ठंडी राख
सपना चन्द्रानगर निगम के अहाते से सटे कई बड़े-बड़े सीमेंट के ड्रम पड़े थे . . . जो किसी न किसी का आशियाना थे।
सबका अपना मालिकाना हक़ था . . . जैसे चाहो वैसे रहो।
सुबह सब अपनी-अपनी खोली से बाहर आ जाते।
दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड थोड़ी अजीब होती है . . . सूरज निकले तो गर्म और अँधेरा होते ही गलन।
उसकी संगिनी पालतू कुतिया ने पिल्लों को जन्म दिया था . . .
संतो भी जुड़वा बच्चों की माँ थी . . . हाल ही में उनका जन्म हुआ था . . . आसपास कई कुत्तों के बच्चों ने भी आँखें खोली थीं . . .
पेट की भूख और चूल्हे की गर्मी किसी तरह साथ निभा रही थी।
इंसान और जानवर का फ़र्क़ ही नहीं था . . . सब आपस में सट कर सोते।
रात का पहर और चूल्हे की राख दोनों ठंडी हो रही थी . . . बच्चों की कुनकुनाहट से परेशान संतो जल्द से सुबह होने के इंतज़ार में थी।
गर्म कपड़े बाँटने वाले लोग आने वाले थे . . . आज सुबह हो जाए तो इनके लिए व्यवस्था हो जाएगी . . . सोचकर रात आँखों मे ही कटी।
सुबह हो गई थी पर बच्चों को देखा तो लगा अब गर्म कपड़ों की ज़रूरत ही नहीं रही . . .
ठंड ने अपने पैर पसार दिए थे।