उत्सव
अनुजीत 'इकबाल’
अज्ञात के जिस अंतहीन विस्तार में
तुम्हारा निवास है
मुझे वहाँ आना होगा
और करवाना होगा स्नान स्वयं को
तुम्हारे स्फटिकप्रभ जलाशयों में
"निर्वापण" के लिए
एकनिष्ठ दृष्टि से अवलोकन करना होगा
तुम्हारे अंगुष्ठ से निकलती
कलकल करती मदमस्त नदियों का
और उन में प्रवाहित करने होंगे
वो सब अवयव
जो बुद्धि और ज्ञान के
क्षेत्र में आते हैं
प्राण, चेतना, पंच वायु, सप्त कोशों के
विभिन्न रंगों को घोल देना होगा
तुम्हारे प्रेम की सौम्य एवं चैतन्य धारा में
और हो जाना होगा पारद की तरह श्वेत
तुम्हारी शून्य सभा में
सदैव चलता रहता है रंगोत्सव
जिस में आमंत्रित होती हैं
मेरे से पूर्ववर्ती और समसामयिक
अज्ञातनाम प्रेमिकाएँ
जो बहती हैं धारा के साथ
बिना निषेध के, राज़ी होकर
और तुम करुणा की पराकाष्ठा में
शांत कर देते हो
युगों की महातृष्णा को
एक ही पल में
अपने प्रेमालिंगन में लेकर
प्रिय, यही तो हमारा नित्य उत्सव है
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