वचन
अनुजीत 'इकबाल’हे प्रियतम
तुम्हारा अघोर रूप
किसी सर्प की भाँति
मेरे हृदयक्षेत्र में
कुंडली मार बैठ गया है
और मैं वैराग्य धारण करने के पश्चात
प्रेमविह्वल हो रही हूँ
गेरुए वस्त्र त्याग कर
कौमुदी की साड़ी ओढ़ कर
तृष्णा के ज्वर से तप्त
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे समक्ष
चंद्र की नथनी डाल कर
तुम्हारी समस्त इंद्रियाँ
हिमखंड की भाँति स्थिरप्रज्ञ हैं
लेकिन दुस्साहस देखो मेरा
तुमसे अंकमाल होते हुए
प्रक्षालन करना चाहती हूँ
तुम्हारी सघन जटाओं का
मोक्ष के लिए
मुझे किसी साधना की आवश्यकता नहीं
समस्त कलाओं का रसास्वादन करते हुए
मेरी कलाई पर पड़ा
तुम्हारे हाथ की पकड़ का नील
काफ़ी होगा
मुझे मुक्ति दिलाने के लिए
वचन देती हूँ प्रियतम
वो दिन अवश्य आएगा
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