जग का पागलपन
अरुण कुमार प्रसाद
लोगो देखो जग का कोना पागल जैसा हँसना-रोना।
विज्ञानों को चीर-फाड़ कर हथियारों का जंगल बोना।
मानव लड़ते मानव ही से गिद्धों सा नोचें वे तन, मन।
दौड़े आते रण आँगन में खोले रक्त पिपासु आनन।
सारे स्वर्ण पिघलकर किसके राजमुकुट को चमकाएगा!
किसके हिस्से इस दुनिया का सारा रुत्बा आ जाएगा।
किन-किन की आयु में मृतकों की सारी उम्र समा जाएगी।
किनकी बाँह-भुजाओं में सारी शक्ति, सुंदरता पिघल आएगी।
इससे इतर रस्म लड़ती है, रस्म ही नहीं नस्ल लड़ती है।
रस्म रक्षिता हुई न जग की, पश्चिमी नस्ल बड़ा करती है।
इस जंगल ने उस सागर ने किसका गर्व किया है खंडित?
ऐसा ध्वंस देख-देख कर जंगल, सागर व्यथित व विस्मित।
शान्ति भागती इधर-उधर है पथ छोटा होता जाता है।
पुनः बुद्ध से शरण माँगता धर्म-ग्रन्थों से दुःख कहता है।
अगर धर्म हो मलिन गया तो आस्था मानवीय होनी होगी।
ग्रन्थों की व्यक्तिगतता मानव को सामूहिक करनी होगी।
कवि कह जाता है इतना सा सुधिजन अर्थ लगावें, जानें।
विजय चिह्न विध्वंसों का या निर्माणों का कहिए तानें!