माँ सीता
अनुजीत 'इकबाल’दीपावली, मात्र सीता का
अयोध्या आगमन नहीं
वो सारी समसूत्र यात्रा
महल से वनगमन और
धरती का समालंबन
सब रूपक हैं
आत्मा का बाहर से भीतर
व्यवस्थित होने का
सब प्रयाण हैं
अस्तित्व की वेदिका पर
जब साधना की अग्नि
द्योतित होती है
तब अनुरक्ति की समिधा से
सीता प्रकट होती है
सीता हृयदंगम करवा गईं
जिस भेद को संसार में
वही तो कबीर मलंग गाते हैं
खड़े बीच बाज़ार में
सीता के लिए
“जग दर्शन का मेला”
लेकिन श्री राम के नयनों
की तरलता इंगित करे
मनःक्षेप का रेला
आत्मा का आगमन, गमन
और अंत में मूल में समाना
बिल्कुल सदृश्य है
सीता का मोह को
मूल-निकृन्तन करके
अपने उद्गम में समाना
राम तो व्यग्र होकर
प्रस्थानी हो गए अयोध्या के लिए
और सीता धरतीगामी होकर
रास्ता बता गईं मुक्ति के लिए
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अनकही
- अवधान
- उत्सव
- उसका होना
- कबीर के जन्मोत्सव पर
- कबीर से द्वितीय संवाद
- कबीर से संवाद
- गमन और ठहराव
- गुरु के नाम
- चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया
- तुम
- दीर्घतपा
- पिता का पता
- पिता का वृहत हस्त
- प्रेम (अनुजीत ’इकबाल’)
- बाबा कबीर
- बुद्ध आ रहे हैं
- बुद्ध प्रेमी हैं
- बुद्ध से संवाद
- भाई के नाम
- मन- फ़क़ीर का कासा
- महायोगी से महाप्रेमी
- माँ सीता
- मायोसोटिस के फूल
- मैं पृथ्वी सी
- मैत्रेय के नाम
- मौन का संगीत
- मौन संवाद
- यात्रा
- यायावर प्रेमी
- वचन
- वियोगिनी का प्रेम
- शरद पूर्णिमा में रास
- शाक्य की तलाश
- शिव-तत्व
- शिवोहं
- श्वेत हंस
- स्मृतियाँ
- स्वयं को जानो
- हिमालय के सान्निध्य में
- होली (अनुजीत ’इकबाल’)
- यात्रा वृत्तांत
- सामाजिक आलेख
- पुस्तक समीक्षा
- लघुकथा
- दोहे
- विडियो
-
- ऑडियो
-