ठंडी राख

01-01-2022

ठंडी राख

सपना चन्द्रा (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

नगर निगम के अहाते से सटे कई बड़े-बड़े सीमेंट के ड्रम पड़े थे . . . जो किसी न किसी का आशियाना थे। 

सबका अपना मालिकाना हक़ था . . . जैसे चाहो वैसे रहो। 

सुबह सब अपनी-अपनी खोली से बाहर आ जाते। 

दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड थोड़ी अजीब होती है . . . सूरज निकले तो गर्म और अँधेरा होते ही गलन।

उसकी संगिनी पालतू कुतिया ने पिल्लों को जन्म दिया था . . . 

संतो भी जुड़वा बच्चों की माँ थी . . . हाल ही में उनका जन्म हुआ था . . . आसपास कई कुत्तों के बच्चों ने भी आँखें खोली थीं . . . 

पेट की भूख और चूल्हे की गर्मी किसी तरह साथ निभा रही थी। 

इंसान और जानवर का फ़र्क़ ही नहीं था . . . सब आपस में सट कर सोते। 

रात का पहर और चूल्हे की राख दोनों ठंडी हो रही थी . . . बच्चों की कुनकुनाहट से परेशान संतो जल्द से सुबह होने के इंतज़ार में थी। 

गर्म कपड़े बाँटने वाले लोग आने वाले थे . . . आज सुबह हो जाए तो इनके लिए व्यवस्था हो जाएगी . . . सोचकर रात आँखों मे ही कटी। 

सुबह हो गई थी पर बच्चों को देखा तो लगा अब गर्म कपड़ों की ज़रूरत ही नहीं रही . . . 

ठंड ने अपने पैर पसार दिए थे। 

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