ढहने को कुछ रहा नहीं

15-05-2019

ढहने को कुछ रहा नहीं

राघवेन्द्र पाण्डेय 'राघव'

दिल से दिल के बँटवारे में 
ढहने को कुछ रहा नहीं 

 

भाई का भाई प्रतिरोधी 
जाने कैसी हवा चली है 
लोगों में कितना विष व्यापा 
दुनियाँ कितनी कली-छली है 

 

अलग-अलग खाना-पीना है, अलग-अलग जगना-सोना है 
अलग-अलग सबका हिसाब, अब अलग-अलग पाना-खोना है 

 

घर की दीवारें भी चुप हैं 
कहने को कुछ रहा नहीं 

 

तन पर माटी के लेपन से 
खेतों की हरियाली से 
दरवाज़े पर बँधी गाय के 
खूँटे की रखवाली से- 

 

विरत हुआ बेटा, जब से पैसे ख़ातिर निकला परदेस 
गुमसुम से हैं मइया-बब्बा, बोझिल है जीवन का शेष 

 

सूनी है दुधहंड़-बटलोही 
महने को कुछ रहा नहीं 

 

मानव जितना ही अनगइयाँ 
बेपर्दा-बेशर्म हुआ 
चाँद हुआ निष्ठुर, सूरज 
उतना ही ज्यादा गर्म हुआ

 

जंगल जितने कटे, बढ़ी साँसों की उतनी चीख़ 
जल को लेकर विश्वयुद्ध की निकट हुई तारीख़ 

 

ताल-तलैया, नदिया-पोखर 
बहने को कुछ रहा नहीं 

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