पीढ़ियों का संवाद पीढ़ियों से 

15-11-2023

पीढ़ियों का संवाद पीढ़ियों से 

अरुण कुमार प्रसाद (अंक: 241, नवम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

ईश्वर हमारा निर्माता है कि जन्मदाता? 
वह हमें पाले, पोसे या मारे, रहेगा वही हमारा विधाता। 
जैसे पिता। 
ईश्वर हमारी पीढ़ियों की नींव। 
स्वच्छ, सुंदर और पुनीत। 
सर्जक, पालक और मारक वृत्त की परिधि घेरे वही 
और अंदर पीढ़ियों का क्रम क्रूरता पूर्वक 
नई पीढ़ियों को देता हुआ जन्म 
और करता हुआ ख़त्म। 
 
वर्तमान में ब्रह्मा की कोई पीढ़ी 
नई पीढ़ी को जन्म देने की तैयारी कर रही है 
तथा किसी पीढ़ी को शिव भस्म करने को 
हो रहे हैं प्रस्तुत। 
पीढ़ियाँ अपनी सार्थकता पर आश्चर्य, अचंभित हैं। 
रात-दिन का बहस, मोक्ष या स्वर्ग-सुख निरुद्देश्य
और भ्रमित हैं। 
 
पीढ़ी में जन्म लेने का कर्त्तव्य, ज्ञात किसीको नहीं है। 
पीढ़ी में गुज़र जाने की निरर्थकता सभी को है। 
अस्सी हज़ार ऋषियों का संवाद-सभा, जीवन के हेतु पर नहीं 
जड़ के जीव में स्थानांतरण के दर्शन पर रूपरेखा शास्त्र की
निर्धारित करने में संलग्न है। 
देवता उनका अतिथि बनने में मग्न है। 
 
उतरने वाली पीढ़ी पूर्वजों की पीढ़ी से पूछती है
उतरोत्तर विकास का अर्थ क्या है। 
भौतिक समृद्धि व आध्यात्मिक प्रवृत्ति का भाष्य क्या है। 
कर्म का कारण सत्य और कर्म का फल क्योंं मिथ्या है। 
सारे जीव-जन्तु की करोड़ों पीढ़ियों में विषम क्या है
भूख, मैथुन और मृत्यु के सिवा। 
सारे युद्ध हमारे या पशुओं के 
भूख या मैथुन के ही होते हैं क्यों? 
ईश्वर को क्योंं
मानव जातियों के मध्य व्यवस्था क़ायम रखने हेतु 
लेना पड़ता है अवतार, बारबार। 
मानव करोड़ों बार जन्म लेकर भी क्योंं 
नहीं बन है पाया मानव व्यवस्थित। 
देवता, दानव और मानव पीढ़ी दर पीढ़ी 
एक दूसरे की आलोचना करते अघाते नहीं 
उलाहना दे दे थकते हैं कुछ क्योंं पाते नहीं। 
जन्म का धर्म क्या है, इसका निर्धारण 
धर्म का जन्म क्योंं! है इसका निवारण। 
 
हम पूर्वजों की पीढ़ी परंपरा जाते हैं दे 
लोभ की लो, सुख से जियो। 
छीना-झपटी, ईर्ष्या, दुराचार की वृत्ति को
आत्मसात करो। 
परमार्थ में स्वार्थ की चेतना 
उपदेश से आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा रोपो। 
साधन सीमित है। 
चाहत अपरिमित। 
जन्म और मृत्यु का चक्र 
सरल है सीधा बिलकुल नहीं वक्र। 
जैसे भी जियो जीने को आदर्श सा करो स्थापित। 
जिस-जिस को करना है करो विस्थापित। 
जीना न धर्म है न कर्म 
यह तो है केवल मैथुनिक आवृत्ति का व्यर्थ का मर्म। 
पाप की परिभाषा और जीवन की परिभाषा सापेक्ष है। 
हमने जिया है तुम भी जियो अन्यथा तुम पर आक्षेप है। 
 
पीढ़ियाँ परंपरा जीती हैं। 
रूढ़ियाँ व परिपाटियाँ जीती हैं। 
जो नहीं जीते 
वे पीढ़ियों की आश्चर्यजनक सभ्यता की तुलना 
सत्य से करते हैं। 
पीढ़ियों के नए आयाम स्थापित करते हैं। 
अग्रज पीढ़ियाँ जीवन के अनुभव बाँटती हैं। 
अनुज पीढ़ियाँ बिना जिये मानती ही नहीं। 
प्रपंच और षडयंत्र तथा
त्याग और बलिदान पीढ़ियाँ दे जाती है। 
नई पीढ़ियाँ अनुसरण करती है। 
विश्लेषण के परिणाम 
आत्मसात नहीं। 
कोई एक पीढ़ी मूर्खता को परिभाषित करती हैं
और फिर मर जाती है। 
दूसरी पीढ़ी भी। 
भोगे हुए यथार्थ दुहराये जाते हैं। 
मृत्यु पर रुदन के गीत गए जाते हैं। 
जीवन भर मृत्यु का श्राप बाँटा जाता है। 
मृत्यु पर मौत को वरदान कहा जाता है। 
 
अनुज पीढ़ियाँ कृतज्ञ हों 
अग्रज पीढ़ियाँ रहें उदार। 
अनुज पीढ़ियाँ वर्तमान जियेँ
अग्रज पीढ़ियाँ पारिवर्तन करें स्वीकार। 
वाजिब संवाद पीढ़ियों का पीढ़ियों से 
व्याख्यायित होना बचा रहता है। 
जिये को दूभर कहने की परिपाटी है 
जिये जाने के रंग-रेख सर्वदा बाक़ी है। 

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