फिर से गाँव
अरुण कुमार प्रसाद
फिर से गाँव की परिभाषा लिखने का समय है।
स्वयं को ढूँढ़ने, जानने, जीवित होने का वय है।
खेतों-खलिहानों के पुनर्जीवित होने का विषय है।
सम्बन्धों की प्रगाढ़ता प्रगट हो इन्हें करना तय है।
फिर से गाँव को जगायें, आयें, शहरी आवरण में।
तन तराशें आधुनिक व मन अर्वाचीन वसन में।
फिर से गाँव को जगायें, आयें शहरी आवरण में।
इस विक्षुब्ध, विक्षिप्त युग को निःस्वार्थीकरण में।
शिक्षा को गह्वर से शिक्षक को मन्वतंर से आयें
अनपढ़, अनभिज्ञता से नारी निरक्षरता से निकालें।
कुछ तो बुझा सदियों से कुटुम्बत्व फिर बढ़ायें।
रोज़गार सक्षम करें रोकें पलायन, ‘लोकल’ को लायें।
सुप्त ज्ञान, गुप्त ज्ञान बुद्ध के फिर से जगायें।
लोक गीत लोक कथा नीतिगत बात जहाँ लायें।
पुनर्जीवित भूत को वर्तमान के लिए करें, बढ़ें।
भविष्य का पथ व कर्म निर्धारित किये चलें।
शहर में गाँव, गाँव में नया शहर समाहित करें।
विवेक, बुद्धि, विचार नित नवीन तर्क भी गढ़ें।
मनुष्य में मनुष्य ही पुनः प्रतिस्थापित करें।
सरलता गाँव की रहे, इसे कभी न विस्थापित करें।
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