उपहार
अरुण कुमार प्रसादशोक-मग्न है भावी पीढ़ी कैसा यह उपहार!
हवा विषैली, दूषित पानी एवम् नग्न पहाड़।
रोटी और दाल के लिए लड़ रहे थे लोग,
अब तो हवा, पानी को झगड़ रहेंगे लोग।
समय एक औज़ार है और अनुभव है कर्मकार,
मानव अनगढ़ शिलाखण्ड, गढ़ता करता तैयार।
शुचि, सुंदर व सर्वहित डाल मनुज हर परम्परा,
सुधिजन लें अवतार तथा सभ्य रहे यह सभ्यता।
सृष्टि निपट निराश्रित अपने में सम्पूर्ण,
स्रष्टा भी इस हेतु है साष्टांग सम्पूर्ण।
चला तो था मैं पूछने उस ईश का पता,
राह में मोह, भ्रम, लिप्सा था नंगा खड़ा।
रुक गया मैं भी तमाशबीनों की तरह,
व्याकरण सारे जीवन के गया गड़बड़ा।
तब गणित खोलकर बाँचने मैं लगा,
अंक को किन्तु, अक्षर बना न सका।
सूत्र को रौंद-रौंद पतला करता रहा,
मैं बना न सका मिट्टी को पर, घड़ा।
सूर, तुलसी को पूछा है क्या ज़िन्दगी?
जो इंगित किया कबीर का था पढ़ा।
मोक्ष के लिए मृत्यु अनिवार्य है,
मोक्ष ने भी कहा कृष्ण ने था कहा।
मन में कुंठा लिए, तन में एवम् तपन,
इंद्र के द्वार देखता दुखित हो चला।
भोग के मोह से भाग्य के जाल में,
सारे जीवन के तन्तु पिघल-गल गया।
कितना! बेताब था, युद्ध को मेरा मन,
शस्त्र सारे गिने पर,भटकता रह गया।
कृष्ण को ढूँढ़ता, कुरुक्षेत्र खोजता,
मन कितना रुआँसा था होता रहा।
कोख से ख़ाली सब हैं जनमते रहे,
वसीयत कुछ को क्यों सब थमाता रहा।
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