बस, तुम रहो
अनुजीत 'इकबाल’
तुम मुझ पर विश्वास करो
जैसे हिमालय करता है अपनी बर्फ़ पर
जो हर ऋतु में पिघलती है
फिर भी लौट आती है उसी शिखर पर
मुझे अपने भीतर लो
जैसे पर्वत लेता है बादलों को
ना बाँधता है, ना रोकता
बस उन्हें गुज़रने देता है
अपने मौन के भीतर से
मैं तुम्हें केवल प्रेम नहीं दूँगी
अपनी चेतना दूँगी
जैसे कोई झरना
पहाड़ को देता है अपनी नीरव गिरावट
अपनी अनवरत धारा
अपना मौन प्रवाह
तुम मुझे रूपांतरित करो
जैसे हिमालय करता है
हर अनंत के यात्री को
धीरे,
सहज,
अपने मौन के अनुशासन से
और जब सब कुछ थम जाए
न कोई शब्द रह जाए, न कोई स्वर
तो बस तुम रहो
किसी बौद्ध मठ से उठती
जुनिपर की हल्की गंध की तरह
हवा में घुलकर
मेरे चारों ओर फैल जाओ
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