शिवोहं
अनुजीत 'इकबाल’माना शम्भो
बहुत व्यग्र, अस्थिर, अपरिपक्व हूँ
किंतु तुम बोध पर नहीं
सरलता, नादानी पर रीझते हो
तो फिर आओ, विलंब क्यों!
आज की रात्रि आसीन हो जाओ मेरे पास
और ओझल कर दो चंद्रमा को मेघों के आलिंगन में
आदेश दो इस सघन वन के अधिष्ठाता देवता को
कि वो जाग जाए और पवन को वाद्य बनाकर गाए राग मालकौंस
पृथ्वी चले मंद गति से कि यह रात कभी पूर्ण न हो
तुम्हारे अधखुले नेत्रों का संकेत समझें
सब देवता, नाग, चारण, किन्नर एवं दिशाएँ
और, मंगलकारी यह एकांत कभी भंग न हो
मुझे तुम्हारी मौन उपस्थिति के अतिरिक्त
कुछ और तृष्णा नहीं है
और यह मौन इतना सघन हो कि
पृथ्वी का कंपन भी न सुनाई दे
मेरी मुक्ति का एकमात्र विकल्प
तुम्हारी देह की सुगंध का परिरंभन है
यह प्रेम अतिशयोक्त है
नियमनिष्ठ तो बिल्कुल भी नहीं
देखो, तुम्हारी आकृति अब इस कलेवर में
परिलक्षित होती जा रही है
तुम सारी सृष्टि में
किसी तृण को भी महिमाहीन नहीं करते
मैं तो पूर्णतया तुम्हारी स्त्री थी
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बार बार मुझे अपनी ओर लाता है
किंतु, तुम्हारे प्रगाढ़ प्रेम के रथ पर आसीन
मैं शून्य आकाश में समा रही हूँ
जहाँ हम दोनों में अब कोई भेद शेष नहीं
"शिवोहं"
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