शहर मेरा अपना

01-01-2023

शहर मेरा अपना

अरुण कुमार प्रसाद (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

शहर की बातें बेकार नहीं हैं। 
शहर की परिभाषा ग़लत नहीं है। 
नहीं है त्रुटिपूर्ण, शहर का बनना। 
सत्य है शहर। 
शिक्षक है शहर। 
रक्षक है शहर। 
हमें होना ही चाहिए शहर। 
चालाक है शहर। 
सियार का नहीं, बुद्धि का। 
बुद्धिबद्ध है शहर। 
प्रतिबद्ध है शहर और कटिबद्ध भी। 
तुम्हें दुःख से नजात देने के लिए। 
 
तुम शहर बनो। 
शहर कहता है तुम अपना डगर बनो। 
शोषण से मुक्त होने, 
सुशासन से युक्त होने, 
स्व्यंभू संत्रासों से निकलने बाहर, 
नकारने व्यथाओं के सारे झूठे डर। 
  
दुःख शहर नहीं, अपने देते हैं। 
जो देखते तुम वे अबुझ सपने देते हैं। 
शहर कटु है। 
तुम कटु बनो। 
शहर का स्वार्थ उसका सुख। 
तुम सुखी बनो। 
शहर योद्धा है। 
तुम योद्धा बनो। 
शहर के अंदर किन्तु, गाँव का कोमल मन
विद्यमान है। 
तुम कोमल अवश्य बनो। 
  
पीड़ा मन में होती है। 
दुःख तन पर रहता है। 
जब तेरा अधिकार तुझसे छिन जाय
दुःख होता है। 
जब तुम अपने अधिकारों की
रक्षा नहीं कर पाते पीड़ा होती है। 
तुम शहर बनो
डर को डराने। 
अपने को शहर सा लड़ाका बनाने। 

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