बैरंग चिट्ठी

15-06-2024

बैरंग चिट्ठी

सपना चन्द्रा (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

“सुगनी चाची!, जल्दी बाहर आओ तुम्हारे नाम बैरंग चिट्ठी आयी है,” बरामदे में सहेलियों संग खेलती हुई नयना ने आवाज़ देकर कहा। 

सुगनी चाची अकेली ही रहा करती। आस-पड़ोस के बच्चे ही उसका सहारा थे। पति शराब का आदी, कुछ तो न किया मगर सिर छुपाने को छत छोड़ गया था। 

बच्चों के खेलने-कूदने से मन लगा रहता, उनके साथ चुहलबाज़ी करते दिन कट जाते थे। 

सुगनी चाची को आते देख डाकिये ने कहा, “चाची पैसे लगेंगे इसके! बैरंग छुड़ाने पड़ते हैं।”

सुगनी चाची का कोई तो नहीं था, अकेली थी। पेपर के दोने बनाकर किसी तरह अपने पेट पाला करती, अब पैसे कहाँ से लाए . . .? 

चाची ने पूछा, “किसने भेजे हैं कोई नाम पता तो होगा। वापस भेज दो इसे, मैं कहाँ से लाऊँ पैसे . . .?” 

डाकिये ने उलट-पुलट कर देखा, “भेजने वाले का कहीं नाम न लिखा है चाची! छुड़ा ही लो अब।”

चाची परेशान सी बोली, “इ कौन मुआ मुझे याद कर लिया इतने वर्षों के बाद जब मेरे पाँव क़ब्र में लटक रहे। याद भी किया तो अब इसके दंड भरने पड़ेंगे मुझे। ज़रूरत ही क्या थी याद करने की।”

चाची उधेड़बुन में पड़ गई छुड़ाए या न छुड़ाए। एक मन हुआ छोड़ ही दें फिर सोचा आख़िर पता भी तो चले किसने भेजे हैं। मन चक्करघिन्नी की तरह दौड़ रहा था। 

“का मालूम उसके पास भी टिकट के पैसे न होगें तभी बैरंग लगा दिया है।”

डाकिया अधीर होकर बोला, “का कहती हो चाची, जल्दी करो। मुझे और भी बाँटने हैं।”

सुगनी चाची बोली, “अच्छा ठहर देख आऊँ घर में एक-बार कुछ पैसे हैं भी या नहीं।” हर डब्बे को टटोलती, बजाती निराशा ही हाथ लगे। अचानक से याद आया, पूजा वाले स्थान पर कुछ पैसे हैं। चाची ने पैसे उठाए और कान पकड़कर क्षमा माँगी, “माफ़ करना भगवान, तुम्हारे पास से उधार ले रहे हैं चुकता कर देंगे।” 

डाकिये को पैसे देकर बैरंग छुड़ाए। 

“नयना! इधर तो आ। ज़रा पढ़ तो इसमें का लिखा है और किसने भेजा है?”

नयना मुँह बनाती हुई बोली, “कुछ तो ना लिखा है, कोरा ही है दोनों तरफ़। बस इसमें एक तस्वीर है जिसमें चार बड़े दो बच्चे समेत छह लोग हैं।”

सुगनी चाची ने झट से तस्वीर ले ली और उस तस्वीर को देखते ही आँखें डबडबा गईं। सब ख़त्म हो गया उसने तो यही समझा था। पर निशानी अब तक किसी के पास पड़ी थी। जिसके पास थी उसे याद करके एक हँसी होंठ पर तैर आई। 

“एक तस्वीर भी बोझ थी तुमपर! घर जमाई क्या बने तुमने सबको भुला दिया। इसलिए पता-ठिकाना भी नहीं लिखा।

“वाह रे ख़ून के रिश्ते, जिसपर वर्षों पहले पानी फेर दिया। अब मैं इसमें क्यूँ जलूँ?” और जलते हुए चूल्हे में तस्वीर डाल दी। धूँ-धूँकर चेहरे ओझल होते रहे। दो बूँद आँसू गालों पर ढलक आए। 

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