लेखा-जोखा

सपना चन्द्रा (अंक: 218, दिसंबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

आज धरती से बहुत कम आत्माओं को लाया गया था। पाप और पुण्य के चक्कर में धर्मराज की सेना पस्त हो रही थी। 

भीड़ को सँभालना मुश्किल हो रहा था . . . सब पुण्य वाली कोठरी में जाने के लिए उतावले थे। 

आत्माओं ने तहलका मचा रखा था . . . इसलिए कुछ दिन नयी आत्मा को लाने का विचार स्थगित कर दिया था। 

“यमराज! आज जिनकी-जिनकी पेशी है उन सबको ले आओ। पहले पंडित और वकील को लाओ।”

कुछ आत्माएँ बड़ी गर्वीली मुस्कान लिए चली आ रहीं थीं तो कुछ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रहीं थीं। 

“पंडित! . . . कहो तुमने ऐसा क्या किया है जिससे यह साबित हो कि पुण्य की कोठरी तुम्हें मिले।”

“धर्मराज! . . . मैं तो ज़िन्दगी भर ईश्वर के चरणों में पड़ा रहा . . . जो भक्त देते उसी से गुज़ारा करता रहा।” 

“और तुमने जो उल्टी-सीधी सलाह देकर लोगों को भरमाने का काम किया उसका क्या . . .? 

“तुमने ईश्वर की आड़ में लोगों को लूटने का काम किया है।

”ईश्वर के नाम पर उगाही करते रहे . . . पाप की कोठरी खुली है जाओ।” 

“वकील! . . . तुमने ऐसा क्या किया जो पुण्य की कोठरी तुम्हें दी जाए . . .?” 

“प्रभु! . . . मैंने तो हमेशा न्याय ही करने के लिए दलील दी।”

“पर, मुजरिम पक्ष की ओर! . . . यह जानते हुए भी कि वह गुनाहगार है।”

“प्रभु! . . . जब तक आमने-सामने कठघरा रहेगा, तब तक दलील चलेगी।

“और मैंने हमेशा अपने पेशे में ईमानदारी बरती है।”

“किसी मुजरिम को बचाने के लिए एड़ी-चोटी करना ईमानदारी है . . .?” 
“प्रभु! . . . ये तो धरती का क़ानून है, अंत तक अपने आप को बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करना चाहिए।”

“यमराज! . . . खोल दो पुण्य के दरवाज़े, इसकी बात में दम है।” 

पंडित वकील की ओर देखकर बोला, ”ये कैसा फ़ैसला हुआ . . .?” 

“पंडित मैंने चोरी भी की तो ईमानदारी से . . . हऽऽ . . . हऽऽ . . . हऽऽ।” 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें