तालमेल 

01-10-2025

तालमेल 

सपना चन्द्रा (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

नयी-नवेली बहू दादी सास से आशीर्वाद लेने पाँव छुने के लिए झुकती है . . .

“अरे, अरे बहू! . . . इतना मत झुको। मेरा यह आशीर्वाद है कि तुम जीती रहो। तुम सही तो सब सही।”

नयी बहू बड़ी आश्चर्यचकित सी थी। दादी सास के बारे में सुना था कि वह बहुत कड़क मिज़ाज की है। पर यहाँ तो वैसा कुछ भी नहीं। उल्टा अपने साथ बिठाकर माथे पर हाथ फिराते हुए लाड़ कर रही थी। यह सब देख वहाँ मौजूद औरतों ने ठिठोली की . . .

“क्या अम्मा, ये आशीर्वाद नहीं देगीं। दूधो नहाओ-पूतो फलो! हम सबको तो यही कहती आईं हैं आप," यह कहकर सब हँसने लगी। 

“चुप करो तुम सब! क्या चाहती हो कि मैं अपनी पुराने राग अलापती रहूँ। मुझसे सब दूर भागते रहें। और तो और तुम सब मस्ती करो, मैं कोने में खाट पर पड़े-पड़े भुनभुनाती रहूँ . . .? चल बहू! . . . ज़रा-सा मैं भी लगा ही लूँ दो चार ठुमके। इनको भी तो पता चले इस बूढ़ी हड्डी में अभी दम बाक़ी है।”

यह सुनकर वहाँ खड़ी महिलाओं ने मुँह पर हाथ रख लिए। ये क्या हो गया है अम्मा को। कैसी काया-पलट हो गयी। 

“ना, ना अम्मा! . . . हमारा यह मतलब नहीं था। आप तो हमें ग़लत समझ रही हैं। आपका यह रूप पहली बार देख रही हूँ इसलिए।”

"अब देख लिया है तो समझ भी जाओ। अपनी आने वाली पीढ़ी से घुल-मिलकर उनके साथ चलो। ख़ुशियाँ बनी रहेगी।" 

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