अब रात बिखर ही जाने दो

15-01-2023

अब रात बिखर ही जाने दो

अरुण कुमार प्रसाद (अंक: 221, जनवरी द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

अब रात बिखर ही जाने दो। 
अब चाँद बिसर ही जाने दो। 
अब प्रहर सँवर ही जाने दो। 
अब दिन को सुंदर माने दो। 
 
कितने युग की यह रात कहो। 
जो जो भोगा वह बात कहो। 
खंडित क्या-क्या जज़्बात कहो। 
हर पुण्य, पाप, उत्पात कहो। 
 
कितने विषाक्त रातों ने प्राण, 
कितने झेले अनगिनत वाण। 
अश्रु ने बहाये जो दर्द, व्यथा। 
कह दूँ या कहोगे सभी कथा। 
 
अवसर है दिन से रात हटा। 
धूमिल मन का हर श्राप हटा। 
अपना कालापन आप हटा। 
अब मन से मेरे संताप हटा। 
 
मैं शोषित हूँ, तुम हो हत्यारा। 
मैं दलित फिरा हूँ मारा-मारा। 
मैं वंचित तुमने छीना है सारा। 
मैं पीड़ित दुःख की अश्रु-धारा। 
 
तुम शोषण के पोषक, कलंक। 
तन, मन, धन के हो निःशंक। 
योद्धा बनकर ईश्वर बाँधा। 
और जीवित मुझको है राँधा। 
 
अब भी विद्रोह है क्यों मृतवत? 
मैं मूर्ख ढूँढ़ूँ अब भी अमृत। 
मृत्यु हे, तुम बन अब संकल्प। 
रण के सिवा न कोई है विकल्प। 

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