….तो कैसे विश्वास करोगे
राघवेन्द्र पाण्डेय 'राघव'जिया जिसे मैं वह गाऊँ
तो भी तुम हो संदेह जताते
अनदेखी-अनसुनी कहूँगा,
तो कैसे विश्वास करोगे !
रात किसी विधि सो पाया जो थपकी-लोरी से माँ की
सुबह उसी नाबालिग के हाथों में होती है बाँकी
गर विश्वास न हो तो मेरे गाँव चलो हे शहर निवासी
दिन ही तुम्हें दिखेंगे तारे,
उल्टी-उल्टी साँस भरोगे !
दुनियाँ उतनी सुखी नहीं, तुम जीते हो जितने सुख से
लाखों भूखे, लाखों प्यासे लाखों के ख़ून बहे मुख से
हे धनिक न सह पाओगे तुम वह दुख किसान मजदूरों का
दे दोगे मुझको ज़हर या कि फिर
डाल स्वयं गलफाँस मरोगे !
मिट्टी से परिचय न तुम्हारा रिश्ता कोई नहीं खेत से
अन्न जिसे तुम सुबह शाम खाते हो, मिलता नहीं रेत से
तिनके-तिनके हेतु बहाता ख़ून-पसीना है किसान
और कहूँगा तो तुम मेरी
बातों का परिहास करोगे !