कृश-कृषक
अरुण कुमार प्रसादजब करे विद्युत प्रवाहित नभ,
धरा की ओर तीव्रतम गति से
अग्राह्य शोर का स्वर ग्रहण करता
आपने देखा कृषक को
है कभी क्या?
हाथ में थामे कुदाल
देह पर लँगोट धारे
बूँद की हर चोट सहता
एकाग्र मन से
चीरता धरती का सीना
बीज बोने।
उन भुजाओं में
उछलते स्वप्न उनके।
हमने देखे
हम हैं उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखा कभी क्या
उस कृषक को?
शीत के ज्वार में
रात के अंधकार में
फ़सल के साथ सोते
उसे आवाज़ देते
जागते रहने को कहते
भूत सी काया से बचने।
हमने देखे
हम हैं उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखा कभी क्या
कृश कृषक को?
खेत में, खलिहान में।
फ़सल में स्वाभिमान भरते।
गहन वन के भीतर
हल के लिए किसी ठूँठ को
ढूँढ़ते, परखते।
हमने देखे
हम हैं उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखे कभी क्या
उस कृषक के द्वार पर,
लट्ठ थामे, मूँछ ताने।
बाँचते क़र्ज़ के ब्याज को
और ब्याज के भी ब्याज को।
हाथ जोड़े उस कृषक को
करुण स्वर में करते निहोरा,
सब न ले जा, छोड़, थोड़ा।
हमने देखे
हम हैं उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखे कभी क्या
उस कृषक को,
हाथ रखे माथ पर?
हो रुआँसा क्रोध करते भात पर
और अपने गात पर।
निहोरा कर रही
पत्नी के हर ही बात पर।
और मिल-जुल कर गले
देखा है क्या
रोते उन्हें
बाँह में बाँह डाले
आँसुओं में अश्रु घोले।
हमने देखे
हम हैं उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखा कभी क्या
उस कृषक को?
मृत्यु पर रोते, बिलखते
तेज़ स्वर में
और कहते
आज मेरा
पाँचवाँ बेटा मरा है।
वृषभ के वज्राघात से
देहांत पर।
हमने देखे
हम हैं उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
क्या पता
उस कृषक ने
जो जिया है
दुहराया जिसे है।
हम भी दुहराएँ।
जिएँ उस भाँति ही
और भाँति उस ही मरें हम।
हम हैं उत्तराधिकारी
उस
कृश कृषक के।
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