तुम
अनुजीत 'इकबाल’तुम्हारे कथनों को मैं
किसी ब्रह्म सिद्धांत की तरह
अंगीकार करने लगी हूँ
तुम्हारी उपस्थिति मेरे जीवन में
किसी गंधर्व द्वारा निर्देशित
पार्श्व संगीत से कम नहीं
जबकि मैं नहीं जानती कि
तुम्हें इसका भान है भी या नहीं
जब भी तुम शब्दों को आवरण-बद्ध करके
विभिन्न चेष्टाओं द्वारा अपना प्रेम
मेरे लिए प्रदर्शित करते हो तो
मेरा मन होता है कि
मेरी छलनी आत्मा और जर्जर देह पर
तुम स्वयं अपने हाथों से
औषधि का लेपन कर दो
ताकि जन्म जन्मांतर की पीड़ा शांत हो
आकाश में सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन तक
आता जाता रहता है
और यहाँ पृथ्वी पर मैं हूँ
जिसके प्रारब्ध में तुम्हारा आना
और इस दारुण हिज्र का जाना नहीं लिखा
यद्यपि तुम दूर ही रहोगे सदैव
लेकिन हमारा मिलना अवशयंम्भावी है
एक निश्चित समय पर . . .
जब मैं इस देह के पाश से मुक्त हो जाऊँगी
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