीड़ा

17-08-2014

आधी दुनिया की पीड़ा

प्रदीप श्रीवास्तव

समीक्ष्य पुस्तक - पाकिस्तानी स्त्री: यातना और संघर्ष
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली,
मूल्य: रुपए 295/-

स्त्री विमर्श केंद्रित साहित्य आज ज़्यादा लिखा जा रहा, यह बात सामने आते ही मैं असहज हो जाता हूँ। मुझे यह बात सहज करती है कि हर वक़्त के लेखन में स्त्री ही सदैव केंद्र में रही है और रहेगी। अपवाद छोड़ दें तो दुनिया भर के मज़हबी ग्रंथों या गैर मज़हबी साहित्य को देख लें स्त्रियाँ कहीं भी हाशिए पर नहीं दिखेंगी। यहूदी, ईसाई, मुस्लिम, हिंदू सहित अन्य किसी भी मज़हब के आख्यान उठाइए उसमें केंद्र में स्त्री है। उस दौर में भी जब मातृसत्तात्मक समाज का बोलबाला था और उस दौर के बाद पुरुष प्रधान समाज में भी जो रचा गया या रचा जा रहा है केंद्र में स्त्री ही है। हाँ लिखने वालों की संख्या में पुरुषों की संख्या सदैव ज़्यादा रही है।

इस बात को आगे बढ़ाने की ग़रज से पाकिस्तानी लेखिका ज़ाहिदा हिना की पुस्तक ‘पाकिस्तानी स्त्रीः यातना और संघर्ष’ की चर्चा कर रहा हूँ। यूँ तो इस पुस्तक का नाम सिर्फ़ यही संकेत दे रहा है कि बातें सिर्फ़ पाकिस्तानी स्त्रियों की होंगी लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। ज़ाहिदा हिना ने पाकिस्तानी स्त्रियों की दशा का लेखा-जोखा रखने के लिए पुस्तक का ताना-बाना ऐसा बनाया है कि इसमें आधी दुनिया यानी पूरे स्त्री समाज का लेखा-जोखा है।

पुरुष प्रधान युग के दौर से पहले समाज में स्त्रियों की दशा कैसी थी, और उस दौर के लेखन में वह कहाँ थी इसके साथ ही जब पुरुष प्रधान समाज का दौर आया तब उसकी क्या दशा रही है इन बातों का वृहद ब्योरा है। पुरुष प्रधान, महिला प्रधान युग का विभाजन करते हुए ज़ाहिदा लिखती हैं कि दुनिया में अलग-अलग क्षेत्रों में समाज का गठन अलग-अलग समय पर हुआ। लेकिन हर जगह शुरुआती दौर में मातृसत्तात्मक समाज का बोलबाला इसलिए बन पड़ा क्योंकि खेत से ले कर घर तक हर काम में महिलाओं की भागीदारी ज़्यादा प्रभावशाली रही। लेकिन जैसे-जैसे खेतों में पुरुषों की भागीदारी बढ़ी, व्यवसाय ने विकास की गति पकड़ी तो महिलाएँ घरों के अंदर सिमटती गईं। विकास की इस प्रक्रिया के बारे में अमरीकी इतिहासकार लुहान हैनरी मार्गन कहते हैं ‘परिवार एक ज़िदा स्पंदन व परिवर्तनशील वस्तु है। यह कभी एक हाल में नहीं रहता। जिस प्रकार समाज नीचे से ऊपर की ओर विकास करता रहा, उसी तरह परिवार भी नीचे से ऊपर की तरफ तरक्की करता रहा। विकास की इस प्रक्रिया के दौरान ही ‘परिवार’ संस्था की सत्ता औरत के हाथ से निकलकर मर्द के हाथ में चली गई।’ फ्रेडरिक एँगेल्स ने मातृसत्तात्मक व्यवस्था के अवसान को औरतों की विश्वव्यापी पराजय माना। अपनी पुस्तक में ज़ाहिदा इन्हीं बातों को आगे बढ़ा रही हैं कि पुरुषों के हाथ में सब कुछ चला जाना ही महिलाओं की हालत का कमज़ोर होने का मुख्य कारण है। एक बात बिल्कुल साफ समझ लेनी चाहिए कि स्त्रियों का विमर्श के केंद्र में बने रहने का मतलब यह नहीं कि उनकी दशा-दिशा भी बेहतर है या उन्हें समाज में बराबर का अधिकार मिलता रहा। ज़ाहिदा का मानना है कि कतिपय लेखन को छोड़ दें तो जो भी लिखा गया उसमें बराबर कोशिश यही रही कि कैसे महिलाओं की दुनियाँ पुरुषों के खींचे दायरे तक ही रहे ज़ाहिदा इसके लिए बेहद तर्क-पूर्ण ढंग से विभिन्न मज़हबी ग्रंथों और गैर मज़हबी ग्रंथों या साहित्य के अंशों को सामने रखती हैं। साथ ही उन आख्यानों का भी उल्लेख करती हैं जो महिलाओं को बराबर का अधिकार देने की हिमायत करते हैं और कहते हैं कि महिलाओं को बराबर का अधिकार दे कर समाज की संतुलित प्रगति सुनिश्चित की जा सकती है। वह यह भी मानती हैं कि जब वक़्त पड़ने पर महिलाओं ने पुरुषों के साथ मिलकर अन्याय के खिलाफ़ संघर्ष किया लाठी, डंडे, गोलियाँ खाईं तो उसी उत्साह बहादुरी के साथ वह अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत क्यों नहीं हुईं। इस क्रम में वह सोवियत संघ, फ्रांस, अमरीका की क्रांति और पाकिस्तान के बनने की घटना, उसके बनने में महिलाओं की निर्णायक भूमिका का ज़ोरदार ढंग से उल्लेख करती हैं। वह बताती हैं कि आधी दुनिया कैसे बार-बार ठगी गई। जैसे फ्रांस की क्रांति के समय महिलाओं ने अहम रोल अदा किए लेकिन जब अधिकार देने की बात आई तो पुरुष समाज ने उसे उसके दायरे की याद दिलाते हुए एक सिरे से उसकी माँगों को ठुकरा दिया।

पुस्तक में बड़े ही लोमहर्षक दृश्य तब आते हैं जब पाकिस्तान की विभिन्न क्षेत्रों की स्त्रियों का उल्लेख आता है। आमतौर पर उनके साथ होने वाले बर्बर अत्याचारों की बात आती है। जिसमें मुख्तार माई का भी उल्लेख है। आज के पाठकों को आश्चर्य होगा यह पढ़कर कि महिलाएँ उस दौर से भी गुज़रीं जब वह लिखने पढ़ने का नाम नहीं ले सकती थीं। लेखिका प्रसंगवश रुशंदरी देवी, रशीदुन्निसा, रुकय्या सखावत हुसैन का ज़िक्र करती हैं। बांगला भाषा में किसी महिला द्वारा पहली आत्मकथा लिखने और 1870 में छपवाने का साहस करने वाली रुशंदरी देवी ने घरवालों से छिपकर ताड़पत्तों पर लिखना पढ़ना सीखा। पर्दे का आलम यह था कि अपने पति के घोड़े के सामने भी वह नहीं आ सकती थीं कि कहीं वह देख न ले। ज़ाहिदा रशीदुन्निसा को उर्दू भाषा में पहला उपन्यास ‘इस्लाहुन्निसा’ लिखने वाली बताते हुए उनकी भी हालत रुशंदरी देवी से अलग नहीं मानती। यह उपन्यास 1894 में प्रकाशित हुआ। हमें यह तथ्य भी जान लेना चाहिए कि 1945 में डॉ. शाइस्ता अख्तर ने अपने शोध में मोहम्मदी बेगम को उर्दू का पहला उपन्यासकार माना है। महिलाओं को बर्दाश्त न कर पाने का आलम यह था कि जब 1905 में रुक़य्या की कहानी "जीमेनसजंदं कतमंउ" जिसमें उन्होंने औरत और मर्द के लैंगिक चरित्र को बिल्कुल उलट दिया था प्रकाशित हुई तो तहलका मच गया।

ज़ाहिदा अकाट्य तथ्यों के साथ हिंदुस्तान की आज़ादी के पहले के महिला उद्धारकों की कलई खोलते हुए राजा राममोहन राय, केशवचंद सेन और सर सैय्यद अहमद खां का भी उल्लेख करती हैं कि किस तरह शिक्षा को अहम् बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहने वाले सर सैय्यद महिलाओं की शिक्षा से कतराते रहे और बाल विवाह के विरोधी केशवचंद सेन अपनी पुत्री का बाल विवाह करते हैं और राजा राममोहन राय घर में स्त्रियों से बराबर लड़ते रहे, उन्हें उनका अधिकार न दे सके। ज़ाहिदा ने आधी दुनिया की हर स्थिति का इतना तथ्यपरक ढंग से वर्णन किया है ऐसी बातों का ज़िक्र किया है कि हर संवेदनशील पाठक की संवेदनाएँ आधी दुनिया के साथ खड़ी होने को सोचने लगें। स्वयं अपने जीवन में विभिन्न उतार-चढ़ावों से गुज़री ज़ाहिदा को पाकिस्तान की सीमोनद बोउवार, या जर्मेन ग्रीयर कहें तो गलत न होगा।


 

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