हम दोनों का एक समर्पण
राघवेन्द्र पाण्डेय 'राघव'तिल-तिल कर जलें हम,
संझवाती के दीये सा
रात-दिन मेहनत ही...
है अपना पेशा
सूर्य, चंद्र, तारों से आज भी लगाते
हम समय का अनुमान !
....मैं मजदूर - तू किसान !
नवागंतुक वीर शिष्यों की
उपज का पर्व है
देश ख़ातिर जान हाज़िर
कर ख़ुदी को गर्व है
एक है उद्देश्य हम हैं
एक राह के निर्भय राही !
....मैं शिक्षक - तू सिपाही !
जड़ें गहरी हैं बहुत
सद्भावना के दुश्मनों की
जाल में फँस ढो रहे हैं बोझ
सारे उलझनों की
अब हमें ही है बचाना
एकजुट हो साथ करके वार !
....मैं कलम - तू तलवार !
कील हो तुम नाव की
मैं अश्वपद की नाल हूँ
दिन तुम्हीं वर्षान्त के,
मैं तरोताज़ा साल हूँ
एक दूजे के लिए हम कर चुके
सर्वस्व रस-कलश अर्पण !
....हम दोनों का एक समर्पण!