मैत्रेय के नाम
अनुजीत 'इकबाल’
(बुद्ध पूर्णिमा विशेष)
निर्निमेष दृष्टि सधी रहती है तुम पर
और यह मौन बन गया है अक्षय कोष
जो निज को समृद्ध करता हुआ
उपद्रवी जीवन में स्थिरता ला रहा है
तुम छुपे रहना हृदय के सहस्त्रदल कमल में
पंखुड़ियों के बीच केसर की तरह
और मुक्त करते रहना मुझे
खंडकाल की परिधियों से
सुवासित करते रहना बोध के द्वार
मेरे निरीश्वरवादी मन में
मंदिरों की पाषाण मूर्तियाँ नहीं
तुम्हारे आद्र पदचिह्न अंकित हैं
जिन पर चलती हुई मैं
यथार्थ के विभिन्न आयामों की
यात्रा करते हुए स्वयं को
तथागत को जलाशय में विसर्जित करती
एक भिक्षुणी के रूप में देखती हूँ
आख़िर यह प्रतिबिंब भी
नष्ट तो होना ही था
जब तुमने संकेत में कहा था
“आँखें बंद करो, प्रेम में पड़ो, वहीं रहो”
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