बुद्ध से संवाद
अनुजीत 'इकबाल’मैं आवाहन तुम्हारा करती थी
अर्पित प्रेम चरणों में करती थी
अंजुली में भर कर अपना अस्तित्व
तुम्हारी धारा में विसर्जित करती थी
अपनी तुरही हृदय पे थामे चलती थी
तान से विस्मित शशि को करती थी
मस्ती में अनवरत तुम्हें बुला कर
ब्रह्मांड को निरंतर पवित्र करती थी
स्याह रातों में साधना करती थी
नक्षत्रों के उत्सव नैनों में भरती थी
सम्यक बोध को पाने ख़ातिर
शून्य की कंदरा में रहती थी
संबुद्ध दृष्टि आ रही थी
सुधा वृष्टि हो रही थी
वैराग्य से अनुरंजित होकर
सुधि निस्पंदित हो रही थी
क्षुधा चित्त को भा रही थी
स्मृति सुप्ति को घेर रही थी
महा स्वप्न में तुम दर्शन देकर
अनहद के पार बुला रहे थे
स्त्रोतापन्न साधना सिखा रहे थे
सप्त चक्र भेदन करा रहे थे
मुझे निज में व्यवस्थित करा कर
अतिचारों से विलग करा रहे थे
उर में तटस्थता प्राप्त करती थी
जयघोष परम का करती थी
महा समाधि की धूनी रमा कर
तुम में समाहित ख़ुद को करती थी
अंतस में हिलोर उठती थी
मन मंत्र मुग्ध हो जाता था
क्षण भर पहले मैं सृष्टि में होती
फिर ख़ुद सृष्टि हो जाती थी
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